नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हर दिन उत्तर प्रदेश से लौट रही मजदूरों की भीड़

लॉकडाउन के बाद शहरों से भागकर अपने घर गए मजदूर वापस लौट रहे हैं. ऐसा क्यों हुआ? गांव से लौटे मज़दूरों को रोज़गार देने का योगी सरकार का दावा कितना सच, कितना झूठ?

WrittenBy:बसंत कुमार
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सुबह के सात बजे ही हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंच गए थे. स्टेशन लोगों की आवाजाही से गुलज़ार था. कुछ लोग कंधे पर बैग लटकाये तो कुछ सर पर बोरी लिए स्टेशन की सीढ़ियों से उतर रहे थे. कुछ के चेहरे पर मास्क था, लेकिन ज़्यादातर बिना मास्क के ही थे. कुछ लोग गमछा मुंह पर लपेटे हुए दिखे. ऐसा लगा कि कोरोना का डर लोगों के मन से निकल चुका है.

बीते मार्च महीने में कोरोना के कारण लगे देशव्यापी लॉकडाउन के बाद ये मज़दूर यहां से चले गए थे. लेकिन छह महीना बीतते-बीतते एक बार फिर से परिवार की ज़िम्मेदारी और रोजी-रोटी की मजबूरी में ये लोग लौट रहे हैं. यहां से जाते वक़्त भी इनकी स्थिति बदहाल थी और अब लौटते वक़्त भी इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है. मज़दूर तब भी सरकारों से नाराज़ थे और अब भी हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री ने काम की तलाश में उत्तर प्रदेश से अलग-अलग शहरों को लौट रहे इन मज़दूरों से मुलाकात की. इनकी माने तो सरकार ने उन्हें ना तब गंभीरता से लिया और और ना अब ले रही है. अमूमन ज्यादातर लोगों की एक ही कहानी सामने आई कि गांव में रोज़गार का कोई इंतज़ाम नहीं है. घर पर खाने की किल्लत होने लगी थी तो इन्हें मजबूरन शहर की तरफ लौटना पड़ा.

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काम की तलाश में रोजाना नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच रहे हैं हज़ारों कामगार

आज भारत में हर दिन दुनिया भर में सबसे ज़्यादा कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं. दिल्ली में भी कोरोना के मामले दोबारा से बढ़ने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से पंजाब के लिए निकले एक मज़दूर मोहम्मद सलीम कहते हैं, ‘‘कोरोना का डर खाली शहरों तक है. गांव में लोग छुट्टा घूम रहे हैं. ना सरकार को कोई फ़िक्र है और ना जनता को. गांव में किसी की जांच भी नहीं हो रही है. जांच हो जाए तो नतीजा तीन से चार दिनों में आ रहा है. अगर उसका पॉजिटिव आता है तो नतीजा आने तक वो कई लोगों से मिल चुका होता है.’’

गांव से आ रहे कामगार स्टेशन से अभी बाहर निकल ही रहे थे कि ऑटो चालकों का एक झुंड उन्हें घेर ले रहा था. किराया तय होने से पहले ही कई ऑटो चालक सवारी का सामान उठाकर चलने लगते थे. ऐसे ही एक ऑटो चालक राजवीर यादव कहते हैं, ‘‘क्या करें लॉकडाउन की वजह से काफी कर्जा हो गया है. सवारियां अब कम मिलती हैं. कोरोना से डरें कि रोजी-रोटी की चिंता करें.’’

राजवीर बताते हैं, ''हर रोज हज़ारों मज़दूर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आ रहे हैं. आनंद विहार पर तो इससे भी ज्यादा भीड़ है. इनमें से कुछ दिल्ली में काम करने के लिए आते हैं और कुछ हरियाणा के सोनीपत, पानीपत, फरीदाबाद और गुरुग्राम जैसे इलाकों में चले जाते हैं. कुछ तो यहां से पंजाब भी निकल जाते हैं.’’

‘‘10 दिन पैदल चलकर पहुंचा था राजस्थान से अपने गांव’

कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी. जिसके बाद भारत ने आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा पलायन देखा. काम-धंधा बंद होने और सरकार द्वारा कोई इंतज़ाम न देख बड़ी संख्या में मज़दूर तबका अपने घरों-गावों के लिए पैदल या साईकिल से चला गया था. उस दौर की कई तकलीफदेह तस्वीरें देखने को मिली. उस दौरान पलायन कर रहे कई लोगों की रास्ते में ही मौत भी हो गई थी.

लॉकडाउन के दौरान पैदल अपने घरों को जाते मज़दूर

उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर जिले के रहने वाले शिव मूरत राजस्थान के बासनी में एक स्टील कंपनी में काम करते थे. लॉकडाउन के बाद तीन मई तक वहीं पड़े रहे, लेकिन उसके बाद जब इनके पास पैसे ख़त्म हो गए तो पैदल अपने कुछ साथियों के साथ घर के लिए निकल गए. 10 दिनों तक लगातार पैदल चलने के बाद वो अपने गांव पहुंचे. वहां इन्हें 14 दिन क्वारंटाइन में रहना पड़ा.

अब शिव मूरत दोबारा कमाने के लिए निकल गए हैं, पर इस बार वे जोधपुर न जाकर अपने इलाके के कुछ लड़कों के साथ नासिक जा रहे हैं.

शिव मूरत न्यूज़लॉन्ड्री से बताते हैं, ‘‘हम घर लौटना नहीं चाह रहे थे. हमने सोचा लॉकडाउन खत्म हो जाएगा तो काम करने लगेंगे, लेकिन लॉकडाउन बढ़ता गया. जिस कंपनी में काम करते थे उन्होंने भी कोई मदद नहीं की, सिर्फ एक बार पांच-पांच किलो चावल और आटा दिया था. हमारे पास जो पैसे थे वो भी खर्च हो गए. तब मजबूर होकर हम कुछ साथी पैदल ही गांव के लिए निकल पड़े. रास्ते में लोगबाग खाना खिला रहे थे. अपने जिले में पहुंचे तो क्वारंटाइन कर दिया गया, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ. प्रधान नाम-पता लिखकर ले गए थे पर उसका भी कुछ हुआ नहीं. परिवार में बीबी और बच्चे हैं. उनकी ज़िम्मेदारी मेरे ही ऊपर है ऐसे में हमने दो हज़ार रुपए किसी से कर्ज लिया और अब नासिक जा रहा हूं.’

उत्तर प्रदेश के अंबडेकर नगर के रहने वाले हैं शिव मूरत

योगी सरकार द्वारा किसी भी तरह की मदद के सवाल पर शिव मूरत कहते हैं, ‘‘कुछ नहीं दिया. हमें तो ना एक किलो राशन मिला और ना ही एक रुपया. गांव में रोजगार का भी इंतज़ाम नहीं था. तकलीफ़ में शहर से आए थे और तकलीफ़ में ही शहर जा रहे हैं.’’

मज़दूरों की वापसी के समय यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने उन्हें उनके गांव और शहर में ही रोजगार दिलाने की बात कही थी. इस संबंध में कई मीडिया संस्थानों ने लंबी-चौड़ी रिपोर्ट भी की थी. मई महीने में ज़ी न्यूज़ ने 'यूपी में मजदूरों के अच्छे दिन, योगी सरकार गांव में ही देगी रोजगार' शीर्षक से रिपोर्ट किया जिसमें दावा किया गया की मज़दूरों को सरकार उनके गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराएगी.

रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने टीम-11 के साथ बैठक करके 20 लाख प्रवासी श्रमिकों और कामगारों को गांवों और कस्बों में ही नौकरियां देने की योजना पर बात की. इसके लिए क्वारंटीन सेंटर्स में ही मजदूरों के स्किलिंग डेटा जल्द से जल्द तैयार करने के निर्देश दिए गए हैं.’’

इकोनॉमिक्स टाइम्स ने भी एक ऐसी ही रिपोर्ट छापी थी जिसका शीर्षक था- 'लॉकडाउन में लौटे प्रवासी मजदूरों के लिए योगी सरकार ने बनाई 20 लाख जॉब की योजना'. लेकिन ऐसा शायद नहीं हुआ क्योंकि जिन शहरों से मज़दूर भागे थे उसी जगह उन्हें फिर से लौटना पड़ रहा है. वो भी तब जब हर रोज कोरोना के 70 हज़ार से ज़्यादा मामले देश में आ रहे हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री जिन मज़दूरों से मिला उनके अनुसार मनरेगा के तहत कुछ लोगों को रोजगार ज़रूर मिला था लेकिन बरसात शुरू होने के बाद वो भी रुक गया.

‘‘नासिक से तीन दिन पैदल और नौ दिन साईकिल चलाकर पहुंचा था गांव’’

यहां हमारी मुलाकात 22 वर्षीय प्रवेश राजभर से हुई. शिवमूरत की तरह प्रवेश भी दो महीने तक अपने पास रखे पैसे खर्च करके नासिक में रहे, लेकिन जब पैसे ख़त्म हो गए तो इन्हें वापस घर आने के लिए मजबूर होना पड़ा. प्रवेश को ठीक से याद नहीं की वे नासिक से कब निकले थे. अंदाजन वे एक या दो मई बताते हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए प्रवेश बताते हैं, ‘‘हमें जानकारी मिली की बस चलने वाली है. जब हम बस अड्डा पहुंचे तो पुलिस वालों ने हमें भगा दिया. हमारे पास पैसे नहीं थे तो हम घर के लिए पैदल ही निकल गए. तीन दिन पैदल चलने के बाद हमें लगा की इस तरह पहुंचने में हमें लम्बा समय लगेगा तो रास्ते में एक भूले नाम की जगह पड़ती है वहां हमने साईकिल खरीदी. मैं दो हज़ार में पुरानी साईकिल खरीदा, वहीं मेरे दोस्तों ने नई साईकिल ली. फिर हम वहां से चले और नौ दिन बाद अपने जिला अंबेडकर नगर पहुंचे.’’

महज 22 साल की उम्र में प्रवेश को कई तरह की तकलीफों से दो चार होना पड़ा. वे बताते हैं, ‘‘हम लोग लगातार साईकिल चलाते थे. रात में सड़क किनारे तीन-चार घंटे सो लेते थे. शरीर, खासकर पैर दर्द करता था तो हम इसके लिए दवाई ले लिए थे. रास्ते में लोग केला और बिस्कुट बांट रहे थे उसी को खाकर काम चल रहा था. दो महीने नासिक में रहे, लेकिन ना सरकार ही कोई मदद की और ना ही जिस कंपनी में हम काम करते थे उन्होंने. उसने बाद लौटने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं था.’’

नासिक से तीन दिन पैदल और नौ दिन साईकिल चलाकर अपने गांव पहुंचे थे प्रवेश राजभर

अपने घर लौटने पर भी इनकी परेशानी खत्म नहीं हुई. प्रवेश बताते हैं, ‘‘जब हम अपने गांव पहुंचे तो हमें 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन कर दिया गया. वहां से निकलने के बाद 35 किलो राशन मिला उसके बाद दोबारा कुछ नहीं मिला. कुछ लोगों को पैसे मिले, लेकिन मुझे वो भी नहीं मिला. जहां तक रोजगार की बात है तो मुझे तो वहां कोई काम नहीं मिला. मनरेगा के अलावा काम था भी क्या? काम कर नहीं रहे थे, जो पैसे बचाकर रखे थे वो नासिक में ही खर्च हो गए थे, ऐसे में घर पर रहने में दिक्कत हो रही थी. घर का खर्च तो रुक नहीं सकता है न. राशन और सब्जी तो खरदीना ही पड़ता, इसीलिए मैं नासिक के लिए निकल गया हूं. उसी कंपनी में दोबारा काम करुंगा, लेकिन मैंने उन्हें साफ़ कह दिया है की इस बार अगर लॉकडाउन लगता है तो मेरा इंतज़ाम आपको करना होगा. मैं पैदल घर नहीं जाऊंगा. पिछली बार की तरह आप मुझे छोड़ नहीं सकते.’’

प्रवेश सरकारों पर नाराज़गी जाहिर करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरा तो सरकार से भरोसा ही ख़त्म हो गया. कोरोना अभी खत्म नहीं हुआ है फिर भी मैं काम करने के लिए निकल गया हूं. जब शहर में फंसे थे तब भी किसी ने मदद नहीं की और गांव में भूखे मरते तो भी सरकारी मदद नहीं मिलती. ऐसे में अपना ही भरोसा है. पिताजी से पैसे लेकर आए हैं.’’

नासिक में प्रवेश के साथ ही रहने वाले विकास राजभर भी लॉकडाउन के दौरान तीन दिन पैदल और नौ दिन साईकिल चलाकर अपने घर पहुंचे थे. घर की तंगहाली के कारण दोबारा इन्हें काम पर लौटना पड़ा है. भारत में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं ऐसे में काम पर क्यों लौट रहे हैं, इस सवाल के जवाब में विकास कहते हैं, ‘‘क्या करें, घर में मजबूरी है तो जाना ही पड़ेगा. इतना कष्ट सहकर घर गए थे, लेकिन घर पर बैठने से क्या फायदा. कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या? इसीलिए हमलोग जा रहे हैं.’’

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन

विकास भी उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर के ही रहने वाले हैं. योगी सरकार ने रोजगार का इंतज़ाम किया था, इस सवाल के जवाब में विकास कहते हैं, ‘‘नहीं सर. यही मनरेगा चलता था वो भी बंद है.’’

‘सरकारों के लिए मज़दूरों की कोई हैसियत नहीं’

यहां हमारी मुलाकात गाजीपुर के रहने वाले 55 वर्षीय मोहम्मद सलीम अंसारी से हुई. सलीम अंसारी लम्बे समय से पंजाब के लुधियाना में अलग-अलग निजी कंपनियों में काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे.

दो महीने तक घर पर रहने के बाद एक बार फिर वे काम की तलाश में लुधियाना के लिए निकल गए हैं. मीडिया और सरकारों से नाराज़ सलीम अंसारी कहते हैं, ''मज़दूरों का कोई माई-बाप नहीं होता है. आप लोगों (मीडिया) ने दिखाया की सरकार ये दे रही है, वो दे रही है, लेकिन लोगों से जाकर पूछिए उन्हें कुछ मिला क्या? सौ में से 90 लोगों को कुछ नहीं मिला है. कोई भी सरकार हो उसे मज़दूरों की कोई चिंता नहीं होती. मज़दूरों की चिंता रही होती तो लोग पैदल और साईकिल से अपने घर क्यों जाते? ट्रेन तब चलने लगी जब ज़्यादा मज़दूर घर गिरते-पड़ते पहुंच गए थे.’’

मोहम्मद सलीम अंसारी लॉकडाउन की घोषणा के लगभग दो महीने बाद तक लुधियाना में ही रहे. इस दौरान उनके पास जो पैसे सुरक्षित रखे हुए थे उसे खर्च किया. उम्र ज़्यादा होने के कारण वे पैदल या साईकिल से घर लौटने का फैसला नहीं कर पाए, लेकिन जब ट्रेन चलने लगी तो वे वहां से निकल गए. अंसारी कहते हैं, ‘‘पंजाब सरकार से हमें सिर्फ एक मदद मिली. उन्होंने ट्रेन का किराया नहीं लिया. लौटते वक़्त खाने के लिए भी कुछ दिया और साथ में पानी का बोतल भी दिया था.’’

घर लौटने के बाद यूपी सरकार द्वारा दी गई मदद के सवाल पर सलीम और नाराज़ होकर कहते हैं, ‘‘इतनी मदद दी हमारी सरकार ने की मुझे फिर से काम पर लौटना पड़ रहा है. घर लौटने के बाद रिश्तेदारों से कर्ज लेकर खाए और अब जब शहर आना था तो भी कर्ज लेना पड़ा. दो हज़ार रुपए किसी से लेकर आए हैं. लुधियाना में काम मिलेगा या नहीं यह भी नहीं पता, लेकिन बच्चों को तो भूखे नहीं देख सकते हैं. ज़िम्मेदारी है और उसे पूरा करने के लिए चल दिए है. यूपी सरकार से एक बार आटा और चावल का थैला मिला था उसके बाद कुछ भी नहीं मिला.’

गाजीपुर के रहने वाले 55 वर्षीय मोहम्मद सलीम अंसारी

रोजगार के सवाल पर सलीम कहते हैं, ''रोजगार कहां हैं वहां. कोई पूछने वाला नहीं है. योगी जी कह रहे थे की मज़दूरों को मैं एक हज़ार रुपए दे रहा हूं, दो हज़ार रुपए दे रहा हूं, चार हज़ार दे रहा हूं. अगर मुझे पैसा मिलता तो काहे हम थैला उठाकर काम के लिए निकल जाते? काम नहीं मिला तभी तो लौटना पड़ा. इस दौरान मेरे लिए तमाम सरकारों का काम जीरो है. सिर्फ इसी सरकार की बात नहीं, सरकार चाहे कोई भी सरकार हो उनकी नज़र में मज़दूरों की कोई हैसियत नहीं रही. काम करने के बावजूद कई बार उन्हें भूखे सोना पड़ता है.’’

प्रदेश सरकार ने प्रवासी मज़दूरों को आर्थिक मदद देने के लिए कुछ के अकाउंट में एक-एक हज़ार रुपए डलवाए थे. पहली बार जून महीने में योगी आदित्यनाथ ने 10 लाख प्रवासी मज़दूरों के बैंक खातों में डीबीटी के जरिए भेजे थे. हालांकि न्यूज़लॉन्ड्री जिन मज़दूरों से मिला उनमें से कुछ को यह राशि मिली थी वहीं कुछ तक यह राशि अभी तक नहीं पहुंच पाई है. जानकर भी बताते हैं कि शहर से लौटे मज़दूरों के एक बड़े हिस्से तक यह रकम नहीं पहुंची है.

जौनपुर जिले के रहने वाले मुन्नूलाल भी काम की तलाश में दिल्ली लौट आए हैं. टूटे बटन का शर्ट पहने मुन्नूलाल तेजी से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से निकलते नज़र आते हैं. ऑटो वालों के टोके जाने को नज़रअंदाज़ करते हुए वे अजमेरी गेट बस स्टॉप की तरफ पैदल ही बढ़ जाते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘कंपनी बंद हो गई थी. सेठ खाने-पीने के लिए पैसे नहीं दे रहा था. दिक्कत हो रही थी. फिर जब ट्रेन चलने लगी तो उसी से चले गए.’’

मन्नूलाल लॉकडाउन लगने के बाद लम्बे समय तक दिल्ली में रहे. इस दौरान दिल्ली सरकार मज़दूरों के लिए स्कूल में खाने का इंतज़ाम की थी, वहीं लाइन में लगकर ये रोजाना खाना खाते थे. इधर से जाते वक़्त इन्हें किराया तो नहीं देना पड़ा, लेकिन अभी ये कर्ज लेकर आए हैं.

मुन्नूलाल वापस दिल्ली लौटने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘सरकार से कुछ अनाज और हर महीने पांच सौ रुपए तो मिल रहा था, लेकिन आप ही बताओ पांच सौ रुपए में क्या खर्च चलता है. सब्जी, तेल और बाकी खर्चे के लिए कर्ज लेना पड़ रहा था. घर पर बच्चे हैं वे दस-पांच रुपए मांगते थे तो हम उन्हें नहीं दे पा रहे थे. ऐसे में घर पर रहना ठीक नहीं था. इसीलिए आ गए. कोरोना का डर तो है पर परिवार के खर्चे के लिए कमाना तो पड़ेगा.’’

कोरोना का डर तो है पर परिवार के खर्चे के लिए कमाना तो पड़ेगा: जौनपुर से दिल्ली लौटे मज़दूर मुन्नेलाल

मज़दूर कर रहे हैं आत्महत्या

देश के लगभग हर राज्य से आर्थिक तंगी के कारण मज़दूरों की आत्महत्या करने की ख़बरें आती रही. उत्तर प्रदेश इसमें भी पीछे नहीं रहा. यहां लॉकडाउन लगने के बाद से ही मज़दूरों की आत्महत्या करने की ख़बरें आने लगी थी जो अब भी बदस्तूर जारी है.

आत्महत्या की ज़्यादातर ख़बरें बुंदेलखंड इलाके में सामने आ रही है. सूखे से सालों से बेहाल बुंदेलखंड के गांव के गांव शहरों की तरफ पलायन कर चुके थे. शहरों में कोई राजमिस्त्री का काम करके अपना परिवार चला रहा था तो कोई रेहड़ी पटरी पर दुकान लगाकर.

सूखे और सरकारी अनदेखी की वजह से जो लोग कभी बिना खाए सोने पर मज़बूर होते थे उन्हें कम से कम शहर में मेहनत के बाद भरपेट खाना मिल रहा था. लॉकडाउन के बाद जब उन्हें वापस अपने घर लौटना पड़ा तो फिर वहीं परेशानी उनके सामने थी जिससे वे भागे थे. उनके पास खाने तक का राशन नहीं था. आर्थिक तंगी के कारण कई मज़दूरों ने आत्महत्या कर ली.

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और योगी सरकार की आलोचना करने के कारण कई दफा जेल जा चुके अजय कुमार 'लल्लू' न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘प्रदेश में जिस तरह मज़दूर लगातार आत्महत्या करने पर विवश हैं. अभी झांसी, बांदा, जालौन और ललितपुर में कई मज़दूर आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर चुके हैं. झांसी में दो मज़दूर कल आत्महत्या करके मरे हैं. जिस तरह ये लोग आत्महत्या करने पर विवश हैं, सरकार की जो मंशा है उस पर सवालिया निशान है. ये आंकड़ों की बाजीगरी से पूरे उत्तर प्रदेश की जनता को गुमराह कर रही है.’’

लल्लू आगे कहते हैं, ‘‘इस सरकार के पास ना रोजगार है और ना किसी प्रकार की नीति है जिसमें मज़दूर-गरीब लोगों की समस्या का समाधान हो. प्रदेश के सारे लघु उद्योग बंदी की कगार पर हैं. बनारस, जो सिल्क की साड़ी के लिए प्रचलित था वहां लगभग एक लाख से अधिक कामगार और अकुशल मज़दूर जो आज पूरी तरह काम विहीन है. भदोही का कारपेट जिसको मज़दूर बनाते थे वहां की स्थिति यह है की लगभग तीस हज़ार से अधिक मज़दूर आज काम की तलाश में हैं. यहीं स्थिति फिरोजाबाद की चूड़ी उद्योग और लखनऊ के चिकनकारी उद्योग की है. जहां मज़दूर काम करते थे आज उनके पास कोई रोज़गार नहीं है. ये सरकार मज़दूरों को काम दिला पाने में सक्षम नहीं है. पिछले समय हम लोगों ने इस मुद्दे को उठाया था फिर भी सरकार ने इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया. यह सरकार मज़दूर और गरीब विरोधी है.

मनरेगा में काम देने के सवाल पर अजय कुमार 'लल्लू' कहते हैं, ‘‘मनरेगा की बात जो ये कर रहे हैं, मनरेगा का आलम यह है कि अभी प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में ना पक्के निर्माण हो रहे हैं और ना ही मिट्टी का कोई काम हो रहा है. ना ही सरकार के पास इसको लेकर कोई योजना है. इस नाते मनरेगा मज़दूर भी आज बैठे हुए हैं.’’

बांदा के रहने वाले पत्रकार आशीष सागर प्रवासी मज़दूरों की आत्महत्या की बात से इंकार नहीं करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘बांदा में या बाकी जिलों में मज़दूर आत्महत्या तो कर रहे हैं लेकिन उनकी संख्या बढ़ाचढ़ा बताना ठीक नहीं. मसलन बांदा में 6 से 7 मज़दूर आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर चुके है. बाकी लोग कई और कारणों से आत्महत्या किए हैं. जिसका स्थानीय मीडिया में गलत रिपोर्टिंग की गई.’’

उत्तर प्रदेश ग्रामीण मज़दूर संघ के प्रमुख तुलाराम शर्मा मज़दूरों के वापस शहर लौटने के कारणों का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘‘मज़दूरों को योगी सरकार रोजगार नहीं दे पायी है जिस कारण मज़दूर दोबारा शहरों की तरफ वापस लौटने पर मजबूर हो रहे हैं. मज़दूर जब बाहर से आए तो उनके परिवार की समस्याएं तो रुकी नहीं. सरकार ने घोषणा की थी वापस लौटे मज़दूरों को रोज़गार दिया जाएगा. उन्हें कौशल विकास योजना से जोड़ा जाएगा. सारी सुविधाएं दी जाएंगी, लेकिन यह नहीं मिलने के कारण वे सोच रहे हैं कि जहां पहले काम करते थे वहीं लौट जाए.’’

मज़दूरों के ‘माइग्रेशन आयोग’ समेत और वादे

मई महीने में जब अलग-अलग प्रदेशों से मज़दूर यूपी लौट रहे थे तब योगी आदित्यनाथ सरकार ने रोजगार देने, उनके राशन देने और आर्थिक सहयोग देने के अलावा भी कई तरह के वादे किए थे. एक वादा था जिसके अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार प्रवासी मज़दूरों को रोजगार देने के लिए ‘माइग्रेशन आयोग’ का गठन करेगी.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बाद में योगी आदित्यनाथ ने ‘माइग्रेशन कमीशन’ का नाम बदलकर 'कामगार श्रमिक (सेवायोजन एवं रोजगार) कल्याण आयोग' कर दिया था.

16 जून को इस आयोग को मंज़ूरी दे दी गई. आयोग के मंज़ूरी की सूचना देते हुए सरकार के मंत्री और प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह ने बताया था कि आयोग के प्रमुख प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे. इसके अलावा श्रम एवं सेवायोजन विभाग के मंत्री संयोजक होंगे एमएसएमई मंत्री और औद्योगिक विकास मंत्री इसके उपाध्यक्ष होंगे. वहीं कृषि, ग्राम्य विभाग, पंचायती और नगर विकास मंत्री इसके सदस्य होंगे.

इस आयोग का एक काम यह भी था कि अगर कोई राज्य यूपी से अपने यहां मज़दूरों को बुलाते हैं तो उन्हें राज्य सरकार से अनुमति लेनी होगी. क्या यह आयोग अब अपना काम कर रहा हैं? अगर हां तो ये मज़दूर धड़ल्ले से दूसरे राज्यों की तरफ क्यों जा रहे हैं और अगर जा रहे हैं तो इसकी इजाज़त क्या यूपी सरकार दे रही है? कम से कम मज़दूर तो ऐसा नहीं बताते हैं. अगर आयोग काम कर रहा है तो मज़दूरों को रोज़गार के अवसर या आर्थिक मदद क्यों नहीं दी गई जिससे ये शहर की तरफ दोबारा वापस नहीं लौटते.

अयोध्या में राम मंदिर भूमि पूजन के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

शहर से लौटे मज़दूरों के रोजगार नहीं मिलने की स्थिति में दोबारा शहरों की तरफ हो रहे पलायन और माइग्रेशन आयोग के बनने और उसके काम समेत बाकी कई अन्य सवालों के जवाब के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने गृह सचिव अवनीश अवस्थी और प्रदेश सरकार में मंत्री और सरकार के प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन दोनों से फोन पर बात नहीं हो सकी. हमने अवनीश अवस्थी को व्हाट्सएप्प पर कुछ सवाल भेजा है, लेकिन उसका भी जवाब नहीं आया. अगर जवाब आता है तो उसे खबर में जोड़ दिया जाएगा.

हमने कई जिम्मेदार मंत्रियों से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे भी बात नहीं हो सकी.

उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रवक्ता मनीष शुक्ला अपनी सरकार का बचाव करते हुए बताते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश सरकार ने कोविड के दौर में ही कई तरह के नए रोजगार का सृजन किया. एमएसएममी को जैसे ही केंद्र सरकार से राहत मिली उसके 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश में लोन बांटे गए और इन इकाइयों से रोज़गार सृजन करने की उपेक्षा की गई. यूपी में सूक्ष्म, लघु और माध्यम उद्योग (एमएसएमई) की 90 लाख ईकाइयां हैं. इसके अलावा मनरेगा में भी रोजगार का सृजन किया गया. इस तरह कुल मिलाकर एक करोड़ रोजगार सृजित किए गए. सबके घर में रोजगार मुहैया कराया गया मगर कोई व्यक्ति कहीं जाकर नौकरी करना चाहता है तो उसे रोका नहीं जा सकता है. रोजगार देने में योगी सरकार सफल रही है.’’

शुक्ला, प्रवासी मज़दूरों की आत्महत्या करने की घटना की सूचना नहीं होने की बात कहते हैं. वो दावा करते हैं, ‘‘प्रदेश में किसी भी मज़दूर की आर्थिक संकट की वजह से आत्महत्या की सूचना नहीं आई है.’’ जब न्यूज़लॉन्ड्री ने मीडिया रिपोर्ट्स का हवाला दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं भी ख़बरें देख लेता हूं.’’

कामगार श्रमिक (सेवायोजन एवं रोजगार) कल्याण आयोग' के गठन के सवाल पर उन्होंने बताया, ‘‘आयोग की रुपरेखा तैयार है. सबकुछ तय है. कौन उसका चेयरमैन होगा या कौन सदस्य होगा. लेकिन अभी आयोग बनने की अधिसूचना जारी नहीं हुई है.’’

आयोग के बनने के लेकर हमने बीजेपी के एक दूसरे प्रदेश प्रवक्ता हीरो वाजपेयी से सवाल किया तो वे हमें इधर-उधर की जवाब देते रहे. हमने आयोग को लेकर अपना सवाल दोहराया तो उन्होंने फोन काट दिया और दोबारा फोन नहीं उठाया.

इस आयोग को लेकर हमने लखनऊ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार श्रीधर अग्निहोत्री से बात की. उन्होंने बताया, ‘‘जून महीने में यूपी सरकार की कैबिनेट की बैठक हुई थी, उसमें आयोग को लेकर प्रस्ताव भी आया था. इसका नाम 'माइग्रेशन कमीशन' से कामगार श्रमिक (सेवायोजन एवं रोज़गार) कल्याण आयोग किया गया. आयोग अभी अमल में नहीं आया है बल्कि उसकी जगह एक कमेटी का गठन कर दिया गया. इस कमेटी के सदस्य कैबिनेट मंत्री सुरेश खन्ना और दो प्रमुख सचिव हैं. आयोग का बाक़ायदा ऑफिस होता है, सदस्य होते हैं. अभी तक आयोग वर्किंग में नहीं है.’’

मज़दूरों के दोबारा शहरों की तरफ पलायन के सवाल पर श्रीधर अग्निहोत्री कहते हैं, ‘‘सरकार ने उनके लिए कई योजनाएं बनाई है. रोजगार के साधन उपलब्ध कराए है. योगी जी ने कई बार कहा की मज़दूरों को वापस नहीं जाने देंगे, लेकिन मज़दूर वापस लौट रहे हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. कहने का मतलब है कि घोषणाएं तो बहुत हुई है, लेकिन उस पर कितना अमल होता है यह कह पाना मुश्किल है.’’

यूपी सरकार प्रवासी मज़दूरों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लाख दावे कर ले, लेकिन मज़दूरों हर लौटती भीड़ सरकार के इरादे पर पर सवाल खड़े कर रही है. मज़दूर जिन शहरों से अपनों की तलाश में भागकर गांव आए थे, फिर अपनों को छोड़कर उन्ही शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं.

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