बजट 2020: मंदी से निकलना है तो सरकार को जेब ढीली करनी होगी

अर्थव्यवस्था मौजूदा संकट से बाहर तभी निकल सकती है जब इसके 90 फीसदी निजी क्षेत्र में जान फूंकी जाय.

WrittenBy:विवेक कौल
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आर्थिक मंदी या रिसेशन के दौरान अधिकतर अर्थशास्त्रियों के पास कोई पुख्ता रोडमैप देखने को नहीं मिलता है. उनमें से बहुतेरे समय की उल्टी दिशा में दौड़ लगाते हुए जॉन मेनार्ड कीन्स की शरण लेते हैं जो कि 20वीं सदी के के पूर्वार्ध में हुए एक अर्थशास्त्री थे.

अर्थशास्त्र में कीन्स का प्रमुख योगदान 1929 की महामंदी की व्याख्या करने का है. कीन्स ने उस समय पश्चिमी दुनिया के एक बड़े हिस्से में प्रचलित स्थितियों की व्याख्या कुछ इस तरह की: जब पश्चिमी दुनिया के बड़े हिस्से में 1929 में स्टॉक और उपयोगी वस्तुओं की कीमतें गिर गईं, तब आबादी के कुछ हिस्सों ने अपने खर्चों में कटौती शुरू कर दी. अगर एक अकेला व्यक्ति भी अपने खर्चों में कटौती करना शुरू करे तो ये काफ़ी मायने रखता है. लेकिन अगर जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण भाग ही अपने खर्चों में कटौती करना शुरू कर दे तो यह एक बड़ी समस्या बन जाता है- इसे ऐसे समझा जाना चाहिए कि एक व्यक्ति का खर्च दूसरे व्यक्ति की आय होती है.

अगर जनसंख्या का पर्याप्त हिस्सा अपने खर्चों में कटौती कर दे, तो इस कारण जनसंख्या के दूसरे तबके की आमदनी स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है. इस प्रभावित तबके में एक बड़े व्यापारी से लेकर गली के नुक्कड़ का दुकानदार तक कोई भी हो सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि एक व्यक्ति का खर्च दूसरे व्यक्ति की आय का स्रोत था. जब खर्च घटाया जाता है तब आमदनी में गिरावट आती है, जिससे खर्च में और कमी आती है. यह आर्थिक विकास को धीमा कर देता है. धीरे-धीरे यह स्थिति पूरी अर्थव्यवस्था को "संकुचन" (मंदी) या "महा संकुचन" (महामंदी) की ओर ले जाता है.

तो इस स्थिति से बाहर निकलने का क्या रास्ता था?

कीन्स ने सुझाव दिया कि महामंदी के दौरान ब्याज की दरों को घटाने के बावजूद लोगों या व्यवसायों को उधार लेने की लिए लुभाना संभव नहीं होगा क्योंकि लोगों का हाथ बहुत तंग है. इसका एक तरीका यह था कि लोगों को टैक्स में छूट दी जाए ताकी लोगों की जेब में खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे हों. लेकिन सबसे अच्छा विकल्प यह है कि सरकार खुद अधिक से अधिक पैसा खर्च करे, क्योंकि यही अंतिम विकल्प है. इस दौरान अगर सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता भी है तो यह मायने नहीं रखता. राजकोषीय घाटा सरकार की आय और उसके व्यय के उसके बीच का अंतर है.

कीन्स 1930 के मध्य में इस उपाय के साथ सामने आए थे. जब वह अपने सिद्धांत को विस्तार दे रहे थे, उस समय के आस-पास ही एडोल्फ हिटलर ने इसे लागू करना शुरू भी कर दिया था. उसने पूरे जर्मनी में राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित मोटरवे प्रणाली ऑटोबान के निर्माण के लिए 1,00,000 कर्मचारियों को तैनात किया था, इसके बारे में कहा जाता था कि इसमें गति की कोई सीमा नहीं होगी. पहले विश्व युद्ध के बाद एक विनाशकारी मंदी और बेरोजगारी से उबरने के बाद, 1936 तक आते-आते जर्मनी की अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर आने लगी थी. इटली और जापान ने भी ठीक यही रणनीति अपनाई. इन देशों ने अपने राजकोषीय घाटे की कोई परवाह नहीं की, क्योंकि इनको उम्मीद थी कि युद्ध छेड़ कर वो इसकी भरपायी कर लेंगे.

बहुत जल्द ब्रिटेन भी वही करता नज़र आया जिसका सुझाव कीन्स ने दिया था. प्रथम विश्व युद्ध के बाद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी सेना और वायु सेना दोनों के साथ लगभग ऐसा ही किया. लेकिन हिटलर के उदय ने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दिया जिसके कारण बहुत कम समय में बड़े पैमाने पर सैन्य क्षमताओं का निर्माण किया जाना था. उस समय के प्रधानमंत्री, नेविल चेम्बरलेन, रक्षा पर व्यय करने के लिए करों को बढ़ाने की स्थिति में नहीं थे. इसके बजाय, उन्होंने जनता से पैसा उधार लिया था.

1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने तक, ब्रिटिश राजकोष में पहले से ही लगभग एक बिलियन पाउंड या राष्ट्रीय आय में लगभग 25 प्रतिशत घाटे का अनुमान था. घाटे का खर्च, जो द्वितीय विश्व युद्ध से पहले ही होना शुरू हो गया था, ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में उछाल का कारण बना- विशेष रूप से इंग्लैंड के दक्षिण में, जहां बंदरगाहों और अन्य ठिकानों का विस्तार किया जा रहा था और गोला-बारूद के कारखाने बनाए जा रहे थे.

इसने दुनिया भर के राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों और लोगों के मन में बहुत कम संदेह छोड़ा क्योंकि जिस तरह कीन्स ने कहा था अर्थव्यवस्था ने उसी तरीके से काम किया. इससे पहले कि हम इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि कीन्स हर समय उच्च राजकोषीय घाटे को चलाने वाली सरकार के पैरोकार थे, उससे पहले यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि उनकी बताई गई स्थिति इससे बहुत अलग थी.

कीन्स अनिवार्य रूप से मानते थे कि मंदी या रिसेशन के दौरान, बजट को संतुलित करने की कोशिश करना, या यह सुनिश्चित करना कि वह आय व्यय के बराबर हो, यह एक सरकार के लिए सबसे अच्छा उपाय नहीं है. मंदी के माहौल में, संभावना थी कि कम कर संग्रह के कारण सरकार की आय में गिरावट आए. और बजट को संतुलित करने का एकमात्र तरीका था टैक्स को बढ़ाना, नए टैक्स लागू करना या व्यय में कटौती करना. लेकिन इनमें से कोई भी उपाय अर्थव्यवस्था को और ज्यादा निचोड़ देता.

कीन्स का स्पष्ट मानना था कि सरकारी बजट का संतुलन औसत के तौर पर होना चाहिए. इसका मतलब यह था कि समृद्धि के वर्षों के दौरान, सरकारों को अतिरिक्त राजकोष जुटाना चाहिए, अर्थात्, उसकी आय उसके व्यय से अधिक होनी चाहिए. लेकिन जब माहौल मंदी का हो, तब सरकारों को अपनी आय से अधिक खर्च करना चाहिए, यहां तक कि राजकोष घाटे में चल रहा हो तब भी.

लेकिन दशकों से, राजनेताओं और अर्थशास्त्रियों ने, कीन्स के तर्क का आधा हिस्सा ही अपनाया और उसी से काम चलाया. इस कारण बुरे समय के दौरान घाटे को चलाने का विचार स्थायी रूप से उनके दिमाग में घर किये हुए है. हालांकि, वे यह भूल गए कि कीन्स यह भी चाहते थे कि अच्छे समय के दौरान वे सरप्लस बचाएं.

प्रिय पाठक, अभी तक आप शायद सोच रहे हैं कि मैं 1 फरवरी, 2020 को पेश किए जाने वाले भारत सरकार के बजट के लेख में इतिहास के बारे में क्यों बात कर रहा हूं. कभी-कभी, यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि कोई विशेष विचार कहां से आ रहा है और इसे समझने के लिए इतिहास को जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है.

तो इस विचार को ध्यान में रखें क्योंकि हम इस पर वापस आएंगे.

भारत का आर्थिक का स्वरूप

भारत फिलहाल एक आर्थिक मंदी से गुजर रहा है. 2019-20 में आर्थिक विकास, जैसा कि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से मापा जाता है, वास्तविक रूप से 5 प्रतिशत (मुद्रास्फीति के लिए तय किया हुआ) और नॉमिनल टर्म्स में 7.5 प्रतिशत (मुद्रास्फीति के लिए नियमित नहीं किया हुआ) होने की उम्मीद है.

नोट: यहां से उपयोग की गई संख्याएं सभी नॉमिनल टर्म्स की हैं.

आर्थिक विकास स्पष्ट रूप से धीमा पड़ा है क्योंकि क्योंकि निजी उपभोग धीमा हुआ है. चित्र एक पर नज़र डालें, जो वर्षों से होते आ रहे निजी उपभोग और व्यय में वृद्धि को दर्शाता है. निजी उपभोग व्यय वह धन है जो आप और मैं वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के लिए खर्च करते हैं.

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2019-20 में निजी खपत 9 प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद है, जो लगभग डेढ़ दशक में सबसे धीमी है. यह इसलिए हो रहा है क्योंकि आय की वृद्धि धीमी पड़ गई है. चित्र 2 पर एक नज़र डालें, जो मूल रूप से कई वर्षों में प्रति व्यक्ति डिस्पोजेबल आय में वृद्धि के आंकड़े को दर्शाता है.

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चित्र 2 पढ़ने में बहुत दिलचस्प है, यह दिखाता है कि भारतीय आर्थिक मंदी की जड़ें कहां मौजूद हैं. 2019-20 में आय वृद्धि 6.7 प्रतिशत की दर से होने की उम्मीद है जो 2002-03 के बाद सबसे धीमी है. इसलिए, मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद भी 2019-20 में डिस्पोजेबल आय में मामूली वृद्धि ही देखने को मिलेगी.

इस परिदृश्य में, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि खपत में एक ठहराव आया है.

आमतौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा निजी खपत से आता है. इसलिए, निजी खपत में आई मंदी ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि समग्र भारतीय अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाए.

बेशक, यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हम रिसेशन में नहीं फंसे हैं. रिसेशन तब होता है जब आर्थिक विकास लगातार दो तिमाहियों या तीन महीने की अवधि के लिए धीमी रहती है. इस लिहाज से भारत रिसेशन के दौर में नहीं है फिर भी 2019-20 में आय में वृद्धि और खपत नाटकीय रूप से धीमी हो गई है.

इस परिदृश्य में, राजनेता और अर्थशास्त्री एक बार फिर से कीन्स के शरण में हैं. उन्होंने राजकोषीय विस्तार या फिर सरकार द्वारा 2020-21 में पूर्व के मुकाबले अतिरिक्त पैसा खर्च करने की मांग की है.

लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी व्यक्तिगत तौर पर लोग और निजी निगम पैसे खर्च नहीं कर रहे हैं. इस हालत में अंतिम उपाय यही है कि सरकार ख़ुद खर्च करे और अर्थव्यवस्था का सहारा बने.

लेकिन यहां दिक्कत यह है कि ऐसा पिछले दो सालों में पहले से ही होता आ रहा है. एक नज़र चित्र तीन पर डालिए जो नॉमिनल टर्म्स में वर्षों के सरकारी खर्चों में वृद्धि का आंकड़ा पेश करते हैं.

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2019-20 में, अर्थव्यवस्था में सरकारी खर्च 14 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, जो बजट के सभी घटकों में सबसे तेज़ है. अन्य घटक निजी उपभोग व्यय, निवेश और निर्यात (आयात माइनस निर्यात) हैं. पिछले दो वित्तीय वर्षों में भी सरकारी व्यय तेजी से बढ़ा है और आर्थिक विकास में तेजी आई है.

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि सरकारी व्यय में यह वृद्धि पूरी तरह से नहीं दिख रही. न तो केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे में ना ही राज्य सरकारों के राजकोषीय घाटे में. ऐसा इसलिए है कि क्योंकि हाल के वर्षों में बहुत सारे सरकारी खर्च बजट के इतर अन्य तरीकों से जुटाए गए पैसों से पूरे हुए हैं. अगर हम केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे, राज्य सरकारों के राजकोषीय घाटे, सरकार की बजट के इतर उधारी, और सार्वजनिक क्षेत्र की उधारी को जोड़ दें (जैसे घाटे में चल रही कंपनियों को बैंक ऋण केवल इसलिए मिल रहा है क्योंकि वे सरकार के स्वामित्व में है) तो यह जीडीपी के 9 प्रतिशत के करीब आता है. 2019-20 के लिए केंद्र सरकार के बजट में राजकोषीय घाटे का अनुमान 3.3 प्रतिशत का है.

यह और कुछ नहीं बल्कि एक मज़ाक है जो केंद्र सरकार खुद अपने ही साथ कर रही है.

चित्र 4 हमें बताता है कि पिछले कुछ वर्षों में जीडीपी की वृद्धि और गैर-सरकारी जीडीपी वृद्धि के बीच का अंतर काफ़ी सकारात्मक स्थिति में रहा है. इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब है कि गैर-सरकारी जीडीपी की तुलना में समग्र जीडीपी तेजी से बढ़ रहा है. इसलिए, अर्थव्यवस्था के गैर-सरकारी हिस्से की तुलना में समग्र अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है.

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2019-20 में, समग्र अर्थव्यवस्था के 7.5 प्रतिशत और गैर-सरकारी हिस्से के 6.7 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, जिससे कि 80 बेसिस पॉइंट्स के अंतर आएगा. एक बेसिस पॉइंट एक प्रतिशत का सौवां हिस्सा होता है.

पिछले दो वर्षों में भी यही कहानी रही है. ये हमें क्या बताता है? यह बताता है कि सरकार का खर्च पिछले कुछ वर्षों से अर्थव्यवस्था में दम फूंक रहा है. इसके अलावा, सरकारी खर्च के बावजूद, अर्थव्यवस्था का निजी हिस्सा समग्र अर्थव्यवस्था की तुलना में धीमी गति से बढ़ रहा है, जो किसी भी हालत में एक अच्छा संकेत नहीं है. क्योंकि यह अर्थव्यवस्था का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है. सरकारी व्यय की वृद्धि ने अर्थव्यवस्था के निजी क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं किया है और इसके पुनरुद्धार में कसी भी प्रकार की मदद नहीं की है. कोई भी वास्तविक आर्थिक बदलाव तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि अर्थव्यवस्था का यह हिस्सा पुनर्जीवित न हो.

इसलिए, राजनेता और अर्थशास्त्री जो राजकोषीय विस्तार की सिफारिश कर रहे हैं, वे या तो इस बारे में जानते नहीं हैं या फिर चाहते हैं कि सरकार अपना खर्च अधिक बढ़ाए. और यहीं सब कुछ दिलचस्प हो जाता है.

2019-20 में, सरकारी खर्च 14 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है. मान लेते हैं कि 2020-21 में, सरकारी व्यय 20 प्रतिशत या उससे अधिक (2019-20 में वृद्धि की तुलना में काफी अधिक होना) से बढ़ता है. फिर क्या होगा?

एक बार फिर चित्र 3 पर नज़र डालते हैं. पिछली बार सरकारी खर्च में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि 2008-09 और 2009-10 में हुई थी. तब इसमें क्रमश: 20.3 प्रतिशत और 25.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. इसने स्पष्ट रूप से आर्थिक विकास पर भारी प्रभाव डाला. नॉमिनल टर्म्स में 15.5 प्रतिशत 2009-10 में और 19.9 प्रतिशत 2010-11 में.

सरकार की आसान खर्च नीति ने दोहरे अंकों की मुद्रास्फीति को जन्म दिया जिससे देश पिछले कुछ वर्षों से जूझ रहा है. सरकार द्वारा एक हद से ज्यादा खर्च करना उच्च मुद्रास्फीति का कारण बन सकती है, क्योंकि लोगों के हाथों में जितनी अधिक धनराशि होती है वो उसके हिसाब से ही वस्तुओं और सेवाओं के पीछे जाते है. लेकिन यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह गरीबों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है (विशेषकर खाद्य मुद्रास्फीति के मामले में). इस मुद्रास्फीति ने सुनिश्चित किया है कि 2010-11 के बाद आने वाले वर्षों में वास्तविक आर्थिक विकास 5-6 प्रतिशत तक गिर जाए.

यह ऐसा था जैसे कि सरकार ने कुछ विशेष वर्षों में अर्थव्यवस्था वृद्धि के लिए सिर्फ इसलिए खर्च किया था ताकि आने वाले सालों में इसका बोझ उठा सके. इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भारी मात्रा में खराब ऋण जमा हुआ, जिसका खामियाजा अर्थव्यवस्था अभी भी भुगत रही है.

जैसा कि अर्थशास्त्र में अक्सर कहा जाता है, मुफ्त लंच जैसी कोई चीज नहीं होती है.

यहां दूसरा बिंदु यह है कि पिछले कुछ वर्षों में कुल घरेलू वित्तीय बचत गिर रही है. “कुल घरेलू वित्तीय बचत” से तात्पर्य उन निवेशों से है, जो घरों, बीमा पॉलिसियों, म्युचुअल फंड इत्यादि में लोग करते हैं, वे जिन देनदारियों को जमा करते हैं उन्हें घटा देते हैं. वे महत्वपूर्ण क्यों हैं? क्योंकि यह बचत ही है जो सरकार को राजकोषीय घाटे की वित्त व्यवस्था में मदद करती है.

अगर केंद्र सरकार 2020-21 के बजट में अपना खर्च बढ़ाने का फैसला करती है, तो सवाल यह है कि वह पैसा आएगा कहां से? अधिक संभावना तो यही है कि सरकार को वह पैसा उधार लेना पड़े. इससे पहले कि हम इसके नतीजों को समझें, चित्र 5 पर एक नज़र डालें, जो मूल रूप से वर्षों से घरों की कुल वित्तीय बचत को दर्शाता है.

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पिछले कुछ वर्षों में कुल घरेलू वित्तीय बचत में गिरावट आई है. यह एक बहुत ही मामूली वजह से हुआ है: लोगों की आय में वृद्धि की दर धीमी हो गई है. इससे लोगों को अपनी खपत जारी रखने के लिए या तो उधार लेना पड़ा है या अपनी आय का अधिक से अधिक हिस्सा खर्च करने की नौबत बन पड़ी है. लेकिन अब यह स्थिति बेकार होने लगी है.

कुल घरेलू वित्तीय बचत का डेटा केवल 2017-18 तक उपलब्ध है. लेकिन 2019-20 में आय की धीमी वृद्धि दर को देखते हुए, यही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति केवल खराब हो सकती है.

इस माहौल में, अगर सरकार अधिक खर्च करने और अधिक उधार लेने का फैसला करती है, तो यह बाकी सभी के लिए उधार लेने लायक पैसा छोड़ेगी ही नहीं. इसलिए, ब्याज दरें या तो बढ़ जाएंगी या ऊंची बनी रहेंगी. चित्र 6 पर एक नज़र डालें, जो मूल रूप से वेटेड औसत ब्याज दरों को दर्शाती हैं जिसके आधार पर बैंक उधार देते हैं.

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चित्रा 6 हमें बताता है कि जिन बैंकों ने पैसा उधार दिया है, उनकी ब्याज दर पिछले दो वर्षों में लगभग सपाट रही है. इसका कारण वही है जैसा की पहले विस्तार से बताया गया है, कुल घरेलू वित्तीय बचत में गिरावट आई है. इसलिए, एक बड़ी राशि द्वारा सरकारी खर्च को बढ़ाने से केवल समस्या बढ़ेगी जिससे ब्याज दरों में वृद्धि होगी. और जब तक ब्याज दरें ऊंची रहेंगी, कारपोरेट सेक्टर उधार लेने और अपना विस्तार करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाएगा. (बेशक इसमें दो राय नहीं कि केवल उच्च ब्याज दरें ही कारपोरेट क्षेत्र के पीछे रहने का कारण नहीं है.)

इसमें से एक तरीका यह है कि सरकार आवश्यक राजस्व जुटाने में इतनी सक्षम हो कि वो अतिरिक्त व्यय के लिए पैसा जुटा सके. यह उच्च करों के माध्यम से अर्जित नहीं किया जा सकता है- ऐसा करने से पूरा उद्देश्य बर्बाद हो जायेगा. लेकिन अगर सरकार संपत्ति बेचने का फैसला करती है (सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं में इसके शेयर, और भूमि और अन्य भौतिक संपत्तियां जिसकी सरकार मालिक है), तब स्थिति अलग हो सकती है. लेकिन यहां समस्या यह है कि जिस पैमाने पर यह करना होगा वैसा पहले कभी नहीं किया गया है. और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं को बेचने के लिए सरकार के पिछले प्रयास, सबसे अच्छे, अभावग्रस्त रहे हैं.

एक लंबी कहानी को छोटा करने के लिए, सरकार के पास बजट में करने के लिए बहुत कम है जिससे की भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सके. सरकार का बजट आखिरकार, एक वित्तीय खाता ही है. और वित्तीय खाते, अंततः, वित्तीय खाते ही होते हैं और इससे अधिक कुछ नहीं होते. कीन्स का फॉर्मूला हमेशा काम नहीं करता है, कम से कम उस तरह से नहीं जिस तरह इसे होना चाहिए.

लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सभी उम्मीदें खत्म खो गई हैं, या अभी कुछ भी नहीं किया जा सकता है. बहुत कुछ ऐसा है जो सामान्‍य योजना के तहत किया जा सकता है. इस श्रृंखला के अलग भाग में हम उन्हीं बिन्दुओं पर नजर डालेंगे.

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