कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से जब करोड़ों की संख्या में प्रवासी अपने गांव-घर पहुंचे तो कृषि क्षेत्र के अलावा महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) ने बेकाम और भोजन की तलाश करने वाले लोगों के रोजमर्रा जीवन को चलाने में बड़ी भूमिका अदा की. लोगों को आम बजट में मनरेगा को और ज्यादा शक्ति और गति देने की आस थी, लेकिन बजट में मनरेगा के आवंटन ने झटका दिया है.
वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में निर्मला सीतारमण ने मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, यदि इसकी तुलना बीते वित्त वर्ष के संशोधित बजट के आवंटन 111,500 करोड़ रुपये से की जाए तो यह करीब 34.52 फीसदी कम है. बजट कम होने का सीधा मतलब श्रमदिवस के कम होने और रोजगार के अवसरों में कमी से भी है.
नरेगा संघर्ष मोर्चा के सदस्य देबामल्या नंदी ने कहा कि मनरेगा के लिए वित्त वर्ष 2019-2020 के संशोधित बजट आवंटन से वित्त वर्ष 2021-2022 में करीब 38500 रुपये कम दिया गया है. अभी तक कुल श्रम दिवस 3.4 अरब तक पहुंच चुका है, सरकार ने अगले वर्ष तक 2.7 से लेकर 2.8 अरब श्रम दिवस तक पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है. यह न सिर्फ रोजगार के दायरे को कम करेगा बल्कि इसका परिणाम आने वाले वर्षों में श्रम का भुगतान में भी हो सकता है.
नंदी ने कहा कि यह निराशा से भरा है कि सरकार मौजूदा ग्रामीण रोजगार संकट को दरकिनार कर रही है, यद्यपि कि ग्रामीण मांग को देखते हुए मनरेगा के खर्च को बढाया जाना चाहिए था, महामारी के दौरान इस पर निर्भरता स्पष्ट भी हो चुकी है. मनरेगा बजट के साथ समझौता नाजुक या कमजोर लोगों को और अधिक संकट में डाल सकता है.