आज एक ‘चौकीदार’ है, 1957 में पौने दो लाख चौकीदारों ने चुनाव करवाया

उत्तर भारत में कांग्रेस को ज़बरदस्त जीत हासिल हुई पर दक्षिण भारत में उसे स्थानीय पार्टियों से चुनौती मिली.

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1952 में जो बीज पड़ा था, 57 में वो अंकुरित होकर पौधे का रूप ले चुका था. अब यह ज्यादा नाजुक था, इसे ज्यादा देखभाल की दरकार थी. पहले आम चुनाव के वक्त कईयों ने इसे एक तुक्का कहा था. तमाम जानकार यही मान रहे थे कि ये देश भी लोकतन्त्र को छोड़ किसी और राजनैतिक व्यवस्था के सामने सरेंडर कर देगा. दूसरा आम चुनाव इस मिथक को तोड़ने वाला था. इसलिए 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव ज़्यादा अहमियत रखते हैं. प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि 1757 और 1857 की तरह ही 1957 का साल भी इतिहास में अहम् मुकाम रखता है. 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना का रास्ता साफ़ हुआ था और 1857 में भारत ने इस राज के खिलाफ पहला संगठित प्रतिरोध दर्ज किया. उसी प्रकार, 1957 के दूसरे आम चुनावों ने ये सुनिश्चित किया कि भारत लोकतांत्रिक देशों की जमात में शामिल हो. पर चुनाव तक जाने से पहले आइये देखें कि उस वक़्त हालात क्या थे?

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राजनैतिक हालात

1957 के चुनावों से पहले देश में भारी उथल-पुथल मची. पचास के दशक में देश में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का आंदोलन शुरू हुआ. तीन जगहों पर भाषायी आंदलन जोर पकड़ने लगा. ये तीन भाषाएं थीं तेलुगू, मराठी और पंजाबी. तेलुगु भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश को अलग राज्य देने के मुद्दे पर एक दौर में गांधी के अनुयायी रहे पोट्टी श्रीरामुलु की 58 दिन चली भूख हड़ताल के बाद मौत हो गई. इससे वहां के हालात बेकाबू हो गए. हारकर नेहरु को झुकना पड़ा और आंध्र प्रदेश अस्तित्व में आया. फिर 1956 में महाराष्ट्र को भी इसी आधार पर नए राज्य का दर्ज़ा मिला पर पंजाबियों की मांग की अनदेखी की गई. अलग पंजाब राज्य का गठन कई साल बाद हुआ था.

इसी दौर में हिन्दू कोड बिल पर भी संसद में काफ़ी हो-हल्ला मचा. कई हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया. उनका मानना था कि इसमें दखल देने का अधिकार सिर्फ़ धर्म गुरुओं को है, ना कि संसद को. कई जानकारों का मानना था कि हिंदू सिख या ईसाई और जैन धर्म के मानने वालों पर ही क्यों नया बिल लागू किया जाए? मुस्लिम भी इसके तहत आने चाहिए. पर नेहरु ने मुसलामानों को कुछ और वक़्त देने की वक़ालत की. तथाकथित उच्च जातियों को ये समस्या थी कि बीआर अम्बेडकर इसकी अगुवाई कर रहे थे.

इन्हीं पांच सालों में उत्तर पूर्व में नागा आंदोलन भी तेज़ हो उठा था. नेहरु एक दफ़ा नागालैंड की राजधानी कोहिमा गए थे. वहां उनका बहिष्कार किया गया. केन्द्र ने भारी मात्रा में वहां सैनिक दल स्थापित किया और कई बड़े नागा नेताओं की धरपकड़ की गई इससे स्थानीय जनजातियों में काफ़ी ग़ुस्सा भर गया.

आर्थिक हालात

1951 में कृषि उत्पादन पर केन्द्रित पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956) लागू हुई थी. यह औसत से अधिक सफल रही. अच्छे मानसून के चलते कृषि पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई थी. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2.1% के लक्ष्य से ऊपर जाकर 3.6% रहा, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी. इसी दौरान नेहरु ने ‘नए भारत के मंदिर’ यानी भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसे बांधों का निर्माण करवाया और 1956 में भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, यानी आईआईटी की आदारसिला रखी.

राजनीतिक पंडित आशुतोष वार्ष्णेय अपनी किताब ‘अधूरी जीत’ में लिखते हैं, “जिन देशों में आज़ादी के बाद आर्थिक संपन्नता से पहले लोकतंत्र स्थापित हुआ वहां सैनिक शासन लागू हो गया, पर भारत इसका अपवाद है.” इसके पीछे वे जवाहरलाल नेहरू और उनके मंत्रिमंडल की दूरगामी सोच मानते हैं जिन्होंने लोकतंत्र को औद्योगीकरण के ऊपर तरजीह दी. 

अंतरराष्ट्रीय हालात और भारत की स्थिति

नेहरु ने चीन के साथ मिलकर पंचशील समझौते पर दस्तख़त किया था जो उस वक़्त एक बड़ी सफलता मानी गई. नेहरु की पहले से ही विशाल अंतरराष्ट्रीय छवि और मजबूत होकर उभरी. पंचशील समझौता विवादित कहा जा सकता है क्योंकि 1950 में पटेल ने नेहरु को आगाह किया था कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. नेहरु ने उस समय चीन में भारत के राजदूत काव्लम माधव पन्निकर, अपनी बहन विजय लक्ष्मी पंडित और अपने स्वयं के विवेक को तरजीह देकर पटेल की राय को दरकिनार किया था.

दूसरी तरफ, दुनिया में शीत युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी, या कहें की 50 के दशक का अंत आते-आते यह चरम पर था. एक गुट नाटो था जिसका मुखिया अमेरिका था और दूसरा वारसॉ पैक्ट के तहत समाजवादी और साम्यवादी देशों का समूह था जिसका नेतृत्व सोवियत रूस कर रहा था. नेहरु और कुछ चुनिंदा अंतरराष्ट्रीय नेताओं ने 1955 में इंडोनेशिया में एक सम्मलेन करके खुद को इन दोनों गुटों से दूर रखने का निर्णय किया. बाद में यह गुट निरपेक्ष देशों का समूह बन गया जिसमें भारती की अहम् भूमिका रही.

चुनाव आयोग की तैयारी

बहरहाल इन तमाम परिस्थितियों के बीच 57 का साल आ गया. आज़ाद भारत के दूसरे आम 24 फ़रवरी से 9 जून के बीच संपन्न हुए. सुकुमार सेन ही इस बार भी मुख्य चुनाव आयुक्त थे. सन 52 के चुनाव में जहां 17 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाले थे, 57 में यह संख्या बढ़कर 19.3 करोड़ हो गई थी. 2 लाख मतदान केन्द्र स्थापित किये गए. कुल 500 सीटों के लिए हुए मतदान में 1,519 उम्मीदवार लोकसभा के लिए मैदान-ए-जंग में थे. वहीं लगभग 14,000 प्रतिद्वंदी विभिन्न विधानसभाओं में अपनी तकदीर आज़मा रहे थे. कुल मिलाकर 40 पार्टियों ने इस बार चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लिया.

आयोग ने देश भर के 74,000 सिनेमा हॉल में चुनाव संबंधित डॉक्यूमेंट्री दिखाई जिसका शीर्षक था ‘ये आपका वोट है’. इसे 13 भाषाओं में डब किया गया था. जहां पहले आम चुनाव में 22 लाख महिला वोटरों के नाम काट दिए गए थे इस बार 94% महिलों के नाम दर्ज किए गए. कुल पौने तीन लाख पुलिस कर्मी चुनाव ड्यूटी में लगाये गए जिनकी मदद के लिए तकरीबन पौने दो लाख ग्रामीण चौकीदार नियुक्त किये गए.

1957 में भारत में 17 राज्य थे. कुल 45.44% मतदान हुआ. सबसे अधिक केरल में 63.56% औए सबसे कम उड़ीसा में 34.88%. जहां 1952 में लोकसभा की प्रत्येक सीट के लिए 3.8% उम्मीदवार थे, 1957 में ये घटकर 3.77% रह गया था.

एक सीट से दो संसद चुने जाते थे

कुल 500 सीटों में से 312 एकल सीट थीं जिनमें से 16 अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षित थीं. 91 सीटें ऐसी थीं जहां से दो सांसद चुने जाते थे. एक सांसद अनुसूचित जाति या जनजाति का और दूसरा सामान्य वर्ग का. यानी 91 सीटों से 182 सांसद चुने जाने थे. 1957 के चुनाव के बाद यह व्यवस्था ख़त्म कर दी गई और आबादी के आधार पर एससी और एसटी समुदायों के लिए सीटें आरक्षित कर दी गईं.

 लोकसभा चुनाव परिणाम

नेहरु ने इस बार भी कांग्रेस पार्टी के लिए धुआंधार प्रचार किया और उन्हें देखने और सुनने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ी. उनके धुर विरोधी आचार्य नरेंद्र देव ने एक बार कहा था, “जवाहरलाल भीड़तंत्र से शक्ति प्राप्त करते हैं. उनको सभाओं में जनसागर भाता है. नेहरू अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के भ्रम में पड़कर सोचते हैं कि जनता उनके प्रशासन से खुश है. यह निष्कर्ष हालांकि हमेशा सही नहीं हो सकता.”

उस दौर में जो भी सच्चाई रही हो नेहरु की वैश्विक छवि, अपार लोकप्रियता और मज़बूत जनाधार की वजह से कांग्रेस ने पहले आम चुनाव के मुक़ाबले इस बार अपनी स्थिति और मजबूत की. उसने कुल 371 सीटें जीतीं और उसका वोट प्रतिशत 47.78 रहा. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया 27 सीट और 8.92 वोट प्रतिशत लेकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 19 और भारतीय जनसंघ को 4 सीटें मिलीं. और इनका वोट प्रतिशत 10.41 और 5.97 क्रमशः रहा.

 ग्रामीण भारत के शहरी सांसद

भारत की 500 सीटों के लिए पहले आम चुनाव में चुनाव में सिर्फ़ 22.5% सांसद कृषक/ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे. 1957 में ये बढ़कर 29.1% हो गए. करीब 10.2% पत्रकार थे और 30.5% वकील.  अध्यापक और शिक्षाविद सांसदों का आंकड़ा करीब 11.3% था और वहीं 10.2 % उद्योगपति थे. सबसे ज़्यादा सांसद वकील थे. ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन में वकीलों की प्रतिभागिता अधिक थी.

60 के दशक में लगभग 90% भारत ग्रामीण परिवेश का था, शहरीकरण बहुत नाममात्र का था. इसे देखते हुए संसद में सिर्फ एक तिहाई ग्रामीण सांसदों का होना ये बताता है कि नेहरु का लोकतंत्र अभी शैशवावस्था में था और नव-राष्ट्रीयता की उद्दाम लहरों पर सवार होकर शहरों से निकलकर गांवों की ओर जा रहा था. हर गुज़रते चुनाव के साथ काश्तकार बढ़ते गए और अन्य व्ययसाय से जुड़े प्रतिद्वंदियों का आंकड़ा कम होता गया. पहले आम चुनाव की तरह, इस चुनाव में भी महिला उम्मीदवारों की भागीदारी कम थी. कुल 45 महिला उम्मीदवारों में से सिर्फ 22 ही जीत सकीं.

भारतीय जन संघ के 130 उम्मीदवारों में से 54 की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी, वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के 110 उम्मीदवारों में से 14 और इंडियन नेशनल कांग्रेस के 490 उमीदवारों में से 2 की ज़मानत ज़ब्त हुई.

 केरल में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार

उत्तर भारत में कांग्रेस को ज़बर्दस्त जीत हासिल हुई. कुल 226 सीटों में से उसे 196 सीट मिलीं पर दक्षिण भारत में कांग्रेस को चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उड़ीसा में गणतंत्र परिषद ने कांग्रेस का सूर्य अस्त कर दिया था. कांग्रेस पार्टी को 20 में महज़ सात सीटें ही मिली थीं. महाराष्ट्र और गुजरात में भी उसे कड़ी टक्कर मिली. पर सबसे बड़ी चुनौती अगर कहीं कांग्रेस को कहीं मिली थी तो वह केरल में थी. यहां कम्युनिस्ट पार्टी एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरी. उसे 18 लोकसभा सीटों में से 9 पर जीत मिली थी जबकि कांग्रेस 6 सीटें ही जीत पाई. राज्य विधानसभा चुनाव में 126 सीटों में से सीपीआई ने 60 सीटें जीती थीं.

पहली बूथ कैप्चरिंग और कुछ दिलचस्प वाकये 

बिहार के रचियारी मतदान केंद्र में देश का सबसे पहला बूथ कैप्चरिंग का वकाया दर्ज हुआ. मतदान से एक दिन पहले शराब की दुकानें बंद कराने का निर्णय इन्हीं चुनावों में लिया गया था. मद्रास (चेन्नई) का एक मतदाता मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन से इतना प्रभावित था कि उसने सुकुमार के अलावा किसी और को वोट देने से मना कर दिया!

चाहे कोई भी जीता. असल जीत लोकतंत्र और सुकुमार सेन की ही हुई और नेहरु ने दूसरे आम चुनाव करवा कर विश्व को बता दिया कि ये मुल्क अब लोकतंत्र के अलावा किसी और वैकल्पिक व्यवस्था में विश्वास नहीं करेगा.

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