नागरिकता संशोधन बिल के विरोध में विविध विचार

मोदी सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन बिल पास करने के खिलाफ मीडिया, सिविल और बौद्धिक समाज में चौतरफा नाराजगी और विरोध के सुर उठ रहे हैं.

Article image
  • Share this article on whatsapp

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 लोकसभा के बाद राज्यसभा से भी पास हो गया है. जल्द ही यह भारत का कानून भी बन जाएगा. एक तरफ जहां इसको लेकर जश्न मनाया जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ असम समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में इसके खिलाफ लोग सड़कों पर हैं. कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शन हिंसक रूप ले चुका है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

असम में हो रहे विरोध प्रदर्शन को लेकर राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने वहां के लोगों को आश्वासन दिया है वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट करके असम के लोगों को आश्वासन दिया है. उन्होंने लिखा, ‘मैं असम के अपने भाई-बहनों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि उन्हें नागरिकता संशोधन बिल के पास होने के बाद चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहता हूं कि कोई उनसे उनके अधिकार, अनूठी पहचान और खूबसूरत संस्कृति नहीं छीन सकता. वह लगातार फलती-फूलती रहेगी.’

मोदी सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन बिल पास करने के खिलाफ मीडिया, सिविल और बौद्धिक समाज में चौतरफा नाराजगी और विरोध के सुर उठ रहे हैं.

रवीश कुमार

एक देश, एक कानून की सनक का क्या हाल होता है उसकी मिसाल है नागरिकता बिल. जब यह कानून बनेगा तो देश के सारे हिस्सों में एक तरह से लागू नहीं होगा. पूर्वोत्तर में ही यह कानून कई सारे अगर मगर के साथ लागू हो रहा है. मणिपुर में लागू न हो सके इसके लिए 1873 के अंग्रेज़ों के कानून का सहारा लिया गया है. वहां पहली बार इनर लाइन परमिट लागू होगा. अब भारतीय परमिट लेकर मणिपुर जा सकेंगे. इसके बाद भी मणिपुर में इस कानून को लेकर जश्न नहीं है. छात्र संगठन एनईएसओ के आह्वान का वहां भी असर पड़ा है. अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नागालैंड में यह कानून लागू नहीं होगा. असम और त्रिपुरा के उन हिस्सों में लागू नहीं होगा जहां संविधान की छठी अनुसूचि के तहत स्वायत्त परिषद काम करती है. सिक्किम में लागू नहीं होगा क्योंकि वहां अनुच्छेद 371 की व्यवस्था है.

देश ऐसे ही होता है. अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के लिए अलग कानून की ज़रूरत पड़ती है। भारत ही नहीं दुनिया भर में कानूनों का यही इतिहास और वर्तमान है. एक देश के भीतर कहीं कानून भौगोलिक कारणों से अलग होता है तो कहीं सामुदायिक कारणों से. इन ज़रूरतों के कारण प्रशासनिक ढांचे भी अलग होते हैं. लेकिन कश्मीर को लेकर हिन्दी प्रदेशों की सोच कुंद कर दी गई है. हिन्दी अखबारों और हिन्दी चैनलों ने हिन्दी प्रदेशों की जनता को मूर्ख बनाया कि जैसे कश्मीर में एक देश, एक कानून का न होना ही संकट का सबसे बड़ा कारण है. अब वही हिन्दी अखबार और हिन्दी चैनल आपको एक देश, एक कानून पर लेक्चर नहीं दे रहे हैं और न कोई गृहमंत्री या प्रधानमंत्री से सवाल कर रहा है. सबको पता है कि जनता पढ़ी लिखी है नहीं. जो पढ़ी लिखी है वो भक्ति में मगन है तो जो जी चाहे बोल कर निकल जाओ.

आप हिन्दी अख़बारों को देखिए. क्या उनमें पूर्वोत्तर की चिन्ताएं और आंदोलन की ख़बरें हैं? क्यों आपको जानने से रोका जा रहा है? आप जान जाएंगे तो क्या हो जाएगा? क्योंकि हिन्दी अखबार नहीं चाहते कि हिन्दी प्रदेशों का नागिरक सक्षम बने. आप आज न कल, हिन्दी अखबारों की इस जनहत्या के असर का अध्ययन करेंगे और मेरी बात मानेंगे. अखबारों का झुंड हिन्दी के ग़रीब और मेहनतकश नागिरकों के विवेक की हत्या कर रहा है. अब भी आप एक मिनट के लिए अपने अखबारों को पलट कर देखिए और हो सके तो फाड़ कर फेंक दीजिए उन्हें. हिन्दुस्तान अखबार ने लिखा है कि नागरिकता विधेयक पर अंतिम अग्निपरीक्षा आज. राज्यसभा में बिल पेश होना है और हिन्दी का एक बड़ा अखबार अग्निपरीक्षा लिखता है. आप अग्निपरीक्षा जानते हैं. जिस बिल को लेकर झूठ बोला जा रहा है, जिसे पास होने में कोई दिक्कत नहीं है, क्या उसकी भी अग्निपरीक्षा होगी?

अभिषेक श्रीवास्तव

एक औरत नोटबंदी के दौरान बैंक की कतार में लगी थी. वहां उसे बच्चा हो गया. बच्चे का नाम रखा खजांची. दूसरी औरत को जीएसटी की घोषणा की रात बच्चा हुआ. नाम दिया जीएसटी. तीसरी औरत को कल बच्चा हुआ. नाम दिया नागरिकता.

मेरे कुछ दोस्त और जानने वाले हैं. एक का नाम है जेलर. एक हैं सूबेदार. एक और है हवलदार. जज के नाम से भी कुछ लोग हैं, कुछ ने अपने बच्चे का नाम वकील भी रखा है. ऐसे तमाम नाम हैं जिनमें वर्चस्व, दबंगई, हेजेमनी की बू आती है.

कभी आपने किसी बच्चे का नाम लोकतंत्र सुना है? कोई परिवार, जिसने बच्चे का नाम आज़ादी रखा हो? किसी ने अध्यापक? या शिक्षक? किसी बच्चे का नाम समानता या बंधुत्व सुना है? या संविधान? संवैधानिकता? बच्चे देश का भविष्य हैं. तो जैसा भविष्य लोग चाहते थे, वैसा ही नाम रखा अपने बच्चों का. हर भविष्य को वर्तमान होना ही पड़ता है. झेलिए.

उर्मिलेश

मैं कानूनविद नहीं हूं, कानून का कभी छात्र भी नहीं रहा, पर मैंने भारतीय संविधान को कई बार पढ़ा है और बीच-बीच में अक्सर ही ज़रुरत के हिसाब से संविधान के पन्ने पलटना पड़ता है. इसलिए पूरे भरोसे से कह सकता हूं कि सरकार ने जिस नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) को लोकसभा से पारित कराया और बुधवार को जिसे राज्यसभा की मंजूरी मिल गई, वह हमारे संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों, उसके बुनियादी विचार और संरचना के बिल्कुल उलट है.

ऐसे में एक बड़ा सवाल उठता है, भारत की निर्वाचित सरकार क्या संसद की गरिमा नहीं गिरा रही है? संसद से अगर कोई संविधान-विरोधी विधेयक, प्रस्ताव या संकल्प पारित किया जाता है तो यह प्रक्रिया और स्थिति निश्चय ही हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है.

संवैधानिक प्रावधानों के तहत संसद में बैठकर हमारे सांसद कानून बनाते हैं और उच्च न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या और उनके व्यवहार का रास्ता तय करती है. कल्पना कीजिए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अगर संसद द्वारा मंजूर विधेयक की व्याख्या के क्रम में इसे गैर-संवैधानिक मानते हुए खारिज़ कर दिया तो वह स्थिति हमारे संसदीय लोकतंत्र के लिए कितनी हास्यास्पद होगी? आखिर सत्ताधारी दल अपने बहुमत के नशे में संपूर्ण विपक्ष और अनेक राज्यों के विचारों को दरकिनार कर ऐसी स्थिति क्यों पैदा कर रहा है? वह इस कदर खुलेआम संविधान-विरोधी कदम क्यों उठा रहा है? सचमुच, सत्ताधारी दल और सरकार के मंसूबे बेहद ख़तरनाक नजर आ रहे हैं. भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए यह भयावह स्थिति है.

कृष्ण कांत

जिन्ना की आत्मा कब्र से बाहर निकली और सीधा हिंदुस्तान के शहर दिल्ली पहुंची. देखा कि भारत की संसद की गुंबद पर लार्ड मैकाले दांत चियारे बैठा है. संसद का नजारा लेकर प्रसन्न हुई जिन्ना की आत्मा राजघाट पहुंची. अपनी समाधि के पास गांधी मायूस बैठे थे, बगल में उनका चरखा रखा था. चरखे का ताना टूट गया था. गांधी उसे जोड़ने के बारे में सोच रहे थे.

उन्हें देखकर जिन्ना ठठाकर हंसा, “कैसे हो मिस्टर गांधी?” गांधी कुछ नहीं बोले. जिन्ना ने जवाब का इंतजार किए बिना कहा, “हमने तो पहले ही कहा था कि धर्मनिरपेक्ष देश मत बनाओ. अंग्रेजों से कुछ सीखो. मूर्ख बनाकर शासन करो. बांटो और राज करो, लेकिन तुम नहीं माने. हमने धर्म के नाम पर एक नरक बसाया था जो 25 साल भी नहीं चला और टूट गया. लेकिन इस महाद्वीप के लोगों ने कुछ नहीं सीखा. तुम कहते हो कि सत्य ही ईश्वर है, हम सौ साल से कह रहे हैं कि नफरत ही ईश्वर है.”

गांधी ने विस्मय से जिन्ना की ओर देखा, उनके चेहरे पर बेचारगी के भाव देखकर जिन्ना और खुश हुआ, बोला, “तुमने क्या समझा था कि तुम्हारी आने वाली नस्लें तुम्हारे जैसी ही उदार और महान होंगी? ऐसा नहीं होता. आदमी की आदमीयत से उसकी नफरत बहुत बड़ी होती है. जिस नफरत को हवा देकर अंग्रेज हिंदू-मुसलमान को लड़ाते थे, जिस नफरत को हवा देकर हमने यह देश बांट दिया था, जिस नफरत के चलते तुम्हारे अपनों ने ही तुम्हारी जान ले ली थी, तुम्हारा देश उसी नफरत की गिरफ्त में फिर आ फंसा है. इस बार लोग तुम्हारी तरफ नहीं देख रहे हैं, न ही तुम्हारी उदारता का झंडा उठाने के लिए तुम्हारा चेला नेहरू यहां बैठा है. मिस्टर गांधी! आखिरकार तुम भी हम जैसे ही बन गए! तुम्हें सावरकर के सपनों का हिंदू राष्ट्र मुबारक हो! हा हा हा हा…”

जिन्ना की आत्मा अदृश्य हो गई. गांधी ने चरखे का ताना ठीक किया और गाना शुरू किया, “वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे…”

नितिन ठाकुर

संसद में गृहमंत्री ने कांग्रेस पर तोहमत थोप दी कि उसने धर्म आधारित विभाजन स्वीकार किया था. ठीक उस क्षण विड़ंबना भी रो दी होगी. जिस विचारधारा से अमित शाह प्रभावित हैं वहां इस बात को आरोप की तरह उछालना या तो जीत के लिए रचा गया राजनीतिक छल है या अपनी ही विचारधारा से द्रोह.

तकनीकी तौर पर ये सही है कि कांग्रेस ने धर्म आधारित विभाजन स्वीकारा था लेकिन तथ्य ये है कि वो ऐसा करनेवाली आखिरी पार्टी थी और उसमें भी ये ध्यान देने लायक है कि गांधी, मौलाना कलाम जैसे बड़े चेहरों ने विभाजन को व्यक्तिगत तौर पर मानने से इनकार तो किया ही था, साथ ही अपने उन साथियों के प्रति आजीवन शिकायत से भरे रहे जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत और मुस्लिम लीग के इस प्रपंच को “डायरेक्ट एक्शन डे” के खूनखराबे के बाद सिर्फ इसलिए माना कि अगर देश में शांति बंटवारे से आती हो तो ऐसे ही आ जाए.

गृहमंत्री अपने मुलाकाती कमरे में जिन सावरकर की तस्वीर लगाते हैं उनके विचार विभाजन पर संसद में क्यों नहीं रख रहे थे ये समझना कठिन नहीं है. दरअसल वो जानते हैं कि जिस बात को वो आरोप की तरह पेश करके एनआरसी को न्यायसंगत ठहराना चाहते हैं उस बात के सूत्रधार स्वयं उनके प्रेरणास्रोत सावरकर और उस बात का समर्थक उनका संगठन आरएसएस रहा है. जिन्ना से भी पहले दो राष्ट्र के सिद्धांत का सूत्रपात सावरकर ने किया था. शाह चाहकर भी संघ का कोई बयान नहीं दिखा सकेंगे जहां वो धर्म के आधार पर विभाजन का विरोध करता हो.

हैरत तो इस बात की है कि जो बात पाकिस्तान के बुद्धिजीवी और कूटनीतिज्ञ हुसैन हक्कानी भारत के बारे में समझ रहे हैं वो इस देश के गृहमंत्री ने झुठला दी है. उनकी समझ इस देश के विषय में जो हो पर अभी तक दुनिया कुछ और मानती लगती है. हक्कानी ने अपनी किताब में लिखा था कि भारत और पाकिस्तान का झगड़ा सैद्धांतिक है. जहां एक तरफ पाकिस्तान के निर्माण का आधार धर्म है वहीं भारत के एकीकरण का आधार ये बात मानना है कि धर्म अलग होने के बावजूद लोग इकट्ठे रह सकते हैं. भारत जिस दिन पाकिस्तान निर्माण की जिन्ना थ्योरी (सावरकर थ्योरी भी कह लें) को मान लेगा उस दिन भारत के भीतर ही अनेक पाकिस्तान के बीज पड़ जाएंगे. कमाल ये है कि कांग्रेस ने अंग्रेज़ों के हाथों बंटवारा बर्दाश्त किया था लेकिन आज सत्ता में बैठा गुट खुद ही धर्म के नाम पर ना सिर्फ बंटवारे की राजनीति पर चल रहा है बल्कि संसद में अपने पूर्ववर्ती की “गलती” को आधार बनाकर जिन्ना को भारत में प्रासंगिक बना रहा है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like