बैंक और टेलीकॉम कर्मचारी अपनी अनैतिकता का झोल साफ करें

बैंकरों को समझना होगा कि बगैर राजनीतिक समझदारी के नैतिक बल नहीं आता है. बग़ैर नैतिक बल के किसी आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकलता है.

WrittenBy:रवीश कुमार
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आईडीबीआई  का निजीकरण हो गया है. आप प्लीज़ रूकवा दें. इस तरह के मैसेज मेरे इनबॉक्स में भरे हैं. मैसेज भेजना भी एक किस्म का विरोध कार्य हो गया है. इससे निजी या सरकारी कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों की गोपनीयता भी बनी रहती है और विरोध भी हो जाता है. यह जन-दबाव बनाने का तरीका भी हो सकता है. पिछले दिनों आईडीबीआई के कर्मचारियों ने भी ख़ूब विरोध किया. वे जंतर मंतर पर आए. इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि उन्होंने विरोध प्रदर्शन नहीं किया. मैसेज में खुद को 20,000 की संख्या का हिस्सा बताने वाले कर्मचारी अपने प्रदर्शन से निजीकरण नहीं रोक सके. निजीकरण हो गया.

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मुझे जो मैसेज मिले हैं उसमें ज़्यादातर एक ही ड्राफ्ट है जो किसी ने टाइप कर सबको बांटा है और सबने मुझे भेजा है. बैंक का निजीकरण उनके जीवन का संकट है. ज़ाहिर है वे परेशान हैं. मगर इस वक्त भी उनकी अभिव्यक्ति का यह हाल है. उसमें कोई विविधता नहीं है. उन मैसेज में एक बार भी निजीकरण को लेकर सरकारों की नीतियों को लेकर कोई बात नहीं है. मेरा इन सभी से एक सवाल है. बग़ैर सरकारी कंपनियों के निजीकरण पर कोई लाइन लिए हुए आप अपने बैंक के निजीकरण का विरोध कर सकते हैं? क्या आपका विरोध सिर्फ अपने बैंक को लेकर सीमित है?

इन मैसेज में यही है कि वे एक सरकारी नौकरी में आए थे. इम्तेहान देकर इस नौकरी को हासिल किया था. सेना की नौकरी छोड़ कर आए थे. जो हाल-फिलहाल में आए हैं उन्हें अलग से दुख है कि सरकारी नौकरी के चक्कर में ज्यादा सैलरी की नौकरी छोड़ आए. इन्हीं मैसेज में कुछ घोर स्वार्थी किस्म के भी हैं. 600 अफसरों की अभी-अभी ट्रेनिंग हुई थी. जब ज्वाइन किया तो बैंक ही प्राइवेट कर दिया गया. किसी ने लिखा है कि वायु सेना की नौकरी छोड़कर बैंक में आए मगर प्राइवेटाइज़ हो गया.

किसी भी विरोध का आधार स्वार्थ नहीं हो सकता है. किसी भी विरोध का आधार नीतियों के विरोध के बग़ैर नहीं हो सकता है. जब सरकारें सार्वजनिक रूप से सरकारी कंपनियों के निजीकरण पर फैसला लेती हैं, उसके पहले सांसद से लेकर मंत्री तक इसकी लाइन तय करते हैं, अंग्रेज़ी के बिजनेस अख़बारों में संपादक और विश्लेषक माहौल बनाते हैं तब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में काम करने वाले लाखों लोग सो रहे होते हैं. उन्हें लगता है कि उनकी कंपनी के निजीकरण की बात नहीं हो रही है. एयर इंडिया की हो रही है. इस तरह एक दिन ऐसा आता है जब एयर इंडिया का भी निजीकरण हो जाता है और आईडीबीआई का भी.

जब एयर इंडिया वाले प्रदर्शन कर रहे होते हैं तो आईडीबीआई वाले मोदी-मोदी करने में लगे होते हैं. जब आईडीबीआई वाले निजीकरण का विरोध करते हैं तब तक एयर इंडिया वाले थक कर जा चुके होते हैं. उनके भीतर भी निजीकरण की नीति को लेकर व्यापक समझ नहीं होती है. जैसे इस वक्त जब आईडीबीआई का निजीकरण हो गया तो बाकी सरकारी बैंकों के कर्मचारियों में उदासीनता पसरी हुई है. यूनियन के तहत प्रदर्शन करना ही सारी जागरूकता नहीं है.

इसलिए मैं कहता हूं कि स्वार्थ समूह बनकर आप बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाते हैं. इन बैंकरों में बहुतों को लगता रहा होगा कि निजीकरण का विरोध करना कम्युनिस्ट होना है. बल्कि कम्युनिस्ट ही खुलकर ऐसे विरोध के लिए आगे आते हैं. बाद में उन्हीं का मज़ाक उड़ाया जाता है. इस प्रक्रिया में दो बातें होती हैं. एक बैंकर के भीतर की राजनीतिक समझदारी समाप्त हो जाती है और वह संख्या के लिहाज़ से शून्य हो जाता है. बगैर समझदारी के नैतिक बल भी नहीं आता है. बग़ैर नैतिक बल के किसी आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकलता है.

पंद्रह दिन देर से सैलरी नहीं मिली तो बीएसएनएल के कर्मचारियों के सैंकड़ों मेसेज मेरे पास आ गए. हमने प्राइम टाइम में भी दिखाया कि लोग बेहद परेशान हैं. जब सैलरी मिल गई तो सिर्फ एक मैसेज आया. क्या इसका मतलब यह माना जाए कि बीएसएनएल के पौने दो लाख कर्मचारी एक महीने की सैलरी के लिए लड़ रहे थे? चुनाव के दबाव में सरकार ने सैलरी दे दी मगर नीतियों को लेकर कोई गारंटी मिली क्या? जब सरकार आईडीबीआई का निजीकरण कर चुकी है तो इसकी क्या गारंटी है कि बीएसएनएल का नहीं होगा. जब इतना बड़ा समूह संघर्ष करने और नीतियों के विकल्प बनाने को लेकर इतना आलसी है तो इनके लिए किसी दूसरे को क्यों मेहनत करनी चाहिए. क्या इस समूह को शर्म नहीं आती है?

बिज़नेस स्टैंडर्ड के संपादक टीएन नाइनन ने लिखा है कि सरकार बैंकरप्सी का कानून लेकर आई है. इस कानून के पैमाने पर प्राइवेट कंपनियों को ही परखा गया है. वक्त आ गया है कि अब सरकारी कंपनियों को भी इस मुकदमे में डालकर स्पष्ट फैसला लिया जाए. चुनाव के इस दौर से गुज़रते ही हमें इस तरह के फैसले लेने चाहिए. जिन कंपनियों को बजट की सीमा में बचाया जा सकता है उन्हें बचाया जाए और जिन्हें नहीं बचाया जा सकता है उन्हें बंद कर दिया जाए. टीएन नाइनन ने यह बात बीएसएनएल और एमटीएनएल के संदर्भ में कही है. बीएसएनएल ने दस साल पहले मुनाफा कमाया था. पिछले 7 में से 5 साल में इसने 7000 करोड़ से अधिक का घाटा किया है. एमटीएनएल की लागत राजस्व से दोगुनी है. दोनों कंपनियां अब सैलरी देने की हालत में नहीं हैं.

क्या इन कंपनियों को बचाया जा सकता है? इस सवाल को लेकर टीएन नाइनन आगे बढ़ते हैं. इस कंपनी को पुनर्जीवित करना असंभव है. अगला विकल्प इन्हें बेच देने का है. कोई ख़रीदार नहीं मिलेगा. इन्हें बंद नहीं करने का एक ही ग़ैर आर्थिक कारण है कि इनके यहां दो लाख से अधिक कर्मचारी काम करते हैं. बार-बार बेल-आउट करने से अच्छा है कि इन कर्मचारियों को ले-देकर दोनों कंपनियों को बंद कर दिया जाए. नाइनन ने लिखा है कि चुनाव के समय कोई राजनीतिक दल यह बात नहीं बोलेगी. वे अपने लेख में राहुल गांधी पर इस तरह की बातें करने को लेकर तंज भी करते हैं. नाइनन लिखते हैं कि राष्ट्रीय बैंकों को दो लाख करोड़ की मदद दी गई मगर इतना सारा पैसा ग़ायब भी हो गया.

अब यहां बैंकर पर आता हूं. बताते हैं कि बीस लाख बैंकर हैं. इतनी बड़ी संख्या को शून्य में बदलने के लिए बैंकरों को ट्रॉफी दी जानी चाहिए. इस वक्त बैंकरों को बाध्य किया जा रहा है कि वे कर्ज़ लेकर अपने बैंक का डूबता हुआ शेयर ख़रीदें. इस आर्थिक गुलामी पर टीएन नाइनन साहब का ध्यान नहीं गया है मगर बैंकरों मे ही कौन सी चेतना आ गई है. नोटबंदी के समय इतनी मेहनत करने के बाद लोगों में धारण बनी कि नोट बदलने में बैंकरों ने पैसे बनाए. बैंकरों के पास कई मौके थे कि वे लोगों को नोटबंदी का राज़ बताते. मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. यह भी नहीं हुआ कि सारे कैशियर मिलकर पब्लिक तक यह बात पहुंचा दें कि नोटबंदी के दौरान नोट बदलने में हुई गलती के कारण उन सबने अपनी जेब से कितने पैसे सरकार को दिए. एक फेल योजना को फेल होते हुए उन्होंने भीतर से देखा होगा मगर सारा का सारा अनुभव बैंकर पचा गए.

जब मैं बैंक सीरीज़ कर रहा था तब लोगों की यही प्रतिक्रिया आ रही थी कि आप इनकी बात क्यों कर रहे हैं. बिना घूस के कर्ज़ नहीं देते. अगर ये छवि थी तो बैंकरों को इसका मुकाबला दो स्तर पर करना चाहिए. एक तो बताना चाहिए कि वे ऐसा नहीं करते हैं. दूसरा जो करते हैं उनके नाम पब्लिक को बताना चाहिए. उचित सरकारी मंचों में शिकायत करनी चाहिए.

क्या बैंकर से लेकर टेलिकॉम सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारियों में इस तरह का नैतिक बल है? मुझे नहीं लगता कि नैतिक बल है. नैतिक बल के बग़ैर न तो संख्या में बल है और न ही विरोध में. लाखों की संख्या में ये कर्मचारी अपनी अनैतिकताओं के मलबे के नीचे दबने जा रहे हैं. जब यही ख़ुद को नहीं बचा रहे हैं तो इन्हें कौन बचा सकता है.

आप खुद से एक सवाल पूछें. 2014 के पहले भी और 2014 के बाद भी जब आप राजनीति को लेकर चर्चा करते थे तो किस विषय पर चर्चा करते थे. क्या आप निजीकरण और सरकारी कंपनियों को लेकर हो रहे घपले पर चर्चा कर रहे थे, उन्हें पब्लिक में लाने का साहस कर पा रहे थे.

आप किस बात को लेकर ज़्यादा चर्चा कर रहे थे. मोदी मोदी, हिन्दू मुस्लिम या निजीकरण और नोटबंदी. ईमानदारी से पूछिएगा. महीनों तक बैंक सीरीज़ करने के बाद एक बैंक अधिकारी मेरा नंबर पब्लिक करता है. एक बैंक अधिकारी एक बिज़नेस मीटिंग में मुझे देशद्रोही बोलता है. ये है इनकी वास्तविकता. बेहतर है अपने भीतर की अनैतिकता का झोल साफ करें. खुद को एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार करें. मुझे व्हाट्स एप भेज कर अपनी डीपी की नई तस्वीर के लिए पोज़ बनाने में बिज़ी होने से लाइक तो मिल जाएंगे मगर लोकतंत्र में सपोर्ट नहीं मिलेगा. और हां आपकी डीपी भी बताती है कि आप अपने मुद्दे को लेकर बेईमान हैं.

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