यह गलती बहुत बड़ी होगी

अयोध्या पर अदालत के फैसले से शिकायतें हैं लेकिन संयम का अहसास भी है. सबको स्वीकार्य लगने वाला कोई रास्ता अगर होता तो इस मामले को न्यायालय तक आने की जरूरत ही क्यों होती?

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर रिव्यू पिटीशन या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला क्यों किया यह तो पता नहीं लेकिन मुझे यह खूब पता है कि उनका यह फैसला उन्हें भी शर्मशार करेगा और देश को भी. जीत का रहस्य यह है कि वह संयम में शोभा पाता है; हार का खोखलापन यह है कि वह बेवजह जख्म को हरा करता रहता है.

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अयोध्या विवाद का जो फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है, उसके बाद हिंदू, मुसलमान तथा देश के दूसरे सभी धर्मावलंबियों ने खासी समझदारी और प्रौढ़ता का परिचय दिया है. ऐसा नहीं है कि यह फैसला सबको संतोषजनक लगा है. शिकायतें हैं लेकिन संयम का अहसास भी है. सबको संतोषजनक लगे, ऐसा कोई रास्ता अगर होता तो इस मामले को न्यायालय तक आने की जरूरत ही क्यों होती. ऐसा कोई रास्ता था नहीं- न हिंदुओ के पास, न मुसलमानों के पास; न सरकारों के पास, न समाज के पास. इसलिए हमने अदालत को इसमें शरीक किया और सबने यह सार्वजनिक घोषणा की कि अदालत का फैसला उन्हें मंजूर होगा. तो अदालत का फैसला आ गया, फिर उसे नामंजूर कैसे किया जा सकता है? तब तो पहले ही कहना था कि हमारे मनमाफिक फैसला आएगा तो कबूल करेंगे, नहीं तो खारिज करेंगे.

अदालत के फैसले में अंतर्विरोध भी हैं और कई मामलों में भटकाव भी है. इन पंक्तियों के लेखक ने भी फैसले की विसंगतियों को उजागर किया है और अदालत का भी और समाज का भी ध्यान उधर खींचा है. ऐसी कई दूसरी आवाजें भी उठी हैं. लेकिन मुझ समेत सबने यह तो कहा ही है कि हम फैसले को अमान्य नहीं करते हैं. उसकी विसंगतियां सबके सामने रखना उसका मजाक उड़ाना या उससे इंकार करना नहीं है बल्कि मानवीय प्रयासों की सीमा बताना है.

यही भूमिका ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी लेनी चाहिए. दूसरे सभी पक्षकारों की तरह उसने भी अदालत में मुख्तसर अपनी बात, अपनी दलीलें रखी थीं. अदालत को उनमें सार कम लगा और उसने विपरीत फैसला दिया, तो यह हार या अपमान नहीं है, असहमति है.

अदालत ने अपनी असहमति जाहिर कर दी है और हम जिस संवैधानिक व्यवस्था के तहत रहते और अपना देश चलाते हैं उसमें हमारी सर्वोच्च अदालत सहमति-असहमति का आखिरी दरवाजा है. हमने ही स्वीकार किया है कि यहां से आगे सहमति-असहमति नहीं, निर्णय होगा और सभी उसे मान कर चलेंगे. हम यहां से आया निर्णय कबूल न करें या अंत-अंत तक कबूल न करने का तेवर दिखाते रहें तो यह पराजित मानसिकता को और तीखा ही बनाएगा, और दूसरे पक्ष को भी कटुता पर उतरने के लिए मजबूर करेगा.

मैं जानता हूं कि मंदिर बनाने की अनुमति पा जाने के कारण ही हिंदुत्व धड़ा इतना संयम दिखा रहा है लेकिन अदालती न्याय में ऐसा तो हरदम ही होता है. सारे मुस्लिम समाज को यह बात समझनी चाहिए कि मस्जिद के विवाद को पीछे छोड़ कर हम जितनी जल्दी आगे निकल जाएंगे, हिंदुत्व का विषदंत उतनी ही जल्दी भोथरा हो जाएगा. वहां भी ऐसे तत्व हैं जो चाहते हैं कि चिंगारी छिटके, कि जहरीली हवा चले, कि आग भड़के. हमें उनके हाथ खेलना नहीं है, उनको बेअसर करना है.

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के वर्तमान अध्यक्ष घैरुल हसन रिजवी ने भी बयान देकर मुस्लिम समाज को आगाह किया है कि पुनर्विचार याचिका का विचार प्रतिकूल परिणाम लाएगा. हमारी संवैधानिक व्यवस्था में पुनर्विचार याचिकाएं मुकदमा फिर से खोलने का उपकरण नहीं हैं. सामान्य प्रक्रिया तो यही है कि न्यायाधीश महोदय अपने चैंबर में ही वादी-प्रतिवादी दोनों की बातें सुन लते हैं, उस रोशनी में अपने ही फैसले की समीक्षा कर लेते हैं और फिर याचिका को स्वीकृत या अस्वीकृत करते हैं.

क्या अभी-अभी जिस विवाद की इतनी लंबी सुनवाई हुई है, उस संदर्भ में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा कोई एकदम नया साक्ष्य ले कर आया है कि जिससे इस फैसले की बुनियाद ही बदल जाए? मेरा ख्याल नहीं है कि ऐसा कोई साक्ष्य किसी के हाथ लगा है. तब सारा मामला साक्ष्यों के आधार पर बनने वाली मनोभूमिका का है.

तो 5 जजों की विशेष संविधान पीठ के सामने हमने जो कुछ कहा, दिखाया, बताया उन सबके आधार पर ही अदालत ने गहरे विमर्श और हर तरह की संभावनाओं को तौलते हुए एक मनोभूमिका बनाई और वही फैसले के रूप में हमारे समक्ष रखा है. एक पक्ष को मंदिर बनाने के लिए संगठन खड़ा करने की अनुमति मिली तो दूसरे पक्ष को 5 एकड़ जमीन मिली जिसका वे मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं.

अभी तो वह जमीन का टुकड़ा भर है, पूरा मुस्लिम समाज जमीन के उस टुकड़े को जमीर की राष्ट्रीय आवाज में बदल सकता है- जमीर, जो हिंदू या मुसलमान नहीं होता है, खालिस इंसान होता है. एक बड़ी लकीर खींचने का ऐसा वक्त हमारे हाथ में आ गया है कि जिसके आगे फिर कोई दूसरी मस्जिद या मंदिर या चर्च या गुरुद्वारे का सवाल खड़ा नहीं कर सकेगा. जड़ कटे और कोई एक नया पौधा उगे, ऐसी कोई सलाहियत हमें खोजनी है.

पराजय या डर की मनोभूमिका होगी तो हम यह काम नहीं कर सकेंगे. आत्मविश्वास से भरा और पुरानी सारी शंकाओं-कुशंकाओं को पीछे रख कर, पुरानी लिखावटें मिटाकर, भारतीय समाज का एक बड़ा घटक सारे समाज को संबोधित करते हुए, साथ लेते हुए कुछ नया लिखने की कोशिश करे.  यह वैसा अवसर है. अदालत ने चाहा हो या न चाहा हो, उसके इसी फैसले को हम ऐसे अवसर में बदल सकते हैं. अभी समाज में ऐसी ग्रहणशीलता बनी है. इसे पुनर्विचार याचिका वगैरह डाल कर हमें खोना नहीं चाहिए. इससे मुस्लिम समाज का अहित तो होगा ही, पूरा भारतीय समाज इससे आहत होगा.

गांधी ने एक आजाद मुल्क में धर्मों की जिस भूमिका को रेखांकित करने की कोशिश की थी, उस भूमिका को समझने और उस दिशा में मजबूती से बढ़ने का यह समय है. आज गति नहीं, दिशा महत्वपूर्ण है; उन्माद नहीं, विवेक; प्रतिक्रिया नहीं, प्रक्रिया महत्वपूर्ण है.

क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कोई ऐसी पहल कर सकेगा कि 5 एकड़ ज़मीन का वह टुकड़ा भारतीय समाज के स्वस्थ तत्वों की साझेदारी का नमूना खड़ा करे? जिन्हें आकाश चूमता मंदिर बनाना हो वे बनाएं, जमाना तो आपके पांव किस कीचड़ में सने हैं, यह भी देखेगा. हमारे पांवों में भारतीय समाज के नये साझा स्वरूप का बल हो और हमारे निर्माण में भारतीय समाज के साझा अस्तित्व की तस्वीर हो, तो यह संकट स्वर्णिम अवसर बन सकता है. बकौल ‘फैज’ :

यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क,

न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई.

यूं ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल

न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई.

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