आज हम जो बोल रहे हैं, न जाने हमें कहां-कहां से मिला है? भाषा के संसार में किसी एक का कुछ नहीं है. सभी कुछ सबका है.
15वीं सदी का आख़िरी दशक ख़त्म होने को था. विश्व के महासागर एक ऐसी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हो रहे थे जो इससे पूर्व कभी नहीं देखी गयी थी. चप्पू से चलने वाले जहाज़ों की अपनी सीमाएं थीं. उनसे छिछली तटरेखा के इलाक़ों में तो परिवहन हो सकता था लेकिन समुद्र की अपार नीली जल-राशि में घुसने के लिए साहस के अलावा उन हवाओं का भी ज्ञान ज़रूरी था जो साल की अलग-अलग अवधियों में समुद्र की सतह पर बहा करती थीं.
हिंद महासागर इसका अपवाद था. एक तो वह तीन तरफ़ से ‘लैंड-लॉक्ड’ था जिसके कारण इसमें जानलेवा भटकाव की संभावनाएं बाकी महासागरों के मुकाबले कम थीं, दूसरा अन्य महासागरों के पवन-तंत्र के उलट उसकी मानसूनी हवाएं एक सुस्थिर पैटर्न में बहा करती थीं. इसके विपरीत लम्बे समय तक अटलांटिक और प्रशांत महासागर की हवाएं दुनिया भर के नाविकों के लिए ख़ौफ़ भरे रहस्य का सबब बनी रहीं. हिंद महासागर से इतर महासागरों में जहाजों के इच्छित परिवहन के लिए तीन तरह की हवाओं का इल्म होना ज़रूरी था, पहला तीस से साठ डिग्री अक्षांस के बीच में बहने वाली पछुआ हवाएं, दूसरी दोनों अर्ध गोलार्ध में विषुवत रेखा की तरफ़ चलने वाली ‘ट्रेड’ हवाएं और तीसरी नाविकों का दुस्वप्न कही जाने वाली डोल्ड्रुम्ज़ जिसके बारे में कोलंबस ने अपनी डायरी में लिखा था- “हवाओं ने मुझे बुरी तरह निराश किया और गर्मी इतनी अधिक बढ़ गई थी कि मुझे लगा कि मेरा जहाज और साथी भस्म हो जाएंगे.”
(पेज- 207, The four voyages of Christopher Columbus, Baltimore, 1967).
जुलाई 1497 के ख़ुशुनुमा यूरोपीय मौसम में जब वास्को-डि-गामा लिस्बन से अपने भव्य स्वप्न के साथ नए जलमार्ग की खोज में बेड़ा लेकर चला तो किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं था कि वह अपने असंभव समझे जाने वाले गंतव्य को पा ही जाएगा. केप वेर्डेस होते हुए गिनी की खाड़ी में पहुंच कर वह उसी डोल्ड्रुम्ज़ में फंस गया जिसने कोलंबस के पसीने छुड़ा दिए थे. लेकिन वह इनसे निकलने में कामयाब रहा और अनगिनत चक्रवाती तूफ़ानों से बचता हुआ दक्षिण-पूर्वी ट्रेड पवन की मदद से हिंद महासागर में दाखिल हो गया.
दक्षिण अटलांटिक को पार करने वाला वह पहला यूरोपियन था जो इस पूरी तरह से अपरिचित पानी पर जा पहुंचा था. यह साल 1498 के मई महीने की बीस तारीख़ थी जब डिगामा के जहाज़ ने कालिकट के बंदरगाह को स्पर्श किया. तट की बालू से डिगामा के जलयान के स्पर्श का यह क्षण कंपास, जहाज़ के डेक पर लगी तोपों और ‘हवाओं’ की मदद से भारत में साम्राज्यवाद के आरम्भ का क्षण था. वह समय शुरू हो चुका था जहां यूरोपीय ‘ज्ञान’ की दिलचस्पी क्राइस्ट के मिथकीय ‘किंगडम’ की जगह दुनिया के दूर-दराज के ठेठ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा ज़माने की
हसरतों की ओर घूम गयी थी.
तट से लगते ही वास्को-डि-गामा का पहला काम था कालिकट के राजा जमोरिन से मुलाकात. दोनों में बात किस तरह हुई इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती. क्योंकि दोनों की भाषा बिल्कुल अपरिचित थी. बीच में कोई दुभाषिया ज़रूर रहा होगा. जमोरिन ने आने की वजह पूछी. पुर्तगाली मेहमान ने सीधा जवाब दिया, ‘ईसाइयत और मसालों की खोज में.’ मसालों का व्यापार इस देश की भाषाओं में एक अभूतपूर्व गतिकी को जन्म देने वाली थी.
साम्राज्यवाद मुनाफ़ाखोरी की एक क्रूर व्यापारिक परियोजना थी. सोने-चांदी के सिक्कों के अतिरिक्त हमें मसालों के बदले ‘शब्द’ भी मिलने थे. शब्द जो बाहर से ‘हवाओं’ के साथ आए थे. शब्द जो यहीं रच-बस गए. शब्द जो फिर यहीं के होकर रह गए. साम्राज्यवाद की क्रूर परिघटना में यदि कोई अपने निर्दोष होने का दावा पेश करे तो वह शर्तिया राजे-रजवाड़े न होंगे, देश न होंगे, वो वणिक-व्यापारी भी न होंगे, वो ज्ञान का व्यापार करने वाले शिष्ट-कुलीन भी न होंगे. इस पूरे अमानवीय घटनाक्रम में निर्दोष केवल शब्द थे. बाकी सबकि कुछ न कुछ भूमिका थी.
पुर्तगालियों के भारतीय राजाओं से ख़ूब लड़ाई-झगड़े हुए. धर्म-प्रचार की सनक में उनके अत्याचारों के पर्याप्त दस्तावेज मौजूद हैं. वह डचों से हारे और अंततः एकाध जगह को छोड़कर अंग्रेज़ों द्वारा पूरी तरह पीछे धकेल दिए गए. किंतु, मानव से मानव के सम्पर्क के रूप में शब्दों के अवशेष पीछे छूटते गए. क्या हमें पता है कि पुर्तगाली भाषा के वह अवशेष कौन से हैं जिन्हें हिंदी ने अंगीकृत कर लिया और किसी को इस अंगीकरण का शोर भी सुनाई न दिया. हालांकि पुर्तगाली भारत के जिस इलाक़े में हावी रहे वह हिंदी/हिंदुस्तानी भाषा का क्षेत्र नहीं था किंतु उस भाषा के अनगिनत शब्द टहल-घूमते उत्तर भारत तक पहुंच गए.
पुर्तगाली शब्द बल्दे से ‘बल्दी’ होती हुई जो चीज़ आज हमारे बाथरूम में पहुंची है उसे हम बाल्टी कहते है. जो ‘सबाओ’ है वो बाथरूम का साबुन है. ‘तोल्लहा’ बाथरूम की तौलिया है. जो पुर्तगाली भाषा में ‘चावे’ थी वही आज हमारे घर या कमरे की ‘चाभी’ है. ‘अलमारिओ’ घर की अलमारी बन गई है. ‘कमीसा’ आज क़मीज़ है. ‘फिता’ जूते का फ़ीता है और ‘मेअस’ उसका ‘मोज़ा’ है. दंत्य के सम्पर्क में आकर ‘तबाको’ प्रेमचंद की ‘पूस की रात’ के किसान के लिए तमाखू हो गया है.
पुर्तगाली का ‘कदजू’ हमारी सांध्य-महफ़िलों का काजू है. क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि घर के भीतर हमारे दैनिक जीवन के हिस्सेदार शब्दों में अनगिनत पुर्तगाली मूल के हैं. ‘बोटेल्हा’ को हम बोतल कहते हैं. ‘कमारा’ कमरा है तो ‘मेसा’ उस कमरे में पड़ने वाली मेज़ है. कमरे के पीछे बनाया जाने वाला ‘गुदानो’ गोदाम बन गया. ‘लोबादा’ ओढ़े जाने वाला लबादा है. ‘अल्फिनेते’ काग़ज़ की आलपिन है. ‘पिस्तोल’ हमारी पिस्तौल है. ‘पाव’, जिसे हम भाजी के साथ खाते हैं, पुर्तगीज शब्द है. उनका ‘सिंतरा’ हमारा संतरा है. चाय और कॉफ़ी भी पुर्तगाली शब्द हैं और उनके साथ रोज़ सुबह चटकाए जाने वाला ‘बिसकोइतो’ हमारा बिस्कुट है.
पुर्तगालियों के बाद डच और फ़्रांसीसी भारत में साम्राज्यवाद के अगले हरकारे थे. दरअसल इस लड़ाई में अंग्रेज़ों के दाख़िल होने से पहले डच ही उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी थे. 1618 में मुग़लों से व्यापार का फ़रमान हासिल करके 1664 तक वह पुर्तगालियों से उनका गढ़ कोचीन छीन चुके थे. व्यापार के लिए डचों और फ़्रांसीसियों दोनों ने भारतीय भाषाएं सीखीं. पुर्तगालियों के विपरीत डच विशुद्ध व्यापारी थे. उन्हें धर्म-प्रचार में कोई दिलचस्पी नहीं थी. पुर्तगालियों की बनिस्बत देशी सौदागरों से डचों के रिश्ते काफ़ी मधुर थे. केटलर नाम के एक डच द्वारा डच भाषा में एक व्याकरण लिखने की जानकारी मिलती है. एक अन्य डच रेजर बार्नार्ड द्वारा भर्तृहरि के कई छंदों का डच में अनुवाद किए जाने का भी ज़िक्र मिलता है.
फ़्रांसीसियों ने दुभाषियों का ख़ूब इस्तेमाल किया. फ़्रांसीसी गवर्नर डूप्ले का एक विश्वस्त दुभाषिया एक तमिल हिंदू आनंद रंगा पिल्लई था. पिल्लई तमिल में लिखता था, फ़्रांसीसी बोलता था और तेलुगु तथा मलयालम में लिखे पत्रों का अनुवाद करता था. वह फ़ारसी समझता था किंतु उसे पढ़ नहीं सकता था किंतु वह हिंदुस्तानी धारा प्रवाह बोलता था. (पेज-234, भारत में लोग और विदेशी भाषाएं, श्रीश चौधरी, राजकमल, 2018)
पुर्तगाली भाषा के विपरीत, मोटे तौर पर डच और फ़्रांसीसी भाषा से हिन्दी में बहुत कम शब्द आए. उसका कारण यह था कि पुर्तगाली सबसे पहले हिंदुस्तान पहुंचे थे और उन्होंने स्थानीय भाषाओं से अंतर्क्रिया के ज़रिए मिली-जुली देशज पुर्तगाली भाषा का निर्माण कर दिया था. डच और फ़्रांसीसियों ने बाद में देशी सौदागरों से बातचीत में अपनी भाषा पर ज़ोर देने की बजाय उसी भाषा का इस्तेमाल किया.
इस शुरुआती चरण में समुद्र के मार्फ़त क़ायम हुए साम्राज्यवाद में राजनीति के बरक़्स आर्थिक मुनाफ़ा कमाने की इच्छा अधिक थी. दिलचस्प बात यह भी है कि खुद पुर्तगाली भी इस देश की देशज भाषाओं से प्रभावित हो रही थी. यह शब्दों का दो-तरफ़ा यातायात था. अलेक्ज़ेंडर हैमिल्टन ने 1727 में लिखा- ‘समुद्र तट पर पुर्तगालियों की भाषा सर्वत्र दिखती है. यद्यपि वह बहुत विकृत है, पर अधिकतर यूरोपियन भारतीयों से बातचीत करने में इसी का इस्तेमाल करते हैं.’
यह अंग्रेज लोग थे जिन्होंने भारतीय और विशेषकर हिंदी/हिंदुस्तानी भाषा के साथ साम्राज्यवाद के सबसे उलझन भरे रिश्तों का निर्माण किया. उसकी वजह यह थी कि उनके पूर्व के प्रतिस्पर्धी उत्तर भारत के उन स्थलों की ओर बढ़ने में नाकामयाब रहे जहां से भारत की केन्द्रीय सत्ता को वैधता हासिल होती थी. उस उत्तर भारत में लगभग अवसान काल तक मुग़लों की हुकूमत बनी रही थी. भाषा की साम्राज्यवादी राजनीति की उठापटक उपनिवेशवाद की बुनियादी ज़रूरतों से शुरू हुई थी और कलकत्ता का फ़ोर्ट विलियम कॉलेज इसी ज़रूरत को भरने का परिणाम था.
ब्रिटिश प्रशासन में डिप्टी सेक्रेटरी और औपनिवेशिक इतिहास के जाने माने शिक्षक पर्सीवल स्पीयर की किताब ‘द नवाब्स: ए स्टडी ऑफ द सोशल लाइफ ऑफ द इंगलिश इन एटीन सेंचुरी इंडिया’ में एक बड़ा दिलचस्प विवरण मिलता है जिसमें ज़िलों में नियुक्त कलक्टरों और पुलिस के कप्तानों की दिनचर्या पर रोशनी पड़ती है. जिले में काम करने वाले अधिकारी के लिए सुबह उठते ही एक से दो घण्टे की घुड़सवारी अनिवार्य थी. सुबह के नाश्ते में घी/तेल को छोड़कर एक पौष्टिक ब्रेकफास्ट करने के बाद उसे एक घण्टे के लिए हिंदी अथवा उस इलाक़े की भाषा को सीखना अनिवार्य था. शाम को सूर्यास्त के बाद रेड वाइन के साथ फिर से भाषा की दो घण्टे की पढ़ाई ज़रूरी होती थी.
कुछेक नौकरशाह, जो बौद्धिक और ऑरीएंटलिज्म के प्रचलित ट्रेंड के असर में भारत को पूरब की सभ्यता का नुमाइंदा मानकर उसके इतिहास और संस्कृति को खोजने के लिए लालायित थे, बाक़ी बचे ‘विशुद्ध नौकरशाहों’ के लिए देशज भाषा और उसके शब्दों का ज्ञान प्रशासन चलाने की व्यावहारिक जरूरत और अंततः इस देश की सम्पदा को लूटने लिए ज़रूरी था.
साम्राज्यवाद का ब्लैक होल शब्दों को किस तरह अपने आयाम में खींच लेता था इसकी बानगी विलियम डेलरिम्पल की हालिया आयी किताब ‘द एनार्की’ से पता चलता है. डेलरिंपल किताब के ‘इंट्रोडक्शन’ में इस बात की जानकारी देते हैं कि हिंदुस्तानी भाषा का अंग्रेज़ी भाषा की डिक्शनरी में सबसे पहले शामिल होने वाला शब्द ‘लूट’ था. अंग्रेज़ों की डिक्शनरी में शामिल होने से पहले अठारहवीं सदी तक उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र के सिवा यह शब्द कहीं अन्यत्र नहीं सुना गया था.
सांस्कृतिक आकांक्षाओं के चलते हिंदी अथवा देशज भाषाओं के उद्धार और परिष्कार की सोच दरअसल इसी ‘संरक्षक’ साम्राज्यवाद की संरचना के भीतर ‘लूट’ की महत्वाकांक्षाओं के नैतिक प्रति-संतुलन की भूमिका निभाती थी. साम्राज्यवाद के ‘सुसंस्कृत’ नौकरशाह वस्तुतः साम्राज्यवाद के खूसटता के आंशिक प्रतिपक्ष थे. साम्राज्यवाद की खुल्लम खुल्ला ‘लूट’ के बीच में उत्तर भारत की मौखिक परंपरा में गाए जाने वाले जगनिक रचित आल्हा को अल्हैतों की मदद से 1865 में लिखित पाठ में तब्दील कराने वाले शख़्स फ़र्रुख़ाबाद के कलक्टर चार्ल्ज़ इलियट थे.
बिहार की बरियाही कोठी के मैनेजर ‘जॉन साहेब’ किसी परमहंस गोस्वामी के चमत्कार से अभिभूत होकर न केवल वैष्णव भक्त बन गए बल्कि भजन भी लिखने लगे. बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी की किताब ‘हिंदी के यूरोपीय विद्वान’ में उनका लिखा एक पद उद्धृत किया गया है-
झूलत जानकी राम हिलोरा, झूलत जानकी राम
रेशम डोर पाट चंदन के, कंचन खम्भ समान.
तासी के हिंदुस्तानी भाषा के इतिहास से सूचना मिलती है कि राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल जेम्स टॉड ने पृथ्वीराज रासो के बड़े हिस्से का अनुवाद किया था जो उनकी असमय मृत्यु के कारण पूरा नहीं हो सका.
19वीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पहले दो दशकों के बीच ऐसे अंग्रेज नौकरशाहों और भाषाविदों की पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो हिंदी/हिंदुस्तानी भाषा पर अपने-अपने दृष्टिकोण के साथ भाषा के इतिहास, देशज साहित्य के अनुवाद में लगी थी. ब्राइन हटन हॉग्सन, डॉक्टर मोनियर विलियम, इंडियन सिविल सर्विस के जॉन बीम्स, मुंडा बोलियों पर काम करने वाले और उसके संस्कृत से सम्बन्धों पर काम करने वाले जॉन ब्लॉख और आख़िर में हिंदी भाषा के इतिहास के चर्चित लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन थे.
अधिकारियों को देशज भाषाओं के प्रशिक्षण और सरकार को भाषा सम्बंधी विषयों पर मशविरा देने के लिए कलकत्ता में गवर्नर वेलेजली ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की नींव डाली और डॉक्टर जॉन गिलक्रिस्ट को उसका पहला हेड बनाया. साम्राज्यवादियों की किसी भी पीढ़ी में वह ‘हिंदुस्तानी’ के पहले प्रोफ़ेसर और अपने सहकर्मियों के बीच में इस भाषा के असाधारण विद्वान माने जाते थे. उन्होंने ‘हिंदुस्तानी’ का न केवल पहला व्याकरण बल्कि एक विस्तृत शब्दकोश तैयार किया.
इस सबके बाबजूद गिलक्रिस्ट जिस एक समस्या से रूबरू थे वह ‘हिंदुस्तानी’ के कलेवर को लेकर थी. वस्तुतः वह उर्दू की तरफ़ झुकी हुई ‘हिंदुस्तानी’ को प्रस्तावित कर रहे थे. हालांकि ऐसा माना जाता है कि डॉक्टर गिलक्रिस्ट की प्रेरणा से ही लल्लू लाल और सदल मिश्र ने आधुनिक हिंदी खड़ी बोली गद्य की रचनाएं लिखी थीं. ख़ैर, एक भाषा के रूप में ‘हिंदुस्तानी’ भाषा की शक्ल-सूरत का विवाद ऐसा था जिसे आगे चलकर साम्राज्यवाद द्वारा प्रायोजित विभाजन की राजनीति में ज़बर्दस्त तरीक़े से इस्तेमाल होना था.
डॉ. गिलक्रिस्ट के बाद कई अंग्रेज शिक्षाविदों और नौकरशाहों द्वारा ‘हिंदुस्तानी’ भाषा पर काम करना जारी रहा. प्राच्यविद हेनरी टॉमस कोलब्रुक (1765-1834) ने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना में मदद की तो उन्हीं के सहयोगी कैप्टन रोबैक ने ‘इंग्लिश-हिंदुस्तानी डिक्शनरी’ तैयार की. इन सबके बीच में गार्सां द तासी नाम के एक फ़्रांसीसी विद्वान भी थे. तासी को भाषाएं जानने का शौक़ था. उन्होंने पेरिस में रहकर ही हिंदुस्तानी साहित्य का ज़बर्दस्त ज्ञान हासिल कर लिया था. वह उर्दू भाषा के बड़े क़ायल थे. उनका लिखा हुआ हिंदुस्तानी भाषा का इतिहास ‘इस्त्वार दल लितिरेत्यूर एंदुई ए हिन्दुस्तानी’ नाम से 1839 में प्रकाशित हुआ.
आज जिस हिंदी को हम बोलते समझते हैं, वह इस देश की समाहार चेतना का सबसे जीवंत अभिलेख है. उसके वर्तमान स्वरूप तक आने में न जाने किन-किन भाषाओं और भाषाविदों का सहयोग रहा है. भाषा संबंधी सूचनाओं, सर्वेक्षणों का इस्तेमाल उपनिवेशवादी सत्ता संरचना ने अपने मक़सद के लिए किया लेकिन हिंदी ने कभी किसी से दुराव नहीं किया. जो आता गया, उसमें समाता गया. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की विभाजनकारी प्रवृत्तियों ने उसके आधार पर हिंदी प्रांतों के विशाल समाज को बांटने की चालें अवश्य चलीं, कभी कभी इन चालों ने झंझावात भी पैदा किए, किंतु ऊपर चलने वाली राजनीतिक चालों से निस्पृह रहकर वह धरातल पर अपने वेग से बहती रही.
इसका कारण भारत की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियां थीं. यहां पश्चिम की तरह विशुद्ध भाषाई आधारों पर राजनीतिक चेतना का निर्माण नहीं हुआ था, जिसकी मिसालें बेनीडिक्ट एंडरसन की क्लासिक रचना ‘इमैजिंड कम्यूनिटीज़: रेफलेक्शन ऑन द ऑरिजिन एंड स्प्रेड ऑफ़ नेशनलिज्म’ में मिलता है.
यहां एक विराट पेड़ की टहनियों की तरह भाषाओं की टहनियां एक दूसरे में अंतर्शाखित थीं. किसी ने किसी को कुछ दिया तो बदले में उससे कुछ ले भी लिया. सब भाषाएं एक साथ ही ऋणदाता भी थीं और एक दूसरे की क़र्ज़दार भी. हिंदी-उर्दू को लेकर डॉक्टर रामविलास शर्मा ने अपनी किताब ‘भाषा और समाज’ में जो निष्कर्ष पेश किया, इस देश में भाषाओं की पारस्परिक सामाजिक अंतर्निर्भरता पर उससे बेहतर निष्कर्ष शायद ही दिया जा सके. उनका मानना था कि एक दूसरे की लिपियों में रचनाओं के छपने से न केवल कई भ्रम दूर होंगे बल्कि ‘एक साहित्यिक रूप’ के विकसित होने की सम्भावनाएं भी बढ़ेंगी.
आज हम जो बोल रहे हैं, न जाने हमें कहां-कहां से मिला है? भाषा के संसार में किसी एक का कुछ नहीं है. सभी कुछ सबका है. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘अशोक के फूल’ में जो यह बात कही गयी थी कि ‘हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है. देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है. सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्द है. शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा’. यह बात यदि मानव-निर्मित किसी भी विरासत पर सांगोपांग लागू होती है तो वह भाषा की विरासत है. भाषा की मिलावटें खाद्य पदार्थों की विषाक्त मिलावटों जैसी नहीं होतीं. वो सुंदर और सौम्य मिलावटें होती हैं. हिंदी समाहार के सौंदर्य की ऐसी ही सौम्य भाषाई विरासत है.
(लेखक उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अभिव्यक्त किए गए विचार सर्वथा निजी हैं)
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