पहचान की राजनीति से आगे की राजनीति

मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने आडियोलॉजिकल राजनीति को उस अधिकतम सीमा तक पहुंचा दिया, जहां से उसकी खामियां उजागर हो गईं.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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भाजपा एक लंबी यात्रा और उठापटक के बाद आज जहां पहुंची है, और जिस तरह की राजनीति कर रही है उसे समझे बिना हम दिल्ली के ताजा नतीजों की ठीक से व्याख्या नहीं कर पाएंगे. 1995-96 का दौर था जब भाजपा अटल-आडवाणी की हुआ करती थी. उस दौर में लालकृष्ण आडवाणी ने ऐलानिया कहा था कि आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स यानी विचारधारा वाली राजनीति की एक सीमा होती है. राजनीतिक विचारधारा पर आधारित दलों को इस सीमा के पार जाने के लिए कुछ वक्ती समझौते करने पड़ेंगे. तब इसे राजनीतिक व्यावहारिकता का नाम दिया गया.

इस व्यावहारिक राजनीति की गरज से भाजपा ने अपने एजेंडे से धारा 370, राम मंदिर, यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे विवादित मुद्दों को किनारे रख दिया. इसकी बुनियाद पर एनडीए की इमारत खड़ी हुई और अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में देश को पहला पूर्णकालिक स्वयंसेवक प्रधानमंत्री मिला. इस व्यावहारिक राजनीति से एक रास्ता खुला जिस पर नरेंद्र मोदी की राजनीति आगे बढ़ी. मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने आडियोलॉजिकल राजनीति को उस मुकाम तक पहुंचा दिया जिसे उसकी अधिकतम सीमा कहा जा सकता है.

इस अधिकतम सीमा की अपनी निहित खामियां हैं. देश ने देखा कि किस तरह से दिल्ली के चुनाव अभियान के दौरान भाजपा कोई सकारात्मक नज़रिया या भरोसेमंद विकल्प देने में बुरी तरह असफल सिद्ध हुई. भाजपा के चुनाव अभियान में ये बुराइयां उजागर हुईं. एक मंत्री ने गोली मारो सालों को नारा दिया. एक सांसद ने कहा कि शाहीन बाग के लोग दिल्ली वालों की बहन-बेटियों के साथ बालात्कार करेंगे. अमित शाह ने कहा कि ईवीएम का बटन इतना ज़ोर से दबाना कि करंट शाहीन बाग़ में महसूस हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि शाहीन बाग़ में संयोग नहीं प्रयोग हो रहा है.

ऊपर से लेकर नीचे तक, नेताओं के इन बयानों ने उस आडियोलॉजिकल राजनीति की सीमाओं को उजागर करने के साथ ही उसकी कलई खोल दी. जब आपके पास भरोसे के साथ बताने के लिए ऐसा कुछ नहीं हो जिसे हम पोस्ट आइडियोलॉजिकल राजनीति कह सकें तब इस तरह की नकारात्मक, बंटवारे वाली राजनीति शुरू होती है.

दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी थी. उसने अपने कैंपेन का दायरा अच्छे स्कूल, अच्छी शिक्षा, सड़कें, 24 घंटे बिजली और पानी जैसे विषयों पर केंद्रित रखा. आप के चुनाव अभियान में आखिरी चरण को छोड़ दिया जाय, जब अरविंद केजरीवाल ने हनुमान चालीसा पाठ किया और हनुमानजी से संवाद किया, तो कमोबेश उसने अपने को मुद्दों पर ही फोकस रखा. यह रणनीतिक रूप से भी सही था कि भाजपा के झांसे में न फंसते हुए उसे अपने मुद्दों पर खींचकर लाया जाय.

आम आदमी पार्टी का कुल जीवनकाल महज 8 साल का है. यह कोई हार्डकोर विचारधारा या काडर प्रेरित पार्टी नहीं है. दक्षिण और वाम में बंटे वैचारिक लैंडस्केप में से ‘आप’ किसी से का भी प्रतिनिधित्व नहीं करती. ज्यादा से ज्यादा इसे मध्यमार्गी पार्टी कहा जा सकता है.

2015 में मिली असाधारण जीत की तुलना में अरविंद केजरीवाल को मिली यह जीत कई मायनों में ज्यादा बड़ी है. तब अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता से माफी मांगकर सत्ता में आए थे. उस वक्त दिल्ली की जनता ने उनपर भरोसा किया था. वह चुनाव अरविंद के किसी कामकाज का मूल्यांकन नहीं था, बल्कि रेसकोर्स में एक अनजान घोड़े पर लगाया गया दांव था. जबकि 2020 में जनता ने उस दांव के नफे-नुकसान का आकलन करके अपना वोट दिया है. जाहिर है जनता ने जिस घोड़े पर दांव लगाया था वह बीते पांच सालों में उनके भरोसे पर खरा उतरा. यह चुनाव एक तरह से उस भरोसे का रेफरेंडम था, इसलिए यह जीत बड़ी है.

इस बीच में दो अहम पड़ाव आए जिसको देखना जरूरी है. यह आप के लिए परीक्षा की घड़ी थी या कहें कि ऊंघने की स्थिति में चौकन्ना करने वाले स्पीड ब्रेकर थे. दिल्ली में हुआ नगर निगम चुनाव और 2019 का लोकसभा चुनाव. लोकसभा चुनाव में भाजपा दिल्ली की 65 विधानसभाओं में 56% वोट के साथ जीती थी. आप के लिहाज से यह अच्छा रहा कि इन दो झटकों ने समय रहते उसे चौकन्ना कर दिया. इन नौ महीनो में स्थितियां पूरी तरह से पलट गईं. इसकी दो व्याख्याएं हो सकती हैं.

पहली, 2019 की तात्कालिक परिस्थितियां. लोकसभा चुनाव पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और बालाकोट में किए गए अटैक की पृष्ठभूमि में हुआ था. उस चुनाव की भाषा बेहद उत्तेजक और हिंसक थी. संभव है कि यह बड़ा फैक्टर बना हो.

दूसरी व्याख्या यह है कि दिल्ली का मतदाता इतना परिपक्व हो चुका है कि वह केंद्र और राज्य के चुनावों के तरीके, मुद्दे और माहौल को अलग-अलग तौलने लगा है. हालांकि इस तर्क को बहुत भरोसे के साथ नहीं स्वीकार किया जा सकता.

हम फिर से उसी बिंदु पर लौटते हैं, बिना किसी आइडियोलॉजिकल उत्प्रेरक या काडर बेस के भ्रष्टाचार के आंदोलन से निकली एक राजनीतिक पार्टी की अगर कोई राजनीतिक विचारधारा हो सकती थी तो वह स्कूल, मोहल्ला क्लीनिक, नौकरी, ओवरब्रिज, 24 घंटे बिजली, पानी, सीसीटीवी कैमरा, वाई-फाई जैसी ढांचागत और रोजमर्रा की जरूरतें ही हो सकती थीं.

दिल्ली जैसे पूर्ण शहरी, मध्यवर्ग की प्रभुता वाले राज्य में प्रचलित विचारधाराओं के मुकाबले यह एक नया प्रयोग है. यह पहचान की राजनीति से आगे की राजनीति है. आप हर वक्त अतीत की महानता और अदृश्य दुश्मनों के भय से जकड़े नहीं रह सकते. इस विचारधारा की खासियत यह भी है कि इसमें शामिल मुद्दे किसी एक पंथ या समुदाय को अपने दायरे से खारिज नहीं करते या उन्हें अपने-पराए में नहीं बांटते.

इसके विपरीत जब अमित शाह. योगी आदित्यनाथ या अनुराग ठाकुर धार्मिक घृणा से भरे बयान देते हैं तो यह एक बड़े तबके को (इस मामले में मुसलमानों को) अलग कर देते हैं और जरूरी नहीं कि बाकी तबकों में कोई खास भरोसा पैदा करें.

इसका एक काउंटर तर्क आया कि फ्रीबीज़ की राजनीति लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है. इससे लोगों को लालच तो दिया जा सकता है लेकिन लोकतंत्र कमजोर होता है. इससे लचर कोई तर्क नहीं हो सकता. दो-तीन बिंदुओं में इसे समझा जाना चाहिए.

दिल्ली की सरकार कोई पहली सरकार नहीं है जिसने इस तरह की योजनाएं शुरू की हों. लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री आवास योजना या किसान निधि के तहत सीधे आम लोगों के खाते में सब्सिडी की रकम जमा करवाने को भी इसी तर्क से गलत ठहराया जा सकता है. लेकिन सरकारी सब्सिडी को राजनीतिक चश्में से या सिलेक्टिव तरीके से खारिज करने के बड़े खतरे हैं.

जिस खुली अर्थव्यवस्था में हम जी रहे हैं, उसकी तमाम बुराइयों में एक बुराई यह है कि इसमें संपत्तियों और संसाधनों पर कुछ गिने-चुने लोगों का कब्जा केंद्रित होता जा रहा है. वामपंथी भाषा में कहें तो यह पूंजीवाद के निहित दुष्परिणाम है जिसने दुनिया में गैर-बराबरी को लगातार बढ़ाया है. अमीर और अमीर, गरीब और गरीब होता गया है. ऐसी स्थित में किसी वेलफेयर स्टेट से क्या उम्मीद की जानी चाहिए. राज्य अपने नागरिकों को, समाज के निचले हिस्सों को अपना हिस्सा कैसे बना सकता है, जिसके पास इस गैर-बराबरी को बढ़ाने वाली व्यवस्था में मौके ही नहीं है. जिसे लोगों ने फ्रीबीज़ जैसी गाली बना दिया है वह मौजूदा दौर की सच्चाई है. यह देश के नागरिकों को सत्ता में भरोसा बनाए रखने का जरिया है. यह सिर्फ भारत या तीसरी दुनिया में नहीं हो रहा. अमेरिका में ओबामा केयर को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. और भी कई उदाहरण हैं.

लिहाजा फ्रीबीज़ को गाली बनाने से पहले ध्यान रखें कि यह जिन्हें मिल रहा है उनके हिस्से पर किसी और ने कब्जा कर रखा है, वो आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं. सत्ता में अरविंद केजरीवाल हों या नरेंद्र मोदी, एक हिस्से को इस तरह की योजनाओं का लाभ मिलता रहेगा, मिलना चाहिए.

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