बीमा का मतलब अस्पताल और इलाज नहीं होता है

बजट का आवंटन बता रहा है कि सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य से अपना पिंड छुड़ा रही है.

WrittenBy:रवीश कुमार
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हर साल बजट आता है. हर साल शिक्षा और स्वास्थ्य में कमी होती है. लोकप्रिय मुद्दों के थमते ही शिक्षा और स्वास्थ्य पर लेख आता है. इस उम्मीद में कि सार्वजनिक चेतना में स्वास्थ्य से जुड़े सवाल बेहतर तरीके से प्रवेश करेंगे. ऐसा कभी नहीं होता. लोग उसे अनदेखा कर देते हैं. इंडियन एक्सप्रेस में लोक स्वास्थ्य पर काम करने वाली प्रोफेसर इमराना क़ादिर और सौरिन्द्र घोष के लेख को अच्छे से पेश किया गया है ताकि पाठकों की नज़र जाए. इस लेख के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं:

  • इस बार का बजट पिछली बार की तुलना में 7000 करोड़ ज़्यादा है.
  • प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा सरकार की प्राथमिकता से बाहर होती जा रही है.
  • स्वास्थ्य बजट में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) का हिस्सा घटा है.
  • मिशन का काम प्राथमिक चिकित्सा सिस्टम को फंड उपलब्ध करवाना है.
  • 2015-16 में 52 प्रतिशत था जो इस साल 41 प्रतिशत रह गया है.
  • एनआरएचएम के भीतर गर्भवती महिलाओं और बच्चों की योजनाओं में कटौती की गई है.
  • ग्रामीण स्वास्थ्य के ढांचे के बजट में भी कमी की गई है.
  • संक्रमित बीमारियां जैसे तपेदिक, डायरिया, न्यूमोनिया, हेपटाइटिस के कार्यक्रमों को झटका लगा है.
  • प्राइमरी हेल्थ सेंटर की जगह वेलनेस सेंटर बनाने की बात हो रही है जिसमें ग़ैर संक्रमित बीमारियों पर ज़ोर होगा.
  • इससे भारत में प्राथमिक चिकित्सा सेवा में कोई खास बेहतरी नहीं आएगी.
  • एक तरह से ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा सिस्टम को ध्वस्त किया जा रहा है.
  • राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन का बजट घटा दिया गया है. 3,391 करोड़ की ज़रूरत थी, मिला है 950 करोड़.
  • एम्स जैसे संस्थानों को बनाने के लिए जो बजट का प्रावधान है उसमें एक किस्म का ठहराव दिखता है.
  • आप संसदीय समिति की रिपोर्ट पढ़ें. शुरू के छह एम्स में 55 से 75 प्रतिशत मेडिकल प्रोफेसरों के पद ख़ाली हैं. कुछ विभागों को चालू कर चालू घोषित कर दिया गया है.
  • ज़िला अस्पतालों को अपग्रेड करने का बजट 39 प्रतिशत कम कर दिया गया है.
  • प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का बजट सबसे अधिक बढ़ा है. इस मद में 6,556 करोड़ दिया गया है.
  • इस योजना के तहत 10 करोड़ ग़रीबों को सालाना 5 लाख तक का स्वास्थ्य बीमा दिया जाएगा.
  • इतनी बड़ी संख्या को बीमा देने के लिए यह बजट भी काफी कम ही है.
  • नेशनल सैंपल सर्वे हेल्थ डेटा 2014 के अनुसार भारत के 85 करोड़ परिवारों में से 5.72 करोड़ परिवार हर साल अस्पताल जाते हैं. इस हिसाब से 10 करोड़ परिवारों में से हर साल 2.3 करोड़ परिवार अस्पताल जाएंगे. मतलब यह हुआ कि बीमा कंपनी के पास हर भर्ती पर देने के लिए 2,850 रुपये ही होंगे. अपनी जेब से खर्च करने का औसत अभी भी बहुत ज़्यादा है. नेशनल सैंपल सर्वे 2014 के अनुसार उस साल 15,244 रुपये का औसत था जो 2019-20 में 19,500 रुपये हो गया होगा. स्वास्थ्य बीमा इस खर्चे का मात्र 15 प्रतिशत कवर करता है.
  • कुछ सेक्टर में 2018-19 के बजट का पूरा इस्तेमाल ही नहीं हुआ है. राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के बजट का 78 प्रतिशत ही इस्तेमाल हुआ. प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना का बजट भी 50 फीसदी हिस्सा बचा रह गया. स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) का बजट भी बचा रह गया. नतीजा यह हुआ क 2018-19 में 15,343 करोड़ दिया गया था, इस साल के बजट में घटाकर 10,000 करोड़ कर दिया गया है.
  • इमराना क़ादिर और सौरिंद्र घोष का तर्क है कि जो भी बजट में बढ़ा है उस पैसे के इस्तेमाल की प्राथमिकता ठीक से तय होनी चाहिए. सरकारी अस्पताल के ढांचे को बेहतर करने में इसका प्रयोग होना चाहिए न कि बीमा पालिसी पर.
  • नेशनल सैंपल सर्वे डेटा 2014 से पता चलता है कि भारत में 97 बीमारियों का इलाज ओपीडी में होता है. इस पर मेडिकल खर्च का 67 फीसदी हिस्सा ख़र्च होता है. इस लिहाज़ से ज़्यादातर इलाज बीमा से बाहर होता है. आपने ऊपर देखा ही कि इस पर औसत खर्चा भी 19,000 के करीब हो गया है. एक तरह से बीमा की ये नीतियां जनता के पैसे को कारपोरेट के खजाने में भरने की तरकीब है. आप इससे प्राइवेट सेक्टर से स्वास्थ्य सुविधाएं ख़रीद सकते हैं जबकि सरकार का पैसा सरकारी सिस्टम बनाने और मज़बूत करने में ख़र्च होना चाहिए ताकि ग़रीब को फायदा हो और ओपीडी का इलाज सस्ता हो.
  • आपने जन औषधि केंद्रों के बारे में सुना होगा जहां सरकार सस्ती दरों पर जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने का दावा करती है. आबादी के अनुपात में इसके स्टोर बहुत ही कम हैं. साढ़े तीन लाख की आबादी पर एक स्टोर. यहां भी कुछ दवाएं बाज़ार से महंगी हैं. डाक्टर पर्ची पर इन स्टोर में उपलब्ध दवाओं को नहीं लिखते हैं. तो कुछ स्टोर ज़रूर लोगों को राहत पहुंचा रहे हैं मगर हाल वही है. कुछ होता हुआ दिखाकर बता दो कि हो चुका है.
  • तमाम बीमा पालिसी के बाद भी आप देखते रहेंगे कि गरीब मरीज़ किसी सदस्य को ठेले पर लाद कर ले जा रहा है. लाश ढोने के लिए एंबुलेंस नहीं हैं. क्योंकि हम सबकी प्राथमिकताएं बदल गईं हैं. हमें धारणा पसंद है. सरकार दस लाख लोगों को लाभ पहुंचाने की बात करती है. क्या आप जानते हैं कि उनमें से किन बीमारियों का ज़्यादा इलाज हुआ है. किन अस्पतालों में इलाज हुआ है. कितने मरीज़ों के पास बीमा है और उसका कितने प्रतिशत ने इसका इस्तेमाल किया. सरकार ये सब नहीं बताती है. वो धारणा बनाने के लिए एक टुकड़ा फेंकती है और आप उसे उठाकर धारणा बना लेते हैं.

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