28 जनवरी की शाम, मुज़फ्फरनगर के जौला गांव में रहने वाले 80 वर्षीय गुलाम मोहम्मद जौला को एक फोन आया. उन्हें मोदी सरकार के द्वारा लाए गए नए कृषि कानूनों के खिलाफ, दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर होने वाले प्रदर्शन का प्रतिनिधित्व कर रहे भारतीय किसान यूनियन के प्रमुख नरेश टिकैत ने फोन किया था. वे याद कर बताते हैं कि नरेश ने उनसे कहा, "आइए और मुज़फ्फरनगर की पंचायत का हिस्सा बन जाइए. यह मुसीबत का समय है और अब बात आत्मसम्मान की है. उनके शब्द थे 'जो हुआ उसे छोड़ो और आ जाओ'."
इसी शाम पहले, भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के मीडिया के सामने भावुक होकर रो पड़ने से गाजीपुर प्रदर्शन में जान पड़ गई थी. वरना ऐसा लग रहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार प्रदर्शन को रोकने के लिए कमर कस चुकी है.
ग़ुलाम मोहम्मद, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम किसानों में प्रभाव रखते हैं, कभी भाकियू के संस्थापक, टिकैत भाइयों के पिता और 80 के दशक से अपने देहावसान तक किसानों के बड़े नेता महेंद्र सिंह टिकैत के करीबी हुआ करते थे.
गुलाम मोहम्मद मानते हैं, “भारतीय किसान यूनियन 2011 में महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद कमजोर पड़ गई और 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से जनता की नजर से उतर गई, इन दंगों में 62 लोगों की जान गई थी जिनमें से अधिकतर मुस्लिम थे. हिंसा शुरू होने से पहले एक जनसभा में भड़काऊ भाषण देने के कारण टिकैत बंधुओं ने स्थानीय मुस्लिम आबादी में अपना समर्थन खो दिया था, बाद में उन पर भड़काऊ भाषण देने का मामला भी दर्ज़ हुआ. हालांकि बाद में नरेश ने इस हिंसा को "क्षेत्र के इतिहास पर लगा एक दाग़" बताया, लेकिन इससे गन्ना पट्टी के जाटों और मुसलमानों के बीच टूटी राजनैतिक साझेदारी की कोई मरम्मत नहीं हुई.”
गुलाम मोहम्मद ने इस घटनाक्रम के बाद भाकियू से इस्तीफा देकर, अपने मुसलमान किसानों के धड़े के लिए किसान मज़दूर मंच शुरू किया था.
इस साल जब वह 29 जनवरी को मुज़फ्फरनगर महापंचायत में टिकैत भाइयों से मिले, ग़ुलाम मोहम्मद ने उन्हें बताया की उनसे दो ग़लतियां हुईं. "पहला, तुमने अजीत सिंह को हराने में मदद की. और दूसरा, तुमने मुसलमानों को मारा."
80 साल के गुलाम मोहम्मद जौला, मुजफ्फरनगर में अपने घर पर
आज किसान प्रदर्शनों को 2 महीने हो जाने के बाद, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फिर से जाट-मुस्लिम एकता की संभावना को सामने देखते हुए, गुलाम मोहम्मद आशा और संदेह दोनों से घिरे हैं.
उनका मानना है कि दोनों समाज, फिर से केवल तभी साथ आ सकते हैं जब टिकैत बंधु सही रास्ते पर चलें और अपनी "स्वरक्षण" नीति की तिलांजलि दे दें. वे कहते हैं, "नरेश अभी भी एक सेक्युलर नेता हैं, लेकिन राकेश अवसरवादी हैं. वह किसान आंदोलनों से ज्यादा राजनीति के नज़दीक रहे हैं."
उनका यह नज़रिया, टिकैत भाइयों के मोदी सरकार का विरोध करने से बचने के रवैये को देखकर बना है. गुलाम मोहम्मद बताते हैं, "जब मुझे गाजीपुर प्रदर्शन में 1 फरवरी को बोलने के लिए बुलाया गया था, तो टिकैत भाइयों ने मुझे अकेले में कहा, 'बाबा इसे राजनैतिक न बनाना. सरकार के खिलाफ मत बोलना.' मुझे ऐसा लगा कि सरकार के द्वारा उन पर दबाव बनाए जाने के कारण वह डरे हुए थे."
मुज़फ़्फ़रनगर के बुढाना क्षेत्र का जौला गांव
जौला से किसान प्रदर्शनों को मिलने वाले समर्थन का भाकियू और टिकैत भाइयों से कोई लेना देना नहीं है. इसके तीन कारण हैं, पहला की इलाके के अधिकतर मुसलमान साथ हैं और वह मानते हैं कि नए कानून उनके हित में नहीं हैं. दूसरा, उनकी वफादारी राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह से है. तीसरा, कि समुदाय आदित्यनाथ प्रशासन की पुलिस के द्वारा परेशान किए जाने से मुक्ति चाहता है.
वह उदाहरण देते हैं, "पुलिस वाले अगर एक जाट लड़के को बिना हेलमेट के मोटरसाइकिल चलाते पकड़ लेते हैं, तो वह 100 रुपए का हर्जाना देकर बच सकता है. लेकिन एक मुस्लिम लड़के को 10 गुना ज्यादा पैसा देना पड़ता है."
गुलाम मोहम्मद चाहते हैं, “भारतीय किसान यूनियन जाट युवाओं को भारतीय जनता पार्टी से अलग करे. स्थानीय लोगों के अनुसार, 16 से 25 के बीच की जनसंख्या से मिलने वाला समर्थन ही 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की विजय का एक बड़ा कारण था."
वे कहते हैं, "5 फरवरी को शामली महापंचायत में मैंने जाटों को भारतीय जनता पार्टी का साथ न देने की कसम खाने के लिए कहा. उन सब ने अपना हाथ उठाया और कहा कि ऐसा करेंगे.”
राकेश टिकैत अच्छा आदमी नहीं है
जौला गांव से कुछ किलोमीटर दूर जोहिया खेड़ा गांव है, जहां पर हम 60 वर्षीय गन्ना किसान मोमिन बाबा से मिले जो इस साल होने वाले पंचायत चुनावों में 1 उम्मीदवार हैं. हमने मोमिन से पूछा कि मुज़फ़्फरनगर के मुसलमान राकेश टिकैत के बारे में क्या सोच रहे हैं, एक प्रचलित किसान प्रदर्शन का नेता जिस पर एक समय 2013 में सांप्रदायिक दंगे भड़काने का आरोप लगा था.
मोमिन ने हमें बताया, "हम हिंसा में टिकैत की भूमिका भूले नहीं हैं, लेकिन हम उसे नजरअंदाज करने को तैयार हैं. जिन दंगों में उन पर आरोप लगा उसमें 60 से कुछ ज्यादा लोग मरे थे. लेकिन अगर भाजपा सत्ता में रहती है तो हजारों और मर सकते हैं. मुसलमानों के लिए यह डर एक यथार्थ है."
जाट भले ही अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए भाजपा के खिलाफ हो गए हों, लेकिन मुसलमान बड़ी तस्वीर की ओर देख रहे हैं. "हमें टिकैत के नेतृत्व और उनके जाट समाज के जनाधार का समर्थन करना ही पड़ेगा. हम अपने आप गाजीपुर पर प्रदर्शन करने के लिए नहीं जा सकते. अगर जाएंगे तो हमें आतंकवादी कहा जाएगा और गोली मार दी जाएगी."
मुजफ्फरनगर के जोहिया खेड़ा गांव में 60 वर्षीय मोमीन बाबा
उन्होंने अपनी बात को बरकरार रखा कि मुज़फ़्फरनगर के मुसलमान किसानों में राकेश के लिए कोई सहानुभूति नहीं है. उनका कहना था, "उन्हें कोई अच्छा आदमी नहीं मानता, केवल 2013 में जो हुआ उसी की वजह से नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि वह कभी अच्छे आदमी थे ही नहीं. यह तो हालात को देखकर किया गया समझौता है. हम इस देश को बचाना चाहते हैं."
लेकिन मोमिन के विचारों से संभवतः उतने लोग राज़ी नहीं जितना उन्हें लगता है. 22 वर्षीय लुकमान कुशवाहा एक किसान परिवार से आते हैं और अपने परिवार के पहले जनरल फार्मेसिस्ट होंगे, ने हमें बताया, “दिल्ली सीमा पर हो रहे प्रदर्शन, उनके गांव में सबके दिमाग पर हैं जहां से राकेश को रोता देखने के बाद तीन ट्रैक्टर गाजीपुर गये.”
लुकमान, टिकैत से मोमिन और गुलाम मोहम्मद जितने नाराज़ नहीं दिखाई देते. वे कहते हैं, "कोई यह नहीं कह सकता कि मुज़फ़्फरनगर हिंसा के लिए राकेश टिकैत जिम्मेदार थे. यह कभी साबित नहीं हुआ. फिर उस समय हर कोई एक हिंदू या मुसलमान की तरह ही सोच रहा था. उस घटना से पहले उनके पिता ने केवल किसानों, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, के लिए वर्षों तक काम किया था."
लुकमान के पिता 70 वर्षीय मोहम्मद हनीर, बिजनौर से बागपत तक फैली एक छुपी बात को दोहराते हैं. कि मुज़फ़्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगे की जिम्मेदार भाजपा थी. उनका मानना है कि टिकैत भाइयों के विरोधियों को उन्हें थोड़ी छूट भी देनी चाहिए, क्योंकि दंगों के कुछ महीने बाद उन्होंने मुज़फ़्फरनगर के मुस्लिम समाज के वरिष्ठ लोगों से मिलकर माफी मांगी थी.
क्या उन्होंने टिकैत भाइयों को माफ कर दिया? उन्होंने जवाब दिया, "वो अल्लाह का काम है. माफ करने वाला मैं कौन होता हूं?"
जोहिया खेड़ा गांव में 22 वर्षीय लुकमान कुशवाहा
पड़ोस के गांव लोहे सराय में 45 वर्षीय प्रधान दिलशाद ने हमें बताया कि जाटों और मुसलमानों के बीच पैदा हुए सामाजिक भेद समय के साथ सुधर गए हैं, अब लोग एक दूसरे के यहां शादियों में जाते हैं और साथ में बैठ कर खाना होता है. उन्होंने टिप्पणी की कि हिंसा, एक "दूसरे समय और दूसरे परिवेश" में हुई थी.
उन्होंने यह भी कहा कि, "मुझे नहीं लगता कि टिकैत ने उस समय कोई भड़काऊ भाषण दिए थे. चाहे कुछ भी हो, अब हालात बेहतर हैं."
उन्होंने यह भी इशारा किया कि जाटों को इस जारी प्रदर्शन में मुसलमानों के समर्थन की किसानी से परे कई वजहें हैं. वे लोग भाजपा के विजय रथ को उत्तर प्रदेश में रोकना चाहते हैं. वे समझाते हैं, "पुलिस यहां युवा मुसलमानों को परेशान करती है. हमारे लड़के जाट लड़कों के मुकाबले उनसे ज्यादा परेशान रहते हैं. झगड़े की ज़रा सी अफ़वाह होते ही वह मुसलमानों को उठाकर उन्हें जेल में फेंक देते हैं. यह रुकना चाहिए."
मुजफ्फरनगर में लोहे सराय के 45 वर्षीय ग्राम प्रधान दिलशाद
गलती दोनों समुदायों से हुई
टिकैत भाइयों को मुज़फ़्फरनगर में अपने गांव सिसौली के पास के मुसलमानों में और ज्यादा समर्थन मिल रहा है.
सिसौली से 2 किलोमीटर दूर शिकारपुर गांव से 100 से ज्यादा आदमी कई बार गाजीपुर प्रदर्शन पर पहुंचे. पूर्व ग्राम प्रधान, 49 वर्षीय याहया नंबरदार कहते हैं, "यहां दंगों के दौरान कोई नहीं मारा गया क्योंकि हमने नरेश टिकैत के साथ मिलकर शांति बनाए रखने के लिए काम किया था."
उन्होंने यह भी कहा कि 2013 में हुई हिंसा के दौरान "ग़लतियां दोनों समुदायों से हुई थीं." वे कहते हैं, "हमारे नेताओं ने भी भड़काऊ माहौल बनाया जैसा कि सांसद अमीर आलम खान ने किया था. जाटों की तरफ से भी प्रतिक्रिया हुई. लेकिन हिंसा के अंत में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान मारे गए."
शिकारपुर के लोग नरेश टिकैत को एक "साधारण" और "सहज प्रवृत्ति" का इंसान बताते हैं जो किसी आम किसान की तरह दिनभर अपने खेत में काम करता है. उनके पिता, जिन्हें लोग स्नेह से बाबा टिकैत भी कहते हैं, इसी के लिए जाने जाते थे. 84 गांवों की बलियान खाप के प्रमुख होने के नाते, नरेश के विवेक पर दोनों ही समाजों को विश्वास है. इलाके के मुसलमानों ने हमें बताया कि इलाके के लोग अपने मतभेदों को अदालतों के बजाय, उनके पास ले जाना पसंद करते हैं.
नंबरदार कहते हैं, "जब मुसलमान लड़कों को भी पुलिस उठाकर ले जाती है तब भी नरेश जी थाने जाकर उन्हें छुड़वाते हैं."
इसके विपरीत राकेश टिकैत तो एक "शहरी" की तरह देखा जाता है जो उत्तर प्रदेश और उसके बाहर के भारतीय किसान यूनियन के कामों में लगे रहते हैं, जैसे की सरकार और मीडिया से जुड़े मसले. इस पूर्व ग्राम प्रधान के अनुसार, "नरेश हमेशा जमीन से जुड़े रहते हैं और स्थानीय इलाकों में उनका प्रभाव ज्यादा है."
याहया के भाई और शिकारपुर के प्रधान इस्लाम नंबरदार समझाते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम किसान टिकैत भाइयों पर लगी पुरानी छींटों को नजरअंदाज करने के लिए इसलिए राजी हैं क्योंकि जारी प्रदर्शन उनके भी काम और आजीविका से जुड़ा है, जो उन्हें इलाके के जाटों से जोड़ता है. इस्लाम कहते हैं, "मुसलमान और जाट दशकों तक महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में साथ-साथ रहे थे. उनके बेटे भले ही उनके रास्ते से भटक गए हों, लेकिन मतभेद हर परिवार में होते हैं. हमने उन चीजों को भाजपा के लाए इन काले कानूनों से लड़ने के लिए पीछे छोड़ दिया है."