सियासत जदीद: डिजिटल दौर में बहुत कुछ बचाने को जूझ रहा उत्तर प्रदेश का सबसे पुराना उर्दू अख़बार

प्रसार और आय में गिरावट के बावजूद अख़बार के मालिकान इसे चलाने के लिए कृत संकल्पित हैं.

WrittenBy:रोहित घोष
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

रात के 10 बज चुके हैं. हम कानपुर के मुसलिम बाहुल्य मोहल्ले चमनगंज में हैं. चहल-पहल कम हो गई है लेकिन लबे सड़क एक बिल्डिंग के बेसमेंट में गतिविधियां चल रही हैं.

यहां करीब 10 लोग अपने कंप्यूटर सेट पर बैठे अखबार के पन्नों का बारीकी से मुआयना कर रहे हैं. बगल के कमरे में तीन लोग एक प्रिटिंग मशीन को तैयार करने में लगे हैं. जल्द ही यह मशीन नीरवता को भंग कर देगी और तेज़ शोर के बीच सियासत जदीद की 60,000 कॉपियां प्रिंट करेगी.3 बजे भोर में इन कॉपियों के बंडल गाड़ियों में लादकर न्यूज़पेपर एजेंसियों में भेज दिए जाएंगे. और सुबह होते-होते ये कॉलोनियों, घरों की बालकनी तक पहुंच जाएंगे.

1949 में शुरू हुआ सियासत जदीद उत्तर प्रदेश का सबसे पुराना उर्दू अख़बार है. आज 71 साल बाद जब प्रिंट मीडिया तमाम तरह की दुश्वारियों से दो-चार है, यह अख़बार अभी भी मजबूती से कायम है. हालांकि इसकी राह में कई दिक्कतें भी हैं.

“अख़बार, विशेषकर भाषायी अखबार इन दिनों बेहद मुश्किल में हैं,”60 वर्षीय इरशाद इल्मी, जो कि अख़बार के संपादक और मालिक हैं, ये बात कहते हैं. “अख़बारों की पाठक संख्या और आय दोनों ही डिजिटल माध्यों के चलते कम हो रही है. रोज़ाना अख़बार निकालना बेहद मुश्किल हो गया है.”

इरशाद के मुताबिक सत्तर और अस्सी का दशक सुनहरा दौर था. आय और प्रसार संख्या दोनों चरम पर थे. 90 का दशक आते-आते अखबार की स्थितियां बदलने लगीं. पहले तो सियासत जदीद को निजी कंपनियों के विज्ञापन भी मिलते थे. अब हमरी आय का एकमात्र जरिया सरकारी विज्ञापन ही बचे हैं.

“अब तो हमें सरकारी विज्ञापन भी नियमित रूप से नहीं मिलते,” इरशाद कहते हैं. “सरकारी विज्ञापन तभी मिलता है जब सरकार कोई योजना शुरू करती है या फिर मुख्यमंत्री या किसी मंत्री का कानपुर का दौरा होता है.”

नतीजन यह अख़बार बमुश्किल मुनाफा कमा पाता है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
हर दिन 60,000 हजार सियासत जदीद की कॉपियां छपती है.

इरशाद कहते हैं, “हमें हर महीने अपने कर्मचारियों को वेतन देना होता है. हमें हर दिन न्यूज़प्रिंट (अखबारी काग़ज) और स्याही की जरूरत होती है. इसके अलावा हमें प्रिंटिंग मशीन और कंप्यूर के रखरखाव पर भी खर्च करना होता है. बिजली का खर्च है. इतने सारे खर्चों के बाद हमारी बचत शून्य हो जाती है.”

इसके बावजूद अख़बार दिन ब दिन चमत्कारिक रूप से निकल रहा है.

***

अख़बार हमें कहानियां सुनाते हैं. सियासत जदीद की अपनी कहानी इस देश में गणतंत्र की कहानी जितनी ही पुरानी है.

अख़बार का प्रकाशन 1949 में इरशाद के पिता मोहम्मद इशाक़ इल्मी ने शुरू किया. 1953 में इसका रजिस्ट्रेशन हुआ. इशाक़ उस वक्त देवबंद से निकले ताज़ा स्नातक थे. वो सेक्युलरिज्म और समाजवादी विचारों से प्रभावित थे. इरशाद ये बात बताते हैं.

बंटवारे के पहले उत्तर भारत की बड़ी आबादी उर्दू का इस्तेमाल करती थी. समय बीतने के साथ इसे सिर्फ मुसलमानों की भाषा समझा जाने लगा. नतीजतन एक सामान्य समझ पैदा हुई कि एक उर्दू अखबार सिर्फ मुसलमान ही चला या उसमें काम कर सकता है. यद्यपि अपनी स्थापना के बाद से ही सियासत जदीद में हिंदुओं की खासा हिस्सेदारी रही.

“मेरे पिताजी अखबार को बेहद संतुलित और पक्षपात से परे रखना चाहते थे,” इरशाद समझाते हैं. “वो इसके किसी समुदाय विशेष के पक्ष में झुकाव के सख्त खिलाफ थे. इसीलिए उन्होंने इसमें मुस्लिमों की बजाय हिंदू स्टाफ को तवज्जो दी.”

इरशाद के मुताबिक इशाक़ साब के तमाम राजनीतिक लोगों से ताल्लुकात थे, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा और राज नारायण जैसे नेता शामिल हैं.

“राजनेता बारहा हमारे घर आते रहते थे,” इरशाद कहते हैं. “राज नारायण ने मेरे पिता पर ख़ासा ज़ोर डाला कि वो राज्यसभा में जाएँ पर उन्होंने मना कर दिया. वो हमेशा खुद को एक नेता के बजाय पत्रकार के तौर पर पहचान के हामी थे.”

1992 में इशाक़ साब की मृत्यु के बाद उनके बेटे ने अखबार की कमान थाम ली.

***

सियासत जदीद में फिलहाल 30 के आस पास कर्मचारी काम करते हैं. इनमें से ज्यादातर हिंदू है.

कर्मचारियों में एक नाम सतींद्र बजपेयी का है, जो अखबार के सबसे पुराने कर्मचारी हैं. उन्होंने 24 साल की उम्र में 1985 में सियासत जदीद में नौकरी शुरू की थी. अब उनकी उम्र 59 साल है. उनसे बातचीत में अक्सर ही बीते दिनों की दिलचस्प कहानियां मुड़-मुड़ कर सिर उठाती हैं.

“इन दिनों रिपोर्टरों के पास कार या मोटरसाइकिल है. हमारे समय में सभी रिपोर्टर साइकिल से चलते थे,”बाजपेयी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया. “इक्का-दुक्का के पास स्कूटर था.”

बाजपेयी ने अपना करियर बतौर क्राइम रिपोर्टर शुरू किया था. उनके मुताबिक अस्पताल और शवगृह क्राइम की कहानियों के सबसे उर्वर जमीन हैं. “मैं हर दिन शवगृह और कम से कम दो सरकारी अस्पताल का दौरा अपनी साइकिल से करता था,” वो बताते हैं. वो बड़े दुख से कहते हैं कि क्राइम रिपोर्टर इन दिनों ये सब नहीं करते.

एक और बदलाव इन दिनों में आया है पुलिस तक क्राइम रिपोर्टरों की पहुंच. “हर पुलिस अधिकारी के पास इन दिनों मोबाइल फोन है. 1990 तक थानों में लैंडलाइन भी नहीं हुआ करते थे. सिर्फ पुलिस वाले ही नहीं बल्कि पत्रकार भी उन दिनों वायरलेस सेट पर सूचना के लिए निर्भर रहते थे.”

5 रिपोर्टर समेत अखबार में कुल 30 कर्मचारी काम करते है.
अखबार का पेज .

बाजपेयी बताते हैं कि कानपुर हमेशा से सांप्रदायिक हिंसा के लिए बदनाम रहा है और सियासत जदीद हमेशा से इन पर नियंत्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता रहा है.

सीनियर रिपोर्टर होने के नाते बाजपेयी इन दिनों सिर्फ जरूरी घटनाओं को ही कवर करते हैं. उन्होंने अपनी साइकिल बहुत पहले ही छोड़ दी है, अब वो कहीं आने-जाने के लिए टैंपो का इस्तेमाल करते हैं.

आज कानपुर कई जाने माने हिंदी अख़बारों का गढ़ है. बाजपेयी कहते हैं कि अतीत में उन्हें कई बड़े प्रकाशकों से प्रस्ताव मिले, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया. “35 साल का जुड़ा बहुत गहरा होता है. मैं इसे तोड़ना नहीं चाहता. यह अख़बार में पहचान बन चुका है. मेरे परिवार का हिस्सा,” वो कहते हैं

उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि एक बार उनकी पत्नी को स्वास्थ्य की समस्या थी और उन्हें तत्काल ईलाज चाहिए था. “मेरे पास पूरा पैसा नहीं था. मैंने अपने संपादक से झिझकते हुए सहायता मांगी. अगले दिन उन्होंने सारा जरूरी पैसा मुहैया करवा दिया. मैं ऐसे संस्थान को कैसे छोड़ सकता हूं.”

सियासत जदीद के 30 कर्मचारियों में पांच रिपोर्टर हैं. दस लोग कॉपी डेस्क संभालते हैं. बाकी का स्टाफ टेक्निकल कामकाज देखता है. सिर्फ कॉपी एडिटर मुस्लिम हैं. उर्दू भाषा की पुख्ता जानकारी वाले हिंदू का मिलना इन दिनों बहुत कठिन है. एकमात्र फोटो पत्रकार विकी रघुवंशी हैं.

इरशाद कहते हैं अखबार बिना किसी परेशानी के हर रोज़ निकल रहा है इसके लिए वे अपने स्टाफ कर्मचारियों के शुक्रगुजार हैं. “मैं उन्हें मोटी तनख्वाहें नहीं दे सकता, पर वे मेरे साथ खड़े रहे. वे अख़बार को दिल से चाहते हैं सिर्फ नौकरी के लिए नहीं,” इरशाद कहते हैं.

***

सियासद जदीद दो रुपए प्रति कॉपी की दर से बिकता है. कानपुर शहर के बाहर यह देहात, इटावा, कन्नौज, फर्रूखाबाद, उन्नाव, फतेहपुर, अलीगढ़ और लखनऊ में जाता है.

76 वर्षीय सहाफत अली इसके एक पुराने पाठक हैं. वो अख़बार के दफ्तर से कुछ ही दूर पर रहते हैं. वो 15 साल की उम्र से ही इसके पाठक हैं.

“मैं हर सुबह अखबार की कॉपी हाथ में पकड़ कर गर्व से भर जाता हूं. मैं समझता हूं कि यह अख़बार एक बड़ी उपलब्धि है. और जिसे मैं पढ़ता हूं वह मेरे पड़ोस से निकलता है,” वो कहते हैं.

इरशाद कहते हैं कि उनके पास अखबार का विस्तार करने की कुछ योजनाएं हैं.

“उर्दू अखबार का प्रसार अपने चरम पर नहीं पहुंचा है. कानपुर के ही आस-पास ऐसे तमाम इलाके हैं जहां लोग उर्दू ख़बार पढ़ना चाहते हैं.हम उन तक पहुंचने की कोशिश करेंगे. अभी तक हमारा डिजिटल संस्करण नहीं आया है जल्द ही इसका डिजिटलीकरण भी होगा.” इरशाद कहते हैं.

तमाम तरह की दिक्कतों से दो-चार होने के बावजूद इरशाद का कहना है कि वो अखबार को बंद करने के बारे में सोच भी नहीं सकते. “मैं इस अखबार से भावनात्मक और सोच-समझ कर जुड़ा हूं.”

Also see
article imageसीएए का विरोध कर रहे उर्दू अखबार ‘क़ौमी रफ़्तार’ के संपादक की आपबीती
article image‘पहले दिन, पहले शो’ से भी पहले पद्मावति देखने वाले पत्रकारों के नाम पत्र
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like