जलवायु परिवर्तन: ऑस्ट्रेलिया में दावानल और एशिया में टिड्डियों का हमला

खतरनाक ये है कि ऑस्ट्रेलिया में दावानल के बारे में तो हम जानते हैं, लेकिन हमारे आसपास हो रहे टिड्डियों के हमलों की हमें कोई जानकारी नहीं है.

WrittenBy:सुनीता नारायण
Date:
Article image

पिछले दिनों आस्ट्रेलिया में भीषण दावानल में जमीन झुलस गई. लोग और वन्यजीव मर गए. मकान जल कर राख हो गए. इस दावानल की तीव्रता और फैलाव से बिल्कुल साफ है कि इसका संबंध जलवायु परिवर्तन से है. दुनिया के इस हिस्से में हालांकि जंगल में आग लगना आम घटना है, लेकिन इन दावानलों की वजह गर्मी का बढ़ना था, जिस कारण भूगर्भ सूख गया और यह क्षेत्र विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया. गर्मी बढ़ने से भूगर्भ सूखा और इसके साथ ही साथ लगातार सूखा पड़ता गया. इन दोनों ने मिल कर दावानल के लिए आदर्श स्थिति पैदा कर दी. इन अग्निकांडों पर दुनियाभर की नजर पड़ी, लेकिन इससे भी बदतर मानवीय त्रासदी हमारी दुनिया में हुई और इसका ताल्लुक भी जलवायु परिवर्तन से है.

संबर में टिड्डियों के दल ने राजस्थान और गुजरात के खेतों पर धावा बोला और फसलों को निगल गया, जिससे किसानों की जीविका बर्बाद हो गई. नुकसान कितना हुआ है, इसका बहुत मामूली आकलन हुआ, अलबत्ता सरकारों की तरफ से दिल्ली के क्षेत्रफल के तीन गुना हिस्से में कीटनाशक का छिड़काव किया गया है. ऑस्ट्रेलिया अग्निकांड की तरह इस मामले पर भी कहा जा सकता है कि टिड्डियों का हमला तो आम बात है, फिर इतना शोर क्यों?

मेरे सहयोगियों ने इस पर गहन पड़ताल की और पाया कि टिड्डियों का जो हमला हो रहा है, उसमें बदलाव आया है और इसका संबंध बेमौसम बरसात से है. ऐसा न केवल भारत बल्कि टिड्डियों के दूसरे जन्मस्थानों लाल सागर से लेकर अरब उपद्वीप, इरान और राजस्थान में भी हो रहा है. टिड्डी बहुत तेजी से विकसित होते हैं और आप मानें या न मानें, टिड्डियों के एक औसत झुंड में 80 लाख तक टिड्डी होते हैं, जो एक दिन में 2500 आदमी या 10 हाथी जितनी फसल खा सकते हैं, ठीक उतनी फसल निगल जाते हैं. पहले प्रजनन में टिड्डी 20 गुना तक बढ़ जाती हैं, दूसरे प्रजनन में 400 गुना और तीसरे प्रजनन में 16 हजार गुना तक बढ़ जाते हैं. इसका मतलब है कि अगर प्रजनन की अवधि बढ़ जाए, तो उनकी संख्या में बेतहासा इजाफा हो जाएगा. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ये टिड्डियां हमें अकाल की याद दिलाती हैं.

इस साल टिड्डियों का आकार सामान्य से काफी बड़ा था जिससे भारी नुकसान हुआ. लेकिन, ऐसा क्यों हुआ? इसकी कई कड़ियां हैं, जिनकी समीक्षा करने की जरूरत है. पहला, इस बार पाकिस्तान के सिंध प्रांत और पश्चिमी राजस्थान में बेमौसम बारिश हुई थी. भारत का ये रेगिस्तानी हिस्सा (पश्चिमी राजस्थान) टिड्डी के प्रजनन के लिए अनुकूल क्षेत्र नहीं है. प्रजनन के लिए इन्हें गीली और हरियाली से भरी जमीन चाहिए. लेकिन, पिछले साल भारत के इस हिस्से में बारिश तय समय से पहले हुई थी, इसलिए मई 2019 में हमें टिड्डियों के हमले की ख़बर मिली थी, लेकिन इसकी अनदेखी की गई. इसके बाद मॉनसून की अवधि भी बढ़ गई और अक्टूबर तक इसकी विदाई नहीं हुई. मॉनसून की विदाई होते ही टिड्डी पश्चिमी एशिया व अफ्रीका का रुख करते हैं, लेकिन मॉनसून के रुक जाने और बारिश जारी रहने के कारण टिड्डियां यहीं रुक गईं और प्रजनन करने लगीं.

दूसरा, मई 2018 में मेकुनु चक्रवात और इसके बाद अक्टूबर 2018 में लुबन चक्रवात के कारण अरब उपद्वीप में भारी बारिश हुई व रेगिस्तान में तालाब बन गए, जो टिड्डी के प्रजनन के लिए अनुकूल माहौल होता है. गरीबी और युद्ध के शिकार इस क्षेत्र में उस साल टिड्डी ने फसलों को भारी तबाही मचाई थी, लेकिन बाहरी दुनिया में ये ख़बर नहीं पहुंची, कहीं गुम हो गई. इसके बाद जनवरी 2019 में लाल सागर के तटीय क्षेत्र में बेमौसम भारी बारिश हो गई. इस क्षेत्र में बारिश की अवधि बढ़ कर 9 महीने की हो गई, जिससे ये कीड़े कई गुना बढ़ गए.

सच बात तो ये है कि टिड्डियों पर काम करने वाले विज्ञानी कहते हैं कि इस क्षेत्र में टिड्डियां इतना ज्यादा बढ़ गईं कि यहां पर्याप्त खाद्यान उत्पन्न नहीं हो सका. इसके साथ ही चक्रवात से हवा का पैटर्न बदल गया. हवा के रुख पर टिड्डियों की यात्रा निर्भर करती है। भारत में टिड्डी अमूमन मॉनसून की हवाओं के साथ आती हैं. विज्ञानी बताते हैं कि साल 2019 में टिड्डियों ने इरान पहुंचने के लिए अफ्रीका और फारस की खाड़ी से होते हुए लाल सागर को पार किया.

सर्दी के मौसम में टिड्डियां ईरान में रहती हैं. ईरान से ये विध्वंसक शक्ल अख्तियार कर पाकिस्तान और भारत का रुख करती हैं. जनवरी/फरवरी 2020 में जब टिड्डियां गुजरात व राजस्थान से पाकिस्तान-ईरान रवाना हुईं, तो वो उनकी तीसरी पीढ़ी थी. इनका जन्म मॉनसून की बढ़ी हुई अवधि में राजस्थान में हुआ था. यही वजह है कि इस बार नुकसान ज्यादा हुआ है और किसान दयनीय हालत में पहुंच गए हैं.

ऐसे तमाम सबूत हैं, जो बताते हैं कि इस क्षेत्र में बेमौसम बारिश या बढ़ते चक्रवात, जलवायु परिवर्तन से जुड़े हुए हैं. अतः हमारे परस्पर एक-दूसरे पर आश्रित और वैश्विक दुनिया में हम जो देखना शुरू कर रहे हैं, इसे समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है. ये केवल पूंजी या लोगों की उड़ान की बात नहीं है. ये ग्रीनहाउस गैस की भी बात नहीं है, जो सीमा से परे है. ये मौसम में बदलाव के कारण कीट-पतंगों के संक्रमण के भूमंडलीकरण और कीटों के हमले की बात है.

लेकिन, घोर रूप से असमान और सूचनाओं में मामले में बंटे हुए इस संसार में खतरनाक ये है कि ऑस्ट्रेलिया में दावानल के बारे में तो हम जानते हैं, लेकिन हमारे आसपास हो रहे टिड्डियों के हमलों की हमें कोई जानकारी नहीं है. हम इन्हें जोड़ नहीं रहे हैं. एशिया से अफ्रीका तक जलवायु के जोखिम के बीच रह रहे अपने लोगों के दर्द को हम समझ नहीं सकते हैं. अतः अच्छा हो कि हम उन्हें कुछ कहना या उपदेश देना भूल जाएं और अपने स्तर पर मिल कर काम करें. समस्या हम हैं. वे हमारी समस्याओं के शिकार हैं और ये बिल्कुल भी सही नहीं है.

(डाउन टू अर्थ की फीचर सेवा से साभार)

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like