राफेल घोटाला: जब सरकार, सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने पर आ जाय तो…?

राफेल डील के वो महत्वपूर्ण बिंदु जिन्हें पढ़ने और समझने में सुप्रीम कोर्ट चूक गया.

WrittenBy:ऋषव रंजन
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भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में जब इतने तथ्य हों, और सब संदेह को गहरा करने वाले हों, और जब आरोप का सीधा जवाब ना मिले तब न्यायिक जांच की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है. जो राफेल डील कारगिल युद्ध के बाद से शुरू हुई हो और पिछले कई सरकारों में इस पर काम हुआ हो, उसमें हड़बड़ी में ‘ऑफ-सेट पार्टनर’ चुना जाना, उसका दाम एकाएक बढ़ जाना और भारतीय वायु सेना की वर्षों की 126 प्लेन की मांग को घटाकर 36 कर देना कई सवाल खड़ा करता है.

सरकारी भ्रष्टाचार कोई सामान्य तरीके से नहीं होता, उसमें कई परतें होती हैं और हर परत में कुछ राज़ छिपे होते हैं जिसे उघाड़ने के लिए सिर्फ संस्थानों का होना जरुरी नहीं है बल्कि उन संस्थानों में उस स्तर की हिम्मत और स्वायत्तता होनी चाहिए जिससे वे निर्भीक होकर इसकी जांच कर सकें. सुप्रीम कोर्ट निश्चित रूप से एक आज़ाद संस्थान है लेकिन राफेल मामले में जिस तरह से सरकार ने सीलबंद जवाब दिया और उसकी खामियों को संज्ञान लिए बेगैर जिस तरह से कोर्ट ने रफेल संबंधी याचिकाएं खारिज की वह कई तरह के सवाल पैदा करती है.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. सहारा-बिड़ला डायरी केस में भाजपा-कांग्रेस के कई बड़े नेता मंत्रियों का नाम आया था. सीबीआई जांच के दौरान छापे में हासिल दस्तावेजों से इसका साफ़ पता चलता था. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे संवेदनशील मामलों में भी जांच करवाना जरुरी नहीं समझा. अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने भी आत्महत्या के बाद “मेरा सफ़र” नामक डायरी छोड़ न्यायपालिका और सरकारी तन्त्र की धांधली को उजागर किया था.

इन तमाम अवसरों पर भी सुप्रीम कोर्ट का रवैया न्याय के उस शाश्वत सिद्धांत की पूर्ति करता नहीं दिखा. ऐसे कई मौकों पर सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट के खारिज करने के बाद भी जांच का कोई रास्ता बचता है? जैसे 2जी घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपित लोगों को बरी कर दिया तो इसका मतलब ये समझा जाए की 2जी घोटाला हुआ ही नहीं था. हमें ये समझने की जरुरत है कि भ्रष्टाचार खुद में इतना बड़ा दानव है जिसका मुकाबला देश के सर्वोच्च संस्थान भी अपनी सीमाओं की वजह से नहीं कर पाते. वैसे ही सुप्रीम कोर्ट की सीमा है ‘जुडीशियल रिव्यु’. हालांकि इस केस में याचिकाकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा है कि वे रिव्यु याचिका के लिए भी जा सकते हैं ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गौर से देखने की जरुरत है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले  में ‘जगदीश मंडल बनाम ओडिशा सरकार और अन्य’ (पारा 7) के केस जैसे अन्य फैसलों और जॉन एल्डर और ग्राहम एल्डस की किताब (पारा 10) का हवाला देकर कहा है, कारोबार-व्यवसाय या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े रक्षा सौदों के मामलों में प्रशासनिक फैसलों पर न्यायिक हस्तक्षेप की ताकत खुद को बहुत सीमित कर देता है. ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लेने की प्रक्रिया, दाम और ‘ऑफ़-सेट’ पार्टनर-चयन, इन तीन मसलों में बहुत संकुचित तरीके से अपना फैसला दिया है. मसलन निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोर्ट इसलिए दखल नहीं देना चाहती है क्योंकि डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी धारा 72, सरकार को ज्यादा देर होने पर एक अलग समझौता करने की अनुमति देती है.

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(1.1 Para 10 of Rafale Judgement.)

वहीं पैरा 51 (डीपीपी 2013) ये अनिवार्य करता है की किसी भी बाहरी समझौते से पहले, किसी भी स्थिति में कॉन्ट्रैक्ट निगोसिएशन कमेटी (सीएनसी) को एक सतही और वाजिब दाम को अपने मीटिंग में स्थापित करना पड़ेगा. डिफेंस सर्विस के वित्तीय सलाहकार (अक्टूबर 2015-मई 16) सुधांशु मोहंती, जिनके कार्यकाल में 36 विमानों का समझौता हुआ था वो कहते हैं कि फ्रांस के द्वारा दी गयी आश्वासन की चिट्टी (लेटर ऑफ कम्फर्ट) कोई आराम नहीं देती है.

ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकार ने यह माना था की फ्रांस के द्वारा इस डील में ‘सॉवरेन गारंटी’ नहीं दी गयी है. जिसका मतलब अगर यह डील पूरी नहीं होती है तो उसकी भरपाई करने का या उसे अंतराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने के लिए भारत के पास कोई मजबूत रास्ता नहीं है. इसके बचाव में सरकारी वकील ने कहा था कि फ्रांस से उन्हें बस आश्वासन की चिट्टी (लेटर ऑफ कम्फर्ट) मिली है.

लेखक रवि नायर नवंबर महीने में और दी कारवां के संपादक हरतोष सिंह बल ने हाल ही में अपने एक लेख में बताया है कि दाम और प्रक्रिया के पेंच को सुलझाने के लिए इंडियन निगोसिएशन टीम (आईएनटी) का गठन हुआ जिसकी कुल 74 मीटिंग हुई. इन मीटिंगों में रक्षा मंत्रालय के कॉस्ट सलाहकार एमपी सिंह ने सतही दाम 5.2 बिलियन यूरो बताया था और उनके दो साथी राजीव वर्मा (जॉइंट सेक्रेटरी एंड एक्वीजीशन मैनेजर) और अनिल सुले (वित्तीय मैनेजर) ने इस पर उनका साथ दिया. आईएनटी के चेयरपरसन राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने इसपर अपनी असहमति जाहिर की थी. ये मसला आईएनटी में सुलझ नहीं पाया और वे सभी अफसरों को या तो छुट्टी पर भेज दिया गया या उनका तबादला हो गया.

28 मार्च, 2015 को दस्सो के प्रमुख एरिक ट्रैपिए ने कहा कि राफेल डील एक बहुत जरुरी कदम है और इसमें एचएएल उनके साथ है. नई डील होने से दो दिन पहले तक देश के विदेश सचिव ने बताया कि डील की प्रक्रिया जारी है और हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल्स लिमिटेड उसका हिस्सा है. अनिल अम्बानी ने अपने कम्पनी की स्थापना पुराने डील के खारिज होने से सिर्फ 12 दिन पहले की थी, वाकई वे बहुत दूरदर्शी थे.

सुधांशु मोहंती ये भी बताते हैं कि जिस तरह डिफेंस एक्वीजीशन काउंसिल (डीएसी) ने ये केस बिना लिए कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) को दिया वो आश्चर्यजनक था. प्रक्रिया की बात करें तो सवाल यह भी है की जब दस्सो के प्रमुख एरिक ट्रापिए ने 28 मार्च, 2015 को कहा था की 126 विमानों के सौदे में 95% समझौता हो गया था तो डीपीपी की धरा 72 का इस्तेमाल करने की जरुरत सरकार को क्यों पड़ी? साथ ही रक्षा मंत्री मनोहर पारिकर और विदेश सचिव जयशंकर का इस प्रक्रिया में ना होना भी अजीब संदेह पैदा करता है, जो कि जांच का विषय था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस संवेदनशील बिंदु को भी अपने निष्कर्षों में अनदेखा किया.

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के दावों को फैसले में लिखकर सिर्फ बताया है कि 36 विमानों को खरीद से देश को फायदा हुआ है लेकिन रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला के मुताबिक यह डील 40% और महंगी पायी गयी है. सरकार के इस दाम वाले मसले पर जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट वापस अपनी उस मुद्रा में चला जाती है जहां वो दाम को लेकर कोई दखल नहीं देना चाहती. ज्ञात हो कि सरकार ने ये सभी जवाब सुप्रीम कोर्ट में किसी प्रकार के एफिडविट में नहीं दिया है. इसका मतलब साफ है कि सरकार द्वारा दिए गए जवाबों की कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती है.

सुप्रीम कोर्ट ने एक और जगह समझने में गलती कर दी. कोर्ट पैरा 30 में ‘रिलायंस इंडस्ट्रीज’ जो मुकेश अम्बानी की थी उसे फैसले में ‘पैरेंट कम्पनी’ बताया गया. जबकि अभी जो डील हुई है वो अनिल अम्बानी की कम्पनी के साथ हुई है और इतना ही नहीं हमें ये भी पता होना चाहिए की अनिल अम्बानी की कम्पनी का कोई रक्षा सौदों में तजुर्बा नहीं है और अनिल अम्बानी खुद कर्ज में डूबे हुए हैं.

डिफेंस प्रोक्योरमेंट पालिसी (डीपीपी) के बिंदु 8.6 में ये साफ लिखा है कि ‘ऑफ़-सेट’ पार्टनर के लिए आवेदन एक्वीजीशन मैनेजर से पास होकर रक्षा मंत्री से अनुमोदन किया जाना चाहिए चाहे वो कितने भी कीमत का हो या कैसे भी चुना गया हो.

सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकारी वकील वेणुगोपाल ने कहा की ये प्रक्रिया होने से पहले ही रक्षा मंत्री की सहमति ले ली गई थी. इससे सवाल ये उठता है की बिना रक्षा मंत्री की सहमति के भारत सरकार डील में आगे कैसे बढ़ी? और डील बाद में हुई तो सहमती पहले कैसे ली गई? सुप्रीम कोर्ट के जजों को इन सभी सवालों पर गौर फरमाना चाहिए था.

कीमत के मामले में सीमित दखल के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के पैरा 25 में यह कह दिया कि वायु सेना के मार्शल या प्रमुख ने दामों को लेकर कुछ भी बताने से खुद को रोका है. जबकि सुप्रीम कोर्ट में बहस के वक़्त हमारे न्यायधीशों ने वायु सेना के दो सीनियर अफसरों को बुलाया था जिसमे दो एयर मार्शल मौजूद थे और उन्होंने दामों के अंतर को छोड़ राफेल विमान की जानकारी ली थी. राफेल और वायु सेना की जरूरत को लेकर सीमित सवालों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे दाम से कैसे जोड़ दिया?

राफेल विमान की विशेषता और उसे गुप्त रखने की जरुरत पर हमारे रक्षा मंत्री के दावे बिलकुल खोखले नज़र आते हैं. अमेज़न प्राइम पर राफेल विमान पर एक पूरी डॉक्मेंट्री फिल्म उपलब्ध है जिसको आम नागरिकों के साथ साथ सभी देशों के डिफेंस एक्सपर्ट भी देख सकते हैं. ऐसा कोई राज़ शायद ही छूटा हो जिसका जिक्र उस फिल्म में नहीं हुआ है. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर राफेल सौदे के ब्यौरे को गुप्ता रखना सेना ही नहीं बल्कि देश की जनता के साथ भद्दा मजाक है.

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(Para 25 of Rafale Judgement.)

सीएजी रिपोर्ट और पीएसी का चक्रव्यूह:

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पैरा 25 में सरकारी जवाब के आधार पर एक अनोखी चीज़ लिखी है. कोर्ट ने कहा है कि दामों की जानकारी कंट्रोलर ऑडिटर जनरल (सीएजी) के साथ साझा की जा चुकी है. और साथ ही सीएजी ने अपने रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए (पीएसी) पब्लिक एकाउंट्स कमेटी को भेजा है. यह भी लिखा है कि पीएसी ने रिपोर्ट का एक हिस्सा संसद में प्रस्तुत किया है और वो रिपोर्ट सामान्य नागरिकों के लिए उपलब्ध है.

13 नवंबर, 2018 को 60 रिटायर नौकरशाहों या कहें सरकारी अफसरों ने सीएजी को एक चिट्ठी लिखा और राफेल डील पर सीएजी रिपोर्ट ना आने पर नाराजगी जाहिर की थी, उन्होंने सीएजी पर सवाल उठाते हुए कहा था कि कहीं वे सरकार को बचाने के लिए रिपोर्ट पेश करने में देरी तो नहीं कर रहे हैं. 14 नवंबर को सीएजी के अफसरों ने ये साफ़ किया कि वे राफेल डील पर रिपोर्ट संसद के शीतकालीन सत्र में देंगे. अभी तक ऐसी किसी सीएजी रिपोर्ट की जानकारी किसी पत्रकार या किसी नेता को नहीं है.

कांग्रेस के नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रेस कांफ्रेंस कर देश को बताया कि वे खुद पीएसी (पीएसी) के अध्यक्ष हैं. सरकार दावा कर रही है कि पीएसी को सीएजी ने रिपोर्ट भेजी है वह झूठ है. इस पूरी घटना से कई गंभीर सवाल उठते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने किन दस्तावेजों के आधार पर अपने फैसले में सीएजी रिपोर्ट का हवाला दिया और अगर ऐसी कोई रिपोर्ट आई ही नहीं है अब तक तो सरकार द्वारा सील लिफाफे में दिए गए जवाब और जानकरी का क्या महत्व होगा? इस केस में जितने भी याचिकाकर्ता थे उन्हें इस सील लिफाफे में कोर्ट को दी गई सरकार की जानकारी के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.

एक राजनैतिक पार्टी जो राम मंदिर और सबरीमाला जैसे संवेदनशील मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ना मानने का दावा करती है वो आज राफेल भ्रष्टाचार के छुप जाने से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जश्न मना रही है.

यह बहुत चिंताजनक है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को लिखित में झूठ बोलकर गुमराह करने की कोशिश की. अब उसने सुप्रीम कोर्ट को सफाई दी है कि उसके लिखित जवाब में टाइपिंग का एरर था. इस घटना से यह सिद्ध होता है कि सरकार निजी फायदे के लिए वो सर्वोच्च न्यायलय जैसे संस्थान का भी आदर नहीं करती. सुप्रीम कोर्ट को खुद इस फैसले के पीछे सरकारी झूठ की जांच कर अपने निर्णणय की समीक्षा करनी चाहिए.

यह दुखद है कि सुप्रीम कोर्ट जो बीसीसीआई में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थी वो राफेल डील में मौजूद तमाम संदेहजनक तथ्य होने के बावजूद अपनी सीमाओं में बंध गया है.

(ऋषव रंजन लॉयड लॉ कॉलेज में कानून के विद्यार्थी हैं और यूथ फॉर स्वराज के राष्ट्रीय महासचिव हैं.)

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