फांसी का जश्न और देश के विवेक को फांसी

निर्भया के बलात्कारियों को फांसी के बाद क्या हम पहले से बेहतर-सुरक्षित समाज बन सके हैं.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image

वह हो गया जिसकी कोशिश पिछले सात से ज्यादा सालों से की जा रही थी. निचली अदालत, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रपति आदि-आदि की अत्यंत जटिल प्रक्रिया से गुजरती हुई निर्भया वह पा सकी जिसकी कातर मांग उसने तब बार-बार की थी जब वह इंच-दर-इंच मौत के करीब जा रही थी.

23 साल की कच्ची उम्र की उस लड़की का, 16 दिसंबर, 2012 को जिस वहशियाना बर्बरता से, चलती बस में 6 युवकों ने बलात्कार किया और उसे मौत तक असह्य पीड़ा और अकथनीय अपमान के समुंदर में धकेल दिया, 13 दिनों की वह कहानी आजाद हिंदुस्तान के इतिहास के सबसे शर्मनाक पन्नों में दर्ज है.

अब उन 6 अपराधियों में से 5 जीवित नहीं हैं- निर्भया भी नहीं! अब हम हिसाब लगाएं कि किसने, क्या पाया; किसने क्या खोया!

निर्भया की मां-पिता ने अपनी बेटी खोई और ऐसा जख्म पाया जो इस फांसी के बाद भी उन्हें पीड़ा देता रहेगा. लेकिन उन्हें यह संतोष जरूर मिला कि उन्होंने अपनी बेटी के हत्यारों से वह बदला ले लिया जिसकी मांग उनकी बेटी ने की थी.

दूसरी तरफ देखता हूं कि उन पांचों हत्यारों के परिवारजनों को कोई अपराध-बोध हुआ? क्या वे समझ सके कि उनके बच्चों ने कैसा अमानवीय अपराध किया था? क्या वे समझ सके कि ऐसे अपराध की जैसी सजा हमारा कानून देता है वैसी सजा उन्हें ठीक ही मिली? शायद नहीं; शायद हां!

क्या कानून का पेशा करने वालों को इसका थोड़ा भी अहसास हुआ कि कानून के दांव-पेंच अपनी जगह है लेकिन ऐसे मामलों में सामाजिक नैतिकता का तकाजा सबसे अहम होता है? कानून का पेशा करने वाले क्या यह समझ सके कि जिस तरह इन हत्यारों को बचाने की कोशिश की गई उससे यह पेशा कलंकित हुआ है?

संविधान में किसी की जान बचाने की जितनी व्यवस्थाएं की गई हैं उन सबको आजमाने का अधिकार अपराधी को भी है ही, और काले कोट वालों को भी. लेकिन कोट का काला रंग मन को भी कलुषित करने लगे, यह इस पेशे के लिए शर्मनाक है.

आज मेरे हाथ के जिस अखबार में इस फांसी की ख़बर छपी है, मैं देख रहा हूं कि उसी अखबार में देश भर से कम-से-कम 10 बलात्कार की खबरें भी आई हैं. आज के अखबार में जो नहीं आ सकी हैं, उनकी बात तो कौन जानता है. इन सभी खबरों में कोई-न-कोई निर्भया मरी है, या जीते-जी मर रही है.

16 दिसंबर, 2012 से आज तक का हिसाब लगाएं, तो कोई हिसाब ही नहींहै कि कहां, कितनी निर्भया मरी या मर रही है. क्या इस फांसी का उन सब पर कोई असर हुआ होगा?

...किसी के पास कोई जवाब नहीं है. तो क्या इसलिए पहली निर्भया के हत्यारों को फांसी नहीं होनी चाहिए थी? नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं. फांसी की सजा अपने आप में ही गलत है, अर्थहीन है और बांझ भी है. यह मानने वाले मेरे जैसे जितने भी लोग हैं उन सबको पता है कि हमारा देश जिस संविधान से चल रहा है उसमें फांसी की सजा है और हमारी अदालतें जिन मामलों को जांच-परख कर उस प्रावधान के भीतर पाती हैं उसे फांसी की सजा देती हैं, उनको फांसी होगी ही. इसलिए यह मुद्दा है ही नहीं कि फांसी होनी चाहिए या नहीं.

यहां मुद्दा यह है कि क्या अपराधियों को फांसी देने का मतलब देश के विवेक को भी फांसी देना होना चाहिए? क्या हम ऐसा एक समाज बनाना चाहते हैं जो लाशों को देख कर तृप्त होता है? इसलिए चिंता समाज के मन की है. निर्भया के साथ जो हुआ उसका जितना गुस्सा देश में उभरा था अगर वह गुस्सा संकल्प बन कर हमारे मन में उतर गया होता, हम मन से शर्मिंदा हुए होते तो अब तक महिलाओं की दुनिया बदल गई होती और पुरुषों की दुनिया संवर गई होती.

लेकिन वह गुस्सा मोमबत्तियां जला कर काफूर हो गया. न हमारा संकल्प बना, न हमें शर्म आई. जो भी हत्यारे कानून की पकड़ में आए, उन पर मुकदमा चला.हमारा संविधान किसी भी नागरिक को अपने को निर्दोष साबित करने के जितने भी अवसर देता है, वे सारे अवसर निर्भया के अपराधियों को भी मिले. लेकिन उनका अपराध उन्हें पता था, उसकी सजा हमें पता थी- खास कर वर्मा कमीशन की सिफारिशों को मान्य करने के बाद.

इसलिए उनकी तरफ से उनके वकीलों ने जितनी भी कोशिशें कीं वह अपराधियों को निरपराध साबित करने की नहीं थीं, उनकी सजा टालने की चालाकी भर थी. हम यह शर्मनाक प्रसंग सात सालों से देखते आ रहे थे कि उनका एक के बाद दूसरा क्षद्म टूटता जाता था, उनकी हर बेईमानी औंधे मुंह गिर रही थी और फिर भी यह निकम्मा मुकदमा खींचा जा रहा था.निर्भया के हत्यारों को भारतीय न्याय-व्यवस्था से जो न्याय मिलना था, वह तो मिल चुका था. बस उनका वकील उन्हें बता रहा था कि वह कानून को धोखा देने में सफल होगा.

वकालत के पेशे के लिए यह शर्मनाक था. क्या यह दृश्य आपको उदास नहीं करता है? कोई मर रहा है या मारा जा रहा है, यह प्रसंग आनंद का कैसे हो सकता है. किसी की फांसी तिरंगा लहराने, भारत माता की जय के नारे लगाने, जय श्रीराम की गूंज उठाने का अवसर कैसे बन सकता है?

निर्भया की मां की भावना मैं समझता हूं और उस दर्द का सम्मान भी करता हूं लेकिन उनसे भी कहना चाहता हूं कि इन अपराधियों की फांसी से आपको अपनी बेटी की अंतिम गुहार पूरी करने का संतोष मिला होगा, कहीं बदला लेने का भाव भी तुष्ट हुआ होगा, लेकिन फांसी से निर्भया को न्याय कैसे मिल सकता है? निर्भया के लिए न्याय तो तभी हासिल होगा जब हमारा समाज इतना सावधान बन जाए कि दूसरी कोई निर्भया न बने.इस फांसी से ऐसा कोई संकल्प देश के मन में, युवाओं के दिल में बना हो या कि बन रहा हो, ऐसा मुझे नहीं लगता है. जब तक ऐसा न हो तब तक निर्भया को न्याय कैसे मिल सकता है?

जान के बदले जान या आंख के बदले आंख का मानस समाज के विनाश का मानस है, न्याय का नहीं. यह समाज का पाशवीकरण है. जघन्य-से-जघन्य अपराधी का अंत भी हमें आह्लादित कैसे कर सकता है? हम और हमारा समाज अक्षम है कि वह ऐसे अपराधी पैदा होने से रोक नहींपाते हैं, और हमारा कानून अभी इनकी हत्या कर देने से आगे का कोई रास्ताखोज नहीं पाया है, इस भाव से हम इन हत्याओं को सह जाते हैं. लेकिन हम इनका जश्न मनाएं, बार-बार इसकी मांग करें कि यह हत्या जल्दी कर दी जाए और व्यवस्था के तमाम पुर्जे इसे न्याय हो जाने का नाम दें, क्या यह मानवीय है, शोभनीय है? क्या यह हमारे भीतर किसी संवेदना कासंचार करती है? क्या यह हमें हर दूसरे के प्रति उदार बनाती है?

अगर नहीं, तो यह उस मानवीय समाज की दिशा नहीं हो सकती है जिसके बिना न वह निर्भया सुरक्षित रही, न आगे की कोई निर्भया सुरक्षित रह सकेगी.हम इस सवाल का कभी सामान तो करें कि आखिर बलात्कार बुरा क्यों है?यह बुरा इसलिए है कि यह बल के बल पर किया जाता है. इसमें स्नेह, संबंध और सहमति की कोई जगह ही नहीं है. जहां स्नेह, संबंध और सहमति की जगह नहीं है, उसका बेशर्त, पूर्ण सम्मान नहीं है वहीं बलात्कार है.

इसलिए यह बलात्कार स्त्री के साथ भी होता है, पत्नी के साथ भी, नागरिक के साथ भी, विधर्मी के साथ भी, मजदूर के साथ भी. हम ठीक से समझें तो पाएंगे कि मॉब लिंचिंग भी बलात्कार ही है. और अभी-अभी दिल्ली में जो सांप्रदायिक दंगा हुआ वह भी घनघोर बलात्कार ही था.

तो हम सभी तरह के बलात्कार से बचें, उनका निषेध करें और बलात्कारी के बलात्कार से भी बचें. यह काम हमने अपनी न्याय-व्यवस्था को सौंपा है, उसे ही यह करने दें- अपने तरीके से, अपनी गति से.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
Also see
article imageकठुआ रेप केस : न्याय हुआ पर डर अभी बाकी है
article imageजिंद रेप केस: क्या पीड़िता गुमशुदगी के दो दिन बाद भी जिंदा थी?
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like