रूस अब एक महाशक्ति नहीं है, लेकिन वे पश्चिम में उथल-पुथल मचाकर घरेलू राजनीति में अपना क़द बढ़ा सकते हैं.
कुछ दिन पहले एक लेख में रूसी विद्वान प्रोफ़ेसर सर्गेई कारागानोव ने कहा है कि पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों को यह पता नहीं है कि बिना शत्रु के कैसे रहा जा सकता है. इस बात को समकालीन संदर्भ में समझने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विरुद्ध पश्चिम के रवैये को देखा जाना चाहिए.
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने कहा है कि रूस ने पिछले साल के ब्रिटिश आम चुनाव में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया था. कुछ दिन बाद ख़ुफ़िया और सुरक्षा मामलों की संसदीय समिति को इस मामले पर विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करना है. माना जा रहा है कि रिपोर्ट के ख़ुलासे के नकारात्मक असर को कमतर करने के लिए राब ने पहले ही ऐसा बयान दिया है. यह पहली बार है कि जब सरकार ने कमोबेश निश्चित रूप से यह माना है कि रूस ने दख़ल देने की कोशिश की थी. ब्रिटिश मीडिया और राजनीति में ब्रेक्ज़िट अभियान में भी रूसी हाथ होने की चर्चा होती रही है. प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन उस अभियान के प्रमुख नेता थे.
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने की माँग करने तथा 2016 के ब्रेक्ज़िट जनमत संग्रह की अगुवाई में जॉनसन के अलावा यूकिप पार्टी के पूर्व नेता नाइजल फ़राज की भी बड़ी भूमिका थी. इन नेताओं और इस अभियान पर पहले से आरोप लगता रहा है कि उन्हें रूस और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मदद मिलती रही है. आरोपों के मुताबिक यह मदद ब्रिटेन में रह रहे पूर्व सोवियत संघ की ख़ुफ़िया एजेंसी केजीबी से जुड़े अधिकारियों तथा कारोबारी रूसी धनकुबेरों के मार्फ़त मिली थी.
जब जेरेमी कॉर्बिन ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता थे, तब उन्हें बदनाम करने के लिए कई अख़बारों में यह अभियान चलाया गया कि वे कभी रूस और पूर्वी यूरोप की कम्यूनिस्ट सरकारों के लिए काम करते थे. बीबीसी के एक कार्यक्रम में तो एक तस्वीर में उन्हें रूसी टोपी पहनाकर क्रेमलिन की पृष्ठभूमि में दिखाया गया था. लगातार यह कहा गया कि कॉर्बिन और उनकी नीतियां ब्रिटेन के हितों के ख़िलाफ़ हैं और रूस के पक्ष में हैं. उन्हें यहूदी विरोधी, आतंकवाद समर्थक और उदारवाद के विरुद्ध बताया गया. आज हालत यह है कि इन कुत्सित अभियानों का फ़ायदा उठानेवाली सत्तारूढ़ टोरी पार्टी और उसके नेता ही कथित रूसी हस्तक्षेप के संभावित लाभार्थी के रूप में कठघरे में खड़े होने की कगार पर हैं. यह और बात है कि कठघरे में कोई खड़ा नहीं होगा क्योंकि असल में मूल मामला निरंतर शत्रु खोजते रहने की क़वायद का है.
यह केवल संयोग नहीं है कि राब के इस बयान के साथ ही ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने रूस पर यह साझा आरोप लगाया है कि रूसी जासूसों ने इन देशों में उन शोध संस्थानों व दवा कंपनियों में डिजिटल सेंधमारी करने की कोशिश की है, जो कोरोना वायरस का टीका बनाने के काम में लगी हुई हैं. दिलचस्प यह भी है कि ये आरोप तब लगाए जा रहे हैं, जब रूस द्वारा इस ख़तरनाक वायरस के लिए टीका बना लेने की ख़बरें सामने आयी हैं.
बहरहाल, साइबर स्पेस में हैकिंग और डेटा चुराने का सिलसिला बड़े स्तर पर पहुंच चुका है तथा रूस पर लगे आरोपों की सच्चाई तो व्यापक जांच के बाद ही सामने आयेगी, हालांकि इसकी कोई ख़ास उम्मीद बेमानी है क्योंकि सबूत जुटाना इतना आसान नहीं होता है. ट्विटर पर नामी-गिरामी लोगों और बड़ी कंपनियों की जिस तरह से हैंकिंग कर बिटक्वाइन का फ़र्जीवाड़ा हुआ है या ऐसा करने की कोशिश की गयी है, उससे साफ़ इंगित होता है कि डिजिटल सुरक्षा की चुनौती बेहद गंभीर हो चुकी है. इसका समाधान खोजने की कोशिश की जानी चाहिए, न कि रूस या चीन या किसी अन्य देश पर आरोप मढ़कर निश्चिंत हो जाना चाहिए.
साइबर स्पेस में सेंधमारी या पश्चिमी देशों के चुनावों में रूसी हस्तक्षेप के आरोप कई सालों से लगाए जा रहे हैं. साल 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप को जीताने के लिए सोशल मीडिया और ऑनलाइन मंचों के माध्यम से रूसी कोशिशों की चर्चा लंबे समय से होती रही है. डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के इ-मेल हैक करने का आरोप भी रूसी हैकरों पर लगा था. यह और बात है कि एडवर्ड स्नोडेन के ख़ुलासे कई साल पहले ही बता चुके हैं कि अमेरिकी सरकार और कुख्यात ख़ुफ़िया एजेंसी सीआइए न केवल अमेरिकियों की जासूसी कर रही हैं, बल्कि दूसरे देशों में भी यह जाल फैला हुआ है और उसकी गिरफ़्त में अन्य देशों के शासनाध्यक्ष भी हैं. जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल की टैपिंग का मामला तो बराक ओबामा के कार्यकाल में ही सामने आ गया था. यह बात भी सामने आयी थी कि ख़ुद ओबामा ने ही 2010 में ऐसी जासूसी की अनुमति दी थी. ख़ैर, रूसी हस्तक्षेप का मामला अमेरिकी राजनीति में देर तक गरम रहा और नौबत राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने तक आ गयी. अंततः साबित कुछ नहीं होना था, सो नहीं हुआ.
इसी महीने रूस के ख़िलाफ़ एक और अजीब आरोप अमेरिका की ओर से लगाया गया है. अमेरिकी मीडिया के बड़े प्रकाशनों ने अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के हवाले से रिपोर्ट छापी है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों पर हमले के लिए रूस ने तालिबान को पैसा दिया है. हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि उन्हें ऐसी कोई ख़ुफ़िया रिपोर्ट कभी नहीं दी गयी है, लेकिन मीडिया और कई राजनेता कहते जा रहे हैं कि रूस हथियारबंद गिरोहों को मदद कर रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम-पहले ब्रिटेन और अब अमेरिका व नाटो- तथा रूस के बीच ‘ग्रेट गेम’ का मैदान है.
पुतिन उस मैदान में अपनी पहुंच को फिर क़ायम करने की इच्छा भी रखते हैं तथा मध्य एशिया, ईरान, चीन और अफ़ग़ानिस्तान की भू-राजनीतिक स्थितियां भी अनुकूल बन रही हैं, लेकिन तालिबान को पैसा और हथियार देकर अमेरिकी सैनिकों को मारने की रणनीति का आरोप लगानेवाले असल में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी युद्ध और सामरिक नीति की महा-असफलता को छुपाना चाहते हैं.बीते कुछ सालों में पश्चिमी मीडिया की बहस को देखें, तो साफ़ पता चलता है कि राष्ट्रपति पुतिन के ख़िलाफ़ एक सधा हुआ अभियान जारी है. इसकी वजह का पता भी उन्हीं चर्चाओं से लगाया जा सकता है.
पिछले साल जून में न्यूयॉर्क टाइम्स में पुलित्ज़र सेंटर के सहयोग से छपे लेख में सारा टोपोल ने लिखा है कि रूस वैश्विक शक्ति बनने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है. रूसी साम्राज्य और सोवियत संघ के दौर में लंबे समय तक महाशक्ति रहा देश अगर विश्व में अपना प्रभाव स्थापित करना चाह रहा है, तो भू-राजनीतिक दृष्टि से यह कोई अपराध तो नहीं है. और, इसके लिए कम-से-कम उन देशों को तो आपत्ति करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, जो आज भी साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक और वर्चस्ववादी मनोग्रंथि से पीड़ित हैं.
बीबीसी व न्यूयॉर्क टाइम्स समेत उस मीडिया को भी इस चिंता का अधिकार नहीं है, जो फ़र्ज़ी सबूतों और मनगढ़ंत आरोपोंके आधार पर सुदूर के देशों पर हमले को सही ठहराये. अभी कुछ दिन पहले ही न्यूयॉर्क टाइम्स ने माना है कि जिस रिपोर्ट के आधार पर उसने बोलिविया में राष्ट्रपति इवो मोरालेस के चुनाव को अवैध बताया था, वह रिपोर्ट ग़लत थी. इस अभियान ने जनमत बनाया और अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों की शह पर मोरालेस का तख़्ता पलट कर दिया गया. टोपोल उस लेख में यह भी कह रही हैं कि विश्व मंच पर अमेरिका पीछे हटा रहा है, सो इस मौक़े का फ़ायदा रूस उठा रहा है. इस पर तो यही कहा जा सकता है-सही पकड़े हैं!
नवंबर, 2017 में ब्रिटिश उदारवादी अख़बार द गार्डियन में लेखक रॉबर्ट सर्विस ने कहा था कि रूस इसलिए पश्चिमी राजनीति में दख़ल दे रहा है क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. वे यह भी कहते हैं कि पुतिन को पता है कि रूस अब एक महाशक्ति नहीं है, लेकिन वे पश्चिम में उथल-पुथल मचाकर घरेलू राजनीति में अपना क़द बढ़ा सकते हैं. सर्विस यह भी चिंता जताते हैं कि रूसियों ने जो तत्व पश्चिम की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में डाल दिया है, उसकी कोई काट पश्चिम नहीं पेश कर पा रहा है.
उन्होंने रूसी हस्तक्षेप के रूप में ब्रेक्ज़िट और अमेरिकी चुनाव के अलावा ब्रिटिश राजनीति को प्रभावित करने के प्रयास, हंगरी में निवेश, इटली में पूर्व प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी से पुतिन की दोस्ती, फ़्रांस में धुर दक्षिणपंथी ला पें को मदद आदि को गिनाते हैं. पश्चिमी टिप्पणीकार आसानी से यह भूल जाते हैं कि कथित पश्चिमी लोकतंत्रों ने दशकों से युद्ध, गृहयुद्ध, तानाशाही, आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी, प्रतिबंध लगाने जैसी हरकतें की हैं. कोई उनसे पूछे कि दुनियाभर में अमेरिका और नाटो देशों के सैन्य ठिकाने हस्तक्षेप की किस श्रेणी में आते हैं!
रूसी राष्ट्रपति पुतिन अक्सर कहते हैं कि पश्चिमी उदारवाद की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रही है और यह उदारवाद ख़ुद ही अंदर से अपने को ख़त्म कर रहा है. पुतिन की इस बात से असहमति हो सकती है. वे पारंपरिक और पारिवारिक मूल्यों को प्रमुखता देनेवाले राष्ट्रवादी राजनेता हैं. लेकिन उनके अनुदारवादी होने की चिंता से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि पश्चिम अपने उदारवाद के पतन तथा धुर-दक्षिणपंथ के तेज़ उभार को समझने की कोशिश करे.
उदारवाद की आड़ में नव-उदारवादी मुनाफ़ाख़ोरी और तकनीकी व वित्तीय कॉरपोरेशनों के वैश्वीकरण से पैदा हुई विषमता और विसंगति के लिए पुतिन को दोष देना बेमतलब है. इस बात के लिए भी उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है कि वे पश्चिम के आंतरिक विरोधाभास का लाभ उठा रहे हैं या उठाना चाहा रहे हैं. पिछले कुछ सालों में विश्व व्यवस्था में जो बदलाव आ रहा है, उसमें पश्चिम की वह प्रमुखता नहीं रह सकती है, जो बीते पांच दशक में रही है. यह पश्चिमी लोकतंत्र और उदारवाद के आत्ममंथन का समय है.
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