लोकतंत्र में होते हुए ऐसा कहना कि मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग का स्रोत जानने की ज़रूरत नहीं, एकदम हास्यास्पद बात है.
सुप्रीम कोर्ट ने हाल में इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर अंतरिम रोक लगाने के लिए दायर की गयी एक याचिका को खारिज़ कर दिया, हालांकि उसने वित्त मंत्रालय से अप्रैल और मई 2019 में इन बॉन्डों की खरीद दस दिन से घटाकर पांच दिन करने के लिए कहा है. इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने सभी पार्टियों को 30 मई, 2019 तक फंडिंग की रसीद और दानकर्ताओं के विवरण भी प्रस्तुत करने को कहा है.
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Contributeइस दौरान चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा: “हमने इस मामले पर विचार किया है और चुनाव आयोग के पक्ष की जांच भी की. फ़िलहाल इस मामले को सुनने की आवश्यकता है, लेकिन इतने कम समय में किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता है. अदालत को अंतरिम व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए और किसी पार्टी का पक्ष नहीं लेना चाहिए.”
इस मुद्दे को तफ़सील से देखने व समझने की ज़रूरत है.
2 जनवरी, 2018 के दिन नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में राजनीतिक व्यवस्था की सफाई के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का नोटिस दिया. इसके प्रेस विज्ञापन में इन बॉन्डों की विभिन्न ख़ूबियों को भी सूचीबद्ध किया गया था. वह ख़ूबियां हैं:
इलेक्टोरल बॉन्ड का उद्देश्य चुनावी फंडिंग को पारदर्शी बनाना है. सरल शब्दों में कहें, तो चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकना इसका अहम मक़सद है. जैसा कि अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने भी सुप्रीम कोर्ट से कहा: “पूरी योजना का वास्तविक उद्देश्य चुनावों में काले धन पर रोक लगाना है.”
एक बार फ़िर इस मसले पर बिंदुवार नज़र डालते हैं:
1) ऐसे सवाल उठते रहे हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स से काले धन पर कैसे रोक लगेगी. मान लीजिये कि कोई इंसान है, जिसके पास काला धन है और वह अपना राजनीतिक प्रभाव पैदा करना चाहता है. वह अपने काले धन से चुनावी बॉन्ड खरीदने के लिए एक बैंक में जाता है. ऐसा करने से अधिकारियों को तुरंत पता चल जायेगा कि उसके पास काला धन है. तो फ़िर कोई ऐसा क्यों करेगा?
2) यदि किसी व्यक्ति के पास काला धन है और वह अपना राजनीतिक रसूख कायम करना चाहता है, तो उसके लिए आसान है कि वह सीधे किसी पार्टी से संपर्क करे और उसे धन सौंप दे. यदि वह पार्टी चुनाव जीत जाती है, तो उसे बस पार्टी को फंडिंग की याद दिलानी होगी और उसका काम चल निकलेगा. ऐसा भी हो सकता है कि जीत-हार के पहले ही उसे कोई फायदा पहुंचा दिया गया हो.
3) अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने अपना एक और पक्ष रखा था: “हमारे पास चुनावों की फंडिंग को लेकर राज्य की कोई नीति नहीं है. अमूमन समर्थकों, संपन्न व्यक्तियों और कंपनियों से फंडिंग आती है. वे सभी चाहते हैं कि उनकी राजनीतिक पार्टी ही जीत हासिल करे. अगर उनकी पार्टी नहीं जीतती है, तो इसके दूसरे असर भी दिखायी देते हैं. इसलिए फंडिंग में गोपनीयता बनायी रखनी ज़रूरी है.
साफ़-सुथरी पॉलिटिकल फंडिंग के अलावा, सरकार ऐसा भी सोचती है कि चुनावी बॉन्ड गोपनीयता बनाये रखने में मदद करेंगे. लेकिन ऐसी गोपनीयता का कोई मतलब नहीं निकलता है. जिस वक़्त कोई व्यक्ति चुनावी बॉन्ड खरीदता है, बैंक को मालूम होता है कि वह कौन है. और जब बैंक को उसकी पहचान मालूम है, तो यह एक तय बात है कि सरकार भी उसे जानती है.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार, साल 2017-18 में, भारतीय जनता पार्टी, जो इस समय सत्ता पर काबिज़ है, को इन इलेक्टोरल बॉन्डों की मदद से 210 करोड़ रुपये मिले थे. इसी दौरान कांग्रेस पार्टी को बॉन्ड से 5 करोड़ रु हासिल हुए. यह आंकड़े क्या कहते हैं?
इससे पता चलता है कि संभावित फंडर्स को मालूम है कि जब सरकार की बात आती है तो गोपनीयता जैसी कोई चीज़ काम नहीं करती है, क्योंकि सरकार जानती है कि चुनावी बॉन्ड कौन खरीद रहा है. ऐसे में, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि साल 2017-18 में चुनावी बॉन्ड के माध्यम से हुई लगभग सारी फंडिंग केंद्र सरकार में बैठी पार्टी को गयी. अब यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि 2018-19 का डेटा क्या कहता है.
4) सरकार ने अदालत में यह भी तर्क दिया कि मतदाताओं को राजनीतिक फंडिंग के स्रोत जानने की ज़रूरत नहीं है. यह तर्क इस बात के बचाव में दिया गया था कि फंडिंग करने वाले व्यक्ति का नाम चुनावी बॉन्ड पर दिखायी नहीं देता है. एक लोकतंत्र में होते हुए ऐसा कहना कि मतदाता को जानने की ज़रूरत नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग कौन कर रहा, एकदम हास्यास्पद है.
हाल में, मैं चुनावी बॉन्ड पर एक टीवी डिबेट में बैठा था. भाजपा प्रवक्ता ने इस बात का बचाव करते हुए बड़े-बड़े तर्क दिये कि मतदाताओं को यह नहीं पता होना चाहिए कि राजनीतिक दलों को पैसा कौन दे रहा है. वह जो कह रहा था, संक्षेप में उसका लब्बोलुबाब यह था कि मान लीजिये, एक कॉरपोरेट कंपनी का मालिक किसी विशेष राजनीतिक पार्टी को फंड देता है और अगर इसकी जानकारी सबको हो जायेगी, तो एक पार्टी का समर्थन करने के उसके निर्णय से कंपनी में काम करने वाले अन्य लोगों की निर्णय-प्रक्रिया पर गलत असर पड़ेगा.
यह बात भारतीय मतदाता के आईक्यू का अपमान करती है. मुझे यकीन है कि कॉरपोरेट्स के लिए काम करने वाले लोग यह ख़ुद से तय कर सकते हैं कि किसे वोट देना है.
5) सवाल यह है कि सरकार इस मामले में लगातार उस चीज़ का बचाव क्यों कर रही है, जिसका बचाव करना संभव नहीं है. इस ‘क्यों’ के वाज़िब जवाब के लिए, 2018-19 में पार्टियों को मिली फंडिंग के डेटा की ज़रूरत है, जिससे यह मालूम चले कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से किस पार्टी को कितना पैसा मिला.
6) पॉलिटिकल फंडिंग को लेकर एक और अहम बात पर गौर करना चाहिए. पहले कंपनियों को पिछले तीन वर्षों में अपनी कमाई से हुए औसत फायदे का केवल 7.5 प्रतिशत ही राजनीतिक पार्टियों को दान करने की अनुमति थी. पहले उन्हें उन राजनीतिक पार्टियों के नाम भी घोषित करने होते थे, जिनके लिए उन्होंने फंडिंग की थी. इससे यह भी तय किया जा सकता था कि वे जेनुइन कंपनियां जो लंबे समय से बिजनेस में हैं, वही केवल पॉलिटिकल पार्टियों को फंडिंग कर सकती हैं.
मार्च 2017 में इस नियम में बदलाव कर दिया गया. कंपनियां अब किसी भी राजनीतिक पार्टी को कितनी भी बड़ी फंडिंग कर सकती हैं और वह भी बिना पार्टी का नाम घोषित किये. इसका साफ़ मतलब है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के लिए किसी फर्जी कंपनी का इस्तेमाल आसानी से किया जा सकता है.
7) इस समस्या से बाहर निकलने का रास्ता क्या है? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी भी उसी टीवी डिबेट में थे, जहां मैं था. उन्होंने कुछ सामान्य तर्क रखे थे. मसलन, चुनावी बॉन्ड में बॉन्ड के प्राप्तकर्ता का नाम होना चाहिए. इससे मतदाताओं को यह जानने में मदद मिलेगी कि कौन किसको पैसा दे रहा है. फंडिंग के लिहाज़ से सबसे अहम बात यह है कि गोपनीयता और पारदर्शिता एक साथ नहीं चल सकती.
8) इलेक्टोरल बॉन्ड से फ़िलहाल काले धन के संबंध में कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है. सिर्फ इसलिए कि अब इलेक्टोरल बॉन्ड एक काउंटर पर उपलब्ध हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि अपना राजनीतिक रसूख बनाने के लिए काला धन रखने वाले लोग पार्टियों को सीधी फंडिंग देना बंद कर देंगे.
इसके अलावा, कोई व्यक्ति अगर कई सारे चुनावी बॉन्ड खरीदता है, तो सरकार यह कैसे सत्यापित करती है कि इन बॉन्डों को खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा पैसा काला धन नहीं है. उस पैसे के स्रोत की जांच के बिना यह संभव नहीं है. जैसे ही इसे लेकर सवाल किये जाते हैं, गोपनीयता के तर्क को फिर से उछाल दिया जाता है. यही कारण है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा सत्ता में मौजूद पार्टी को गया है.
9) सच में साफ़-सुथरी राजनीतिक फंडिंग सुनिश्चित करने के लिए, राजनीतिक पार्टियों में इसके प्रति ईमानदारी का होना ज़रूरी है. जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2016 के ‘मन की बात’ में कहा था: “आज देश जिस महान सपने को पूरा करना चाहता है, वह है ‘कैशलेस सोसाइटी.’ यह सच है कि सौ प्रतिशत कैशलेस सोसायटी संभव नहीं है. लेकिन भारत को ‘लेस-कैश’ सोसायटी बनाने की शुरुआत क्यों नहीं करनी चाहिए? एक बार जब हम लेस-कैश समाज बनने की अपनी यात्रा शुरू कर देंगे, तो ‘कैशलेस सोसायटी’ बनने का लक्ष्य बहुत दूर नहीं रह जायेगा.”
मोदी के इस सपने को गंभीरता से लेकर भाजपा को केवल चेक या डिजिटल माध्यमों से ही फंडिंग स्वीकार करनी चाहिए. पहले जो तर्क दिया जाता था, वह यह था कि सभी के पास बैंक खाते नहीं हैं, इसलिए, पार्टियों के छोटे समर्थक चेक नहीं दे सकते. इसे देखते हुए, राजनीतिक चंदे को नकद के रूप में अनुमति देना आवश्यक था. अब जन धन योजना की सफलता के साथ (जैसा मोदी सरकार दावा करती है) ज़्यादातर लोगों के पास बैंक खातों की पहुंच है.
अब तो भीम, यूपीआई और अन्य प्लेटफार्मों के माध्यम से भी फंडिंग की जा सकती है. ऐसा होने से, देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी भाजपा एजेंडा सेट करने और अन्य राजनीतिक दलों को इसका पालन करने के लिए मजबूर करने का काम भी बंद कर सकेगी. इसी क्रम में, देश में राजनीतिक फंडिंग भी साफ़-सुथरी हो जायेगी. अब गेंद भाजपा के पाले में है.
(विवेक कौल अर्थशास्त्री हैं और ‘ईज़ी मनी ट्राइलॉजी’ किताब के लेखक हैं).
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