कांग्रेस का घोषणापत्र दे रहा राजनीति का रास्ता बदलने का संकेत

जनता को अपनी आवाज़ के लिए मीडिया से संघर्ष करना पड़ेगा. मैं राहुल गांधी को इस एक मोर्चे पर लड़ते हुए देखना चाहता हूं.

WrittenBy:रवीश कुमार
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कांग्रेस का घोषणापत्र 90 के बाद की आर्थिक नीतियों की राजनीति का रास्ता बदलने का संकेत दे रहा है. उदारीकरण की नीति की संभावनाएं अब सीमित हो चुकी हैं. इसमें पिछले दस साल से ऐसा कुछ नहीं दिखा जिससे लगे कि पहले की तरह ज़्यादा वर्गों को अब यह लाभ दे सकती है. बल्कि सारे आंकड़े उल्टा ही बता रहे हैं. 100करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में कुल संपत्तियों का 70 फीसदी एक प्रतिशत आबादी के बाद चला गया है. इस एक प्रतिशत ने सुधार के नाम पर राज्य के पास जमा संसाधनों को अपने हित में बटोरा है. आज प्राइवेट जॉब की स्थिति पर चर्चा छेड़ दीजिए, दुखों का आसमान फट पड़ेगा, आप संभाल नहीं पाएंगे.
हम आज एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं. हमें राज्य के संसाधन, क्षमता और कॉरपोरेट के अनुभवों का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए. एक की कीमत पर उसे ध्वस्त करते हुए कॉरपोरेट का पेट भरने से व्यापक आबादी का भला नहीं हुआ. मोदी राज में कॉरपोरेट ने अगर नौकरियों का सृजन किया होता तो स्थिति बदतर न होती. मगर अब कॉरपोरेट के पास सिर्फ टैक्सी और बाइक से डिलिवरी ब्वाय पैदा करने का ही आइडिया बचा है.

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उदारीकरण ने हर तरह से राज्य को खोखला किया है. राज्य ने संसाधनों का विस्तार तो किया, मगर क्षमताओं का नहीं. आज राज्य का बजट पहले की तुलना में कई लाख करोड़ का है. लेकिन इनके दम पर राज्य ने जनता की सेवा करने की क्षमता विकसित नहीं की. सरकारी सेक्टर में रोज़गार घट गया. घटिया हो गया. ठेकेदारों की मौज हुई और ठेके पर नौकरी करने वालों के हिस्से सज़ा आई. इस संदर्भ में कांग्रेस का घोषणापत्र राज्य के संसाधनों को राज्य की क्षमता विकसित करने की तरफ ले जा रहा है. यह नया आइडिया नहीं है, मगर यही बेहतर आइडिया है.

कांग्रेस ने 5 करोड़ ग़रीब परिवारों को प्रतिमाह 6000 देने का वादा किया है. मोदी सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में यह बात 2016 में आ गई, मगर सरकार सोती रही. जब राहुल गांधी ने इसकी चर्चा छेड़ी तो कितने कम समय में 10 करोड़ किसानों को साल में 6000 देने की योजना आ गई. यह प्रमाण है कि आम लोगों का जीवन स्तर बहुत ख़राब है. इतना ख़राब कि उज्ज्वला योजना के तहत सिलेंडर देने पर दोबारा सिलेंडर नहीं ख़रीद पा रहे हैं. सिलेंडर रखा है और बगल में लकड़ी के चूल्हे पर खाना पक रहा है.

हमने डेढ़ साल की नौकरी सीरीज़ में देखा है. हर राज्य अपराधी हैं. परीक्षा आयोग नौजवानों की ज़िंदगी को बर्बाद करने की योजना हैं. इसका मतलब है कि राहुल गांधी ने इस बात को देख लिया है. एक साल में केंद्र सरकार की 4 लाख नौकरियां भरने का वादा किया है. वो भी चुनाव ख़त्म हो जाने के बाद भरा जाएगा. मोदी सरकार ने पांच साल भर्तियां बंद कर दीं. चुनाव आया तो आनन-फानन में रेलवे की वेकेंसी निकाली. उसके पहले सुप्रीम कोर्ट केंद्र से लेकर राज्यों को फटकारता रहा कि पुलिस बल में 5 लाख पद ख़ाली हैं, इनकी भर्ती का रोड मैप दीजिए. ज़ाहिर है इस बेरोज़गारी को भी सरकार और राज्य सरकारों की आपराधिक लापरवाही ने भी बड़ा किया है. राहुल राज्यों को भी नौकरियां देने के लिए मजबूर करने की बात कर रहे हैं. उन्हें केंद्र से फंड तभी मिलेगा, जब वे अपने यहां की बीस लाख नौकरियों को भरेंगे.

रोज़गार से संबंधित कुछ वादे और भी महत्वपूर्ण हैं. 12 महीने के भीतर अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के ख़ाली पदों को भरने का वादा किया गया है. आरक्षण को लेकर भ्रांतियां फैलाई जाती हैं, मगर यह कभी मिलता नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट थी. 23 आईआईटी में 6043 फैकल्टी में आरक्षित वर्ग की 170फैकल्टी ही हैं. मात्र तीन प्रतिशत. वही हाल सेंट्रल यूनिवर्सिटी में है. हर जगह है. अगर 12 महीने के भीतर इन पदों को भरा जाएगा, तो कई हज़ार नौजवानों को नौकरी मिलेगी. इसके अलावा सर्विस रूल में बदलाव कर केंद्र सरकार की भर्तियों में 33 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात है.
90 के दशक से यह बात रेखांकित की जा रही है कि न्यायपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी, अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है. कम कहना भी ज़्यादा है. दरअसल नगण्य है. कांग्रेस ने वादा किया है कि वह इसमें सुधार करेगी और उनके प्रतिनिधित्व का स्तर बढ़ाएगी. मोदी सरकार में ग़रीब सवर्णों को आरक्षण मिला है. वो अब देखेंगे कि राज्य कभी उनके आरक्षण को लेकर गंभीर नहीं रहेगा. जब दलित और ओबीसी जैसे राजनीतिक रूप से शक्तिशाली तबके के प्रतिनिधित्व का यह हाल है तो ग़रीब सवर्णों को क्या मिल जाएगा.

उदारीकरण के बाद भारत में सरकारी उच्च शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया. इसमें कांग्रेस के दस साल और बीजेपी के भी वाजपेयी और मोदी के दस साल हैं. देश भर में हज़ारों की संख्या में अजीब-अजीब प्राइवेट संस्थान खोले गए. महंगी फीस के बाद भी इन हज़ारों में से मुश्किल से दस बीस संस्थान भी स्तरीय नहीं हुए. जबकि इन्हें राज्य ने कितना कुछ दिया. किसानों से ज़मीनें लेकर कम दामों पर ज़मीनें दी. बाद ये लोग यूनिवर्सिटी बंद कर उसमें अलग अलग दुकान खोलते रहे. इस प्रक्रिया में चंद लोग ही मज़बूत हुए. इसके पैसे से राज्य सभा और लोकसभा का टिकट ख़रीद कर संसद में पहुंच गए.

ज़िलों और कस्बों में कॉलेज को ध्वस्त करने का आर्थिक बोझ वहां के नौजवान ने उठाया. उनकी योग्यता का विस्तार नहीं हुआ. जिससे कम कमाने लायक हुए और अगर राजधानियों और दिल्ली तक आए तो उस पढ़ाई के लिए लाखों खर्च करना पड़ा, जिससे वे और ग़रीब हुए. राहुल गांधी ने कहा है कि वे सरकारी कालेजों का नेटवर्क बनाएंगे. शिक्षा पर 6 प्रतिशत ख़र्च करेंगे. यही रास्ता है. गांव कस्बों के नौजवानों को पढ़ाई के दौरान गरीबी से बचाने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है.

न्यायपालिका के क्षेत्र में कांग्रेस का घोषणापत्र नई बहस छेड़ता है. कांग्रेस ने कहा है कि वह देश भर में छह अपील कोर्ट की स्थापना करेगी. राज्यों के हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए देश भर से सभी को दिल्ली नहीं आना होगा. बीच में ही मौजूद इन अपील कोर्ट से उसके मामले का निपटारा हो सकता है. इससे सुप्रीम कोर्ट का इंसाफ और सामान्य लोगों तक पहुंचेगा. क्यों हार्दिक पटेल को अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा? इसी के तर्ज पर राज्यों के भीतर हाईकोर्ट की बेंच का भौगोलिक विस्तार करने की मांग ज़ोर पकड़ सकती है . कांग्रेस को यह भी देखना था. मेरठ में अलग बेंच की मांग वाजिब है. इस बात का भी ध्यान रखना था.

सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक कोर्ट का दर्जा देने की बात है. अलग अलग बेंचों से गुज़रते हुए संवैधानिक मामले बहुत समय लेते हैं. मौलिक अधिकार की व्याख्या हो या राम मंदिर का ही मामला. मामला छोटी बेंच से बड़ी बेंच और उससे भी बड़ी बेंच में घूमते रहता है और अलग-अलग व्याख्याएं सामने आती रहती हैं. आपने देखा होगा कि अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में सारे जज एक साथ बैठते हैं और मामले को सुनकर निपटाते हैं. संवैधानिक मामलों का फैसला इसी तरह से होना चाहिए. यह बहस पुरानी है मगर कांग्रेस ने वादा कर यह संकेत दिया है कि वह राज्य और न्यायपालिका के ढांचे में बदलाव करना चाहती है.

कांग्रेस ने 17 वीं लोकसभा के पहले ही सत्र में उन्मादी भीड़ द्वारा आगजनी, हत्या जैसे नफ़रत भरे अपराधों की रोकथाम और दंडित करने के लिए नया कानून बनाने का वादा किया है. कांग्रेस का यह वादा साहसिक है कि वह मोदी सरकार की बनाई गई इलेक्टोरल बॉन्ड को बंद कर देगी. यह स्कीम अपारदर्शी है. पता नहीं चलता कि किन लोगों ने बीजेपी को 1000 करोड़ से ज्यादा का चंदा दिया है. सारी बहस थी कि चंदा देने वाले का नाम पारदर्शी हो, मगर कानून बना उल्टा. इसके अलावा कांग्रेस ने राष्ट्रीय चुनाव कोष स्थापित करने का वादा किया है. जिसमें कोई भी योगदान कर सकता है. बेहतर है इन सब पर चर्चा हो.

मेरे लिहाज़ से कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में मीडिया को लेकर जो वादा कर दिया है उस पर ग़ौर किया जाना चाहिए. अभी तेल कंपनी वाला सौ चैनल खरीद लेता है. खनन कंपनी वाला रातों रात एक चैनल खड़ा करता है, चाटुकारिता करता है और सरकार से लाभ लेकर चैनल बंद कर गायब हो जाता है. इसे क्रॉस ओनरशिप कहते हैं. इस बीमारी के कारण एक ही औद्योगिक घराने का अलग पार्टी की राज्य में खुशामद कर रहा है, तो दूसरी पार्टी की सरकार के खिलाफ अभियान चला रहा है. पत्रकारिता में आया हुआ संकट किसी एंकर से नहीं सुलझेगा. क्रॉस ओनरशिप की बीमारी को दूर करने से होगा.

मीडिया इस बहस को ही आगे नहीं बढ़ाएगा. यह बहस होगी तो आम जनता को इसके काले धंधे का पैटर्न पता चल जाएगा. कांग्रेस ने कहा है कि मीडिया में “एकाधिकार रोकने के लिए कानून पारित करेगी ताकि विभिन्न क्षेत्रों के क्रॉस स्वामित्व तथा अन्य व्यवसायिक संगठनों द्वारा मीडिया पर नियंत्रण न किया जा सके.” आज एक बिजनेस घराने के पास दर्जनों चैनल हो गए हैं. जनता की आवाज़ को दबाने और सरकार के बकवास को जनता पर दिन रात थोपने का काम इन चैनलों और अखबारों से हो रहा है. अगर आप भाजपा के समर्थक हैं और कांग्रेस के घोषणा पत्र से सहमत नहीं हैं, तो भी इस पहलू की चर्चा ज़ोर-ज़ोर से कीजिए ताकि मीडिया में बदलाव आए.

2008 में कांग्रेस ने यह संकट देख लिया था, उस पर रिपोर्ट तैयार की गई मगर कुछ नहीं किया. साल 2014 के बाद कांग्रेस ने इस संकट को और गहरे तरीके से देख लिया है. पांच साल में मीडिया के ज़रिए विपक्ष को ख़त्म किया गया. उसका कारण यही क्रॉस स्वामित्व था. अब कांग्रेस को समझ आ गया है. मगर क्या वह उन बड़े औद्योगिक घरानों से टकरा पाएगी, जिनका देश की राजनीति पर कब्ज़ा हो गया है. वे नेताओं के दादा हो गए हैं. प्रधानमंत्री तक उनके सामने मजबूर लगते हैं. मेरी बात याद रखिएगा. कांग्रेस भले वादा कर कुछ न कर पाए, मगर यह एक ऐसा ख़तरा है जिसे दूर करने के लिए आज न कल भारत की जनता को खड़ा होना पड़ेगा.

मैं मीडिया में रहूं या न रहूं मगर ये दिन आएगा. जनता को अपनी आवाज़ के लिए मीडिया से संघर्ष करना पड़ेगा. मैं राहुल गांधी को इस एक मोर्चे पर लड़ते हुए देखना चाहता हूं. भले वे हार जाएं मगर अपने घोषणा पत्र में किए हुए वादे को जनता के बीच पहुंचा दें और बड़ा मुद्दा बना दें. आप भी कांग्रेस पर दबाव डालें. रोज़ उसे इस वादे की याद दिलाएं. भारत का भला होगा. आपका भला होगा.

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