#MeToo: हिंदी मीडिया के बैरकों में घुट रही कुछ कहानियां

हिंदी में काम कर रही कुछ महिला पत्रकारों की कहानियां और #MeToo पर उनका नजरिया.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

यह पोस्ट सामान्य से थोड़ा ज्यादा लंबी है, पर इसे थोड़ी हिम्मत जुटाकर पढ़ जाएं. इसलिए क्योंकि यह #MeToo की हलचल में भी अब तक गुमनाम पड़ी कुछ आवाजें हैं. इनमें से ज्यादातर वो आवाज़ें हैं जो छोटे शहरों, कस्बों और गांवों के धुर पितृसत्तात्मक माहौल से संघर्ष कर हिंदी न्यूज़रूम की देहरी तक पहुंची हैं. इनके अनुभव अब तक हमारे सामने आए #MeToo से कई मायनों में अलग है. #MeToo अभी भी एक क्लास और समर्थ वर्ग के बीच का मामला है. यहां जो लड़कियां अपनी बात कह रही हैं वो अभी भी वल्नरेबल हैं. इनमें से कुछ के व्यक्तिगत अनुभव हैं, कुछ ने अपने कामकाजी माहौल में मौजूद घुटन का खाका खींचा है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

अब तक मुख्यतः अंग्रेजी मीडिया से जुड़ी कुछ महिलाओं ने ही सामने आकर यौन दुर्व्यवहार की घटनाओं का जिक्र किया है. भाषाई और क्षेत्रीय मीडिया में कार्यरत महिलाओं के लिए यह अब भी आसान नहीं है कि वो सामने आकर अपने न्यूज़रूम में होने वाले यौन दुर्व्यवहार पर बात कर सकें. मीडिया से जुड़े कई लोगों का मानना है कि भाषाई और क्षेत्रीय मीडिया के न्यूज़रूम में यौन उत्पीड़न की घटनाएं अंग्रेजी मीडिया की तुलना में कहीं ज्यादा होती हैं, लेकिन वहां अब भी इस मुद्दे पर चुप्पी ही ज्यादा पसरी हुई है.

बीते साल लगभग इन्हीं दिनों अमरीका में ‘मी टू’ कैंपेन की शुरुआत अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने ट्विटर पर #MeToo शुरू करने का सुझाव रखा था. उन्होंने एक ट्वीट करते हुए लिखा था “यौन उत्पीड़न की शिकार हुई महिलाएं अगर अपने स्टेटस में ‘मी टू’ लिखें तो शायद हम लोगों को अहसास दिला पाएं कि ये समस्या कितनी बड़ी है.”

इस एक ट्वीट का इतना प्रभाव हुआ कि ट्विटर पर हजारों महिलाएं अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार पर चुप्पी तोड़ने लगी. यह कैंपेन अमेरिका तक ही सीमित नहीं रहा. #MeToo के साथ दुनिया भर की लाखों महिलाओं ने अपनी आपबीती सोशल मीडिया पर जाहिर करनी शुरू की. इसके साथ ही कार्यस्थलों पर होने वाले यौन दुर्व्यवहार पर एक व्यापक बहस की शुरुआत हुई. अब ‘मी टू’ कैंपेन भारत में भी ज़ोर पकड़ने लगा है.

कुछ दिनों पहले बॉलीवुड अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने अभिनेता नाना पाटेकर पर आरोप लगाया कि एक फिल्म शूटिंग के दौरान नाना ने उनके साथ छेड़छाड़ की थी. तनुश्री के इन आरोपों पर बॉलीवुड से बहुत मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई. लेकिन तनुश्री की आपबीती ने कई महिलाओं को यह हिम्मत जरूर दे दी कि वे भी अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार पर खुल कर बोल सकें. यहीं से यह सिलसिला शुरू हुआ और बॉलीवुड होते हुए यह भारतीय समाचार मीडिया में दस्तक देने लगा. हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा को इसी तरह के कुछ आरोपों के बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा है.

पत्रकारिता से जुड़ी कई महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार के बारे में सोशल मीडिया पर खुलकर लिखना शुरू कर दिया है. इनमें से अधिकतर महिलाओं ने बिना अपनी पहचान छिपाए अपनी आपबीती बताई है. लोग इसे भारतीय मीडिया के ‘मी टू मूवमेंट’ के तौर पर भी देख रहे हैं. लेकिन क्या इसे सच में ‘भारतीय मीडिया’ का ‘मी टू मूवमेंट’ कहा जा सकता है?

हालांकि इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक भाषाई मीडिया से जुड़ी कई महिलाएं भी इस मुद्दे पर लिखने लगी हैं. लेकिन अंग्रेजी मीडिया की तुलना में इनकी संख्या अब भी बेहद सीमित है. हिंदी न्यूज़रूम में यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं कितनी आम हैं और क्यों इस बारे में अब भी महिलाएं सामने आने से कतरा रही हैं? हिंदी मीडिया से जुड़ी महिलाओं के लिए अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार पर खुलकर बात करना कितना मुश्किल है? इन सभी सवालों के जवाब हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी कई महिलाओं ने अपने व्यक्तिगत अनुभव न्यूज़लॉन्ड्री से साझा किए हैं:

वर्तिका मिश्रा (राजकमल प्रकाशन):

आईआईएमसी से पढ़कर निकले एक बड़े पत्रकार जिन्होंने अपनी वेबसाइट शुरू की है, उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी वेबसाइट के लिए महिलाओं का अलग से कॉलम शुरू करने और उसका कोई नाम सुझाने की बात कहकर खूब वाहवाही बटोरी थी. उसी समय मैंने उन्हें उनके एक दोस्त और मीडियाकर्मी के द्वारा किए गए सेक्सुअल अब्यूज़ के बारे में बताया था. मैं उन्हें दोस्त समझती थी और इसीलिए उनसे शेयर किया था, मगर उनका जवाब था, “मैं मानता हूं कि कोई भी लड़की अगर किसी लड़के के कमरे तक जाती है तो अपना ‘सबकुछ’ ताखा (अलमारी) में रख कर जाती है.” इस तरह के लोग जब तक महिलाओं के चरित्र का ट्रायल करने के लिए बैठे हैं, तब तक हिन्दी मीडिया में महिलाओं के लिए एक ‘सेफ स्पेस’ तैयार हो पायेगा इस पर मुझे शक है.

दरअसल हिन्दी मीडिया एक छोटे-मोटे घेटो की तरह काम कर रहा है. मेरे पास ‘हिन्द किसान’ में काम कर रहे पत्रकार दिलीप खान का उदाहरण है. वे स्थापित पत्रकार हैं और ओम थानवी से लेकर अमृता सिंह जैसे लोग उनके काम के मुरीद हैं. मगर मैं पिछले दस महीने में उनके खिलाफ लगभग पांच सेक्सुअल अब्यूज़ के मामले सुन चुकी हूं. बल्कि उन लड़कियों ने खुलकर सोशल मीडिया पर सबकुछ लिख दिया है. असर के नाम पर बस इतना हुआ कि दिलीप 10 दिन तक सोशल मीडिया से नदारद थे. उसके बाद वे वापस लौटे और पहले की तरह ही सब चीजें चलती रहीं. जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं. यह कितना बुरा है?

सबने ये ख़बरें देखीं और पढ़ी थीं. तमाम वरिष्ठ पत्रकार इस मामले के बारे में जानते थे मगर न दिलीप पर सोशली कोई दबाव बनाया गया, न उनके करियर पर इसका कोई असर पड़ा. उलटे उन लड़कियों का ही चरित्र हनन शुरू हुआ. जबकि होना ये चाहिए था कि इन तथाकथित नारीवादी वरिष्ठ पत्रकारों को दिलीप को बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए था और महिलाओं को कुछ सुरक्षित महसूस करवाना चाहिए था.

जब कोई कार्रवाई ही नहीं होगी तो किसी लड़की को सामने आकर बोलने का साहस कहां से मिलेगा और वह बेवजह के सोशल मीडिया ट्रायल से अपने को क्यों गुज़ारेगी. संस्थानों में ह्युमन रिसोर्स डिपार्टमेंट भी इन मुद्दों को लेकर बहुत सकारात्मक रवैया नहीं रखते हैं. वे भी समाज की ही तरह अपने स्तर पर तय करना चाहते हैं कि सेक्सुअल अब्यूज़ का दायरा क्या है, क्या नहीं?

(पत्रकार दिलीप खान पर लग रहे आरोपों के संबंध में न्यूज़लॉन्ड्री ने उनका पक्ष भी लिया. दिलीप ने खुद पर लग रहे हर आरोप का खंडन किया है. उन्होंने इन आरोपों पर एक सार्वजनिक पोस्ट भी लिखा है जिसे यहां पढ़ा जा सकता है).

पूजा सिंह, (शुक्रवार पत्रिका):

मैं उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित एक प्रमुख राष्ट्रीय अख़बार में काम किया करती थी. हम जिस परिशिष्ट पर काम करते थे, उसमें कुल तीन लोग थे. मैं, मेरे संपादक और एक अन्य सहकर्मी. मैं और वह सहकर्मी सुबह 12 बजे ऑफिस पहुंचते थे लेकिन लौटने का समय तय नहीं था. जिस दिन एडीशन जाता था उस दिन तो मैं सुबह घर पहुंचती थी. मुझे संपादक का भरोसा हासिल था और लगभग सारा काम मेरे जिम्मे था. वह देर शाम ऑफिस आते थे.

ज्यादातर वक्त मैं और वह सहकर्मी साथ में चाय नाश्ता करने भी जाते. एक दिन उसने मुझे प्रपोज करने की कोशिश की. ‘मैं आपको बहुत पसंद करता हूं. मैंने आप जैसी लड़की नहीं देखी. आप बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी लड़की मैं चाहता था.’ मैंने उसे इस हरकत पर कस कर झाड़ा और हमारी बातचीत बंद हो गयी.

मेरे ऑफिस से मेट्रो स्टेशन करीब 100 मीटर दूर था. वह रात में लौटते वक्त ऑफिस से मेट्रो तक मेरा पीछा करने लगा. उसने काम के दौरान हर तरह का सहयोग बंद कर दिया था और जितनी देर मैं ऑफिस में रहती वह लगातार मुझे घूरता रहता. कुल मिलाकर परिस्थितियां बहुत असहज हो गयी. इस बीच मेरे कुछ मित्रों ने मुझे बताया कि वह ऑफिस में यहां वहां लोगों के पास जाकर मेरे चरित्र के बारे में टिप्पणियां करता है.

मैंने इन बातों की शिकायत संपादक से की. उन्होंने कोई भी कदम उठाने में असमर्थता जताई और मुझसे कहा कि अगर आप बात ऊपर ले जाना चाहती हैं तो ले जा सकती हैं लेकिन कुछ नहीं होगा. आपसे पहले जो लड़की टीम में थी उसके साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था. उन्होंने कहा कि उसके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है और उन्हें लगता नहीं कि कुछ हो पायेगा.

उस वक्त मेरी उम्र भी बहुत ज्यादा नहीं थी और न ही मीडिया का बहुत अधिक अनुभव था. लिहाजा मैंने अपना स्थानांतरण संपादकीय टीम के ही एक अन्य हिस्से में करा लिया और जल्द ही वह नौकरी छोड़ दी.

वैसे यह हादसा तो उन हादसों के सामने कुछ नहीं था जिन्हें लड़कियां बचपन से झेलती आ रही हैं. मुझे स्कूल के दिनों का वह वाकया आज भी याद है जब हम तीन सहेलियां एक सुनसान सड़क पर से गुजरते थे और एक आदमी रोज उसी वक्त सड़क पर खड़ा हमें देखकर हस्तमैथुन करता था. हम लड़कियां हांफती कांपती रोज वह हिस्सा दौड़कर पार करतीं लेकिन कभी किसी को बताने की हिम्मत नहीं जुटा पायीं.

निश्चित तौर पर हिंदी न्यूजरूम में भी यौन दुर्व्यवहार होता आया है. लेकिन इसे लेकर चुप्पी बरतने की कई वजहें हैं. पहला, सोशल कंडीशनिंग. ज्यादातर लड़कियों के साथ यौन दुव्यर्वहार का अतीत जुड़ा रहता है. इसलिए न्यूज़रूम में होने वाला दुर्व्यवहार उन्हें बहुत आक्रोशित नहीं करता. उनके भीतर कहीं न कहीं यह भावना रहती है ‘यह तो मैं जाने कब से झेल रही हूं. एक बार और सही.’ उनके भीतर विरोध करने का मैकेनिज्म खत्म हो चुका होता है.

इति शरन:

पटना के ‘नई दुनिया’ अख़बार (साप्ताहिक अखबार) में ग्रैजुएशन के दौरान मैंने अपनी पहली इंटर्नशिप की थी. वहां सिर्फ एक ही महिला स्टाफ थीं, जो अकसर रिपोर्टिंग के लिए फील्ड में होती थीं. मुझे भी शुरुआत में अक्सर रिपोर्टिंग के लिए फील्ड में भेजा जाता था लेकिन मेरे बॉस अचानक से मेडिकल लीव पर चले गए. जिम्मेदारी ब्यूरो चीफ के दे दी गई. ब्यूरो चीफ मुझे अपने केबिन में बुलाकर बैठाने लगे.

मेरी उम्र भी उस समय कम थी. मुझे शाबाशी देने के बहाने मुझे करीब बुलाते और मेरी पीठ थपथपाने के बहाने मेरे शरीर को गलत तरीके से छूते. मैं उस वक्त नासमझ थी, मैं यह समझ नहीं पा रही थी कि मेरी बाप की उम्र का ये आदमी मेरे साथ गलत कर रहा है. मैं बार-बार खुद को यह विश्वास दिलाती थी कि उससे ये गलती से हुआ होगा.

मेरा संडे का हमेशा ऑफ होता था लेकिन एक संडे उसने मुझे ऑफिस बुलाया. मैं इस बात से अनजान थी कि साप्ताहिक अखबार होने की वजह से संडे को ऑफिस क्लोज़ होता है. ऑफिस पहुंचने पर मैंने देखा कि उस आदमी के अलावा ऑफिस में कोई नहीं था. मुझे कुछ शक हुआ लेकिन फिर एक बार को लगा कि शायद कुछ देर बाद लोग आए लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

उस दिन भी उसने मुझे अपने केबिन में बैठाया और फिर मेरे साथ बदतमीजी करने की कोशिश की. वो मेरे काफी करीब आ गया था, मैंने झट से उसे दूर कर दिया और वहां से भाग निकली.

मैं इस कदर डर गई थी कि मैंने यह बात किसी को नहीं बताई और ऑफिस जाना बंद कर दिया. मां के बहुत पूछने पर मैंने उन्हें बस इतना कहा कि वो आदमी ठीक नहीं है. मां ने फिर पापा को यह बात बताई. लेकिन उस वक्त चुप रहने का मुझे बाद में बहुत अफसोस हुआ जिसका मलाल मुझे आज भी है.

प्रदीपिका सारस्वत (स्वतंत्र पत्रकार):

अपने अनुभव के बारे में कहूं तो सौभाग्य से मैंने रोज़ दफ्तर जाने वाली नौकरी सिर्फ कुछ ही समय तक ही की है. द क्विंट के न्यूज़ रूम में बिताए उस समय के बारे में मैं कहूंगी कि शायद बहुत से मीडिया हाउस उनसे सीख सकते हैं. वहां यूं तो बहुत हाइरार्की नहीं है, लेकिन जो भी है, उसके शीर्ष पर महिलाएं भी हैं. मुझे याद है द क्विंट के साथ मेरे आखिरी दिनों में एक ऑफिस पार्टी में एक एडिटर ने एक सहकर्मी के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की थी. लेकिन घटना का संज्ञान मिलते ही उस एडिटर के खिलाफ कार्रवाई करते हुए संस्थान ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहां याद रहे कि द क्विंट उस समय बाइलिंग्वल न्यूज़ रूम था और हिंदी के लिए मैं वहां अकेली महिला पत्रकार थी.
हमारे पास इस बात पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं है कि हिंदी न्यूज़ रूम में यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं नहीं होतीं. दुर्भाग्य से ये घटनाएं पश्चिम से लेकर पूर्व तक और हमारे घरों से लेकर दफ्तरों तक, हर जगह होती रही हैं. आप देखना चाहें तो इन घटनाओं की पुरानी रपटें और यहां तक कि रिसर्च पेपर भी जो बताते हैं कि हिंदी अखबारों और बाकी न्यूज रूम्स में ऊपरी हाइरार्की पुरुष प्रधान है और ऐसे में यौन शोषण और दुर्व्यवहार जैसे मुद्दे आसानी से सामने नहीं आते.

हाल के दिनों में अंग्रेज़ी मीडिया की महिलाओं ने अपने खिलाफ हुए यौन दुर्व्यवहार पर चुप्पी तोड़ी है. ये सवाल जायज़ है कि हिंदी न्यूज़रूम में काम करने वाली लड़कियां अब तक ऐसा क्यों नहीं कर पाई हैं. अपनी बात को मजबूत कर पाने के लिए मेरे पास आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन मुझे लगता है दो-तीन कारण इस चुप्पी के लिए ज़िम्मेदार हैं.

एक, जिसका ज़िक्र शुरू में ही हुआ कि हिंदी न्यूज़रूम अंग्रेज़ी न्यूज़रूम के बनिस्बत ज़्यादा पुरुष प्रधान हैं. खासकर ऊंचे पदों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है. दूसरे, जो लड़कियां हिंदी न्यूज़रूम में हैं भी उन्हें पुरुषों के बराबर न तो तवज्जो मिलती है और ना ही तनख्वाह. कई बार यौन दुर्व्यवहार का सामना करने के बावजूद भी हमारे सामने ये सवाल हो सकता है कि कहीं इस बारे में खुलकर बोलने का असर हमारी नौकरी पर तो नहीं पड़ेगा?

तीसरा, हिंदी मीडिया में अंग्रेज़ी की तुलना में मौलिक काम कम ही होता है. ऐसे में चाहे पुरुष हो या महिला पत्रकार, उनके पास अपने सीवी में दिखाने के लिए सिवाय मीडिया हाउस के नाम के ज़्यादा कुछ नहीं होता. ऐसे में जब ज़्यादातर हिंदी न्यूज़रूम्स में प्रोफेशनलिज़्म का स्तर बहुत सम्मानजनक नहीं है, जब नौकरियां आपके काम और योग्यता के आधार पर नहीं मिल रही हैं, तो ये सोचा जा सकता है कि इस तरह के न्यूज़रूम में काम करने वाली महिला की असुरक्षाएं किस तरह की हो सकती हैं.

कुमारी स्नेहा:

बात तबकि है जब मैं आईआईएमसी से पास होकर पहली नौकरी छोड़ चुकी थी क्योंकि वहां सैलरी की दिक्कत थी. उसके बाद आया बेरोजगारी का दौर. वह भी खूब ही गुजरा. दिल्ली में हरिभूमि का ऑफिस है वहां मुझे नौकरी मिल गई. एक ऐसी नौकरी जिसमें न कोई ऑफर लेटर दिया गया और न ही कोई अन्य कागजात. नौकरी के पहले ही दिन सुनने को मिला कि ‘जी हम तो यहां लड़कियों को मनोरंजन के लिए रखते हैं.’ आईआईएमसी की एक लड़की यहां पहले से काम करती थी. उसके साथ यहां जैसा व्यवहार होता था वह उत्पीड़न और छेड़छाड़ के दायरे में आता है. बाल खींचते रहना, शरीर पर पानी डाल देना, हाथों पर नाखून गड़ा देना आदि. यह सब देखना बहुत ही अजीब था और जहां तक मुझे पता है कि वह लड़की सिर्फ अपनी नौकरी की वजह से चुप थी. मैं सामने वाले व्यक्ति या लड़की का नाम इसलिए नहीं लिख रही हूं क्योंकि उस लड़की से मेरी बातचीत नहीं हुई है कि वह इस पूरी घटना को बताने में सहज है या नहीं. इसके अलावा गंदी गैलरियों के नाम पर भद्दे कमेंट करना रोजाना की बात थी. लेकिन हममें से किसी ने एचआर से या कहीं और इसकी शिकायत नहीं की क्योंकि सब डरे हुए थे. आज बहुत अजीब लगता है कि क्यों डरे हुए थे? मुझे अपना करियर तब समझ नहीं आ रहा था.

मीडिया में मैं अपने दोस्तों के अलावा ज्यादा लोगों से मिलती-जुलती नहीं हूं क्योंकि आए दिन ऐसी चीजें सुनने को मिलती है. तब मैं नई थी तो कह सकते हैं कि मुझे इन बदतमीजियों का जवाब देना नहीं आता था. लेकिन अब मैं काफी मजबूत हो चुकी हूं. मुझे पता है कि सामने वाला व्यक्ति कहां रेखाएं पार कर रहा है और कहां मुझे पुलिस के पास चले जाना है. मैंने पूरे डेढ़ महीने एक ऐसे माहौल में काम किया जहां मैं हर समय अलर्ट रहती थी. दूसरी नौकरी मिलते ही मैंने दूसरे दिन से ऑफिस जाना बंद कर दिया था और काफी जद्दोजहद के बावजूद भी मुझे 17 दिन की सैलरी नहीं मिली और उस लड़की ने भी हरिभूमि छोड़ दिया.

हरिभूमि पर लग रहे इन आरोपों पर न्यूज़लॉन्ड्री ने उनके संपादक आनंद राणा से बात की. उनका कहना था, “न्यूज़लॉन्ड्री की स्टोरी के बाद यह बात मेरी जानकारी में आई है. मैंने अपने स्तर पर इसकी पड़ताल करने की कोशिश की. मुझे मालूम चला कि कुछ साल पहले यह लड़की वेब टीम में कुछ महीनों के लिए आई थी. मैं प्रिंट देखता हूं और वेब से मेरा कोई सीधा लेना-देना नहीं होता. लेकिन मैंने वेब टीम के लोगों को बुलाकर भी इस बारे में बात की, लेकिन किसी को ऐसी किसी घटना की जानकारी नहीं है. घटना के वक्त राहुल पांडेय वेब टीम के हेड थे, आप चाहें तो उनसे बात कर सकते हैं.”

यह पूछने पर कि क्या हरिभूमि में ‘इंटरनल कंप्लेंट कमेटी’ मौजूद है, जहां ऐसी घटना की शिकायत महिलाएं कर सकें? आनंद राणा का जवाब था, “ऐसी समिति की मुझे जानकारी नहीं है. शायद एडिटर इन चीफ के स्तर पर हो.”

इस घटना के दौरान हरिभूमि के डिजिटल चीफ रहे राहुल पांडेय ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हमारी टीम जहां बैठती थी वह एक खुली जगह थी. अगर वहां किसी लड़की के साथ उसके बाल खींचने, उस पर पानी डाल देने या उसे नाखून गड़ा देने की कोई हरकत होती तो बाकी लोग भी इसे देखते. लेकिन ऐसी कोई भी घटना कभी भी मेरे संज्ञान में नहीं आई.”

राहुल आगे कहते हैं, “जहां तक इस आरोप की बात है कि उस लड़की को 17 दिन की सैलरी नहीं मिली थी तो उसका कारण यह है कि उन्होंने बिना कोई नोटिस सर्व किए अचानक से नौकरी से अनुपस्थित हो गई.”

राहुल पांडेय को भी पता नहीं कि उनके रहते महिलाओं को शिकायत के लिए हरिभूमि में ‘इंटरनल कंप्लेंट कमिटी’ थी या नहीं.

सर्वप्रिया सांगवान (बीबीसी हिंदी):

जिस तरह से अंग्रेजी मीडिया की पत्रकार महिलाएं अपनी ‘मी टू’ कहानियां सामने लेकर आ रही हैं, उस संख्या में हिंदी की पत्रकार सामने नहीं आ रहीं. इसके कई कारण हो सकते हैं.

एक तो आपको ये समझना पड़ेगा कि हिंदी और अंग्रेज़ी मीडिया के पत्रकारों की पृष्ठभूमि काफ़ी अलग होती है. यूं तो किसी तबके या समाज में महिला को राहत नहीं है लेकिन हिंदी पट्टी की पत्रकारों को अपने बचपन से ही काफ़ी रूढ़िवादी माहौल मिला है जहां इज़्ज़त के नाम पर दूसरी जातियों में शादी नहीं हो सकती, जहां प्रेम-विवाह की स्वीकृति तक नहीं, जहां बड़े-बड़े राजनीतिक परिवारों तक में ऑनर किलिंग हो जाती है. डर तो हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों के पत्रकारों में है कि कहीं ये उनके करियर के लिए घातक साबित ना हो, लेकिन हिंदी पट्टी की पत्रकारों में डर के साथ-साथ अपनी छवि और इज़्जत का बोझ भी है.

आर्थिक स्थिति भी दोनों मीडिया की पत्रकारों की अलग है. उनकी अपनी आर्थिक स्थिति भी और परिवार की स्थिति भी. आर्थिक स्थिति अच्छी होने से आप में लड़ने की हिम्मत ज़्यादा होती है. इन हिंदी की लड़कियों के परिवार शायद खुद ही उन्हें ‘मीटू’ कैंपेन का हिस्सा बनने से रोक दें. जिन परिवारों में लड़की को उसके साथ हुई यौन हिंसा या शोषण को लेकर कहा जाता हो कि किसी को ये बात मत बताना तो क्या बिना परिवार के सहयोग के ऐसी लड़कियां बोल पाएंगी?

जब तक किसी लड़की को अपने माता-पिता का सहयोग नहीं मिलेगा और जब तक इन विषयों पर बात करना उनके लिए वर्जित है तब तक कैसे वो अपने साथ हुए अपराध पर बात कर पाएंगी?

सपना (बदला हुआ नाम):

मैं चार साल से ज़्यादा वक़्त से मेनस्ट्रीम हिंदी मीडिया में काम कर रही हूं और यह मेरी तीसरी नौकरी है. इन दिनों न्यूज़रूम्स से जिस तरह की कहानियां सामने आ रही हैं, उन्हें पढ़-सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैं बेहद ख़ुशकिस्मत हूं क्योंकि मुझे आज तक दफ्तर में किसी तरह के यौन उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ा.
मीडिया में काम करने वाली जिन लड़कियों ने अब तक मीटू वाले अनुभव साझा किए हैं, उनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी मीडिया का हिस्सा हैं. हिंदी मीडिया से ऐसे अनुभव क्यों नहीं आ रहे हैं? हिंदी मीडिया में यौन उत्पीड़न नहीं होता, ऐसा कहना मूर्खतापूर्ण और सच को नकारने जैसा होगा. ऐसे में हिंदी मीडिया से ‘मी टू’ की कहानियां न आने की वजहें कुछ ऐसी हो सकती हैं:

1- हिंदी न्यूज़रूम्स आज भी अंग्रेजी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा पितृसत्तात्मक और पुरुषों के दबदबे वाले हैं. ऐसे में वहां औरतों को बोलना और मुश्किल हो जाता है.

2- हिंदी मीडिया में महिलाओं की संख्या वैसे भी कम है. इसलिए उन्हें सपोर्ट मिलने की गुंजाइश भी कम हो जाती है. जहां औरतें अल्पसंख्यक हों, वहां उनकी आवाज़ दबाना आसान होता है.

3- हिंदी मीडिया में आने वाली लड़कियां आम तौर से उतने मज़बूत आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं आतीं. उनके लिए बोलकर अपना करियर दांव पर रखना आसान नहीं होता.

4- हिंदी मीडिया में काम करने वाली लड़कियां वो लड़कियां हैं जो यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से अपने सपने पूरा करने आती हैं. उनके लिए उनकी नौकरी सबकुछ होती है. उन लड़कियों को परिवार से सपोर्ट मिलने की भी उम्मीद न के बराबर होती है. पहले तो पत्रकारिता को करियर चुनने के लिए ही उन्हें कई लड़ाइयां लड़नी पड़ती हैं. उस पर भी अगर वो खुलकर अपने यौन उत्पीड़न का अनुभव शेयर करेंगी तो घर वालों से भी शायद यही सुनने को मिले- ‘हमने तो पहले ही कहा था बीएड करके टीचर बन जाओ.’

5- साइकोलॉजिक सपोर्ट सिस्टम, सेक्शुअल हैरेसमेंट कमेटी का सही तरीके से काम न करना या बिल्कुल ही काम न करना. ऑफ़िसों में इस बारे में बताया ही नहीं जाता कि ऐसा कुछ होने पर किसकी मदद ली जाए.

शीतल बोहरा:

हिंदी मीडिया उस भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करता है जहां शोषण के अधिकांश मामलों में घर-परिवार के लोग ही दोषी होते हैं. ऐसे में यह अकल्पनीय है कि हिंदी मीडिया में यौन शोषण की कोई घटना नहीं होती हो. हिंदी मीडिया से इस प्रकार की घटनाएं सामने न आने का एक बड़ा कारण है कि अधिकतर मामलों में पीड़िता ऐसे परिवार से आती है जहां अकेले रहकर मीडिया में नौकरी करने की अनुमति मिलना ही मुश्किल होता है. ऐसे में अगर शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत कर भी लें तो इसका सबसे ज्यादा विरोध उन्हें अपने घरवालों से ही झेलना होगा.

नौकरी छूट जाने, घरवालों के रिएक्शन और बदनामी के डर से खामोशी बेहतर विकल्प लगता है. निजी अनुभव से मैं यह भी कह सकती हूं कि अंग्रेजी मीडिया की तुलना में हिंदी मीडिया में यौन शोषण की घटनाएं कम होती हैं. क्योंकि यहां बदनामी का डर संभावित शोषकों को भी रहता है. मैंने अपने आसपास यौन शोषण का कोई मामला नहीं देखा लेकिन हिंदी या रीजनल मीडिया की जितनी भी महिला पत्रकारों से मैं मिली, वे महिला विरोधी मानसिकता वाले लोगों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव और प्रताड़ना से पीड़ित रहीं हैं. मेरे इस्तीफे के समय आयी एक प्रतिक्रिया यह भी थी कि “आपका फैसला बहुत सही है. वैसे भी औरतें घर संभालती ही अच्छी लगती हैं. नौकरी उनके बस की बात है ही नहीं. मैं तो औरतों के नौकरी करने के खिलाफ हूं.” ये एक पढे लिखे संपादक के शब्द थे. उसने अपनी महिला सहकर्मियों के साथ कैसा व्यवहार किया होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है.

जया निगम:

हिन्दी न्यूज़ रूम से जितना मेरा परिचय हुआ उसे मैंने बहुत सामंती पाया. जहां औरतों का कमज़ोर होना एक अनिवार्य शर्त है नौकरी पाने और टिके रहने के लिए. अंग्रेजी वालों के मुकाबले हिन्दी के संपादक लड़कियों को काम पर रखते वक़्त ज्याद सतर्कता बरतते हैं और जो लड़कियां उनके खिलाफ लिख बोल सकती हैं, वो सामान्यतः न्यूज़रूम में नहीं पहुंचती या टिकतीं. क्योंकि वहां जिस तरह का चापलूसी भरा और ‘हांजी-हांजी’ वाला रिवाज़ होता है उसमे आगे बढ़ने के लिए ‘लंबे सहारों’ के बगैर बढ़ना काफी मुश्किल होता है. इसलिए ऐसी लड़कियां या औरतें जो न्यूज़रूम में मौजूद हों वो अपने सीनियर के खिलाफ बोल लें ये खासा मुश्किल है. हिन्दी में ये किसी संस्थान विशेष का मसला ना होकर लगभग पूरी इंडस्ट्री का मामला है. सवर्ण पुरुषों के जातीय अहंकार और सांप्रदायिक चरित्रों से बने न्यूजरूम में सामंती मर्दाना चरित्र से ऊपर उठने कि उम्मीद अक्सर प्रगतिशील पत्रकारों से महिलाएं करती हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनकी ट्रेनिंग भी इस मसले पर सांगठनिक और पारिवारिक स्तर पर वैसी ही होती है और वे बिना खास दिलचस्पी के किसी महिला सहकर्मी के विचारों और जीवन के प्रति चॉइस की कद्र नहीं कर पाते.

रीवा सिंह:

मैं ख़ुद भुक्तभोगी रही हूं और यह सब मेरे साथ उम्र के उस पड़ाव पर हुआ जब मैं बड़े पत्रकारों के काम से उनकी बहुत इज्ज़त करती थी. उस मासूम उम्र में मुझे वक़्त ने समझाया कि काम और व्यक्तिगत ज़िंदगी अलग-अलग बातें हैं. नाम इसलिए सार्वजनिक नहीं कर रही क्योंकि जिस किया था उसने सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांग ली है.
हिंदी न्यूज़रूम्स में यह चुप्पी इसलिए भी है क्योंकि जबतक आग अपने घर में न लगी हो सब चुपचाप निकल लेने की ही सोचते हैं. हिंदी न्यूज़रूम में अब भी वह खुला माहौल नहीं दिखता जहां लड़कियां समभाव की परिकल्पना करें.

हिंदी न्यूज़रूम्स में यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं बहुत धड़ल्ले से, बड़ी सहजता से होती हैं. यहां स्टीरियोटाइप्स ज़्यादा हैं. यहां मानसिक संकीर्णता आसानी से, सहजता से फलती-फूलती है.

हिंदी न्यूज़रूम्स में इन घटनाओं को लेकर अब भी चुप्पी है और इसके संभावित कारण वही हैं जिन्हें लेकर आजतक अंग्रेज़ी माध्यम की लड़कियां भी चुप रहीं. जॉब-थ्रेट, करियर का ख़ौफ़ और फिर परिणाम की न के बराबर उम्मीद. दफ़्तरों की बात करें तो ऐसी किसी घटना पर बात पहले टीम में पहुंचती है फिर एचआर के पास जाती है. उस घटना को गॉसिप का विषय पहले बना लिया जाता है, उसपर मंथन बाद में होता है. एचआर भी अमूमन अपने स्तर पर बात संभालने की कोशिश करते हैं और एक्शन लेने से बचते हैं. महिला एचआर भी ऐसा ही करती हैं. ऐसा इसलिए होता है ताकि कम्पनी की छवि सुरक्षित रहे.

दूसरी बात यह कि लड़कियां गॉसिप का विषय बनने से बचना चाहती हैं. चरित्र हनन से बचना चाहती हैं. फिर यह साइकल उनका दूसरे संस्थानों में भी पीछा नहीं छोड़ती.

प्रज्ञा श्रीवास्तव:

मेरा पहला जॉब था आईबीएन 7 में. हम पांच नए लोगों ने जॉइन किया था. सबकी ट्रेनिंग अलग-अलग डिपार्टमेंट्स में होती थी. लेकिन हममें से हर कोई रिपोर्टिंग को आज़माना चाहता था तो हम सभी उसको लेकर बहुत उत्साहित थे. तब वहां असाइनमेंट पर एक सीनियर थे. वो हमसे कहते थे- “हम तुम लोगों की पीटीसी देखते रहते हैं. हम बॉस को तुम्हारा रिव्यु देंगे.” हमें लगा शायद इन्हें ही यह जिम्मेदारी दी गई है. तो हम सब उनसे जाकर पूछते थे कि ‘हमारी पीटीसी कैसी रही और आप कब रिव्यु देंगे?’ एक दिन मेरे यही पूछने पर उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं तुम्हें रिव्यु दूंगा लेकिन एक ‘की****ज़’ के बाद.’ मुझे समझ नहीं आया. उन्होंने दोबारा कहा, ‘एक ‘की****ज़’ के बाद, एक ‘की****ज़.’ ये बात उन्होंने चार-पांच बार बोला. वो बहुत पॉज देकर बोल रहे थे, संधि विच्छेद करके. चार बार जब उन्होंने यही दोहराया तो मुझे क्लिक किया कि ये कह रहे हैं, ‘एक किस के बाद.’ उसके बाद मैं वहां से चली गई और मैंने दोबारा उनसे कभी इस मसले पर बात नहीं की. ये मेरा पहला साबका था ऑफिस में हरासमेंट से.

न्यूज़ रूम में यौन दुर्व्यवहार बहुत सामान्य है अक्सर महिलाएं ही इस सामान्यीकरण का हिस्सा होती हैं. इसी चैनल में नौकरी के दौरान एक महिला एंकर चैनल में आई थी. वो एक दिन अपने प्रीवियस बॉस के बारे में बड़े चटखारे लेते हुए बता रही थी कि कैसे वो लड़कियों से दुर्व्यवहार किया करते थे. वो सीनियर थी. लेकिन जो गुस्सा उनमें ऐसी घटनाओं को लेकर होना चाहिए था, वो कहीं नहीं था. वो ये बातें ऐसे बता रही थी जैसे अक्सर पुरुष ऐसी घटनाओं पर चटखारे लेते हुए करते हैं. मुझे बहुत अजीब लगा और मैंने उनको टोका भी. इसके बाद उनसे मेरे संबंध हमेशा खराब ही रहे.

न्यूज़रूम में कई महिलाएं यह मान कर चलती हैं कि बड़े पद पर बैठा व्यक्ति तो जूनियर और इंटर्न के साथ ‘मटरगश्ती’ करता ही है. अब भी बड़े और सीनियर पदों पर महिलाएं बहुत ही कम हैं. इसलिए महिलाओं को वहां सकारात्मक माहौल कभी मिल ही नहीं पाटा. टीवी का माहौल तो ये है कि वहां आप ‘पीरियड्स’ जैसे शब्द भी नहीं बोल सकते. वहां इसे अक्सर ‘फेमिनिन दिक्कत’ कहा जाता है. इसे तंज के तौर पर बोला जाता है कि ‘अरे इन्हें फेमिनिन दिक्कत हो रही है इसलिए ऑफिस नहीं आ सकती.’ ऐसे माहौल में महिलाएं कैसे सामने आकर बात रखेंगी. दूसरा, जब नए बच्चे जो मीडिया संस्थानों में आते हैं तो उन्हें कभी नहीं बताया जाता कि यौन दुर्व्यवहार की कोई भी घटना होने पर वे क्या करें, किससे संपर्क करें, उन्हें ऐसा होने पर चुप नहीं रहना है. ऐसी कोई बात, कोई जानकारी उन्हें नहीं दी जाती.

इसलिए आस-पास का माहौल देखते हुए लड़कियों को अक्सर सह लेना ही ज्यादा आसान लगता है, बजाय इसके कि वो बोले और उन्हें शर्मिंदा होना पड़े. क्योंकि पूरा न्यूज़ रूम पीड़िता पर ही सवाल उठाने पर उतारू हो जाता है. चरित्र सिर्फ लड़कियों का ही निशाने पर लाया जाता है. ऐसे में लड़कियां बोलने से कतराती हैं और अपने ही स्तर पर ऐसी समस्याओं से निपटने के रास्ते तलाशती हैं. अब भी देखिये, कई संपादक जो सोशल मीडिया पर काफी प्रगतिशील लगते हैं, वो भी इस मी टू कैंपेन को लेकर नकारात्मक माहौल ही बना रहे हैं. ऐसे में यह समझना कितना मुश्किल है कि यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं जब इनके न्यूज़ रूम में होती होंगी तो इनकी प्रतिक्रिया कैसी होती होगी?

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like