सावन में कजरी की जगह ख़बरिया चैनलों पर कव्वाली की बहार

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और विवादों पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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कांग्रेस के भीतर खड़मंडल लगातार जारी है. कभी सिंधिया तो अबकी बार सचिन पायलट की बारी है. मजेदार यह है कि ये वो नेता हैं जिन्हें राहुल गांधी का सबसे करीबी दोस्त समझा जाता था. लेकिन सचिन पायलट कहीं थोड़ा सा चूक गए. उनकी कलाबाजी पर वैसा जश्न नहीं हुआ जैसा गुना वाले सिंधियाजी के जाने पर हुआ था. इस बार के सूत्रधार थोड़ा सा चूक गए, लिहाजा अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम’ वाली स्थिति में पहुंचा दिया है. सचिन पायलट के हाथ से राजस्थान के उपमुख्यमंत्री के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद भी छीन लिया गया है.

42 की अधेड़ावस्था तक आते-आते पायलट दो बार सांसद, उपमुख्यमंत्री, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे पद पा चुके हैं, लेकिन फिर भी उनका दर्द है कि उन्हें सम्मान नहीं मिला, इसलिए उन्हें यह सब करना पड़ा. खैर पायलट के फेर में पड़कर देखने में आया कि दिल्ली के तमाम पत्रकार अपने-अपने हिसाब से आसमानी-सुल्तानी पेंच लड़ाने लगे. राहुल और कांग्रेस की लानत-मलानत करने वाले पत्रकार बहुत भोले हैं.

उन्हें पता ही नहीं है कि कांग्रेस पार्टी किस तरह से काम करती है और उस पार्टी के भीतर परिवार की क्या भूमिका है. सचिन पायलट जैसे नेता उसी कांग्रेसी संस्कृति के बोंसाई संस्करण हैं. दिल्ली में जो स्थिति नेहरू-गांधी परिवार की है वही दशा राज्य स्तर से लेकर जिला, विधानसभा, तहसील और गांवों तक फैली हुई है. एक परिवार के इर्द गिर्द सारी राजनीति. यह राजनीति कांग्रेस ने 1969 में शुरू कर दी थी, जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली.अब जय शाह, पूनम महाजन, प्रवेश वर्मा अनुराग ठाकुर जैसे लोगों ने भाजपा में भी इस बहस को पूरी तरह खत्म कर दिया है.

कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके ज्यादातर शीर्ष नेता बिना किसी संघर्ष और ट्रेनिंग के शीर्ष पर सीधे स्थापित कर दिए गए हैं.

इसके अलावा खबरिया चैनलों के बंकरों से आई कुछ दिलचस्प किस्से-कहानियां सुनने के लिए देखिए पूरी टिप्पणी.

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