न्यूनतम आमदनी पर अधिकतम अज्ञानता

आज दुनिया को कल्याणकारी राज्य की बहुत आवश्यकता है. आबादी के बड़े हिस्से को नियति के भरोसे छोड़कर कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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समानता लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का एक मूलभूत वैचारिक आधार है, लेकिन इसे सुनिश्चित करना उसकी सबसे बड़ी चुनौती भी रहा है. इस कमी की भरपाई का एक उपाय है लोक-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना. निर्धनतम परिवारों के लिए न्यूनतम आय के रूप में एक निश्चित राशि उपलब्ध कराने की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ‘न्याय’ योजना ऐसा ही एक प्रस्ताव है. उनकी घोषणा के पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं, लेकिन इस संदर्भ में मुख्य प्रश्न यह है कि ऐसी किसी पहल की आवश्यकता है या नहीं?

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तीन दशकों में हमारे देश में नव-उदारीकरण की नीतियों के कारण केवल कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही कमजोर नहीं हुई है, बल्कि राज्य की शक्ति भी बहुत घटी है. इस प्रक्रिया में जनसंख्या के बड़े भाग को उसकी नियति के भरोसे छोड़ दिया गया है जिसकी स्थिति को सुधारने में न तो राज्य की कोई रुचि रही है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं. इसकी परिणति भारत समेत विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों में इस रूप में हुई कि धनिक और निर्धन के बीच अंतर निरंतर बढ़ता गया है.

राजनीतिक तौर पर इसका परिणाम भ्रष्टाचार और अतिवाद के रूप में हमारे सामने है. यह केवल संयोग नहीं है कि बीते कुछ वर्षों से निर्धनों और बिना कामकाज के लोगों को न्यूनतम आय देने की आवश्यकता पर चर्चा होने लगी है. इसे नव-उदारीकरण वाले लोकतंत्र की विवशता के रूप में देखा जाय. इससे यह भी इंगित होता है कि कल्याणकारी योजनाओं की रूप-रेखा भी पहले की तरह नहीं होगी. बहरहाल, ऐसी पहल के औचित्य और इसकी सफलता की संभावना पर विचार करने के लिए विश्व में अन्यत्र हुए ऐसे प्रयोगों और दिए जा रहे प्रस्तावों को देखा जाना चाहिए.

इस मुद्दे पर चर्चा में अक्सर फ़िनलैंड का उल्लेख आ रहा है. वहां जनवरी, 2017 में दो हज़ार बेरोज़गार युवाओं को हर माह 560 यूरो भत्ता देने की योजना प्रारंभ हुई थी, जो विभिन्न कारणों से दो वर्ष तक ही चल पायी. पिछले महीने की आठ तारीख़ को इस योजना के बारे में फ़िनलैंड के सामाजिक मामले एवं स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक प्रांरभिक रिपोर्ट जारी की है. इसके निष्कर्ष बहुत उत्साहवर्द्धक हैं और भारतीय संदर्भों में उनका संज्ञान लिया जाना चाहिए. भत्ता देने से रोज़गार के मामले में तो कोई फ़ायदा नहीं हुआ, पर इसके अधिकतर लाभार्थियों ने बताया कि उनका स्वास्थ्य बेहतर है और तनाव बहुत कम हो गया है.

जैसा कि इस रिपोर्ट को लिखनेवाले शोधार्थियों का मानना है और यह एक स्थापित तथ्य भी है कि किसी तरह की वित्तीय सुरक्षा होने से लोगों को अच्छा अनुभव होता है. हमारे देश में भी ग़रीबी, कुपोषण, अवसाद, आत्मविश्वास की कमी और बीमारी आदि का गहरा संबंध है.

अध्ययन से यह भी पता चला है कि लाभार्थी अब अन्य लोगों और सरकार पर अधिक भरोसा करने लगे हैं तथा रोज़गार पाने की उनकी आशाएं भी बढ़ी हैं. यह कहा जा रहा है कि फ़िनलैंड बहुत ही छोटा देश है और उसका प्रयोग भारत के लिए कोई आदर्श नहीं हो सकता है. एक हद तक यह तर्क सही है, पर यदि विभिन्न प्रयोगों को ध्यान में रखा जाए, तो हमारे यहां ऐसी कोई योजना लागू करने में मदद मिल सकती है. छोटा और बड़ा होने का तर्क एक हद तक ही सही है. यूरोप के तमाम देश हमसे आकार और आबादी में छोटे हैं, तो क्या हम उनकी तरह की ही अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली का त्याग कर दें?

बीते सप्ताहों में ब्रिटेन में सार्वभौम आय योजना से संबंधित दो शोध प्रकाशित हुए हैं. अर्थशास्त्री स्टीवर्ट लांसले और हॉवार्ड रीड के अध्ययन में कहा गया है कि ब्रिटेन में हर किसी को साप्ताहिक न्यूनतम आय देने की योजना पर जितना ख़र्च आएगा, वह 2010 के बाद से कल्याणकारी योजनाओं में सरकार द्वारा की गई कटौती से कम होगा. इस प्रस्ताव में हर वयस्क को कर रहित 60 पाउंड, 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को 175 पाउंड और 18 साल से नीचे के बच्चों को 40 पाउंड हर सप्ताह दिये जा सकते हैं. इस प्रस्ताव का लक्ष्य देशभर में बढ़ती निर्धनता और विषमता को रोकना है.

उल्लेखनीय है कि इसमें भत्ता देने या न देने में किसी अन्य आय की कोई शर्त नहीं रखी गयी है. इसमें कुल ख़र्च 28 अरब पाउंड होगा, जो कि एक दशक की कटौतियों से कम है. इसमें सबसे कम कमाने वाले कामगारों के लिए 15 प्रतिशत आयकर लगाने और मौजूदा आयकर में मामूली बढ़ोतरी का प्रस्ताव भी है. इसके साथ शिशु भत्ता और राजकीय पेंशन पर रोक लगाने के लिए सुझाव दिया गया है. अन्य लाभ पहले की तरह ही रहेंगे. अगर यह व्यवस्था लागू होती है, तो इससे ब्रिटेन के 75 प्रतिशत परिवारों को लाभ होगा और अन्य का ख़र्च बढ़ेगा. इस रिपोर्ट से पहले न्यू इकोनॉमिक्स फ़ाउंडेशन ने जो प्रस्ताव दिया है, उसमें कर रहित भत्तों को हटाकर हर वयस्क को सप्ताह में 48.08 पाउंड देने की बात है.

न्यूनतम आय योजना का एक बड़ा उदाहरण मकाऊ है. यहां 2008 से ही ऐसी आमदनी दी जाती है. हर स्थायी निवासी को 840 पाउंड और अस्थायी निवासी को इसका आधा दिया जाता है. यह पैसा शहर के कसीनो कर से आता है.

कुछ शहरों में न्यूनतम आय योजना लागू की गयी है. कनाडा के हैमिल्टन शहर में तीन सालों के लिए ऐसी योजना चल रही है. इस शहर की आबादी साढ़े पांच लाख है. आय योजना में एक हज़ार लोगों को 17 हज़ार कनाडाई डॉलर तक की राशि दी जा रही है. इनमें जो विकलांग हैं, उन्हें अतिरिक्त छह हज़ार मिलते हैं. ओंटारियो प्रांत की सरकार इस योजना में निवेश कर रही है और इसका उद्देश्य यह देखना है कि सामाजिक सुरक्षा की मौजूदा व्यवस्था से न्यूनतम आय योजना निर्धनता कम करने में अधिक सहायक होती है या नहीं. इस पहल में जो राशि दी जाती है, वह इस राज्य में कल्याणकारी स्थिति के लिए तय मानक से दुगुनी है. पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस योजना के लाभ दिखने लगे हैं. लाभार्थियों के आत्मसम्मान और उम्मीदों में बढ़ोतरी हुई है. अब वे भविष्य के बारे में सपने संजोने लगे हैं. ‘द गार्डियन’ में हैमिल्टन राउंडटेबल फॉर पॉवर्टी रिडक्शन के निदेशक टॉम कूपर ने कहा है कि उनकी व्यक्तिगत राय है कि न्यूनतम आमदनी 21वीं सदी की प्रमुख सामाजिक नीति होगी.

यूरोप में बार्सिलोना में सबसे पहले अक्टूबर, 2017 में ऐसी योजना शुरू की गयी थी. इसकी अवधि दो साल है. शहर काउंसिल और यूरोपीय संघ द्वारा चलायी जा रही इस योजना में शहर के सबसे ग़रीब इलाक़े में एक हज़ार परिवारों को सौ यूरो से लेकर 1,676 यूरो तक हर माह आय पूरक के रूप में दिया जाता है. ये परिवार अन्य स्रोतों से भी आमदनी कर सकते हैं और बेरोज़गारी आदि की कोई शर्त नहीं रखी गयी है. इनमें से 900 परिवार ‘सामाजिक आर्थिकी’ परियोजनाओं में भी भागीदारी कर रहे हैं. इसके तहत वे रोज़गार, आवास और सामुदायिक जीवन में अपनी क्षमता का योगदान भी देते हैं. इस पहल के तहत रचनात्मक तरीकों से ग़रीबी निवारण का प्रयोग हो रहा है. इस कार्यक्रम के प्रबंधक फ़र्नांडो बर्रेरो का बयान बहुत अहम है. वे कहते हैं कि हमें यह देखना है कि ग़रीबी से लड़ने में हम समुदायों को किस तरह से तैयार कर सकते हैं क्योंकि नीतियां कल्याणकारी राज्य के पारंपरिक तरीके से कारगर नहीं हो पा रही हैं.

अन्य जगहों की तरह हमारे देश में भी कहा जा रहा है कि लोगों में ऐसी योजनाओं से होनेवाली आय पर निर्भरता बढ़ेगी. लेकिन यूनिवर्सल इनकम प्रोजेक्ट के सह-संस्थापक जिम पुह का कहना है कि अध्ययन यह इंगित करते हैं कि बहुत थोड़े लोगों ने ही श्रमशक्ति से नाता तोड़ा है. कुछ प्रयोगों में पाया गया है कि इससे लोगों में उद्यमशीलता बढ़ी है और ऐसे रूझानों से रोज़गार में अंततः बढ़त ही होगी. पुह का मानना है कि सच यह है कि अधिकतर लोग समाज में योगदान करना चाहते हैं और अगर उन्हें बुनियादी वित्तीय सुरक्षा मिलती है, तो वे योगदान का रास्ता भी निकाल लेंगे.
इस साल कैलिफोर्निया के स्टॉकटन में भी साल-डेढ़ साल के लिए ऐसी योजना शुरू होने वाली है. अमेरिका में यह ऐसा पहला प्रयोग होगा. इसके तहत बेहद ग़रीब सौ परिवारों को 500 डॉलर हर माह मिलेंगे. यह राशि दान से आनी है. इस योजना की निदेशक लोरी ऑस्पिना का कहना है कि जब अमेरिका की लगभग आधी आबादी किसी आपात स्थिति में 400 डॉलर का जुगाड़ नहीं कर सकती है, तब इस योजना से लाभुकों को बहुत फ़ायदा होने की उम्मीद है.

हमारे देश में इंदौर में भी ऐसा प्रयोग हो चुका है. वर्ष 2011 और 2013 के बीच सेल्फ़ इंप्लॉयड वीमेंस एसोसिएशन (सेवा) ने आठ गांवों में डेढ़ साल तक नकदी दी थी. अध्ययन में पाया गया था कि लाभुकों में से अधिकतर ने इस राशि का इस्तेमाल सकारात्मक मदों में और जीवनयापन को बेहतर बनाने के लिए निवेश में किया. पिछले साल के आर्थिक सर्वे में भारत सरकार के सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने जब न्यूनतम आमदनी की बात कही थी, तब उन्होंने लिखा था कि उन्हें सेवा के इस प्रयोग से प्रेरणा मिली है. सिक्किम भी 2022 से इस तरह की पहल करने पर विचार कर रहा है.

देश-दुनिया में आज जिस तरह की स्थितियां हैं, उनमें कल्याणकारी राज्य की आवश्यकता बहुत अधिक बढ़ गयी है. आबादी के बड़े हिस्से को उसकी नियति के भरोसे छोड़कर कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है. ऐसे में अनुदानों, भत्तों, न्यूनतम आय, रोज़गार गारंटी और सामाजिक मदों में सरकारी ख़र्च बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. राहुल गांधी का यह प्रस्ताव न सिर्फ़ सराहनीय है, बल्कि इसका स्वागत और समर्थन भी किया जाना चाहिए.

रही बात ‘न्याय’ योजना को लागू करने के लिए व्यावहारिक व्यवस्था की, तो वह कोई बड़ी चुनौती नहीं है. निर्धनतम पांच करोड़ लोगों को चिन्हित करना और समय के साथ इसमें नयी संख्या जोड़ना और बेहतर हो जाने पर परिवारों को हटाना कोई बड़ी समस्या नहीं है. विभिन्न उपायों से धन जुटाना और सामाजिक कल्याण की अन्य योजनाओं के साथ इसका समायोजन करना भी विशेष चुनौती नहीं है. यदि सरकारें ये सब भी नहीं कर सकती हैं, तो उनका अस्तित्व बड़े-बड़े जुमले उछालना, झंडे फहराना और कॉरपोरेट स्वार्थों के लिए काम करने के लिए ही है क्या?

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