कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी से रुख़सत हुए सिंधिया

त्रिगुटीय मध्य प्रदेश कांग्रेस से सिंधिया को बाहर करने की पूरी कहानी और साथ में सिंधिया घराने का राजनीतिक इतिहास.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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नवम्बर 2019 में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने ट्विटर अकाउंट के बायो (खुद के बारे दी जानेवाली जानकारी) में कांग्रेस से जुड़ी अपनी जानकारियां हटाकर पब्लिक सर्वेंट (जनसेवक) लिखा था तभी अफवाहों का बाजार गर्म हो गया था कि सिंधिया कांग्रेस छोड़ सकते हैं. ऐसी अटकलें लगने की वजह थी. अपने गृहराज्य मध्य प्रदेश में वो मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के हाथों धीरे-धीरे हाशिये पर ढकेले जा रहे थे. लेकिन तब उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया.

जिसकी अटकलें पांच महीने पहले लगाई गई गई थीं वो घटना 10 मार्च, 2020 को फलीभूत हुई. अपने पिता माधवराव सिंधिया के 75वें जन्मदिन पर ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से जा मिले. इसके एक दिन बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उन्हें पार्टी में शामिल करने का विधिवत आयोजन किया, साथ में राज्यसभा भेजने की घोषणा भी कर दी.

सिंधिया के मोहभंग की शुरुआत दिसंबर, 2018 में 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनते ही हो गई थी. कमलनाथ को पार्टी ने राज्य का मुख्यमंत्री बनाया, सिंधिया चाहते थे कि उनके किसी आदमी को उपमुख्यमंत्री बनाया जाय, लेकिन कमलनाथ इसके लिए राजी नहीं हुए, कमलनाथ चाहते थे कि उपमुख्यमंत्री स्वयं सिंधिया बनें न कि कोई चेला. तब से ही सिंधिया को हाशिये पर धकेलने का काम शुरू हो गया था.

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मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी मुख्य रूप से तीन गुटों में बंटी हुयी है. यह तीनों गुट ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की सरपरस्ती में चलते हैं. 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों वाले दिन जब यह साफ़ हो गया था कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी तब सिंधिया और कमलनाथ अपने नेताओं को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पोस्टर-बैनर लहराने लगे थे. मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए दो-तीन दिन भोपाल से लेकर दिल्ली तक कशमकश चलती रही, उसके बाद कमलनाथ का नाम पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित कर दिया था.

गौरतलब है कि 2018 के चुनाव में जहां कांग्रेस मात्र 5 सीटों पर बढ़त बनाकर (कांग्रेस-114, भाजपा- 109) जीती थी. कांग्रेस को सबसे ज़्यादा सीट ग्वालियर-चम्बल के इलाके में ही मिली थी, जो कि सिंधिया के प्रभाव वाला इलाका माना जाता है. बावजूद इसके सिंधिया को मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के मुकाबले में शिकस्त मिली.

मुख्यमंत्री पद से हाथ धो बैठने के बाद सिंधिया को उम्मीद थी कि उन्हें कांग्रेस पार्टी का मध्य प्रदेश में अध्यक्ष बनाया जाएगा लेकिन कमलनाथ ने यह पद भी अपने पास ही रखा. प्रदेश अध्यक्ष बनने की सिंधिया की बची खुची उम्मीद तब टूट गयी जब वो 2019 का लोकसभा चुनाव अपने गढ़ गुना से लगभग एक लाख बीस हज़ार से भी ज़्यादा वोटों से हार गए.

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ले देकर अब सिंधिया को उम्मीद थी कि वो राज्यसभा में पहुंचेंगे, लेकिन वह उम्मीद भी धुंधली पड़ने लगी जब राज्यसभा सीट के लिए दिग्विजय सिंह का नाम पहली पसंद के रूप में सामने आने लगा. पार्टी के अंदर की इस रस्साकशी के बाद सिंधिया ने 22 विधायकों समेत कांग्रेस पार्टी से 10 मार्च को इस्तीफ़ा दे दिया.

मध्य प्रदेश के राजनीतिक पंडित इस पूरी उठापटक के पीछे वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की भूमिका भी देखते हैं. लोगों का मानना है कि उन्होंने अपने पुत्र जयवर्धन सिंह के राजनैतिक भविष्य को बेहतर बनाने के लिए सिंधिया की राजनीतिक राह में कांटे बोए.

मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार सोमदत्त शास्त्री कहते हैं, "ज्योतिरादित्य सिंधिया राष्ट्रीय स्तर पर साफ़-सुथरे चेहरे थे. उनके जाने से कांग्रेस को बहुत नुकसान होगा. लोगों के बीच यही संदेश गया है कि सिंधिया ने अन्याय के चलते पार्टी छोड़ी है. पार्टी के भीतर राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर पर काफी समय से उनकी उपेक्षा हो रही थी. इस पूरी परिस्थिति का लाभ दिग्विजय सिंह ने उठाया. उनकी और सिंधिया परिवार की राजनैतिक तनातनी जगजाहिर है. एक वक्त में दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह ने मिलकर ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को मुख्यमंत्री नहीं बनाने दिया था.”

शास्त्री के मुताबिक दिग्विजय सिंह की चिंता अपने बेटे जयवर्धन सिंह का राजनीतिक भविष्य है. दूसरे दिग्विजय सिंह खुद भी राज्यसभा की उम्मीद लगाए थे.

सिंधिया का कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद उनकी खानदानी लोकसभा सीट गुना में भी जिला कांग्रेस व सिंधिया खेमे के प्रदेश कांग्रेस के पदाधिकारियों ने अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया है.

गुना जिले की कांग्रेस इकाई के अध्यक्ष विट्ठलदास मीणा कहते हैं, "महाराज (सिंधिया) के सभी सिपाहियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है. गुना जिले के सभी ब्लॉक अध्यक्ष, युवा कांग्रेस, एनएसयूआई के सभी पदाधिकारी जो महाराज के समर्थक हैं, उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया है. हम कांग्रेस के नहीं महाराज के समर्थक हैं. अब महाराज भाजपा में चले गए हैं तो स्वाभाविक है कि हम भी भाजपा में जाएंगे. महाराज की बहुत ज़्यादा उपेक्षा की गयी इसीलिए उन्होंने इस्तीफ़ा दिया.”

गुना की रहने वाली सिंधिया खेमे की एक और नेता व मध्य प्रदेश में महिला कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष वंदना मांडरे कहती हैं, "हम सभी ने अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया है. यह पद हमें महाराज ने दिए थे और जब महाराज ही नहीं हैं तो इन पदों का क्या करेंगे." हालांकि मांडरे बताती हैं कि अभी तक बहुत से सिंधिया खेमे के समर्थकों ने भाजपा में जाने का फैसला नहीं लिया है. वह कहती हैं, "लगभग हफ्ते भर अभी विचार विर्मश होगा और उसके बाद सब तय करेंगे कि भाजपा में जाना है या पार्टी में ही रहना है.”

गुना में कांग्रेस पार्टी के जाने माने नेता और पूर्व पत्रकार नूरुल हसन नूर सिंधिया के राजनैतिक जीवन पर नज़र डालते हुए कहते हैं, "जनवरी 2001 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया था. वहीं सितम्बर 2001 में हवाई दुर्घटना में माधवराव सिंधिया का निधन हो गया. 2001 में सिंधिया राजवंश के दो चिराग बुझने के बाद माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीति में प्रवेश हुआ. उनकी मां राजमाता माधवीराजे सिंधिया ने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से ज्योतिरादित्य सिंधिया को राजनीतिक आशीर्वाद दिलवाया था. ज्योतिरादित्य सिंधिया को गुना की जनता ने महाराज का वारिस मानकर अब तक के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त करके दिल्ली भेजा था.”

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नूर कहते हैं, “यहां यह बात गौर फरमाने वाली है कि ग्वालियर राजमहल चाहे जनसंघ, जनता पार्टी, निर्दलीय, भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस किसी भी पार्टी में रहा हो, लेकिन ग्वालियर राजमहल ने अपनी सियासत स्वयं के आधार पर ही की है. 2004, 2009 और 2014 में ज्योतिरादित्य लगातार गुना से जीतकर दिल्ली पहुंचते रहे. इस बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया के ग्लैमरस चेहरे का इस्तेमाल 2013 और 2018 के विधानसभा चुनावों में भीकांग्रेस ने किया, लेकिन वो दांव असफल रहा. 2013 के विधानसभा चुनावों में शिवराज कामयाब रहे लेकिन 2018 के विधानसभा चुनावों में कमलनाथ, दिग्विजय और सिंधिया की तिकड़ी ने आपसी तालमेल बिठाते हुए ऐसी रणनीति का इस्तेमाल किया कि व्यापमं, मंदसौर गोलीकाण्ड और किसान कर्ज जैसे हथियार काम कर गए. प्रदेश में 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनी. दिल्ली के आदेशानुसार कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया और ज्योतिरादित्य सिंधिया की टीम के 6 सदस्यों को मंत्रिमण्डल में स्थान देते हुए उनको अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया. साथ में यूपी, महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण प्रदेशों का प्रभारी बनाकर धीरज देने का प्रयास किया गया."

2019 के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित रूप से पहली बार सिंधिया राजघराने को पराजय का सामना करना पड़ा. यह आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था. इस हार के बाद सिंधिया के व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर आ गया था. कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश अध्यक्ष का पद भी उन्हीं के पास था जिसकी मांग सिंधिया गुट लंबे समय से कर रहा था. इसी के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से कांग्रेस शब्द हटा कर आने वाले भविष्य का एक इशारा दे दिया था.

अभी हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा कुछ दिन पूर्व दिये गये सड़क पर उतरने संबंधी बयान के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ से उनके तल्ख रिश्ते सतह पर आ गए थे. मुख्यमंत्री कमलनाथ ने खुलेआम मीडिया से कह दिया कि वो (सिंधिया) चाहें तो सड़क पर उतर जाएं. जाहिर है इसके बाद दोनों के बीच तलवारें खिंच चुकी थी. प्रदेश से राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के दो उम्मीदवारों को जाना था. जिसमें कुछ दिनों से कांग्रेस मंत्रिमण्डल के सदस्य प्रियंका गांधी को लाने संबंधी बयान दे रहे थे. आखिरकार इन सभी बातों का पटाक्षेप सिंधिया के जाने के साथ हो गया.

सिंधिया राजघराने के राजनैतिक इतिहास के बारे में बताते हुए नूर कहते हैं, "ग्वालियर राजघराने का राजनीति में प्रवेश 1957 से हुआ. ग्वालियर रियासत के भारतीय लोकतंत्र में विलय के बाद इस घराने से महारानी विजयाराजे सिंधिया ने राजनीति में उतरने का मन बनाया और गुना-भेलसा (विदिशा) लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा और विजय हासिल कर लोकसभा पहुंचीं थी.1966 तक उन्होंने लोकतंत्र की राजनीति के दांव-पेंच समझ लिये तथा स्वयं को साबित करने के लिये 1967 के विधानसभा चुनावों में ग्वालियर संभाग में अपने स्वतंत्र उम्मीदवार उतारे तथा प्रभावी विजय हासिल की. इसके बाद जनसंघ पार्टी के सदस्यों दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाउ ठाकरे, अटलबिहारी वाजपेयी, नाथूलाल मंत्री आदि नेताओं ने उन्हें विधिवत जनसंघ में प्रवेश कराया."

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विजयाराजे सिंधिया के पति महाराजा जीवाजीराव सिंधिया की 1961 में मृत्यु हो गयी थी, जो कि पहले से ही जनसंघ की विचारधारा से प्रभावित थे.1967 में डीपी मिश्रा के नेतृत्व में प्रदेश सरकार का गठन हुआ लेकिन चंद महीनों बाद ही ग्वालियर राजमाता के नेतृत्व में राजनीतिक उठापटक आरंभ हो गई और सरकार का पतन हो गया. गोविंद नारायण सिंह ने राजमाता के आशीर्वाद से अस्थायी सरकार बनाई. लेकिन यह सरकार भी 19 महीनो में ही गिर गई थी. इसके बाद श्यामाचरण शुक्ल के नेतृत्व में1969 में दोबारा कांग्रेस की सरकार बनी.

नूर के मुताबिक 1971 में विजयाराजे सिंधिया के पुत्र माधवराव सिंधिया का राजनीति में जनसंघ के ज़रिये प्रवेश हुआ. 1971 में ही माधवराव सिंधिया ने जीवन का पहला चुनाव जनसंघ की तरफ से गुना से लड़ा और भारी बहुमत से जीत हासिल की. 1975 में आपातकाल लगा जिसके बाद राजमाता सिंधिया गिरफ्तार हो गईं. उसी साल माधवराव सिंधिया का जनसंघ से मोहभंग हुआ और 1977 का लोकसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय लड़ा. कांग्रेस ने उन्हें समर्थन भी दिया था. उस चुनाव में भी उन्हें जीत हासिल हुई.

1980 में जनता पार्टी की सरकार गिरी और संजय गांधी के दोस्त माधवराव सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गए थे.1980 का चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट से लड़ा और फिर से जीत दर्ज की.1984 के लोकसभा चुनावों में माधवराव सिंधिया को अर्जुन सिंह ने रणनीति के तहत ग्वालियर से चुनाव लड़ रहे अटल बिहारी वाजपेयी को घेरने के लिए वहां से लड़वाया. उस चुनाव में भी सिंधिया ने अटल बिहारी बाजपेयी को शिकस्त दी. 1998 तक माधवराव सिंधिया ग्वालियर से चुनाव लड़ते रहे और राजमाता विजयाराजे सिंधिया गुना से लोकसभा का प्रतिनिधित्व करती रहीं. आपातकाल में राजमाता सिंधिया की गिरफतारी के बाद दोनों मां बेटे में एक अघोषित अबोला कायम हो गया था, जो आखिरी तक बना रहा. 1998 में विजयराजे सिंधिया की तबियत ख़राब हो जाने के चलते, माधवराव सिंधिया ने 1999 का लोकसभा चुनाव गुना से लड़ा और उनकी मृत्यु के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 तक गुना से सांसद थे.

(सभी फोटो: जयव्रत सिंह)

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