वो सुधा भारद्वाज, जिनके बारे में सरकार नहीं चाहती कि आप ज्यादा जानें

एनआईए उन्हें एक संदिग्ध माओवादी नेता के रूप में प्रस्तुत करता है लेकिन यह उनकी शख्सियत के बिल्कुल विपरीत है. उनका जीवन भारत के कुछ सबसे पीड़ित-शोषित नागरिकों सेवा में बीता है.

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दिसंबर 2019 में छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक दूषित जल शोधन संयंत्र में काम करने वाले राजकुमार साहू ने 1000 किलोमीटर की दूरी तय करके पुणे जेल में बंद 59 वर्षीय वकील सुधा भारद्वाज से मुलाकात की. पुलिस द्वारा कोर्ट लाए जाते समय कुछ पलों की भेंट के लिए इतनी लंबी यात्रा का क्या औचित्य है, इसे समझाते हुए 50 वर्षीय साहू ने बताया, "वे केवल हमारी यूनियन की साथी या वकील नहीं है. हमारे लिए सुधा दीदी हमारा परिवार हैं."

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा एक कर्मचारी-खेतिहर मजदूरों की यूनियन है जिसकी स्थापना एक ओजस्वी ट्रेड यूनियन नेता शंकर गुहा नियोगी ने की थी. इसके सदस्य राजकुमार साहू सुधा भारद्वाज से 80 के दशक के अंत में मिले थे, जब वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) कानपुर से गणित की स्नातक बन कर निकली ही थीं. 20 वर्षीय सुधा भारद्वाज आईआईटी से निकलने के बाद दल्ली राजहरा नाम के खदानों के पास स्थित एक कस्बे में खदान मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए और यूनियन के साथ काम करने के लिए वहां आकर रहने लगीं थीं.

उस समय राजकुमार साहू और उनके साथ के 500 अन्य कर्मचारी दुर्ग की एक सीमेंट फैक्ट्री में अनुबंध पर काम करते थे. कंपनी की उस समय मालिक एसोसिएट सीमेंट कंपनीज़ लिमिटेड थी जो अब एक स्विस बहुराष्ट्रीय कंपनी लाफार्ज होल्सिम (Lafarge Holcim) के स्वामित्व में है. वे लोग उस समय स्थाई कर्मचारी होने की लड़ाई लड़ रहे थे. राजकुमार बताते हैं, "परंतु हमारी आमदनी बहुत कम थी और हमारी छोटी सी यूनियन वकीलों की फीस और खर्चे नहीं उठा सकती थी."

अंततः सुधा भारद्वाज ने कानून की पढ़ाई की ताकि वो साहू और उनके जैसे अन्य लोगों की अदालत में पैरवी कर सकें. जैसा कि उन्होंने अपने एक लेख में लिखा कि वह सन 2000 में "40 की पकी उम्र" में वकील बनीं.

राजकुमार आगे बताते हैं, "एक बार जब उन्होंने हमारा केस अपने हाथ में ले लिया तो अगले 16 साल तक लगातार लड़ा. वह हमारे साथ सुनवाई, भूख हड़ताल और मध्यस्थता के लिए लगी रहीं.” साहू ने कहा कि उनकी प्रतिबद्धता की वजह से कर्मचारियों को बहुत मुसीबतों के बाद विजय मिली जिनमें कर्मचारियों को कानूनी रूप से मिलने वाले वेतन, काम के अनुबंध की बेहतर शर्तें, पुरानी बिना भुगतान की गई मजदूरी और बोनस और इन सब के साथ सुरक्षा के लिए मिलने वाले हेलमेट और जूते भी थे.

राजकुमार साहू ने कहा कि उनके जैसे मजदूर जो रोजाना 500 रुपए पाते थे अब 28,000 महीना पाते हैं. "हमारे जैसे कामगार इतनी बड़ी कंपनियों के खिलाफ अदालत जाने की सोच भी नहीं सकते थे अगर सुधा दीदी हमारे साथ में खड़ी नहीं होती. हम लोगों के लिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि उनका हमारे जीवन में क्या योगदान रहा है."

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सुधा भारद्वाज

दुर्ग से उत्तर की तरफ मध्य छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिला पड़ता है. पिछले दो दशकों से बड़ी कोयला खदानें और कोयले से चलने वाले बिजली के प्लांटों ने खनन कंपनियों की जेब भरी हैं. जबकि इसके परिणाम स्वरूप जंगल, खेत और गांव तहस नहस हो गये हैं जिससे अपनी पुश्तैनी ज़मीन खोने से आहत, प्रदूषित जल और हवा से बीमार पड़ते ग्रामीण, खासकर आदिवासी आज बुरी तरह त्रस्त हैं.

राजकुमार की ही तरह मिल्लूपूरा गांव की जानकी सिडर, सुधा भारद्वाज की बात उठते ही भावुक हो जाती हैं. जानकी सिडर रायगढ़ के अनेक आदिवासी किसानों में से एक हैं जो अपनी जमीन बिचौलियों, भूमाफिया और कारोबारी घरानों के द्वारा जाली हस्तांतरण से जूझ रही हैं. यह सब आदिवासी समाज की भूमि से जुड़ी उनकी आजीविका और पहचान को बचाने के लिए बने अनेकों कानून और संवैधानिक आश्वासनों के बावजूद हो रहा है.

जानकी याद करते हुए कहती हैं, "बहुत सालों से मेरा केस कहीं नहीं जा रहा था. बस एक तारीख से अगली तारीख पड़ती जा रही थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. फिर किसी ने हमें सुधा दीदी के पास भेजा और उन्होंने हमारा केस ले लिया."

साल 2011 में सुधा भारद्वाज जानकी सिडर की तरफ से छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में गई जहां पर उन्होंने छत्तीसगढ़ भूमि राजस्व अधिनियम, 1959 की धारा 170-बी के अंतर्गत मामले को अदालत के सामने रखा. धारा 170-बी आदिवासियों की ज़मीन का गैर आदिवासियों को हस्तांतरण प्रतिबंधित करता है और किसी भी जालसाजी के तहत हासिल की गई ऐसी ज़मीन को आदिवासी समाज को पुनः वापस देने की अनुमति देता है.

2014 में उच्च न्यायालय से अपने पक्ष में निर्णय मिलने के बाद जानकी की जमीन वापस मिल गई थी, वहीं पर वह अभी खेती करती हैं. जानकी के अनुसार वह इलाके के अनेकों खेतिहर मजदूरों में से एक हैं जो सुधा भारद्वाज को उनकी निष्ठा के कारण बहुत आदर की दृष्टि से देखती हैं.

जानकी कहती हैं, "अगर सुधा दीदी से मिली कानूनी मदद न होती तो हम आदिवासियों को कंपनी पानी में बहा देता."

जानकी सिडर

हमें सालों-साल से अदालतों के चक्कर लगाते, अत्यंत दबे-कुचले और असहाय लोग मिले जिन्होंने सुधा भारद्वाज एक जीवट यूनियन नेता और जनसाधारण के हितों के लिए लड़ने वाली वकील की छवि प्रस्तुत की.

सुधा भारद्वाज के तीन दशकों के दौरान पेंचीदा मामलों में लगातार लगकर काम करने की जो छवि बनी उसकी वजह से कई सरकारी विभागों ने भी उन्हें अपनी पैरवी करने के लिए निवेदन किया. इनमें जनजातीय कार्य मंत्रालय, नेशनल एडवाइजरी काउंसिल पर आदिवासी मुद्दों से जुड़ी सब कमेटी का हिस्सा बनकर जजों को संबोधित करना और 2017-18 में दिल्ली के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में कानून के विद्यार्थियों को मेहमान शिक्षक के रूप में पढ़ाना शामिल है.

2013-14 में सुधा भारद्वाज को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद का प्रस्ताव दिया गया. उनकी बेटी और सहकर्मी उस घटना को याद करते हुए बताते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश का पद इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि वह ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की मदद का काम छोड़ना नहीं चाहती थीं.

सुधा भारद्वाज का जनसेवा को समर्पित जीवन भारत की नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी के द्वारा बनाई गई उनकी छवि से बिल्कुल अलग है. नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) उन्हें प्रतिबंधित माओवादी पार्टी की संदिग्ध नेता के रूप में प्रस्तुत करती है जो हथियारों की तस्करी, अर्धसैनिक बलों के लिए जाल बुनने और हथियारबंद ऑपरेशनों की योजना बनाती हैं.

imageby :चित्रांगदा चौधुरी

जेल के बिना जमानत और सुनवाई के 2 साल

28 अगस्त, 2018 को गिरफ्तार हुई सुधा भारद्वाज भीमा कोरेगांव के आरोपी 12 वकील, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों में से एक हैं जिन पर भारतीय दंड संहिता 1807 के 10 अनुच्छेदों और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक एक्ट 1967 के तहत मामला दर्ज किया गया है. जुलाई 2020 में उस मामले का विश्लेषण हमने किया और पाया कि उनके निर्दोष या दोषी होने के सबूत को निरर्थक बना दिया गया है.

साल 2018 के मध्य में जब पहली बार 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया था तब पुलिस ने सुधा भारद्वाज और कुछ अन्य लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था. जनवरी 2018 में दलितों के खिलाफ पुणे से 28 किलोमीटर दूर स्थित कस्बे भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने वाले भाषण देने, ईमेल भेजने और पर्चे बांटने का आरोप भी उन पर लगाया था. मामले में पुलिस के ऊपर उठ रहे सवालों और आलोचना पर पुलिस ने सितंबर 2018 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताया कि उन्हें इससे जुड़ी हजारो चिट्ठियां मिली हैं जो इन लोगों की तरफ इशारा करती हैं.

2 साल से जारी जांच में इतने गंभीर आरोपों से जुड़े किसी सबूत पर कोई रोशनी नहीं डाली है. जनवरी, 2020 में एनआईए ने इस जांच को महाराष्ट्र पुलिस से अपने हाथ में ले लिया. अदालत में अभी तक सुनवाई शुरू नहीं हुई है. सुधा भारद्वाज सहित सभी अभियुक्तों की जमानत की अर्जी बार-बार खारिज की जा चुकी है. अपनी गिरफ्तारी के बाद से सुधा चार बार जमानत की अर्जी दे चुकी हैं.

सुधा भारद्वाज के वकील युग चौधरी ने बताया कि उनके खिलाफ अभी तक पेश किए गए सबूत, "सादे कागज पर टाइप किए हुए, बिना तारीख, बिना हस्ताक्षर के कुछ पत्र हैं जो किसी और के कंप्यूटर पर मिले. इनसे कुछ भी साबित नहीं होगा. सुधा के घर और अलग-अलग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में पुलिस को कुछ भी नहीं मिला है. इन कथित सबूतों का अदालत में कोई औचित्य नहीं लेकिन दुर्भाग्य से जब किसी पर यूएपीए के अंतर्गत मामला दर्ज होता है तो सबूतों से जुड़े साधारण नियम इस कानून के अंतर्गत निरस्त कर दिए जाते हैं."

जुलाई, 2020 में सुधा भारद्वाज की जमानत का विरोध करते हुए एनआईए ने कहा कि उसकी जांच ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सुधा भारद्वाज अन्य आरोपित लोगों के साथ प्रतिबंधित संगठनों में भर्ती के लिए, लोगों को 'संघर्षशील इलाकों' में भूमिगत होने के लिए, पैसे जुटाना और बांटना, हथियारों का चुनाव और खरीद के साथ-साथ ऐसे रास्ते सुझाना जिनसे यह हथियार भारत में गैर कानूनी तौर पर लाकर उनके काडर के पास सुरक्षित पहुंच सुनिश्चित करती थीं.

एनआईए के अनुसार उसकी जांच यह बताती है, "अन्य आरोपियों के साथ सुधा भारद्वाज एक सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य से लोगों की ट्रेनिंग, अर्धसैनिक बलों के खिलाफ जाल बिछाना और बारूदी सुरंग बिछाने की नीति बनाने में हाथ बंटाती हैं." एनआईए के अनुसार इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स, जिसकी सुधा भारद्वाज उपाध्यक्ष हैं माओवादी पार्टी का छद्म चेहरा है. एनआईए का हलफनामा कहता है कि उनको "ठोस सबूत मिले हैं जिनसे साबित होता है कि सुधा भारद्वाज एक बहुत बड़ी हिंसा, जान माल के नुकसान और समाज में अराजकता फैलाने वाली एक योजना को अंजाम देने में लिप्त थीं."

सुधा भारद्वाज को जमानत दिए जाने का विरोध करते हुए एनआईए ने अपने हलफनामें में भारद्वाज के खिलाफ कोई सबूत नहीं दिया और यह तर्क रखा, "सुधा भारद्वाज को छोड़ देने से उनकी जांच में बाधा उत्पन्न होगी, और वह जांच के सबूतों को अभी सामने नहीं रख रहे हैं." 27 अगस्त को द वायर ने रिपोर्ट किया कि एनआईए ने तीन वकीलो को समन भेजा है जिनमें निहाल सिंह राठौड़ भी शामिल हैं जो कि भारद्वाज के साथ सह आरोपी महेश राउत के वकील हैं.

सुधा भारद्वाज की 30 साल पुरानी दोस्त और अर्थशास्त्री स्मिता गुप्ता कहती हैं, "अगर आप आरोपों की गंभीरता को देखें तो आपको लगेगा कि प्रशासन ऐसे केस को जल्दी से जल्दी निपटाने की कोशिश करेगा. पर पिछले 2 साल में सुनवाई शुरू नहीं होना यह बताता है कि असल में कटघरे में प्रशासन खड़ा है, सुधा नहीं."

हाल ही में दिए गए एक इंटरव्यू में एनआईए के जांचकर्ता ने बताया कि वह इस मामले के अदालत में शुरू होने की तारीख पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते और इसके साथ उन्होंने कहा कि, "जांच के बहुत से पहलू अभी बाकी हैं."

सुधा के वकील युग चौधरी बताते हैं, "जांच एजेंसीयां जानती हैं कि उनका केस कमजोर है और अदालत के विश्लेषण पर ख़रा नहीं उतरेगा इसलिए वह मुकदमे के दौरान उनकी कैद को जितना हो सके बढ़ा रहे हैं. जानबूझकर इस जांच में देरी और अड़चनें डाली जा रही हैं. उन्होंने चार्जशीट और उससे जुड़े और कागजात दायर करने के लिए बहुत समय बर्बाद किया है. इससे होता यह है कि मामले को बस लटका कर रखा जाता है और आरोपी बिना किसी अपराध सिद्ध हुए जेल में लंबे समय तक रहता है."

युग चौधरी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैनी बाबू की जुलाई में हुई गिरफ्तारी का उदाहरण देते हुए कहा, "पुलिस ने हैनी बाबू के घर पर सितंबर 2019 में छापा मारा और 2019 में मिले सबूतों के आधार पर उनकी गिरफ्तारी जुलाई 2020 में हुई. यह जानबूझकर मामले को टालते रहने का हथकंडा नहीं है तो और क्या है?"

सुधा की बेटी मायशा जो कॉलेज में पढ़ती हैं ने इस रिपोर्टर से कहा, "आज के समय में जब हमारे पास इतनी तकनीक उपलब्ध है, क्या सबूत इकट्ठा करने में 2 साल लग जाते हैं? गरीबों के लिए इतने साल काम करने के बावजूद भी मम्मी को लगातार इस तरह से परेशान जा रहा है कि न्याय व्यवस्था से विश्वास ही उठ जाता है."

जीवन की एक विस्तृत दृष्टि

सुधा भारद्वाज का जन्म 1961 में अमेरिका के मैसेच्यूसेट्स प्रांत के शहर बोस्टन में हुआ था. उनके माता-पिता उस समय अपनी पोस्ट-डाॅक्टोरल पढ़ाई के लिए अमेरिका गए हुए थे. वह जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कैंपस में बढ़ी हुई जहां पर उनकी मां प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कृष्णा भारद्वाज, भारत लौटने के बाद बहुत समय तक पढ़ाती रहीं.

सुधा का गणित प्रेम उन्हें आईआईटी कानपुर ले गया जहां पर उन्होंने 1979 से 1984 तक पढ़ाई की. शोभा मदान जो एक रिटायर्ड आईआईटी प्रोफेसर हैं और उस समय आईआईटी कानपुर में शोध की छात्रा थीं, सुधा को याद करते हुए कहती हैं, "उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि आप नज़रअंदाज नहीं कर सकते, दुनिया को उनके देखने के तरीके से जीवन के लिए एक विस्तृत परिदृश्य की झलक मिलती थी." सुधा का इसी कैंपस में पहली बार ठेके के कर्मचारियों की परेशानियों से सामना हुआ और उन्होंने मेस में काम करने वाले लोगों से गहरी दोस्ती कर ली."

1984 जिस साल सुधा भारद्वाज ने अपनी डिग्री प्राप्त की वह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष था. इस संवाददाता को 2009 में दिए गए एक इंटरव्यू में "जीवन बदल देने वाली घटनाओं" को याद करते हुए उन्होंने कहा था कि सिख विरोधी दंगे, भोपाल गैस कांड, और एशियाड खेलों से जुड़े मध्य भारत और उड़ीसा से आने वाले आदिवासी कामगार मज़दूरों के साथ सेवा कार्य का अनुभव, उन्हें लगभग बंधुआ मज़दूरी की याद दिलाता था.

इस दौरान शंकर गुहा नियोगी से मिलने के बाद सुधा भारद्वाज 1986 में मध्य प्रदेश (आज के छत्तीसगढ़) की खदानों में काम करने वाले मज़दूरों की मदद और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए, वहां जाकर रहने लगीं. यूनियन के एक मेंबर और कलाकार कालादास दहरिया कहते हैं कि युवा भारद्वाज जल्द ही उनके बीच घुलमिल गईं. दहरिया कहते हैं, "कुछ लोग खुले विचार वाला होने का ढिंढोरा पीटते हैं, पर वे ऐसी नहीं थीं. वे मजदूरों की परेशानियों को अपना समझती थी. पैसे और शानो शौकत की उनकी नजरों में कोई ज्यादा अहमियत नहीं थी."

उनकी मित्र स्मिता गुप्ता याद करती हैं कि जब भी सुधा उनसे मिलने दिल्ली आती थी वह हमेशा ट्रेन के सबसे सस्ती अनारक्षित श्रेणी में ही यात्रा करती थीं. वे बताती हैं, "एक बार तो सुधा नंगे पैर ही आईं क्योंकि ट्रेन में किसी ने उसकी चप्पल चुरा ली थी. जब भी वह आती थी तो मन बहलाने के नाम पर प्लेट भर टोस्ट और मुरब्बा, बच्चों की किताबें या कोई पुरानी पिक्चर देखना पसंद करती थीं."

सुधा के यूनियन के काम और बाद में नियोगी की 1991 में हुई हत्या की जांच में सीबीआई के साथ उनके संपर्क ने उन्हें एक वकील में बदल दिया. शुरुआत में उन्होंने केवल मजदूरों के ही केस लड़े लेकिन सन 2000 के बाद से छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संपदाओं जमीन, जंगल और खदानों को लेकर बढ़ते झगड़े और प्रशासन और माओवादी गुटों के बीच तेजी से हाथ से निकलती हथियारबंद लड़ाई, उन्हें कानूनी दांवपेच और मानवाधिकार के विस्तृत क्षेत्र में ले आई.

यह वह कालखंड था जब निजी उद्योग कहीं अधिक सुनियोजित तरीके से मजदूरों के हितों का दमन करने में लगी थीं, जिसका सबसे बड़ा हथियार उन्हें अस्थायी करना था. इस सबके बीच बड़ी खनन कंपनियां प्रशासन के बल पर ग्रामीण भूमि जल और जंगल हड़पने में लगी हुई थीं. हाशिये‌ से बाहर की जातियां और आदिवासियों का मुख्यधारा के मीडिया में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता और साहू या सिडर जैसे लोग सार्वजनिक चर्चा का मुद्दा नहीं बनते.

बिलासपुर के उच्च न्यायालय में वकील के तौर पर सुधा भारद्वाज ने बहुत से समुदायों का प्रतिनिधित्व किया जो राज्य में प्रशासन और उद्योग जगत के ताकतवर गठजोड़ के चलते एईजेड और रियल एस्टेट नेक्सस के हाथों अपनी ज़मीन खो बैठे थे. वे इस दौरान पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनरल सेक्रेटरी भी बनीं और उन्होंने संपत्ति से हाथ धो बैठने के साथ-साथ पर्यावरण की क्षति, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के द्वारा गैरकानूनी हत्याएं और आम जनता के खिलाफ माओवादियों की हिंसा जैसे विषयों पर लोगों का ध्यान खींचा. जब राज्य में मानवाधिकार के लिए काम करने वालों और पत्रकारों के खिलाफ हिंसा बढ़ी तो उन्होंने इनको कानूनी सुरक्षा देने के लिए एक कानून की रचना करने में भी मदद की.

आशीष बेक आदिवासी वकील हैं जो याद करते हैं कि सुधा भारद्वाज एक सशक्त व्यक्तित्व की महिला हैं जो बेहद ताकतवर लोगों से लोहा लेने के लिए मशहूर थीं. उनके उज्जैन में सुधा की सबसे पुरानी स्मृतियों में से एक है 2011 की जब आशीष ने उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करना शुरू ही किया था. वे याद करते हुए कहते हैं, "वे फाइलों का एक बड़ा जत्था उठाए हुए चली जा रही थी और अपने बाकी सारे सहकर्मियों से अलग दिखाई पड़ती थीं. आप शायद ही कभी किसी वरिष्ठ वकील को उच्च या उच्चतम न्यायालय में अपनी फाइलें खुद ढोते हुए देखेंगे. आमतौर पर ऐसे काम कोई जूनियर करता है."

2010 में सुधा भारद्वाज ने जनहित की स्थापना की जो न्याय व्यवस्था से जुड़े मामलों में असहाय फंसे हुए समुदायों की मदद के लिए बना. अपनी गिरफ्तारी से एक महीना पहले न्यूज़क्लिक को दिए हुए इंटरव्यू में इसके पीछे के कारणों को सुधा स्पष्ट करती हैं, "सभी जन आंदोलन एक परेशानी का सामना करते हैं कि उनके पास निष्ठावान वकील नहीं होते. वह लोग जिन्हें हमारी सेवाओं की सबसे ज्यादा आवश्यकता है लेकिन वह हमें सबसे कम पैसा दे सकते हैं. इसी सिक्के के दूसरी तरफ कॉरपोरेट वकील हैं."

आशीष बेक ने अंततः जनहित से जुड़ने के सुधा भारद्वाज के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. वहां उन्होंने यह देखा कि वह मामले जिनमें गरीब या असहाय लोग नहीं थे, उन्हें रुचिकर नहीं लगते थे. वे कहते हैं, "यह जानते हुए कि वरिष्ठ वकील कितनी जान पहचान रखते हैं, अक्सर वरिष्ठ वकील किसी ताकतवर इंसान का बेटा या रिश्तेदार होता है, यह भी देखते हुए कि कितने कम जज निचले तबके के समुदायों से आते हैं, अदालतों में आदिवासियों का विस्थापन या संघर्ष के बीच में फंसना, अभी भी विकास के लिए जरूरी आहूति के रूप में देखा जाता है. इन तथ्यों को अगर सामने रखें तो हम जानेंगे के जो केस वह लेती थी उनकी पैरवी या उन मामलों में अनुकूल निर्णय पाना बहुत मुश्किल था."

उदाहरण के लिए सुधा भारद्वाज के अनेक ग्रामीण मुवक्किलों में से दंतेवाड़ा के हिंसक मुठभेड़ वाले क्षेत्र की पांच ग्रामीण महिलां थी जिन्होंने ये बयान दिया था कि 2006 में स्थानीय पुलिसर्मियों और सल्वा-जुडूम के लोगों ने उनका सामूहिक बलात्कार किया था. ये वो समय था जब माओवादियों और प्रशासन की मुठभेड़ों में लगभग एक जान रोज़ जा रही थी. सुधा ने न्याय मिलने की क्षीण सम्भावना को जानते-समझते हुए भी इन महिलाओं का मामला अपने हाथ में ले लिया था.

2009 में मानसून के एक दिन, यह संवाददाता सुधा भारद्वाज के साथ पौ फटते ही दंतेवाड़ा से 150 किलोमीटर दूर कोंटा के तहसील न्यायलय के लिए निकली, जहां ये मामला स्थानीय मजिस्ट्रेट के द्वारा दर्ज़ किया जाना था. एक कमरे की अदालत खाली पड़ी थी. वहां पर कुछ काम नहीं हो रहा था. मजिस्ट्रेट उस दिन आये नहीं और कोई नहीं बता पाया कि न आने की वजह क्या थी. सुधा को फिर से हफ़्तों बाद की दूसरी तारीख लेनी पड़ी. सुधा को शंका थी कि यह जानबूझ कर किया गया था ताकि मामला लटका रहे, और बीच के महत्वपूर्ण समय में शिकायत करने वाली महिलाओं को धमका कर शिकायत वापस लेने का दबाव भी बनाया जा सके. सुधा ने कहा था, “ये महिलाएं बहुत बहादुर हैं पर मैं इनकी सुरक्षा के लिए चिंतित हूं.”

अदालत की नज़रअंदाज़ी और प्रशासन के आक्रामक रवैये के चलते इन महिलाओं ने 2016 में अपनी शिकायत वापस ले ली. उच्चतम न्यायलय में दाखिल की गयी अर्ज़ी में शामिल ये तथाकथित बलात्कार और ऐसे अनेक मामलों ने कभी अदालत का मुंह नहीं देखा जबकि उच्चतम न्यायलय ने अपने 2011 के सल्वा जुडूम के निर्णय में राज्य सरकारों को दल के खिलाफ लगे सभी आरोपों की जांच करने की आज्ञा दी थी.

सुधा और उनके साथियों का विलक्षण काम आदिवासी समाजों के साथ हुए घोर अत्याचारों के कबूलनामे के रूप में फलीभूत हुआ. जैसा कि 28-29 जून, 2012 का काण्ड था जिसमें अर्धसैनिक बल के जवानों ने बीजापुर के सारकेगुड़ा गांव में माओवादी बताकर 15 आदिवासियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. गांव वालों के मुताबिक उस रात तीन गावों के लोग बीज महोत्सव के लिए एकत्रित थे जब जवानों ने उनके ऊपर फायरिंग शुरू कर दी. सात साल बाद सेवानिवृत न्यायाधीश वीके अग्रवाल के द्वारा की गयी न्यायिक जांच ने ये कहा कि मरे गए ग्रामीणों के नक्सली होने का कोई सबूत नहीं है.

जांच रिपोर्ट कहती है कि गांव वालों के सर, छाती और पीठ पर गोली लगने के निशान हैं और उनके ऊपर किसी कुंद हथियार से पीटे जाने की चोटें हैं जो बन्दूक के बट की भी हो सकती हैं. इन सब तथ्यों का जवानों के पास कोई सार्थक जवाब नहीं था.

सारकेगुड़ा की रहने वाली और सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारी कमला काका उन लोगों में से हैं जिन्होंने कमीशन के आगे बयान दिया था. वे बताती हैं कि कैसे सुधा गांव वालों को कमीशन कैसे काम करता है और ज्ञापन दाखिल करने में सहायता जैसी कानूनी मदद किया करती थीं. कमला ने इस रिपोर्टर से कहा, “जब हम कई साल बीतने पर निराश होते थे, सुधा दीदी हमारी उम्मीद को बनाये रखती थीं. पिछले साल जब कमीशन की रिपोर्ट आयी तब हम खुश हुए की हमारी बात को माना गया पर फिर मन उदास हो गया क्योंकि जिस वकील ने इतने मुश्किल समय में हमारी मदद की वो खुद अभी जेल में हैं.”

imageby :चित्रांगदा चौधुरी

एक अपूर्णीय क्षति

सुधा भारद्वाज का जेल जाना उनके सहकर्मी और मुवक्किलों की नज़र में एक ऐसा शून्य छोड़ गया है जिसका भरना असंभव है. रायपुर में स्थित छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सदस्य और एक पर्यावरण रक्षक अलोक शुक्ला कहते हैं, “जब वो हमारे साथ थीं, हमें विश्वास था कि हम कभी भी अदालत जा सकते हैं.” छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन एक राज्यव्यापी विस्थापन विरोधी और पर्यावरण आंदोलन है जिससे सुधा भी जुड़ी हुई थीं.

शुक्ला ने हमें उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरंड जंगलों में घाटबर्रा गांव का उदाहरण दिया. गोंड आदिवासियों के इस गांव ने अपने समुदाय के जंगलों पर अधिकार वन्य अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत प्राप्त किए थे जिन्हें अधिकारियों ने 2013 में निरस्त कर दिया ताकि यहां राजस्थान की बिजली उत्पादन कंपनी और अदानी एंटरप्राइज लिमिटेड कोयले का खनन शुरू कर सकें.

आलोक शुक्ला ने कहा, "यह निरस्तीकरण बिल्कुल गैरकानूनी है और सुधा भारद्वाज ग्रामीणों की तरफ से उच्च न्यायालय चली गई थीं. उनके यहां न होने से इस मामले और ऐसे कई कानूनी मामलों में काफी परेशानी हो रही है."

मायशा कहती हैं कि वह अपनी मां सुधा की कमी अलग-अलग तरीके से महसूस करती हैं, "मेरे पास परिवार के रूप में केवल मेरी मां हैं. हर दिन पता नहीं कितनी ऐसी छोटी और बड़ी चीजें होती हैं जो मुझे उनकी याद दिलाती हैं."

मायशा जिन्हें अपनी मां से कभी कभार थोड़े समय के लिए बात करने का मौका मिलता है, कहती हैं, "वह हमेशा से बहुत दृढ़ महिला रही हैं पर इतने लंबे समय तक निशाना बनाए जाने का अनुभव और सत्य की ओर कोई न्यायिक रास्ते का न होना, किसी पर भी प्रभाव छोड़ सकता है." उन्होंने यह भी कहा कि सुधा भारद्वाज की डायबिटीज और पुरानी टीबी के अवशेष उनके लिए भायखला जेल में कोविड-19 की स्थिति में बहुत ज्यादा खतरा पैदा करते हैं.

25 अगस्त को सुधा भारद्वाज की बेटी और उनके दोस्तों ने उनकी जमानत के लिए एक नई अपील दायर की इसमें यह लिखा था कि उनकी हाल ही की मेडिकल रिपोर्ट यह बताती है कि उन्हें माइक्रोवैस्कुलर इस्किमिक रोग, जो हृदय की एक बीमारी है, हो गया है. 28 अगस्त को बॉम्बे हाईकोर्ट ने उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी.

सुधा भारद्वाज और उनके साथ आरोपित लोगों पर लगे यूएपीए कानून के अंतर्गत जमानत मिलना मुश्किल है. उनके वकील युग चौधरी कहते हैं, "यूएपीए के अंतर्गत आरोप साबित करने की जिम्मेदारी बिल्कुल उलट जाती है. अभियोजन पक्ष के सारे सबूत ज़मानत की सुनवाई में अकाट्य माने जाते हैं चाहे वह अंत में खारिज कर दिया जायें. यह बिल्कुल नाइंसाफी और तर्कहीन प्रक्रिया है जो ऐसा तंत्र बनाती है जिसमें लोगों को लंबे समय तक विचाराधीन कैदी बनाकर रखा जा सकता है. यह हमारी न्याय व्यवस्था की आत्मा के विरुद्ध है." उन्होंने इस कानून की बार-बार होने वाली भर्त्सना का भी समर्थन किया.

सुधा के लंबे समय से साथी रहे काका, साहू, सिडर और दहरिया ने उन पर लगे आरोपों को फर्जी बताया.

दहरिया कहते हैं, "सालों से वह इस देश के लोगों के लिए लड़ी हैं, उनके साथ खड़ी रही हैं. अगर सरकार यह कहती है कि वह नक्सलवादी हैं, इस हिसाब से तो जनता ही नक्सलवादी है."

सुधा भारद्वाज के 2 साल से जेल में पड़े रहने के ख्याल से जानकी सिडर पीड़ा से भर उठती हैं. उनका शक है की सुधा को जेल में इसलिए भेज दिया गया क्योंकि वह बड़े पूंजीपतियों के खिलाफ आदिवासियों के साथ खड़ी थीं.

जानकी ने कहा, "वह वकील हैं भाई, देशद्रोही नहीं. सरकार आदिवासियों की मदद करने वालों को क्यों जेल में डाल देती है? जो अत्याचारी हैं, सरकार उनको कभी क्यों नहीं देखती."

यह रिपोर्ट आर्टिकल 14 डॉट कॉम पर पहले अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है.

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