किसान मुक्ति मार्च और उसका हासिल

सरकार की बेरुखी, किसी स्पष्ट आश्वासन के बिना ही समाप्त हुआ किसानों का दो दिवसीय मार्च.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

दिल्ली के रामलीला मैदान में किसानों का सैलाब उमड़ आया. किसान मुक्ति मार्च के दूसरे दिन अलग-अलग रंग के झंडे लिए किसानों का हुजूम संसद मार्ग की ओर बढ़ने लगा था. यहां लगे लाउडस्पीकर पर जैसे ही ‘यह किसान’ का नारा लगता, हजारों किसान उस नारे को समर्थन देते हुए झंडे हवा में लहरा देते. हरे-नीले-पीले और लाल रंग के ये झंडे जब एक साथ हवा में उठते तो ऐसा लगता मानो रामलीला मैदान में किसानों का समंदर उतर आया हो और उसकी लहरें अपने पूरे उफान पर हों.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

इस उफान को थामने के लिए ही प्रशासन ने तीन हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों को रामलीला मैदान के आस-पास तैनात कर दिया था. दिल्ली पुलिस से लेकर केन्द्रीय रिज़र्व बल और बीएसएफ तक के जवान यहां तैनात रहे. सुबह के साढ़े दस बजे वे तमाम किसान संसद मार्ग की ओर बढ़ने लगे जो देश के कोने-कोने से यहां पहुंचे थे, अपनी समस्याएं दिल्ली में बैठी सरकार को बताने के लिए.

सरकार ने इन किसानों की अब तक भले ही कोई सुध नहीं ली है लेकिन कई दिल्ली वालों ने पूरे दिल से इनका दिल्ली में स्वागत किया. करीब 40 डॉक्टरों ने इन किसानों के लिए रामलीला मैदान एक मुफ्त शिविर लगाया, कई छात्र इन किसानों के नारों को बुलंद करने यहां पहुंचे, कई युवा इनके लिए पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट लिए खड़े दिखे तो कई लोगों ने किसानों के लिए लंगर की भी व्यवस्था की.

किसानों की इस लड़ाई में उनका साथ देने सिर्फ वही लोग नहीं आए थे जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं और किसानों के लिए एक दिन के खाने-पीने की व्यवस्था आसानी से कर सकते हैं. बल्कि यहां ऐसे भी कई लोग मौजूद दिखे जो खुद दो जून की रोटी कमाने के लिए हर रोज़ जूझते हैं. जितेंद्र ऐसे ही एक व्यक्ति हैं. वे दिल्ली की सड़कों पर घूम-घूम कर पापड़ बेचते हैं और इसी से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं. जितेंद्र बीस रुपये में चार पापड़ बेचते हैं लेकिन किसानों को वे सिर्फ दस रूपये में चार पापड़ दे रहे हैं. किसानों के इस संघर्ष में ये उनका अपना योगदान है.

जीतेंद्र खुद भी किसान रहे हैं लिहाजा किसानी के संकटों से वे व्यक्तिगत रूप से वाकिफ हैं. वे कहते हैं, “मैंने गरीबी भी देखी है और किसानी भी की है. किसानी के संकटों से हार कर ही मैं बिहार से दिल्ली आया हूं और किसी तरह अपना गुज़ारा चला रहा हूं. किसान भाइयों के संघर्ष में अगर थोड़ा भी मदद कर सकूं तो ये मेरे लिए बड़ी बात है.” जितेंद्र की तरह कई और लोग भी यहां मौजूद हैं जो किसानों की पीड़ा समझते हैं इसलिए उन्हें समर्थन देने पहुंचे हैं. वे नेता जरूर यहां से नदारद हैं जो भाषणों में तो खुद को गरीब और किसान का बेटा बताते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद किसानों की मांगें बिसरा जाते हैं.

सुबह के 11 बजे तक किसानों का यह मार्च दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज के पास पहुंच चुका था. इस मार्च में सबसे आगे तमिलनाडु के किसान चल रहे थे, जिनके हाथों में कुछ नरमुंड थे. इन किसानों का कहना है कि ये कंकाल उन साथी किसानों के हैं जिन्होंने बीते कुछ सालों में आत्महत्याएं कर ली. तमिलनाडु के किसानों के पीछे ‘किसान मुक्ति मार्च’ के आयोजक भी चल रहे हैं जो ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ का बैनर थामे हुए हैं. इनमें योगेंद्र यादव, पी साईंनाथ, वीएम सिंह, मेधा पाटकर और डॉक्टर सुनीलम जैसे कई जाने-माने चेहरे शामिल थे.

किसानों का यह हुजूम कई किलोमीटर की पंक्ति में बदल गया था लेकिन दिल्ली के ट्रैफिक पर इसका दबाव नगण्य रहा. इसका जितना श्रेय दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की सूझ-बूझ को जाता है उतना ही इन किसानों के धैर्य को भी. किसानों में सरकार के प्रति असंतोष और आक्रोश तो था लेकिन उनके प्रदर्शन में अनुशासन पूरा था. नारे लगाते हुए और क्रांतिकारी गीतों की धुनों में ताल से ताल मिलाते हुए किसानों का यह हुजूम संसद मार्ग तक पहुंचा जहां पहले से ही एक बड़ा मंच बनाया गया था.

देश भर से आए किसान संसद मार्च पहुंच कर उन तमाम लोगों से अपने दर्द साझा कर रहे थे जो उनकी बातें सुनने यहां पहुंचे. इनमें कॉलेज के छात्र और कई पत्रकार भी थे. भाषा की समस्या कई किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती बन रही थी. विशेष तौर से दक्षिण भारत के उन किसानों के लिए जिन्हें न तो हिंदी ठीक से आती है ना ही अंग्रेजी. तेलंगाना से आई महिला किसानों के सामने भी ये एक बड़ी चुनौती है. ये महिलाएं अपने हाथों में अपने मृत पति, भाई या पिता की तस्वीरें लिए हुए हैं. इनमें से हर महिला के पास अपनी कहानी है लेकिन भाषा की समस्या के चलते वे बस इतना समझा पाती हैं कि उनके परिवार में जो मुख्य कमाने वाला था, वह आत्महत्या कर चुका है.

जिस दौर में प्रतिदिन हजारों लोग किसानी छोड़ रहे हैं, उस दौर में इन महिलाओं की सिर्फ यही मांग है कि उन्हें किसान मान लिया जाए. वे किसानी करती हैं और सालों से कर रही हैं. लेकिन हमारी सरकार उन्हें किसान का दर्जा नहीं देती. हमारे देश में खेती-किसानी से जुड़ी अधिकतर योजनाएं किसानों से नहीं बल्कि जमीन से संबंधित होती हैं. ऐसे में किसानी करने वालों को नहीं बल्कि जमीन के मालिक को ही इन योजनाओं का लाभ मिल पाता है और उन्हें ही किसान माना जाता है. चूंकि महिलाओं के नाम पर जमीनें नहीं हैं लिहाजा उन्हें किसान ही नहीं माना जाता. ये महिलाएं तेलंगाना से यही मांग लेकर पहुंची हैं कि उन्हें किसान का दर्जा दिया जाए.

जिन्हें किसान का दर्जा हासिल है, उनके सामने कई अन्य तरह की चुनौतियां हैं. इन चुनौतियों में जो सबसे बड़ी हैं, वह हैं फसल का उचित दाम न मिलना और किसानों का लगातार कर्ज के बोझ में डूबते चले जाना. इन्हीं दो चुनौतियों का समाधान खोजना इस ‘किसान मुक्ति मार्च’ का मुख्य उद्देश्य भी रखा गया है. देश भर से आए किसान अपने-अपने क्षेत्र की अलग-अलग समस्याओं का समाधान तो चाहते ही हैं लेकिन इन दो समस्याओं का समाधान उनकी पहली मांग है.

‘किसान मुक्ति मार्च’ को सफल बनाने के लिए कई दिनों से संघर्ष कर रहे पत्रकार पी साईंनाथ जब मंच पर आकर बोल रहे थे तो किसान उन्हें पूरे धैर्य से सुनते रहे. उन्होंने कहा, “मोदी सरकार ने चुनाव से पहले वादा किया था कि उनकी सरकार बनते ही किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना दाम दिया जाएगा. लेकिन सरकार बनने के बाद वो इस वादे से मुकर गए. उनकी सरकार ने 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दिया कि अगर किसानों को डेढ़ गुना दाम दिया गया तो व्यापारियों को नुक्सान होगा. इसके कुछ समय बाद उनके कृषि मंत्री ने बयान दिया हमने ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था. फिर अचानक 2018 में अरुण जेतली ने कहा कि हमने तो डेढ़ गुना दाम देने का वादा पूरा कर दिया है. क्या आपको लागत का डेढ़ गुना दाम मिलने लगा है?” पी साईंनाथ के इस सवाल के जवाब में हजारों किसानों ने “ना” का स्वर बुलंद किया.

‘नरेंद्र मोदी, किसान विरोधी’ के नारों से पूरा माहौल गूंज रहा था. दोपहर दो बजे तक योगेन्द्र यादव, मेधा पाटकर, वीएम सिंह और पी साईंनाथ जैसे बड़े नाम मंच से अपना वक्तव्य दे चुके थे. शरद यादव, शरद पवार, सीताराम येचुरी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने भी बाद में किसानों को संबोधित किया. इनमें से कई नेताओं को किसान ध्यान से सुनते भी रहे. लेकिन शाम होने तक किसानों के लौटने का सिलसिला शुरू हो गया था. जंतर मंतर धीरे-धीरे खाली होने लगा था. कई किसान संसद मार्ग पर लगी रेहड़ियों से खरीददारी में व्यस्त हो गए हैं. जूते-चप्पल, स्वेटर, मफलर, टॉर्च और छोटी-मोटे इलेक्ट्रिक समान बेचने वालों की यहां भरमार थी.

कई किसान अपनी फोटो भी खरीद रहे हैं जो कुछ फोटोग्राफर सुबह से उतार रहे थे. ये फोटो प्रिंट करके जमीन पर बिछा दी गई हैं और किसान इनमें खुद को तलाश रहे रहे हैं. अपनी फोटो मिलते ही वो 50 रुपये प्रति फोटो के हिसाब से उसे खरीद रहे थे ताकि इस ऐतिहासिक रैली में शामिल होने का सबूत वे हमेशा के लिए अपने साथ वापस ले जा सकें. कई किसान यहां बिक रहे खिलौने भी खरीद रहे थे. हरियाणा से आए किसान श्याम लाल कहते हैं, “मेरा पोता छह साल का है. मैं घर जाऊंगा तो वो पूछेगा कि दिल्ली से मेरे लिया क्या लाए हो. उसके लिए ही ये खिलौने ले जा रहा हूं. अपने लिए जो लेने हम दिल्ली आए थे वो तो न जाने सरकार कब देगी.”

दो दिनों का ये किसान मुक्ति मार्च कितना सफल रहा, इस सवाल के अलग-अलग जवाब किसानों के पास थे. कुछ मानते हैं कि ये मार्च सफल रहा क्योंकि इससे सरकार को मालूम चल गया है कि किसानों में उसके प्रति कितना गुस्सा है. लेकिन कई किसान ऐसे भी रहे जो इसलिए नाराज़ थे कि सरकार का कोई भी नुमाइंदा उनसे बात करने नहीं पहुंचा. किसान मुक्ति मार्च के आयोजकों के अनुसार यह सफल रहा क्योंकि सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने सोचा था. किसान ठीक-ठाक संख्या में दिल्ली पहुंचे, उन्होंने पूरे जोश के साथ रैली में हिस्सा लिया, बिना किसी भी तरह का उपद्रव हुए रैली संपन्न हुई, कहीं कोई हिंसा नहीं हुई और किसान अपनी बात कहने में सफल हुए. लेकिन कई लोगों का यह मानना है कि इतनी बड़ी रैली के बाद भी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.

किसान मुक्ति मार्च की एक मुख्य मांग ये भी थी कि किसानों की तमाम समस्याओं के समाधान के लिए 21 दिनों का एक विशेष संसद सत्र बुलाया जाए. इस मांग को लेकर सरकार की ओर से कोई भी प्रतिक्रिया इस मार्च के दौरान सामने नहीं आई. इस बारे में यहां आए किसान कहते हैं, “हम दिल्ली आए और इस सरकार ने हमें अनदेखा किया. हमारी मांगें नहीं सुनी गई. अब हम भी देखते हैं अगले साल ये सरकार हमारे पास क्या मुंह लेकर आती है. मोदी सरकार को किसान 2019 में जरूर जवाब देंगे.”

इस मार्च के मुख्य आयोजकों में से एक, योगेन्द्र यादव अपने भाषण में किसानों को यह याद दिलाना नहीं भूले कि इस देश में आज तक किसान हितैषी कोई भी सरकार नहीं बनी है लेकिन जितनी किसान-विरोधी यह मौजूदा सरकार रही है, उतनी बुरी इससे पहले कोई सरकार नहीं थी. वे किसानों यह भी कहते हैं कि सभी किसान भाई लौटते हुए ये नारा याद रखें- ‘नरेंद्र मोदी-किसान विरोधी.’

दो दिनों के इस किसान मुक्ति मार्च के कई राजनीतिक निहितार्थ हैं. अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी का एक मंच पर आना भी इनमें से एक है जिसके राजनीतिक मतलब कई लोग तलाशने लगे हैं. मौजूदा सरकार के खिलाफ विपक्ष को लामबंद करने की राह में भी इस मार्च की अहम् भूमिका देखी जा रही है. कई लोग यह भी मान रहे हैं कि लगातार परेशानियों से जूझने के बावजूद भी जिस शांतिपूर्ण तरीके और जिस धैर्य के साथ किसानों ने अपनी बात रखी, उससे देश की आम जनता का समर्थन भी उन्हें आने वाले समय में मिलेगा. हालांकि इस किसान मुक्ति मार्च के प्रत्यक्ष हासिल की बात की जाए तो केंद्र सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं दिखता क्योंकि उसने देशभर के इन किसानों को बैरंग ही वापस लौटा दिया है.

शाम ढलते-ढलते संसद मार्ग लगभग खाली हो चुका था. किसान सरकार से भले अपने लिए कुछ नहीं ले सके लेकिन सुनील जैसे दर्जनों लोगों की दुआएं जरूर ये अपने साथ ले जा रहे हैं. सुनील संसद मार्ग के पास सस्ते जूते-चप्पल बेचने का धंधा करते हैं. वे पहले जंतर-मंतर पर यह काम करते थे लेकिन जबसे वहां धरने-प्रदर्शन बंद हुए हैं उनका काम बहुत प्रभावित हुआ है. सुनील का काफी सामान किसानों के इस बड़े प्रदर्शन के कारण बिक गया. वे कहते हैं, “मैंने मोदी जी को वोट दिया था. मुझे लगता था कि कांग्रेस गरीबों की भलाई नहीं कर सकती और मोदीजी अगर प्रधानमंत्री बन गए तो वो हमारी सुध लेंगे क्योंकि उन्होंने गरीबी देखी है. लेकिन मोदी सरकार में तो गरीब और किसान पहले से ज्यादा परेशान हैं.” वे आगे कहते हैं, “आज किसानों भाइयों की वजह से कई महीनों बाद मेरी ठीक-ठाक बिक्री हुई है. मैं दिल से दुआ करूंगा कि काम में बरकत हो. इस सरकार की जो बेरुखी किसानों के लिए है, उसका जवाब देने में मैं किसान भाइयों का साथ जरूर दूंगा. उनकी इतनी मदद तो मैं कर ही सकता हूं कि 2019 में मेरा वोट मोदीजी को नहीं जाएगा.”

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like