20 हजार आदिवासियों को झारखंड की हेमंत सरकार अपना एक साल पूरा होने पर वन पट्टा देने की तैयारी कर रही है. लेकिन क्या आदिवासी समाज से किए वादे के मुताबिक पर्याप्त होगा?
झारखंड की पिछली सरकार (भाजपा) के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 17 जून 2016 को एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि अगस्त 2016 तक राज्य में लगभग साढ़े तीन लाख आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) व अन्य परंपरागत वन निवासियों के बीच वन पट्टा के वितरण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.
इधर वन-अधिकार के मुद्दे को 2019 विधानसभा चुनाव के दौरान झारखंड की मौजूदा सरकार (यूपीए, झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस) ने अपने घोषणा पत्रों में प्रमुखता से उठाया था और कई चुनावी भाषणों में आदिवासियों व अन्य परंपरागत वन निवासियों को ज्यादा से ज्यादा वन पट्टा देने की बात कही.
ऐसे ही दर्जनों बार वादा और घोषणा वन-अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के लागू होने के बाद राज्य में होता रहा है. लेकिन इस मुद्दे पर इन वर्षों के दौरान सियासी दावों और वादों के अलावा बहुत कुछ होता नहीं दिखा. जिस जल, जंगल, जमीन को लेकर आदिवासियों ने संघर्ष किया उन्हें अलग राज्य तो मिला, मगर उनकी जमीन पर मालिकाना हक के तौर वन पट्टा नहीं मिला, जिस पर वे अपनी कई पीढ़ियों से आजीविका चलाते आ रहे हैं.
नवंबर 2019 में कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स-लर्रिंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) की जारी अध्यन रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड की 81 विधानसभा सीट में 62 ऐसी सीट हैं जिसके 77 प्रतिशत वोटर वन-अधिकार कानून के लाभार्थी हैं. इस अध्यन के मुताबिक इन सीटों पर 73 लाख 66 हजार 234 वोटर हैं जो वन अधिकार कानून के तहत आते हैं. जबकि 18 लाख 63 हजार 737 हेक्टेयर (4605394.423 एकड़) वैसी वन भूमि है जिसपर वन-अधिकार कानून का दावा बनता है. लेकिन 15 नवंबर को राज्य के गठन को हुए 20 साल बाद भी यहां एक लाख लोगों को भी वन पट्टा नहीं मिल पाया.
सड़क से सदन तक जंगलों से बेदखली वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन दर्ज कराने वाली झामुमो और कांग्रेस की सरकार इसी साल 29 दिसंबर को अपना एक साल पूरा करने वाली है.
समाजिक कार्यकर्ता व ‘वन-अधिकार’ पर कई किताब लिख चुके ग्लैडसन डुंगडुंग मानते हैं कि वन-अधिकार के मुद्दे पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दिए गए भाषणों में विजन तो नजर आया, लेकिन एक्शन नहीं दिखा. वादों के मुताबिक कह सकते हैं कि निराशा ही मिली है. ग्लैडसन इसके लिए झारखंड की पिछली सरकार से लेकर मौजूदा सरकार तक को जिम्मेदार ठहराते हैं. वो कहते, “ये राज्य के लिए बड़ी ही शर्म की बात है. झारखंड बने 20 साल हो गए, लेकिन एक लाख लोगों को भी वन पट्टा नहीं मिला. आप देखिए, पिछले दस साल में पूर्ण रूप से इस राज्य में कॉरपोरेट को बढावा दिया गया है. लैंड बैंक का बनना, सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की कोशिश और ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन, ये सब उसकी कड़ी हैं.
ग्लैडसन अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ में 2011 की जनगणना को आधार बताते हुए लिखते हैं कि झारखंड में 86 लाख आदिवासियों की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जंगलों पर आश्रित है. उनका मानना है कि झारखंड में करीबन दस लाख ऐसे आदिवासी परिवार हैं जो वन-अधिकार कानून के तहत वन पट्टा के लाभार्थी हैं. 2011 की जनगणना की माने तो झारखंड में आदिवासियों की संख्या 26-27 प्रतिशत है, जो कि इधर बीते दस सालों में बढ़ी है. वहीं सूबे में जंगल का प्रतिशत भी बढ़ा है. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया 2017-19 की रिपोर्ट में झारखंड में 0.25 प्रतिशत जंगलों का प्रतिशत 2015-17 की तुलना में बढ़ा है. हालिया रिपोर्ट के अनुसार झारखंड का भौगोलिक क्षेत्र 79716 वर्ग किमी है, जिसमें वन क्षेत्र 23611.41 वर्ग किमी है और कुल क्षेत्रफल का 29.62 प्रतिशत राज्य में जंगल है.
खबरों के मुताबिक वन पट्टा के लिए जो नये दावे विभाग के पास आए हैं उसमें से 20 हजार आदिवासियों को झारखंड की हेमंत सरकार अपना एक साल पूरा होने पर वन पट्टा देने की तैयारी कर रही है. लेकिन क्या आदिवासी समाज से किए वादे के मुताबिक पर्याप्त होगा?
इसके जवाब में ‘झारखंड वन अधिकार मंच’ के संयोजक सुधीर पाल कहते हैं, “शायद एक साल के उपल्क्षय में 20 हजार लोगों को वन पट्टा देने की तैयारी कर रही है सरकार. लेकिन मैं मानता हूं कि अगर ऐसा होता भी है तो जहां लाखों परिवार जंगलों पर निर्भर हैं वहां 20 ऊंट के मुंह में जीरा है. मोटे तौर पर अगर देखें तो एफआरए कानून 2006 में आया और लागू होते-होते 2008 हो गया. यानी अब तक 12 साल हो गए. इस दौरान सभी दलों की यहां सरकार रही है लेकिन कोई भी सरकार इस मुद्दे पर ईमानदार नहीं रही.
वो आगे कहते हैं, “हम लोगों के (झारखंड वन अधिकार मंच) सर्वे के मुताबिक झारखंड के 14 हजार गांव ऐसे हैं जहां एफआरए के तहत लोगों का क्लेम (दावा) बनता है. संख्या अगर ईमानदारी से देखी जाए तो सिर्फ एसटी, एससी को मिला लेंगे तो यह 50 लाख हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतनी बड़ी आबादी में से 60 हजार ही लोगों को वन पट्टा मिला. झारखंड जैसे ट्राइबल स्टेट में, जहां ट्राइबल का जीवन जंगलों पर निर्भर है. जंगल उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत है. जहां सर्वे रिपोर्ट कहती है कि 40 प्रतिशत इनकी आजीविका का स्त्रोत जंगल है. जिनका 12 महीने में लगभग सात महीना जंगलों के बिना काम नहीं चल सकता है... वहां की हालत बेहद दुखद है.”
वन अधिकार कानून के तहत झारखंड में जितने पट्टे का वितरण हुआ है उसका आंकड़ा इस प्रकार है, “अप्रैल 2018 तक झारखंड सरकार की ओर से केंद्र सरकार को दिए गए जानकारी के मुताबिक फॉरेस्ट राइट एक्ट के तहत विभाग को एक लाख नौ हजार 30 (105363 व्यक्तिगत, 3667 समुदायिक) वन पट्टा के आवेदन प्राप्त हुए हैं. 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश के विभिन्न राज्यों के जिन 12 लाख आदिवासियों व अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन पट्टा के दावे को कथित तौर पर अवैध मानते हुए रद्द कर किया गया, उसमें झारखंड के तकरीबन 28 हजार आवेदन रद्द हुए थे. शेष आवेदनों पर झारखंड अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा समाज कल्याण विभाग की माने तो दिसंबर 2019 तक करीबन 61 हजार ही लोगों को वन अधिकार कानून के तहत वन पट्टा दिया गया है.”
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की बेदखली वाले आदेश के बाद भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुए जिसे देखते हुए केंद्र सरकार ने कोर्ट में दखल दिया. इसके बाद कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाते हुए सभी राज्यों को रद्द किए गए दावों की समीक्षा कर फिर से रिपोर्ट दाखिल करने को कहा. इसी साल (2020) 24 फरवरी को कई राज्यों ने भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय को अपनी समीक्षा रिपोर्ट की जानकारी दी है, जिसमें पांच लाख 43 हजार 432 दावे की समीक्षा के बाद रद्द कर दिया है. इन राज्यों में झारखंड शामिल नहीं था.
इस पूरे मामले पर झारखंड कल्याण विभाग के अधिकारी रवि रंजन कुमार का कहना है, “लॉकडाउन में बहुत अधिक काम नहीं हो पाया. हम लोगों ने सभी जिलों के डीसी से इस पर अपडेट करके रिपोर्ट मांगी है. जिलावार जितने क्लेम (दावा) रद्द हुए हैं वो भी, जनरेट हुए नये क्लेम और पेंडिंग वाले क्लेम भी. सबका रिव्यू करना है. इसके बाद आखिरी में एक बैठक होगी, जिसमें क्लियर फिगर मिल जानी चाहिए. इसी फिगर को हम लोग कम्पाइल करके रिपोर्ट करेंगे. इसके बाद ही पता चल पाएगा.”
यह विडंबना ही है कि खनिज सम्पदा से लैस झारखंड की गितनी पिछड़े राज्य में होती है. नीति आयोग 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य का हर दूसरा आदिवासी और हर पांच में दो अनुसूचित जाति के लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. जबकि राज्य की गरीबी की दर 39.1 (बीपीएल) राष्ट्रीय दर 29.8 से कहीं अधिक है.
वन-अधिकार कानून के जानकारों का मानना है कि अगर राज्य में वन-अधिकार कानून का सही क्रियान्वयन हुआ होता तो राज्य के आदिवासियों का पिछड़ापन बहुत हद तक दूर हुआ होता. ऑक्सफैम 2018 की रिपोर्ट कहती है कि झारखंड में वन-अधिकार कानून के कियन्वायन की स्थिति सबसे खराब है.
राज्य में एफआरए कानून का सही ढंग से लागू नहीं किया जाना भी एक बड़ी समस्या है. ग्लैडसन डुंगडुंग अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ का हवाला देते हुए कहते हैं, “सरकार ने यहां वन-अधिकार कानून के तहत मिलने अधिकारों का ग्रमीणों के बीच वैसा प्रचार प्रसार नहीं किया जैसा होना चाहिए था. और यहां अगर कानून सही से क्रिन्याविन्त नहीं हुआ तो उसके लिए संबंधित अधिकारी भी जिम्मेदार हैं. वन-अधिकार का दावा तैयार करने में ग्रामसभा सभा का अहम रोल रहता है. और यहां ग्रामसभा को कमजोर किया गया है. मैंने अपने अध्यन में पाया है कि जब ग्रामसभा से दावा सत्यापित होकर ब्लॉक स्तर पर पहुंचा तो वहां से उस दावे की फाइल गायब कर दी गई. ऐसे कई उदाहरणों को मैने तथ्यों के साथ अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ में रेखांकित किया है.
झारखंड वन अधिकार के संयोजक सुधीर पाल का भी यही मानना है. वो कहते हैं, “राज्य में एफआरए कानून का ईमानदारी से पालन अबतक नहीं हो रहा है. क्योंकि इस कानून के तहत जिस ग्राम सभा को निर्णय लेना है, जो इस कानून के तहत निर्णय लेने के लिए सर्वोपरि है, उसका ब्योक्रेसी के द्वारा कोई रेस्पेक्ट नहीं किया जा रहा है. अब जिन्हें वन पट्टा दिया गया उनमें से बहुत सारे लोगों को ग्राम सभा के अनुसंशा को नजरअंदाज कर तीन से चार डिसमिल ही देकर निपटा दिया गया.”
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Contributeझारखंड की पिछली सरकार (भाजपा) के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 17 जून 2016 को एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि अगस्त 2016 तक राज्य में लगभग साढ़े तीन लाख आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) व अन्य परंपरागत वन निवासियों के बीच वन पट्टा के वितरण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.
इधर वन-अधिकार के मुद्दे को 2019 विधानसभा चुनाव के दौरान झारखंड की मौजूदा सरकार (यूपीए, झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस) ने अपने घोषणा पत्रों में प्रमुखता से उठाया था और कई चुनावी भाषणों में आदिवासियों व अन्य परंपरागत वन निवासियों को ज्यादा से ज्यादा वन पट्टा देने की बात कही.
ऐसे ही दर्जनों बार वादा और घोषणा वन-अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के लागू होने के बाद राज्य में होता रहा है. लेकिन इस मुद्दे पर इन वर्षों के दौरान सियासी दावों और वादों के अलावा बहुत कुछ होता नहीं दिखा. जिस जल, जंगल, जमीन को लेकर आदिवासियों ने संघर्ष किया उन्हें अलग राज्य तो मिला, मगर उनकी जमीन पर मालिकाना हक के तौर वन पट्टा नहीं मिला, जिस पर वे अपनी कई पीढ़ियों से आजीविका चलाते आ रहे हैं.
नवंबर 2019 में कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स-लर्रिंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) की जारी अध्यन रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड की 81 विधानसभा सीट में 62 ऐसी सीट हैं जिसके 77 प्रतिशत वोटर वन-अधिकार कानून के लाभार्थी हैं. इस अध्यन के मुताबिक इन सीटों पर 73 लाख 66 हजार 234 वोटर हैं जो वन अधिकार कानून के तहत आते हैं. जबकि 18 लाख 63 हजार 737 हेक्टेयर (4605394.423 एकड़) वैसी वन भूमि है जिसपर वन-अधिकार कानून का दावा बनता है. लेकिन 15 नवंबर को राज्य के गठन को हुए 20 साल बाद भी यहां एक लाख लोगों को भी वन पट्टा नहीं मिल पाया.
सड़क से सदन तक जंगलों से बेदखली वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन दर्ज कराने वाली झामुमो और कांग्रेस की सरकार इसी साल 29 दिसंबर को अपना एक साल पूरा करने वाली है.
समाजिक कार्यकर्ता व ‘वन-अधिकार’ पर कई किताब लिख चुके ग्लैडसन डुंगडुंग मानते हैं कि वन-अधिकार के मुद्दे पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के दिए गए भाषणों में विजन तो नजर आया, लेकिन एक्शन नहीं दिखा. वादों के मुताबिक कह सकते हैं कि निराशा ही मिली है. ग्लैडसन इसके लिए झारखंड की पिछली सरकार से लेकर मौजूदा सरकार तक को जिम्मेदार ठहराते हैं. वो कहते, “ये राज्य के लिए बड़ी ही शर्म की बात है. झारखंड बने 20 साल हो गए, लेकिन एक लाख लोगों को भी वन पट्टा नहीं मिला. आप देखिए, पिछले दस साल में पूर्ण रूप से इस राज्य में कॉरपोरेट को बढावा दिया गया है. लैंड बैंक का बनना, सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की कोशिश और ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन, ये सब उसकी कड़ी हैं.
ग्लैडसन अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ में 2011 की जनगणना को आधार बताते हुए लिखते हैं कि झारखंड में 86 लाख आदिवासियों की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जंगलों पर आश्रित है. उनका मानना है कि झारखंड में करीबन दस लाख ऐसे आदिवासी परिवार हैं जो वन-अधिकार कानून के तहत वन पट्टा के लाभार्थी हैं. 2011 की जनगणना की माने तो झारखंड में आदिवासियों की संख्या 26-27 प्रतिशत है, जो कि इधर बीते दस सालों में बढ़ी है. वहीं सूबे में जंगल का प्रतिशत भी बढ़ा है. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया 2017-19 की रिपोर्ट में झारखंड में 0.25 प्रतिशत जंगलों का प्रतिशत 2015-17 की तुलना में बढ़ा है. हालिया रिपोर्ट के अनुसार झारखंड का भौगोलिक क्षेत्र 79716 वर्ग किमी है, जिसमें वन क्षेत्र 23611.41 वर्ग किमी है और कुल क्षेत्रफल का 29.62 प्रतिशत राज्य में जंगल है.
खबरों के मुताबिक वन पट्टा के लिए जो नये दावे विभाग के पास आए हैं उसमें से 20 हजार आदिवासियों को झारखंड की हेमंत सरकार अपना एक साल पूरा होने पर वन पट्टा देने की तैयारी कर रही है. लेकिन क्या आदिवासी समाज से किए वादे के मुताबिक पर्याप्त होगा?
इसके जवाब में ‘झारखंड वन अधिकार मंच’ के संयोजक सुधीर पाल कहते हैं, “शायद एक साल के उपल्क्षय में 20 हजार लोगों को वन पट्टा देने की तैयारी कर रही है सरकार. लेकिन मैं मानता हूं कि अगर ऐसा होता भी है तो जहां लाखों परिवार जंगलों पर निर्भर हैं वहां 20 ऊंट के मुंह में जीरा है. मोटे तौर पर अगर देखें तो एफआरए कानून 2006 में आया और लागू होते-होते 2008 हो गया. यानी अब तक 12 साल हो गए. इस दौरान सभी दलों की यहां सरकार रही है लेकिन कोई भी सरकार इस मुद्दे पर ईमानदार नहीं रही.
वो आगे कहते हैं, “हम लोगों के (झारखंड वन अधिकार मंच) सर्वे के मुताबिक झारखंड के 14 हजार गांव ऐसे हैं जहां एफआरए के तहत लोगों का क्लेम (दावा) बनता है. संख्या अगर ईमानदारी से देखी जाए तो सिर्फ एसटी, एससी को मिला लेंगे तो यह 50 लाख हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतनी बड़ी आबादी में से 60 हजार ही लोगों को वन पट्टा मिला. झारखंड जैसे ट्राइबल स्टेट में, जहां ट्राइबल का जीवन जंगलों पर निर्भर है. जंगल उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत है. जहां सर्वे रिपोर्ट कहती है कि 40 प्रतिशत इनकी आजीविका का स्त्रोत जंगल है. जिनका 12 महीने में लगभग सात महीना जंगलों के बिना काम नहीं चल सकता है... वहां की हालत बेहद दुखद है.”
वन अधिकार कानून के तहत झारखंड में जितने पट्टे का वितरण हुआ है उसका आंकड़ा इस प्रकार है, “अप्रैल 2018 तक झारखंड सरकार की ओर से केंद्र सरकार को दिए गए जानकारी के मुताबिक फॉरेस्ट राइट एक्ट के तहत विभाग को एक लाख नौ हजार 30 (105363 व्यक्तिगत, 3667 समुदायिक) वन पट्टा के आवेदन प्राप्त हुए हैं. 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश के विभिन्न राज्यों के जिन 12 लाख आदिवासियों व अन्य परंपरागत वन निवासियों के वन पट्टा के दावे को कथित तौर पर अवैध मानते हुए रद्द कर किया गया, उसमें झारखंड के तकरीबन 28 हजार आवेदन रद्द हुए थे. शेष आवेदनों पर झारखंड अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा समाज कल्याण विभाग की माने तो दिसंबर 2019 तक करीबन 61 हजार ही लोगों को वन अधिकार कानून के तहत वन पट्टा दिया गया है.”
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की बेदखली वाले आदेश के बाद भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुए जिसे देखते हुए केंद्र सरकार ने कोर्ट में दखल दिया. इसके बाद कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाते हुए सभी राज्यों को रद्द किए गए दावों की समीक्षा कर फिर से रिपोर्ट दाखिल करने को कहा. इसी साल (2020) 24 फरवरी को कई राज्यों ने भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय को अपनी समीक्षा रिपोर्ट की जानकारी दी है, जिसमें पांच लाख 43 हजार 432 दावे की समीक्षा के बाद रद्द कर दिया है. इन राज्यों में झारखंड शामिल नहीं था.
इस पूरे मामले पर झारखंड कल्याण विभाग के अधिकारी रवि रंजन कुमार का कहना है, “लॉकडाउन में बहुत अधिक काम नहीं हो पाया. हम लोगों ने सभी जिलों के डीसी से इस पर अपडेट करके रिपोर्ट मांगी है. जिलावार जितने क्लेम (दावा) रद्द हुए हैं वो भी, जनरेट हुए नये क्लेम और पेंडिंग वाले क्लेम भी. सबका रिव्यू करना है. इसके बाद आखिरी में एक बैठक होगी, जिसमें क्लियर फिगर मिल जानी चाहिए. इसी फिगर को हम लोग कम्पाइल करके रिपोर्ट करेंगे. इसके बाद ही पता चल पाएगा.”
यह विडंबना ही है कि खनिज सम्पदा से लैस झारखंड की गितनी पिछड़े राज्य में होती है. नीति आयोग 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य का हर दूसरा आदिवासी और हर पांच में दो अनुसूचित जाति के लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. जबकि राज्य की गरीबी की दर 39.1 (बीपीएल) राष्ट्रीय दर 29.8 से कहीं अधिक है.
वन-अधिकार कानून के जानकारों का मानना है कि अगर राज्य में वन-अधिकार कानून का सही क्रियान्वयन हुआ होता तो राज्य के आदिवासियों का पिछड़ापन बहुत हद तक दूर हुआ होता. ऑक्सफैम 2018 की रिपोर्ट कहती है कि झारखंड में वन-अधिकार कानून के कियन्वायन की स्थिति सबसे खराब है.
राज्य में एफआरए कानून का सही ढंग से लागू नहीं किया जाना भी एक बड़ी समस्या है. ग्लैडसन डुंगडुंग अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ का हवाला देते हुए कहते हैं, “सरकार ने यहां वन-अधिकार कानून के तहत मिलने अधिकारों का ग्रमीणों के बीच वैसा प्रचार प्रसार नहीं किया जैसा होना चाहिए था. और यहां अगर कानून सही से क्रिन्याविन्त नहीं हुआ तो उसके लिए संबंधित अधिकारी भी जिम्मेदार हैं. वन-अधिकार का दावा तैयार करने में ग्रामसभा सभा का अहम रोल रहता है. और यहां ग्रामसभा को कमजोर किया गया है. मैंने अपने अध्यन में पाया है कि जब ग्रामसभा से दावा सत्यापित होकर ब्लॉक स्तर पर पहुंचा तो वहां से उस दावे की फाइल गायब कर दी गई. ऐसे कई उदाहरणों को मैने तथ्यों के साथ अपनी किताब ‘आदिवासिस एंड देयर फॉरेस्ट’ में रेखांकित किया है.
झारखंड वन अधिकार के संयोजक सुधीर पाल का भी यही मानना है. वो कहते हैं, “राज्य में एफआरए कानून का ईमानदारी से पालन अबतक नहीं हो रहा है. क्योंकि इस कानून के तहत जिस ग्राम सभा को निर्णय लेना है, जो इस कानून के तहत निर्णय लेने के लिए सर्वोपरि है, उसका ब्योक्रेसी के द्वारा कोई रेस्पेक्ट नहीं किया जा रहा है. अब जिन्हें वन पट्टा दिया गया उनमें से बहुत सारे लोगों को ग्राम सभा के अनुसंशा को नजरअंदाज कर तीन से चार डिसमिल ही देकर निपटा दिया गया.”
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