समाज और न्यायिक व्यवस्था अब भी हमें हमारे सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर तौलता है और हमारी आर्थिक-सामाजिक ताक़त हमें होने वाली सज़ा की सीमा तय करती है.
"ज़रूरी ये नहीं है की हर अपराधी सज़ा पाए, ज़रूरी ये है की ग़लती से भी कोई निरपराध नागरिक सज़ा का शिकार न बन जाये. क्यूंकि समाज में हुए हर अपराध को न्याय के कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता, परन्तु अगर कोई मासूम नागरिक ग़लती से भी सज़ा पाता है तो उसका विश्वास न्याय व्यवस्था से उठ जाएगा, और अगर ये विश्वास हर नागरिक के मन में घर कर जाये तो फिर न्याय व्यवस्था अर्थहीन हो जाएगी." संयुक्त राज्य अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन एडम्स का ये उद्धरण वैश्विक न्याय व्यस्था की नींव है. भारतीय न्याय प्रणाली भी इसी प्राथमिक दर्शन से प्रभावित है जिसे ब्लैकस्टोन रेश्यो कहा जाता है. ब्लैकस्टोन रेश्यो के मुताबिक- 'चाहे सौ मुजरिम छूट जाएं पर एक भी मासूम ग़लती से सज़ा ना पाए.'
लोकतंत्र, न्याय और सामाजिक क़रार
मुख्य प्रश्न ये है की आखिर लोकतान्त्रिक प्रणाली के अंदर अलग से एक न्यायिक व्यवस्था होने का उद्देश्य क्या है? क्योंकी अगर लोकतंत्र है, तो क्यों न वोट देकर ही यह तय किया जाय की किसने जुर्म किया है, और उस जुर्म की सज़ा क्या होनी चाहिए? और अगर कानून व्यवस्था है भी, तो क्या ये सिर्फ अपराध की सज़ा तय करने के लिए है?
इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमें एक क़दम और पीछे जाना होगा, लोकतंत्र और ‘राष्ट्र राज्य’ जिसे अंग्रेज़ी में ‘नेशन स्टेट्स’ कहा जाता है की स्थापना के दौरान कई दार्शनिकों ने इस मूल प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश की है कि आखिर एक राष्ट्र राज्य में नागरिक का राज्य से और नागरिकों का आपस में संबंध क्या होगा? और इस संबंध के तानेबाने को किस तरह बनाया जायेगा?
सन 1762 में फ्रेंच दार्शनिक जीन जैक्वेस रूसो ने अपनी किताब ‘द सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ (सामाजिक अनुबंध) में इन प्रश्नों से निपटने की कोशिश की है. हालांकि इस प्रश्न के कई प्रारूप हमें इतिहास में भी मिलते है जैसे सुकरात के विचारों में, सोफिस्ट राजनीतिक दर्शन में और रोमन विधान में भी मिलता है तथा मैनेगोल्ड ने इसे जनता के अधिकारों के सिद्धांत से जोड़ा, तथापि इसका प्रथम विस्तृत विवेचन मध्ययुगीन राजनीतिक दर्शन में सरकारी अनुबंध के रूप में मिलता है.
अगर मैं सामाजिक अनुबंध या सामाजिक क़रार को आसान शब्दों में समझाने की कोशिश करूं तो वो यह है की आपके, मेरे और भारतीय राज्य के बीच एक अनुबंध है की मैं और आप अपने कुछ निजी अधिकार भारतीय राज्य को सौंपते हैं जिसके बदले में भारतीय राज्य हमें सुरक्षा प्रदान करता है साथ ही हमें समृद्धि के अवसर देता है. हमारा ये सामाजिक अनुबंध ही है जो मनुष्यों के समूह को एक देश बनाता है और मुझे और आपको उस देश का नागरिक.
वो निजी अधिकार जो हम राज्य को देते हैं उसमें एक मुख्य अधिकार है न्याय हासिल करने का अधिकार, अगर आप मेरे घर आकर चोरी करते है तो मैं आपके घर जाकर चोरी नहीं करता बल्कि आपके खिलाफ रपट लिखवाकर राज्य से उम्मीद करता हूं कि वो मुझे न्याय देगा. आपने चोरी करके मेरे और आपके और राज्य के बीच जो यह अनकहा अनुबंध है उसे तोड़ा और यह आपका अपराध है जिसके लिए आपको सजा दी जाएगी.
लोकतान्त्रिक राज्यों ने इस सज़ा देने के काम के लिए न्यायिक तंत्र खड़ा किया है. अगर यह मुझ पर छोड़ दिया जाता तो शायद मैं आपको अपनी निजी संवेदना के आधार पर सज़ा देता परन्तु जब यह अधिकार न्यायिक तंत्र को मिलता है तो उम्मीद यही होती है की वो न केवल आपके अपराध का बल्कि आपकी परिस्थिति का भी आंकलन करके सज़ा दे, मसलन अगर ये चोरी आपने की क्योंकि आपके बच्चे को दवा देने के पैसे आपके पास नहीं थे तो निश्चित रूप से आपकी सज़ा में आपकी इस स्थति को आंका जायेगा. आखिर एक राष्ट्र राज्य में और आपके और मेरे अनुबंध में हम दोनों एक ही सामाजिक एवं वित्तीय पृष्ठभूमि से आएं यह ज़रूरी तो नहीं. इसी वजह से जब एक नाबालिग कोई अपराध करता है तो हम उसे जेल नहीं अपितु सुधार गृह भेजते है क्योंकि समाज और न्यायिक व्यवस्था यह समझती है की एक नाबालिग अपनी परिस्थिति और अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित होता है और उसमे सदैव सुधार की गुंजाइश होती है.
इसी सामाजिक अनुबंध की पृष्ठभूमि में हम ब्लैकस्टोन रेश्यो की बात करते हैं, क्योंकि अगर किसी मासूम को ऐसे अपराध की सज़ा दी जाये जो उसने किया ही नहीं हो तो राज्य उसके साथ किये गए अनुबंध को तोड़ता है और अगर राज्य अनुबंध तोड़ता है तो वो इस पूरे सामाजिक अनुबंध की व्यवस्था जिस पर राष्ट्र राज्य की स्थापना होती है उसे चोट पहुंचाता है. न्यायिक व्यवस्था ज़रूरी है क्योंकी ये केवल सज़ा या सुधार नहीं देता बल्कि हमारे सामाजिक अनुबंध को अमली जामा पहनता है और उसकी नींव को मज़बूत करता है. अगर भूल से किसी निरपराध नागरिक को सज़ा हो भी जाये तो न्यायिक व्यवस्था के पास उस भूल को सुधारने के भी मौके होने चाहिए और इसी वजह से हम डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से हाई कोर्ट और वहां से सुप्रीम कोर्ट तक जा सकते हैं.
सामाजिक अनुबंध और फांसी
इस सामाजिक अनुबंध की बुनियाद पर फांसी की सज़ा कहां आकर बैठती है? अगर एक नागरिक जिसको फांसी की सज़ा दे दी गई हो और वो मासूम सिद्ध हो जाये तो राज्य के पास कोई तरीका नहीं है उस भूल को सुधारने का और इस वजह से कई लोगो ने ऐतिहासिक रूप से फ़ासी की सज़ा का विरोध किया है. भारतीय न्यायिक व्यवस्था ने भी खुद कहा है की फांसी की सज़ा सिर्फ दुर्लभ से भी दुर्लभ मामलों में दी जाये क्योंकि राज्य जो चीज़ दे नहीं सकता (जीवन) उसे लेने का अधिकार भी उसके पास नहीं होना चाहिए.
उपरोक्त आधार पर फांसी की सज़ा मूलतः दो कारणों से दी जा सकती है, जिसमें प्रथम है बदले की भावना. अगर समाज, बदले की इच्छा से प्रेरित होकर फांसी देना चाहता है तो उस पर मैं और आप कुछ नहीं कर सकते. हालांकि मैं यहां ये कहना ज़रूरी समझता हूं की बदले की भावना को धार्मिक दर्शन ने और हमारी सामाजिक नैतिकता दोनों ही ग़लत ठहराते हैं. बदले की भावना में कुछ भी सकारात्मक या प्रगतिशील नहीं है. और क्या हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं की ऐसे न बदले जाने वाले फैसले से समाज का हर एक नागरिक सहमति रखता होगा, अगर फांसी जैसी सज़ा समाज के बहुसंख्यक तबक़े की बदले की भावनाओं को मद्देनज़र रखके ली जाए तो फिर हमें न्यायिक व्यवस्था की ज़रूरत ही क्या है, हम वोट देकर ही सारे फैसले ले सकते हैं.
फांसी दिए जाने के पीछे जो दूसरा और शायद अधिक प्रचलित कारण दिया जाता है वो है, सज़ा का डर, परन्तु आंकड़ों के हिसाब से पांच देश जहां सबसे अधिक फांसी की सज़ा सुनाई जाती है वो है चीन, ईरान, सऊदी अरब, इराक़ और पाकिस्तान (अमरीका इसमें आंठवे पायदान पर है). ग्लोबल पीस इंडेक्स के अनुसार ये सारे देश विश्व के सबसे शांति प्रिय देशों की सूची में निचले पायदानों पर आते हैं. चीन (160 देशों में 110वें स्थान पर है), ईरान 139 पर, सऊदी अरब 129, इराक़ 159 और पाकिस्तान 153 (अमरीका 128 और भारत 141 नंबर पर है).
वही दूसरी तरफ नार्डिक देश (मुख्यतः पूर्वी यूरोप के देश) जिन्होंने फांसी की सज़ा अपनी न्यायिक व्यवस्था से ख़त्म कर दी है वो सब के सब विश्व के 20 सबसे शांतिप्रिय देशों की सूची में आते हैं. निश्चित रूप से मैं ये नहीं कह सकता कि फांसी की सज़ा और शांतिप्रियता का आपस में कोई सीधा संबंध सिर्फ इस आंकड़े से बनाया जा सकता है. वाशिंगटन डीसी, थिंक टैंक के आंकड़ों के मुताबिक़ जिस देश ने भी मृत्यु दंड के कानून को ख़त्म किया है उन सभी देशों ने अपने यहां हत्या जैसी घटनाओं में गिरावट दर्ज की.
मृत्यु दंड की दर और हत्या जैसे अपराध के बीच के संबंध को बेहतर समझने के लिए, हम हॉन्ग-कॉन्ग और सिंगापुर जैसे देशों की तुलना कर सकते हैं. ये दोनों देश जनसंख्या में एक दूसरे के काफी पास हैं. तो 1994-95 और 1996-97 में सिंगापुर विश्व में मृत्यदंड देने वाले देशों की सूची में काफी ऊपर था पर 1997 के बाद अगले ग्यारह सालों में मृत्यदंड की दर में 95% कमी आई, वही हॉन्ग कॉन्ग ने मृत्युदंड का कानून 1993 में ही हटा दिया. इन सब के बावजूद हत्याओं की दर दोनों देशों में लगभग एक सामान ही रही है चाहे वो 94-95, 96-97 के साल हो या उसके बाद. इन दोनों देशों में मृत्युदंड के होने न होने से हत्या जैसे अपराध के आंकड़ों में कोई बदलाव नहीं पाया गया.
मृत्यु दंड
गौतम बुद्ध ने अंगुलिमाल को समझाया था- “यदि किसी को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मृत्यु देने का भी तुम्हें कोई अधिकार नहीं है.”
ये प्राकृतिक है की हम जब भी नृशंस बलात्कार या हत्या जैसी घटनाओं के बारे में सुनते है तो हमे लगता है की ऐसा कृत्य करने वाले अपराधी को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है. परन्तु, मृत्यदंड को बलात्कार जैसी घटनाओं में मुख्य सज़ा बना देने का सबसे बड़ा खतरा यह है की वो बलात्कारी के पास कोई और कारण नहीं देता है जिस वजह से वो पीड़िता को जीवित छोड़ दे, पीड़िता के मारे जाने से उसके पकड़े जाने की सम्भावना कम हो जाती है.
मृत्युदंड एक सज़ा है जो समाज को शायद ये एहसास दिलाती है की हमारी संस्थाओं ने समाज को सुरक्षित बनाने के लिए कोई कदम उठाया है. परन्तु मृत्युदंड अपराध के पश्चात उठाया एक कदम है जो अपराध के होने को किसी भी प्रकार से नहीं रोकता. सबसे बड़ा डर होता है पकड़े जाने का और सबसे महत्वपूर्ण है की हम कोशिश करे की हमारी संस्थाए जैसे की पुलिस और न्यायिक प्रणाली इतनी मज़बूत और ताकतवर हो की वो आपराधिक मानसिकता को जड़ में ही रोक ले. हम ये न भूले की जेसिका लाल और ज्योति सिंह दोनों पीड़िता थी एक ही तरह के अपराध की, फिर भी मनु शर्मा और ज्योति के हत्यारों को सज़ा अलग अलग तरह हुई, क्यूंकि समाज और न्यायिक व्यवस्था अब भी हमें हमारे सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर तौलता है और अधिकतर समय हमारी आर्थिक-सामाजिक ताक़त हमें होने वाली सज़ा की सीमा को तय करती है.