नागरिकता कानून के विरोध के विरोध में औंधे मुंह गिर रहे हिंदी चैनलों के एंकर

70 करोड़ दर्शकों तक अपनी पहुंच का इस्तेमाल टीवी चैनल सिर्फ और सिर्फ सरकार की तरफदारी के लिए कर रहे हैं.

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पिछले पांच सालों से देश में जो कुछ भी चल रहा है उस सबके बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैसे लोकप्रिय बने हुए हैं?

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नोटबंदी से लेकर नौकरियों के सूखे तक और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था से लेकर कृषि तक, हिंदी टीवी चैनलों ने सरकार को बचाने में अहम भूमिका निभाई है. टीवी चैनलों के एंकर पूर्ण रूप से किसी सरकारी पीआर मशीनरी के एक हिस्से की तरह काम कर रहे हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य प्रधानमंत्री की प्रशंसा करना है चाहे उसके लिए किसी की अवैध, अतार्किक आलोचना ही क्यों न करना पड़े.

आपको याद होगा कि किस तरह से 2016 में जब सरकार नोटबंदी के फैसले को सही साबित करने के लिए संघर्षरत थी तब एक प्रमुख समाचार चैनल के एंकर ने नए नोटों में एक “नैनोचिप” होने की बात बताई थी और समझाया था कि इससे काले धन पर किस तरह से अंकुश लगेगा.

अब जब नागरिकता कानून के संशोधन के खिलाफ पूरे देश में विरोध हो रहा है, टीवी मीडिया का एक बड़ा वर्ग चौबीसो घंटे सरकार के बचाव में लगा हुआ नज़र आ रहा है. बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी सड़क पर उतरे हुए हैं. दिल्ली से लेकर पूर्णिया तक, मुंबई से लेकर बैंगलोर तक हर रोज़ इसके विरोध की तस्वीरें सामने आ रही हैं.
देश की अलहदा यूनिवर्सिटी और छात्र इन विरोध प्रदर्शनों का चेहरा बन गए हैं. जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्विद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों के छात्रों की आवाज़ राष्ट्रीय मीडिया तक पहुंची है. कई मायनों में, इन कॉलेजों के छात्रों द्वारा शुरू किया गया विरोध प्रदर्शन पूरे देश में फ़ैल गया है. इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इन छात्रों को सरकार की हिंसक कार्रवाई का सामना करना पड़ा है.

पुलिस की बर्बरता की गवाही दे रहे ऐसे तमाम वीडियो सामने आ चुके हैं. मसलन जामिया की तीन छात्राओं का अपने एक पुरुष साथी को बचाते हुए एक वीडियो, एक ऐसा वीडियो जिसमें छात्र लाइब्रेरी में डेस्क के नीचे छिपे हुए दिख रहे थे, एक वीडियो जिसमें एएमयू हॉस्टल के एक कमरे में आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं.

इतने सबके बावजूद यदि कोई देश भर में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों,जो कि छात्रों के प्रदर्शन के बाद शुरू हुए, की कवरेज हिंदी समाचार चैनलों पर देखे तो उसे एकदम अलग कहानी नज़र आएगी. ये सभी कवरेज इन विरोध प्रदर्शनों की वैधता और उद्देश्य पर सवाल खड़ा करते हैं. हिंदी टीवी समाचार चैनलों के कवरेज देखें तो इसमें दो खास बातें आम तौर पर नजर आती हैं.

विरोध को बदनाम करती हिंसा

किसी भी विरोध को बदनाम करने का सबसे अच्छा तरीका है कि ये घोषित कर दिया जाय कि प्रदर्शनकारियों ने हिंसा भड़काई. इस तरह से उस मुद्दे को पूरी तरह से दरकिनार करना आसान हो जाता है जिसके लिए प्रदर्शन हो रहा है. साथ ही यह प्रदर्शनकारियों को उस भीड़ का हिस्सा घोषित कर देता है जो कानून अपने हाथ में ले रहे हैं.

अगर आप किसी तरह के मुद्दे पर तटस्थ है तो आपको ऐसे शब्द सुनने को मिलेंगे जैसे कि “सरकार और छात्रों के बीच टकराव”, “सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुंचती भीड़” या “हिंसक हुआ विरोध”. इसको और अच्छा दिखाने के लिए दर्शकों को पत्थरबाजी के वीडियो भी उपलब्ध कराये जाते हैं. बिना किसी हिचक के आप उन प्रदर्शनकारियों और उस मुद्दे के प्रति अपनी सहानुभूति खो देते हैं. चाहे आप उस मुद्दे से कितना भी सहमत क्यों न हों. और यही वो कहानी जिसे हमारे हिंदी चैनल अपने दर्शकों को रोज़ाना बता रहे हैं.

16 दिसंबर को, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रदर्शन के एक दिन बाद, ज़ी न्यूज़ के प्राइम टाइम शो, डीएनए, जिसे चैनल के एडिटर-इन-चीफ़ सुधीर चौधरी प्रस्तुत करते हैं, ने सिर्फ वही चुनिंदा वीडियो फुटेज दिखाए जिसमें एक समूह बसों पर हमला कर रहा था. चौधरी ने आगे भी अपने शो में इसी तरह से चुनिंदा फुटेज दिखाए और अपनी सुविधा से दूसरे वीडियो को छुपा लिया जैसे कि पुलिस द्वारा कैंपस में घुसने का वीडियो, लाइब्रेरी में आंसू गैस छोड़ने का, दिल्ली पुलिस के उस दावे का जिसमें वो कह रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों में कोई भी छात्र नहीं था और कैसे जामिया के कैंपस से कुछ मील दूर बसों पर हमला हुआ था. इन सबसे आपको चौधरी की मंशा स्पष्ट दिख जाएगी.

ज़ी न्यूज़ ने इसी की तर्ज पर अपने अन्य शो भी किए. यह एक टेम्पलेट था. ज़ी न्यूज़ ने विरोध प्रदर्शन के सिर्फ वही वीडियो दिखाए जिसमें बसों पर हमला होते हुए दिख रहा है ताकि इस प्रदर्शन को वो हिंसा और दंगे के रूप में दिखा सकें. उसने छात्रों के खिलाफ पुलिस की बर्बरता के वीडियो कोचालाकी से गायब कर दिया.

क्या जामिया और एएमयू में और उसके आसपास हिंसा भड़की? हां…

क्या केवल ये दिखाना भ्रामक है कि कुछ छात्रों की पिटाई की गई थी, जिसमें कुछ गंभीर रूप से घायल हो गए थे, जिसमें एक की आंख की रोशनी भी चली गई थी, भ्रामक है? हां… फिर भी, ज़ी न्यूज़ जैसे चैनलों ने छात्रों पर हिंसा की अनदेखी करते हुए सिर्फ बसों के जलने का फुटेज दिखाया. यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि विरोध प्रदर्शन का कवरेज सिर्फ उसको हिंसा के नाम पर बदनाम करने के लिए था.

चौधरी ने 16 दिसंबर को अपने शो में कहा: “जिस तरह हर शहर में एक इलाका ऐसा होता है जहां पुलिस भी जाने से डरती है, ठीक उसी तरह ये छात्र देश के कुछ विश्वविद्यालयों में भी वैसा ही माहौल चाहते हैं… वहां सिर्फ एक विशेष समुदाय का कब्ज़ा होता है.”

न्यूज़ 18 के अमिश देवगन की भी कहानी लगभग ऐसी ही है.

चौधरी के ‘समुदाय’ से लेकर देवगन के ‘मियां’ तक यह स्पष्ट होता है कि वो किस समुदाय की बात कर रहे हैं. यह बिलकुल बेतुकी बात है क्योंकि जामिया के 50 फीसदी छात्र मुस्लिम नहीं है, फिर भी इस विरोध प्रदर्शन ने पूरे शहर के लोगों को इसके खिलाफ एकजुट कर दिया.

इसके बाद सुदर्शन न्यूज़ और इसके कट्टरपंथी मुखिया सुरेश चव्हाणके आते हैं. सुदर्शन का कट्टरपंथ जगजाहिर है. यह चैनल दंगा फ़ैलाने वाले और सांप्रदायिक रूप से जुनूनी लोगों को तैयार करने का काम करता है.

कुछ हिंदी टीवी चैनलो का यही फॉर्मेट बन गया है. यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से दर्जनों लोगों के मारे जाने और पुलिस द्वारा लोगों के घरों में घुसकर तांडव करने की ख़बरों के बीच भी ये चैनल चुनिंदा रूप से भड़काऊ और प्रदर्शनकारियों द्वारा पथराव किये जाने की घटनाओं को दिखाते रहे.

विपक्ष द्वारा भटकाए गए, भ्रमित लोग

लोगों का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन इस तरह से एकजुट रहने में सफल रहा कि उसको सिर्फ हिंसा के कथित आरोपों से बदनाम करना संभव नहीं था. तो फिर चैनलों ने क्या हथकंडा अपनाया?
इसके लिए उनके पास दो शब्द हैं: भ्रम और गुमराह
नागरिकता कानून के संशोधन का विरोध करने वालों का वर्णन करने के लिए हिंदी समाचार चैनलों पर आप इन शब्दों को लगातार सुन सकते हैं. इन चैनलों के अनुसार, युवकों और मुस्लिमों को विपक्ष ने खासकर कांग्रेस ने “गुमराह” किया है.

अफ़सोस की बात यह है कि ये टीवी चैनल संविधान और उसको लिखने वालों को “देशद्रोही” नहीं कह पा रहे हैं. युवा प्रदर्शनकारी गांधी, आंबेडकर और भगत सिंह के बड़े-बड़े पोस्टर दिखा कर संविधान को बचाने का संकल्प ले रहे हैं. न्यूज़ एंकर इसकी आलोचना नहीं कर सकते लेकिन वो पूरी कोशिश करते हैं कि वो यह साबित कर सकें कि प्रदर्शनकारियों को गुमराह किया जा रहा है.

ज़ी न्यूज़ के शो डीएनए में अक्सर चौधरी इसी तरह के शब्दों का इस्तेमाल जटिल मुद्दों को आसान बनाने के लिए, सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ने के लिए करते हैं. ऐसा लगता है कि इन लोगों ने मान लिया है कि प्रदर्शनकारी छात्रों और बाकी लोगों के पास खुद का दिमाग नहीं है.

हिंदी समाचार चैनल छात्रों को उसी तरह से देखते हैं जैसे व्हाट्सएप वाले अंकल देखते हैं- करदाताओं के पैसे बर्बाद करके सार्वजानिक विश्विद्यालय में पढ़ने वाले जबकि वे आसानी से “अपनी मेहनत से देश की अर्थव्यवस्था में योगदान” दे सकते हैं.

जो भी ऊपर बताया गया है वो एक आजमाया हुआ सफल फार्मूला है. आप ऐसे कुछ लोगों से बात कर लीजिये जो किसी मुद्दे की बारीकियों को समझाने में असमर्थ हों और उस मुद्दे के बारे में स्पष्ट न हों. फिर ये चैनल उनकी राय का मजाक उड़ाते हैं. ज्यादातर बड़े टीवी समाचार चैनलों के पास ऐसे मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के बयान थे जो नागरिकता कानून के संशोधन पर अपने विरोध को तर्कसंगत साबित करने में विफल रहे. उनकी इस कमी को इस तरह से दिखाया गया कि उन्हें विपक्षी नेताओं द्वारा “गुमराह” किया जा रहा है.

उदहारण के तौर पर, यहां निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा और अभिनेता-निर्देशक फरहान अख्तर का बयान है, जिसे एबीपी ने मुंबई के विरोध प्रदर्शन को प्रसारित करते समय दिखाया है. मेहरा ने साफ़ तौर पर कहा कि जब तक कानून पढ़ नहीं लेते तब तक कुछ बोलेंगे नहीं. लेकिन इससे टीवी चैनल वालों के लिए मनमुताबिक ख़बर नहीं बनती.

ये वीडियो समाचार चैनलों द्वारा नहीं दिखाया गया. हिंदुत्व और सरकार के समर्थन वाले ट्विटर हैंडल को सुधीर चौधरी और रुबिका लियाकत जैसे एंकर रीट्वीट करते रहते हैं. एक ऐसा ही हैंडल है ‘नो द नेशन‘, जिसने पिछले कुछ दिनों में ऐसे दर्जनों वीडियो ट्वीट किये हैं जो कि यह दिखाते हैं कि प्रदर्शनकारियों को यह तक नहीं पता कि वो किसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं.

इस ट्विटर हैंडल को भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय और भाजपा की सोशल मीडिया के राष्ट्रीय प्रभारी प्रीति गांधी फॉलो करते हैं. मिड-डे ने एक स्टोरी की थी लेकिन इस ग्रुप के एडमिन ने कोई जवाब नहीं दिया.

ज़ी न्यूज़ तो एक कदम आगे बढ़ गया. उसने एक जागरूकता अभियान शुरू किया जहां पर नागरिकता कानून के संशोधन का समर्थन करने वाले चैनल पर एक मिस्ड कॉल देकर अपना समर्थन दर्ज करवा सकते हैं. ज़ी न्यूज़ का तर्क है: “जो लोग इस कानून का समर्थन कर रहे हैं वो “अहिंसक” हैं, और मीडिया सिर्फ उन लोगों को जगह देती है जो नकारात्मक हैं या जो हिंसा को बढ़ाती हैं. यह कदम चौधरी के शो, “डिजिटल रायट्स”, जिसमें उन्होंने चिंता व्यक्त की कैसे ऑनलाइन प्लेटफार्म पर बुद्धिजीवी वर्ग डर और गलत सूचना फैला रहा है, के बाद का कदम है.

एक विडंबना!

इस सब नाटक के बीच सरकार क्या कह रही है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने प्रदर्शनकारियों को क्रमशः “शहरी नक्सल” और “टुकड़े टुकड़े गैंग” कहा. भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने प्रदर्शन को “दंगा” करार दिया और इसे आतंक बताया. भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने ट्विटर पर एएमयू के छात्रों द्वारा हिन्दू विरोधी नारे लगाने वाला फर्जी वीडियो ट्वीट किया. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने समाचार चैनलों द्वारा चलाये गए फरहान अख्तर के वीडियो को ट्वीट करके ये साबित करने की कोशिश की कि प्रदर्शनकारी इस कानून के बारे में बिलकुल अनभिज्ञ हैं.

भाजपा सांसद और आरएसएस के विचारक तो एक कदम और आगे बढ़ गए.

इसी बीच, भाजपा ने विज्ञापनों की एक पूरी सीरीज जारी की जिसमें बताया कि कैसे “शहरी नक्सली” और “इस्लामिस्टों को पता ही नहीं कि वे क्या कर रहे हैं.

2011 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से भारत में 70 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं. आप हिंदी समाचार चैनलों की पहुंच से दूर नहीं हो सकते. प्रमुख हिंदी शो: ताल ठोक के, आर पार, अखाड़ा, दंगल, हल्ला बोल, ललकार, महाभारत और खलनायक. ये सब मतभेद पैदा करने के लिए ही बनाये गए हैं.

क्या आपको आश्चर्य होता है जब प्रदर्शनकारी इन चैनलों को “गोदी मीडिया” बुला कर उनके खिलाफ नारेबाजी करते हैं?

फिर भी कुछ अपवाद हैं. जैसे कि एनडीटीवी के रवीश कुमार, जो कि बार-बार गलत सूचना फ़ैलाने के लिए और सरकार के आगे झुकने के लिए अपने मीडिया के साथियों को जिम्मेदार मानते हैं.

अभी के लिए हम इस बात को मान लेते हैं कि बार्क रेटिंग्स पर न सही, लेकिन रवीश और लल्लनटॉप कम से कम यूट्यूब पर तो ट्रेंड हो ही रहे हैं. 

(निहारिका डबराल की रिसर्च के साथ.)

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