पुष्कर मेला: इस मेले का बेसब्री से इंतजार करने वाले क्यों हैं उदास

"विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला हमारी आस्था, आजीविका और सामासिक संस्कृति का प्रतीक है. ये हमारे सांझा मूल्यों और परंपराओं की रंग बिरंगी झलक हैं. किन्तु हमारे नीति- निर्माता इस बात को नहीं समझ पाते."

WrittenBy:अश्वनी शर्मा
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विभिन्न संस्कृतियों की आपसदारी

ये मेला साल भर घुमते रहने वाले घुमन्तू व आदिवासी समुदायों का आपस में मिलने, दुख सुख साझा करने व अपने पुरखों के सदियों पुराने ज्ञान को सहेजने उसे नई पीढ़ी से परिचय करवाने का अवसर भी है. सबसे बड़ी बात है कि इस मेले का प्रबन्धन के रूप में यही समुदाय हुआ करते थे, जिनको राजे रजवाड़ों का संरक्षण प्राप्त था.

इस मेले में भाग लेने के लिए छत्तीसगढ़ से दण्डचग्गा जिसे हम यहां नटों के नाम से जानते हैं व बपोरी जिसे हम यहां बंजारे कहते हैं. मध्य-प्रदेश से बड़ी संख्या में भील व बैदु समुदाय, बंगाल से तलवार नट व बंशीधर, झारखंड से तुरी समुदाय, उड़ीसा से ओड़ लोग, गुजरात से रैबारी व बहरूपिये, उत्तर प्रदेश से मनिहारी, बजानिया नट, सपेरा, बिहार से गुवारिया, गाड़िया लुहार, हरियाणा व दिल्ली से कंजर- पेरना, भाट व राजस्थान भर के घुमन्तू समुदाय व आदिवासी लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं. इस मेले से घुमन्तू समुदायों के शादी विवाह तय होते हैं.

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घुमन्तू समुदाय के उत्थान में काम कर रहे, टोंक के कलन्दर नूर महोम्मद का कहना है कि, "पुष्कर में वे अपनो झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्व प्रसिद्ध 'बारहवाली' पंचायत लगाया करते हैं. बारहवाली पंचायत की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इसमें वो सब लोग पंच बन सकते हैं जो तीन ठिये पर भोजन पकाते है. (तीन ईंटों या तीन पत्थरों को रखकर उन पर खाना बनाने वाले समुदाय. सामान्यतः आदिवासी और घुमन्तू समुदाय ही ऐसे जीवन जीते हैं)

अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर

ये मेला हमारे ग्रामीण आजीविका का बैरोमीटर भी है. ग्रामीण आजीविका का मुख्य आधार खेती किसानी है जो बगैर पशुओं के असंभव हैं. यदि राजस्थान, गुजरात समेत उत्तर भारत में किसान आत्महत्या नहीं करते इसका सबसे बड़ा कारण पशुपालन की स्थिति का अच्छा होना है. यदि किसान की फसल अच्छी नहीं भी हुई तो वे पशुओं से अपनी रोजी रोटी चला पाते हैं. ये पशु उनके पोषण की जरूरतों को भी पूरा करते हैं.

ये पशुचारक समुदाय आये दिन अपने पशुओं को नहीं बेचते. ये केवल पशु मेलों पर ही अपने पशुओं को बेचते हैं. नागौर, बालोतरा और पुष्कर जैसे मेले इनके प्रमुख पशु मेले होते हैं. इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण मार्च के महीने से सभी पशु मेले बन्द हैं. अब तो ये अंतिम उम्मीद भी जाती रही.

हिंदुस्तान में ऊंट पालने का काम सभी जतियां करती हैं किंतु उनके ब्रीडिंग करवाने का काम एकमात्र रायका- रैबारी समुदाय के लोग ही करते हैं. इन ऊंटों और गाय- बैल को साल भर दुहने और विभिन्न काम लेने के कारण जब ये पशु कमजोर हो जाते हैं तो किसान लोग अपने इन पशुओं को लेकर मेले में आते हैं, जहां वे इन पशुचारकों को ये ऊंट व गाय बैल इत्यादि पशु दे देते हैं और बदले में हष्ट पुष्ट पशु लेते हैं, साथ मे कुछ पैसा भी देते हैं. पशुचारक समुदाय इन पशुओं को खुले टोलें में एक वर्ष तक चरायेंगे तो वो पशु वापस वैसा ही बन जायेगा.

राजस्थान में केवल वर्षा के मौसम में घास-फूस या ज्वार-बाजरे की खेती होती है. रेगिस्तान में केवल एक ही फसल हो पाती है वो भी महज इतनी ही कि घर का खाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है. यहां हर व्यक्ति के पास दो-चार बकरी, एक-दो भेड़ और एक-दो ऊंट अवश्य मिलेंगे. ये भेड़, बकरी और ऊंट यहां की परिस्थितियों के अनुरूप है. जो आंकड़े, कैर, जांटी, कीकर और बेरी की झाड़ियों को खाकर अपना गुजारा कर लेते हैं.

भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितना बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में एक से दो लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.

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ऊंट को 2014 में राजस्थान का राजकीय पशु का दर्जा देना भी इन पशुचारकों के लिए बड़ा अहितकारी कदम रहा हैं. 2015 में एक कानून बना दिया गया कि राजकीय पशु को राज्य की सीमा से बाहर नहीं ले जा सकते जिसके कारण उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रेदेश व पंजाब के किसान यहां ऊंट खरीदने नहीं आ रहे. ऊंट पालकों के पास ले देकर ये पशु मेले बचे थे वो भी बन्द हो गए.

सिरोही जिले में छोटी डूंगरी के पास रहने वाले पशुचारक प्रकाश रायका के पास 35 ऊंट हैं. वे अन्य टोलें के साथ साल भर अपना ये पशुचारकों का काम करते हैं. अब वे भी पुरखों से सीखे पशुपालन के इस काम को छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनके पास दूसरा कोई उपाय भी नहीं है.

प्रकाश हमें बताते हैं कि, "ऊंटनी का एक बच्चा 18 महीने में होता है. जिसमे अंतिम तीन महीने और बच्चे के जन्म के एक महीने तक ऊंटनी से कोई काम नहीं ले सकते. साथ में ऊंटनी की खुराक भी अलग देनी पड़ती है जिसका खर्चा अलग से. राजस्थान सरकार ने 2016 में एक ऊंटनी के बच्चे को पालने पर तीन किस्तों में 10 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद देने का प्रावधान किया था. किंतु वो भी अब पूरी तरह से बन्द हो गया है."

अकेले मारवाड़ (राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र) में करीब दो लाख ऊंट, 90 लाख से ज्यादा भेड़-बकरियां तथा 60 हज़ार से ज्यादा गधे हैं. ऐसे ही गुजरात के कच्छ क्षेत्र के तैरने वाले ऊंट काफी मशहूर हैं. ऊंट, गधे और भेड़-बकरियों के बिना रेगिस्तान में जीवन की कल्पना करना सम्भव नहीं है.

पशुपालन विभाग का मतलब क्या है जब न तो पशुपालकों के अपने पशुओं के लिए स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था है और न ही चारे-पानी की कोई आपूर्ति. सब कागजों में चलता है. लॉकडाउन में इन पशुओं की आवाजाही को तो रोक दिया किन्तु ये नहीं देखा कि ये अपने पशुओं को चरायेंगे क्या?

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मैंने लॉकडाउन के दौरान, जब पशुचारक जातियों के मूवमेंट पर रोक लग गई थी. तब राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह से पूछा था कि आपके पास इन पशुचारक जातियों के लिए क्या व्यवस्था है? वीरेंद्र सिंह का कहना था कि, "हमारे पास इन पशुचारकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इनके पशुओं के लिए कोई चारे पानी की व्यवस्था."

पशुधन के नाम पर पिछले वर्ष (2019) 80 गाय, 61 भैंस ही शामिल की गई जबकि गधा, भेड़- बकरी और ख़च्चर एक भी नही आया. घोड़ों की संख्या 3556 है, इसमें देशी घोड़े नाम मात्र को हैं. ऊंटों की संख्या में भारी गिरावट आई है. जहां 2001 में 15460 ऊंट आए थे, 2019 में वो आंकड़ा महज 3298 पर आकर सिमट गया और जो लोग आए भी वे भी अपने ऊंटों को लेकर वापस लौट गये.

कितने ही ऊंटों ने दम तोड़ दिया और कितने ही ऊंट मरने की स्थिति में हैं. जिन ऊंटों की कीमत 30 से 70 हजार हुआ करती थी, उसे 1500 रुपये में भी कोई खरीदने वाला नही हैं. 2001 में जहां पशुओं की बिक्री से 20- 25 करोड़ उगाहे जाते थे, वो आंकड़ा 2019 में महज 4.21 करोड़ पर सिमट गया, जबकि इन 18 साल में इसे 90- 95 करोड़ होना चाहिए था.

लोक संस्कृति को खो देंगे

ये मेला आज के समय मे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, जब समाज जाति, धर्म में बंटा है, चारों और हिंसा का बोलबाला है. चारागाह सिमट रहे हैं, पर्यावरणीय निम्नीकरण से लेकर, लोक स्वास्थ्य का संकट, कृषि की पैदावार और मिट्टी की उर्वरता में कमी, पानी का कुप्रबंधन मुख्य समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है.

हम ये भूल गए हैं कि ये पशुचारक समुदाय हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहे हैं. इनके बगैर हमारी लोक- संस्कृति अधूरी है. इन्होंने हमारे लोक जीवन को बुना है. इनकी कलाएं, संगीत, कथा- कहानियां और कहावतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं. इनके गीतों में प्रकृति के विभिन्न रंगों का वर्णन मिलता हैं. इनकी कथा कहानियों में यहां के भूगोल से लेकर हमारे इतिहास और परम्परा की गहराइयों का उल्लेख है. इनकी कलाएं हमारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रेखांकित करती हैं.

आज विदेशों में हिंदुस्तान कि पहचान में यहां की लोक संस्कृति को उच्च दर्जा दिया जाता है. इसका मुख्य कारण यही हैं. हमारे यहां लोक जीवन ने जो संस्कृति गढ़ी हैं, हमने उसको जिया है. गोरबन्द, मोरुडा, कुरजां, पापीहा (पपीहा) जैसे सेंकडों गीत हैं. जिनको सुनकर लोग झूमने लगते हैं.

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ऐसे ही एक गीत है 'गोरबन्द'. इसका मतलब होता है 'गले का हार' लेकिन ये हार इंसान के लिए नहीं हैं बल्कि ऊंट के लिए है. इस गीत में नायिका कहती है कि-

'लड़ली लूमा झुमा ऐ,

ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ

ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ गायां चरावती गोरबन्द गुंथियों, तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज,

म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

जब ये ऊंट मेरे पति को सही सलामत वापस ले आएगा तो मैं उसके गले में ये गोरबन्द बांदुगी. गोरबन्द उस ऊंट के लिए है, जिस पर बैठकर नायक सिंध, मुल्तान में व्यापार करने के लिए गया है. नायिका इसमें रेगिस्तान के हिस्सों का वर्णन करती है कि राजसमंद और बीकानेर से इसके लिए ये लड़ियां मंगवाई हैं. जिनको देवरानी ओर जेठानी ने गाय- भैंसों को चराते हुए मनकों में पिरोया है. यहां डूंगर (पहाड़) प्रकर्ति के विभिन्न रंग दिखलाई पड़ते हैं. इस गीत में उस समय की आजीविका, व्यापार ओर उसके मार्गों का वर्णन मिलता है.

जन्मजात अपराधी कानून, 1871 पारित होने और भारत विभाजन (1947) से पहले रेगिस्तान से ऊंटों, गधों और गाय- बैलों के कारवां सिंध, मुल्तान होते हुए अफ्रीका तक जाया करते थे. इस कारवां में ये पशुचारक जातियां और उनके हज़ारों ऊंट, गधे, गाय बैल और भेड़- बकरियां हुआ करते थे. प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफान हबीब ने इस व्यापार को बहुत ही सुंदर तरीके से इतिहास में सहेजा है.

इन गीतों को बनाने और उसे स्थान तक पहुचाने में यही घुमन्तू पशु चरवाहे रहे हैं. इनके लोक वाद्य भी उसी लोकल पारिस्थितिकी से बने होते हैं. इनके लोक वाद्य में आम और आड़ू की लकड़ी, भेड़- बकरी की खाल और नारियल की टोपली, लौ का खोल इत्यादि हैं जो आसानी से उपलब्ध हैं. यदि रेगिस्तान से इन पशुचारकों को हटा देंगे तो बचेगा क्या?

पुष्कर मेले को पशुपालन विभाग, जिला प्रशासन व पर्यटन विभाग मिलकर आयोजित करते है. पर्यटन विभाग के तो दो चर्चित वाक्य भी हैं. 'पधारो म्हारे देश' और 'न जाने क्या दिख जाये' किन्तु पर्यटन विभाग की निरन्तर इन समुदायों की अवहेलना और इवेंट कम्पनियों को टेंडर देने से ये मेले बर्बाद हो रहे हैं.

आखिर पर्यटन विभाग ने पुष्कर मेले के स्थगन का नोटिफिकेशन जारी क्यों नहीं किया? पशु मेलों पर चलने वाले पर्यटन विभाग के पास इन समुदायों के लिए पिछले एक वर्ष से क्या कार्य नीति है? पुष्कर मेले के इवेंट क्यों समाप्त किये गए और आगे उनका क्या रुख है? ये सवाल तो ज्यों के त्यों बरकरार रहेंगे, जब तक वे ये नहीं बताते की पर्यटन विभाग, इवेंट कम्पनियों पर इतना मेहरबान क्यों हैं?

हमने इस विषय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सचिव गायत्री एस राठौड़ से भी बात की क्योंकि विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला इन पशुचारकों और घुमन्तू समुदायों का मेला हैं. गायत्री राठौड़ का कहना था कि "हम इस विषय में सम्बंधित विभाग से बात करेंगे. पुष्कर मेले को पिछले वर्ष की तरहं से नहीं होने देंगे. इन समुदायों की जैसे परम्परा रही हैं. हम उन परम्पराओं को वापस स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे." किन्तु इस बार पुष्कर मेले में केवल स्नान हुआ तो उनको दखल देने की आवश्यकता ही नही हुई."

पुष्कर मेला तो हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहा है. इन्हीं स्मृतियों ने हमें बुना है. यदि ये मेला नही रहेगा तो ये स्मृतियां भी धुंधली पड़ जायेंगी. किसी भी सभ्यता की एक खूबी ये भी रहती है कि उसके पास अपने पुरखों की कितनी धरोहर अभी जिंदा है. यदि हम ऐसे ही उलूल- जुलूल निर्णय करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढियां हमसे शर्मिंदा होंगी.

विभिन्न संस्कृतियों की आपसदारी

ये मेला साल भर घुमते रहने वाले घुमन्तू व आदिवासी समुदायों का आपस में मिलने, दुख सुख साझा करने व अपने पुरखों के सदियों पुराने ज्ञान को सहेजने उसे नई पीढ़ी से परिचय करवाने का अवसर भी है. सबसे बड़ी बात है कि इस मेले का प्रबन्धन के रूप में यही समुदाय हुआ करते थे, जिनको राजे रजवाड़ों का संरक्षण प्राप्त था.

इस मेले में भाग लेने के लिए छत्तीसगढ़ से दण्डचग्गा जिसे हम यहां नटों के नाम से जानते हैं व बपोरी जिसे हम यहां बंजारे कहते हैं. मध्य-प्रदेश से बड़ी संख्या में भील व बैदु समुदाय, बंगाल से तलवार नट व बंशीधर, झारखंड से तुरी समुदाय, उड़ीसा से ओड़ लोग, गुजरात से रैबारी व बहरूपिये, उत्तर प्रदेश से मनिहारी, बजानिया नट, सपेरा, बिहार से गुवारिया, गाड़िया लुहार, हरियाणा व दिल्ली से कंजर- पेरना, भाट व राजस्थान भर के घुमन्तू समुदाय व आदिवासी लोग यहां बड़ी संख्या में आते हैं. इस मेले से घुमन्तू समुदायों के शादी विवाह तय होते हैं.

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घुमन्तू समुदाय के उत्थान में काम कर रहे, टोंक के कलन्दर नूर महोम्मद का कहना है कि, "पुष्कर में वे अपनो झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्व प्रसिद्ध 'बारहवाली' पंचायत लगाया करते हैं. बारहवाली पंचायत की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इसमें वो सब लोग पंच बन सकते हैं जो तीन ठिये पर भोजन पकाते है. (तीन ईंटों या तीन पत्थरों को रखकर उन पर खाना बनाने वाले समुदाय. सामान्यतः आदिवासी और घुमन्तू समुदाय ही ऐसे जीवन जीते हैं)

अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर

ये मेला हमारे ग्रामीण आजीविका का बैरोमीटर भी है. ग्रामीण आजीविका का मुख्य आधार खेती किसानी है जो बगैर पशुओं के असंभव हैं. यदि राजस्थान, गुजरात समेत उत्तर भारत में किसान आत्महत्या नहीं करते इसका सबसे बड़ा कारण पशुपालन की स्थिति का अच्छा होना है. यदि किसान की फसल अच्छी नहीं भी हुई तो वे पशुओं से अपनी रोजी रोटी चला पाते हैं. ये पशु उनके पोषण की जरूरतों को भी पूरा करते हैं.

ये पशुचारक समुदाय आये दिन अपने पशुओं को नहीं बेचते. ये केवल पशु मेलों पर ही अपने पशुओं को बेचते हैं. नागौर, बालोतरा और पुष्कर जैसे मेले इनके प्रमुख पशु मेले होते हैं. इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण मार्च के महीने से सभी पशु मेले बन्द हैं. अब तो ये अंतिम उम्मीद भी जाती रही.

हिंदुस्तान में ऊंट पालने का काम सभी जतियां करती हैं किंतु उनके ब्रीडिंग करवाने का काम एकमात्र रायका- रैबारी समुदाय के लोग ही करते हैं. इन ऊंटों और गाय- बैल को साल भर दुहने और विभिन्न काम लेने के कारण जब ये पशु कमजोर हो जाते हैं तो किसान लोग अपने इन पशुओं को लेकर मेले में आते हैं, जहां वे इन पशुचारकों को ये ऊंट व गाय बैल इत्यादि पशु दे देते हैं और बदले में हष्ट पुष्ट पशु लेते हैं, साथ मे कुछ पैसा भी देते हैं. पशुचारक समुदाय इन पशुओं को खुले टोलें में एक वर्ष तक चरायेंगे तो वो पशु वापस वैसा ही बन जायेगा.

राजस्थान में केवल वर्षा के मौसम में घास-फूस या ज्वार-बाजरे की खेती होती है. रेगिस्तान में केवल एक ही फसल हो पाती है वो भी महज इतनी ही कि घर का खाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से चल पाता है. यहां हर व्यक्ति के पास दो-चार बकरी, एक-दो भेड़ और एक-दो ऊंट अवश्य मिलेंगे. ये भेड़, बकरी और ऊंट यहां की परिस्थितियों के अनुरूप है. जो आंकड़े, कैर, जांटी, कीकर और बेरी की झाड़ियों को खाकर अपना गुजारा कर लेते हैं.

भेड़- बकरी की एक बड़ी खासियत है जो उसे अन्य जानवरों से अलग बनाती है. इसे थोड़ा बहुत चराकर कभी भी और कितना बार भी दूध निकाला जा सकता है. भले ही एक बकरी एक दिन में एक से दो लीटर दूध और भेड़ आधे से एक लीटर तक दूध देती है. किंतु इनका दूध गाय भैंस के दूध से भी ज्यादा पोषण युक्त रहता है.

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ऊंट को 2014 में राजस्थान का राजकीय पशु का दर्जा देना भी इन पशुचारकों के लिए बड़ा अहितकारी कदम रहा हैं. 2015 में एक कानून बना दिया गया कि राजकीय पशु को राज्य की सीमा से बाहर नहीं ले जा सकते जिसके कारण उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रेदेश व पंजाब के किसान यहां ऊंट खरीदने नहीं आ रहे. ऊंट पालकों के पास ले देकर ये पशु मेले बचे थे वो भी बन्द हो गए.

सिरोही जिले में छोटी डूंगरी के पास रहने वाले पशुचारक प्रकाश रायका के पास 35 ऊंट हैं. वे अन्य टोलें के साथ साल भर अपना ये पशुचारकों का काम करते हैं. अब वे भी पुरखों से सीखे पशुपालन के इस काम को छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनके पास दूसरा कोई उपाय भी नहीं है.

प्रकाश हमें बताते हैं कि, "ऊंटनी का एक बच्चा 18 महीने में होता है. जिसमे अंतिम तीन महीने और बच्चे के जन्म के एक महीने तक ऊंटनी से कोई काम नहीं ले सकते. साथ में ऊंटनी की खुराक भी अलग देनी पड़ती है जिसका खर्चा अलग से. राजस्थान सरकार ने 2016 में एक ऊंटनी के बच्चे को पालने पर तीन किस्तों में 10 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद देने का प्रावधान किया था. किंतु वो भी अब पूरी तरह से बन्द हो गया है."

अकेले मारवाड़ (राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र) में करीब दो लाख ऊंट, 90 लाख से ज्यादा भेड़-बकरियां तथा 60 हज़ार से ज्यादा गधे हैं. ऐसे ही गुजरात के कच्छ क्षेत्र के तैरने वाले ऊंट काफी मशहूर हैं. ऊंट, गधे और भेड़-बकरियों के बिना रेगिस्तान में जीवन की कल्पना करना सम्भव नहीं है.

पशुपालन विभाग का मतलब क्या है जब न तो पशुपालकों के अपने पशुओं के लिए स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था है और न ही चारे-पानी की कोई आपूर्ति. सब कागजों में चलता है. लॉकडाउन में इन पशुओं की आवाजाही को तो रोक दिया किन्तु ये नहीं देखा कि ये अपने पशुओं को चरायेंगे क्या?

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मैंने लॉकडाउन के दौरान, जब पशुचारक जातियों के मूवमेंट पर रोक लग गई थी. तब राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह से पूछा था कि आपके पास इन पशुचारक जातियों के लिए क्या व्यवस्था है? वीरेंद्र सिंह का कहना था कि, "हमारे पास इन पशुचारकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और न ही इनके पशुओं के लिए कोई चारे पानी की व्यवस्था."

पशुधन के नाम पर पिछले वर्ष (2019) 80 गाय, 61 भैंस ही शामिल की गई जबकि गधा, भेड़- बकरी और ख़च्चर एक भी नही आया. घोड़ों की संख्या 3556 है, इसमें देशी घोड़े नाम मात्र को हैं. ऊंटों की संख्या में भारी गिरावट आई है. जहां 2001 में 15460 ऊंट आए थे, 2019 में वो आंकड़ा महज 3298 पर आकर सिमट गया और जो लोग आए भी वे भी अपने ऊंटों को लेकर वापस लौट गये.

कितने ही ऊंटों ने दम तोड़ दिया और कितने ही ऊंट मरने की स्थिति में हैं. जिन ऊंटों की कीमत 30 से 70 हजार हुआ करती थी, उसे 1500 रुपये में भी कोई खरीदने वाला नही हैं. 2001 में जहां पशुओं की बिक्री से 20- 25 करोड़ उगाहे जाते थे, वो आंकड़ा 2019 में महज 4.21 करोड़ पर सिमट गया, जबकि इन 18 साल में इसे 90- 95 करोड़ होना चाहिए था.

लोक संस्कृति को खो देंगे

ये मेला आज के समय मे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, जब समाज जाति, धर्म में बंटा है, चारों और हिंसा का बोलबाला है. चारागाह सिमट रहे हैं, पर्यावरणीय निम्नीकरण से लेकर, लोक स्वास्थ्य का संकट, कृषि की पैदावार और मिट्टी की उर्वरता में कमी, पानी का कुप्रबंधन मुख्य समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है.

हम ये भूल गए हैं कि ये पशुचारक समुदाय हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहे हैं. इनके बगैर हमारी लोक- संस्कृति अधूरी है. इन्होंने हमारे लोक जीवन को बुना है. इनकी कलाएं, संगीत, कथा- कहानियां और कहावतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं. इनके गीतों में प्रकृति के विभिन्न रंगों का वर्णन मिलता हैं. इनकी कथा कहानियों में यहां के भूगोल से लेकर हमारे इतिहास और परम्परा की गहराइयों का उल्लेख है. इनकी कलाएं हमारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को रेखांकित करती हैं.

आज विदेशों में हिंदुस्तान कि पहचान में यहां की लोक संस्कृति को उच्च दर्जा दिया जाता है. इसका मुख्य कारण यही हैं. हमारे यहां लोक जीवन ने जो संस्कृति गढ़ी हैं, हमने उसको जिया है. गोरबन्द, मोरुडा, कुरजां, पापीहा (पपीहा) जैसे सेंकडों गीत हैं. जिनको सुनकर लोग झूमने लगते हैं.

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ऐसे ही एक गीत है 'गोरबन्द'. इसका मतलब होता है 'गले का हार' लेकिन ये हार इंसान के लिए नहीं हैं बल्कि ऊंट के लिए है. इस गीत में नायिका कहती है कि-

'लड़ली लूमा झुमा ऐ,

ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ओ लड़ली लूमा झूमा ऐ लड़ली लूमा झुमा ऐ

ओ म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

ऐ गायां चरावती गोरबन्द गुंथियों, तो भेंसयाने चरावती मैं पोयो पोयो राज मैं तो पोयो पोयो राज,

म्हारो गोरबन्द नखराळो आलिजा म्हारो गोरबन्द नखराळो

जब ये ऊंट मेरे पति को सही सलामत वापस ले आएगा तो मैं उसके गले में ये गोरबन्द बांदुगी. गोरबन्द उस ऊंट के लिए है, जिस पर बैठकर नायक सिंध, मुल्तान में व्यापार करने के लिए गया है. नायिका इसमें रेगिस्तान के हिस्सों का वर्णन करती है कि राजसमंद और बीकानेर से इसके लिए ये लड़ियां मंगवाई हैं. जिनको देवरानी ओर जेठानी ने गाय- भैंसों को चराते हुए मनकों में पिरोया है. यहां डूंगर (पहाड़) प्रकर्ति के विभिन्न रंग दिखलाई पड़ते हैं. इस गीत में उस समय की आजीविका, व्यापार ओर उसके मार्गों का वर्णन मिलता है.

जन्मजात अपराधी कानून, 1871 पारित होने और भारत विभाजन (1947) से पहले रेगिस्तान से ऊंटों, गधों और गाय- बैलों के कारवां सिंध, मुल्तान होते हुए अफ्रीका तक जाया करते थे. इस कारवां में ये पशुचारक जातियां और उनके हज़ारों ऊंट, गधे, गाय बैल और भेड़- बकरियां हुआ करते थे. प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफान हबीब ने इस व्यापार को बहुत ही सुंदर तरीके से इतिहास में सहेजा है.

इन गीतों को बनाने और उसे स्थान तक पहुचाने में यही घुमन्तू पशु चरवाहे रहे हैं. इनके लोक वाद्य भी उसी लोकल पारिस्थितिकी से बने होते हैं. इनके लोक वाद्य में आम और आड़ू की लकड़ी, भेड़- बकरी की खाल और नारियल की टोपली, लौ का खोल इत्यादि हैं जो आसानी से उपलब्ध हैं. यदि रेगिस्तान से इन पशुचारकों को हटा देंगे तो बचेगा क्या?

पुष्कर मेले को पशुपालन विभाग, जिला प्रशासन व पर्यटन विभाग मिलकर आयोजित करते है. पर्यटन विभाग के तो दो चर्चित वाक्य भी हैं. 'पधारो म्हारे देश' और 'न जाने क्या दिख जाये' किन्तु पर्यटन विभाग की निरन्तर इन समुदायों की अवहेलना और इवेंट कम्पनियों को टेंडर देने से ये मेले बर्बाद हो रहे हैं.

आखिर पर्यटन विभाग ने पुष्कर मेले के स्थगन का नोटिफिकेशन जारी क्यों नहीं किया? पशु मेलों पर चलने वाले पर्यटन विभाग के पास इन समुदायों के लिए पिछले एक वर्ष से क्या कार्य नीति है? पुष्कर मेले के इवेंट क्यों समाप्त किये गए और आगे उनका क्या रुख है? ये सवाल तो ज्यों के त्यों बरकरार रहेंगे, जब तक वे ये नहीं बताते की पर्यटन विभाग, इवेंट कम्पनियों पर इतना मेहरबान क्यों हैं?

हमने इस विषय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सचिव गायत्री एस राठौड़ से भी बात की क्योंकि विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला इन पशुचारकों और घुमन्तू समुदायों का मेला हैं. गायत्री राठौड़ का कहना था कि "हम इस विषय में सम्बंधित विभाग से बात करेंगे. पुष्कर मेले को पिछले वर्ष की तरहं से नहीं होने देंगे. इन समुदायों की जैसे परम्परा रही हैं. हम उन परम्पराओं को वापस स्थापित करने की दिशा में प्रयास करेंगे." किन्तु इस बार पुष्कर मेले में केवल स्नान हुआ तो उनको दखल देने की आवश्यकता ही नही हुई."

पुष्कर मेला तो हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहा है. इन्हीं स्मृतियों ने हमें बुना है. यदि ये मेला नही रहेगा तो ये स्मृतियां भी धुंधली पड़ जायेंगी. किसी भी सभ्यता की एक खूबी ये भी रहती है कि उसके पास अपने पुरखों की कितनी धरोहर अभी जिंदा है. यदि हम ऐसे ही उलूल- जुलूल निर्णय करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढियां हमसे शर्मिंदा होंगी.

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