ज़रूरी है आर्थिक मोर्चे पर चल रहे सरकारी खेल को समझना

जब एस्सेल ग्रुप नमामि गंगे में प्रोजेक्ट चलायेगी, तो क्या उसके चैनलों पर योजना के फर्ज़ीवाड़े की ख़बर छपेगी?

WrittenBy:रवीश कुमार
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इंडियन एक्सप्रेस के संदीप सिंह की ख़बर ध्यान से पढ़ें. ख़बर की हेडिंग है कि एस्सेल ग्रुप की दो कंपनियां घाटे में थीं, फिर भी देश की चोटी की म्यूचुअल फंड कंपनियों ने 960 करोड़ का निवेश किया. इन कंपनियों का बहीखाता पढ़कर संदीप ने लिखा है कि एस्सेल ग्रुप की कंपनियां घाटे में चल रही थीं, फिर भी चोटी के तीन म्यूचुअल फंड ने निवेश किया. एस्सेल ग्रुप की दो कंपनियां हैं, कोंटी इंफ्रापावर और एडिसन्स यूटिलिटी. इनमें तीन साल पहले तीन बड़े म्यूचुअल फंड कम्पनियों ने निवेश किया था. भारत में रिलायंस म्यूचुअल फंड, कोटक महिंद्रा म्यूचुअल फंड और एचडीएफसी म्यूचुअल फंड को एस्सल ग्रुप की दो कंपनियों में अपने निवेश को लेकर जूझना पड़ रहा है. यह मामला 2015-16 का है. संदीप सिंह को रिलायंस ग्रुप ने जवाब नहीं दिया. बाकी दो ने बताया कि उन्होंने यह निवेश ‘ज़ी’ के शेयरों के बदले में किया. रिपोर्टर जानना चाहता है कि जो कंपनी घाटे में चल रही हो उसमें ये कंपनियां निवेश क्यों करना चाहेंगी. अब इस निवेश को वापस पाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि दोनों कंपनियां घाटे में चल रही हैं.

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क्या आप जानते हैं कि वाराणसी में गंगा को साफ करने के लिए ज़ी न्यूज़ से संबंधित एस्सेल ग्रुप ने एक कंपनी बनायी है. वाराणसी एसटीपी प्रोजेक्ट प्राइवेट लिमिटेड. इसमें 74 प्रतिशत हिस्सेदारी एस्सल ग्रुप की है. यह कंपनी वाराणसी के रमन्ना में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा रही है. अब इसके बारे में एक एजेंसी की रिपोर्ट आई है कि मानसून के कारण यह प्रोजेक्ट समय पर पूरा नहीं हो सकेगा. साथ ही इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए प्रायोजक पर निर्भरता के कारण भी संकट है. इंडिया रेटिंग एंड रिसर्च नाम की कंपनी ने इस कारण से एस्सेल ग्रुप की इस कंपनी की रेटिंग घटा दी है. यह ख़बर बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी है. अब जब एस्सेल ग्रुप नमामि गंगे में प्रोजेक्ट चलायेगी तो क्या उसके चैनलों पर इस योजना के फर्ज़ीवाड़े की ख़बर छपेगी?

फ्रांस के एक बड़े अख़बार Le Monde ला मॉन्द ने ख़बर छापी है. इसमें लिखा है कि 2015 में जब 36 राफेल विमानों का सौदा हुआ, तब उसके छह महीने के भीतर फ्रांस में रजिस्टर अनिल अंबानी की कंपनी का एक हज़ार करोड़ से अधिक का टैक्स माफ कर दिया गया. बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार ने लिखा है कि अनिल अंबानी की कंपनी से जवाब मांगा गया, तो कहा गया कि उनकी कंपनी को कोई फायदा नहीं पहुंचाया गया है.

बिजनेस स्टैंडर्ड ने लिखा है कि 2008-12 के बीच अनिल अंबानी की फ्रांस वाली कंपनी को घाटा हो गया. फ्रांस के प्रशासन ने उन पर 1000 करोड़ से अधिक का टैक्स लगाया था. लेकिन बाद में 56 करोड़ पर ही मामला सलट गया. अंबानी की कंपनी का कहना है कि कानूनी प्रक्रिया के तहत सब सलटा है. ला मॉन्द फ्रांस का बड़ा अख़बार है. ज़ाहिर है उसने यह ख़बर खेल में तो नहीं छापी होगी. कुछ तो है कि राफेल से संबंधित जो भी ख़बर आती है, फ्रांस की सरकार दौड़ कर खंडन करने आ जाती है.

बिजनेस स्टैंडर्ड में दिलशा सेठ की ख़बर टैक्स वसूली को लेकर है. ख़बर यह है कि जब नयी सरकार बजट पेश करेगी तब आयकर विभाग आग्रह करेगा कि मौजूदा वित्त वर्ष में टैक्स वसूली के लक्ष्य को कम किया जाये. 30 प्रतिशत अधिक कर-वसूली संभव नहीं है. 2018-19 के वित्त वर्ष में भी लक्ष्य से 60000 करोड़ कम की वसूली हुई थी.

2018-19 में बैंकों ने 1,56,702 करोड़ का लोन बट्टा खाते में डाला है. भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार पिछले दस साल में बैंकों ने सात लाख करोड़ से ज़्यादा के लोन को राइट ऑफ किया है. इसका 80 फीसदी हिस्सा पिछले पांच साल में बट्टा खाते में डाला गया है. अप्रैल 2014 से लेकर अब तक 5,55,603 करोड़ का लोन बट्टा खाते में डाला गया. बैंक एनपीए या बैड लोन को कम दिखाने के चक्कर में बट्टा खाते में डाल देते हैं. उन्हीं कर्ज़ों को बट्टा खाते में डाला जाता है, जिनकी वसूली मुश्किल हो जाती है. अलग खाते में डालकर वसूली के लिए दबाव डाला जाता है, मगर उस खाते से 15-20 प्रतिशत से अधिक की वसूली नहीं हो पाती है. रिज़र्व बैंक और बैंक दोनों ही नहीं बताते हैं कि किनके लोन को बट्टा खाते में डाला गया है. इससे आप नहीं जान पायेंगे कि किस उद्योगपति पर रहम की गयी है.

नरेंद्र मोदी के शासन काल को आर्थिक फैसलों और घटनाओं से आंकिये. हालांकि पाठकों में ऐसी ख़बरों को समझने का आधार और संस्कार इतना कम है कि लोग इसे दूसरे जगत की ख़बर मानकर छोड़ देते हैं. किसी नेता का मूल्यांकन करते समय इन बातों को सामने नहीं रखते. न्यूज़ पढ़ने और न्यूज़ समझने में बहुत अंतर होता है. राजनीतिक ख़बर को एक पाठक तुरंत यहां से वहां मिलाने लगता है, आर्थिक ख़बरों में ऐसा करने के लिए उसके पास ऐसी ख़बरों को पढ़ने का लंबा अनुभव नहीं है. जैसे लोग यह नहीं समझ पाते कि एक उद्योगपति के पास जब सारे चैनल आ जायेंगे, तो उसका लोकतंत्र और लोगों की आवाज़ पर क्या असर पड़ेगा?

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