‘सर्वाधिक धर्मांध, सांप्रदायिक, घृणाप्रेरित और हिंसक है आज हिंदी समाज’

कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी और कला मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी से युवा लेखक अविनाश मिश्र की बातचीत.

WrittenBy:अविनाश मिश्र
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कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी… यह अशोक वाजपेयी का एक सामान्य-सा परिचय है. अव्वल तो उन्हें किसी परिचय की दरकार नहीं है, वह अपना आप परिचय हैं. लेकिन फिर भी एक कला-कार्यकर्ता के उनके व्यक्तित्व और योगदान को अब तक हिंदी में कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी कहकर संक्षिप्त किया जाता रहा है. इधर उन्हें कला-प्रशासक भी कहा जाने लगा है और ‘हिंदी सेवी’ भी. यह अब बहुत जाहिर है कि उन्होंने कई संस्थाओं के निर्माण और कार्यान्वयन की बहुत नवाचार से भरी हुईं अनूठी शैलियां विकसित और संभव की हैं. उनकी उपस्थिति और उपलब्धियां भारतीय साहित्य संसार में अब कुछ इस कदर व्याप्त हैं कि उन्हें चाहकर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. गए दिनों वह मौजूदा राजसत्ता के एक बड़े प्रतिरोधी स्वर के रूप में भी सामने आए हैं.

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यह साक्षात्कार (रिकॉर्डेड) गए जून की दो दुपहरों में मुमकिन हुआ और अपनी समग्रता में साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ के 109वें अंक में हाल ही में प्रकाशित हुआ है. यहां प्रस्तुत हैं इस साक्षात्कार के कुछ अंश:

आपके कई रूप हैं और आपके कई साक्षात्कार पढ़ने के बाद मैंने यह गौर किया कि आपके किसी भी रूप पर बात की जाए, बात एक आरोप की शक्ल ले लेती है और बाद इसके आपकी बात का एक बहुत बड़ा हिस्सा सफाई देने में चला जाता है. मैं चाहता हूं कि इस प्रकार की सफाइयों से प्रस्तुत साक्षात्कार बिल्कुल मुक्त रहे. क्या इसके लिए आप मुझे कोई सुझाव देना चाहेंगे?

देखिए, मैं बहुत लक्षित व्यक्ति और अलक्षित कवि हूं. मेरे विचार पर ज्यादा बात की जाती है, मेरी कविता से उसे जोड़कर कम देखा जाता है और मेरी अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है. एक जमाना था जब मैं सुबह से शाम तक सिर्फ सफाई ही देता रहता था. मैंने मध्य प्रदेश सरकार में रहते और अपने निर्णयों का बचाव करते हुए करीब तीन हजार नोट-शीट्स लिखी होंगी. मेरी बहुत सारी शक्ति, बहुत सारा श्रम सफाई देने में गुजरा है. जबकि गलतियां कौन नहीं करता, मैंने भी की ही होंगी. लेकिन मैंने ऐसी कोई गलती सार्वजनिक क्षेत्र में कभी नहीं की जिससे दूसरों का अहित हुआ हो या जिसे पतन या नैतिक चूक कहा जा सके. हां, कई बार रुचि का फेर जरूर हो जाता है.

आपकी कविताओं की पहली किताब प्रकाशित हुए पचास बरस से ऊपर हो गए हैं, क्या आपको लगता है कि ‘शहर अब भी संभावना है’?

अब मैं इसे इस तरह कहना चाहूंगा कि अब उम्मीद असंभव लगती है. लेकिन इसलिए ही क्योंकि वह असंभव लगती है, उसे कविता में करते रहना जरूरी है. यह कुछ-कुछ ऐसा ही है कि सच है हमारी आवाज कोई नहीं सुनता, लेकिन इसलिए हम अपनी आवाज उठाने से चूक तो नहीं सकते. मैं यह मानता रहा हूं कि कविता तो प्रथमतः और अंततः उम्मीद की ही विधा है. वह संभावना और स्वप्न की विधा है. वह कल्पना और विकल्प की विधा है. इसलिए उसे कभी पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता.

आप भी ‘असहिष्णुता’ के मुद्दे पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों में से एक हैं, लेकिन आपकी पुस्तकों पर आपके परिचय में इस तथ्य का उल्लेख पूर्ववत जा रहा है? इस संदर्भ में अगर इंतजार हुसैन जिन्हें उनके उपन्यास ‘बस्ती’ पर पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार आदमजी एवार्ड मिला और जिसे उन्होंने वापस कर दिया, को देखें तो मिलने और वापस करने दोनों का उल्लेख इंतजार हुसैन की किताबों पर प्रकाशित उनके परिचय में किया जाता है.

लौटाने का जिक्र करना मुझे फिर से यश लूटने जैसा लगता है. लेकिन अगर आगे यह उल्लेख भी हो सके तो अच्छा ही रहेगा. वैसे अगर किसी आयोजन में कोई इस तथ्य का उल्लेख करता है कि मुझे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है, तब मैं तत्काल यह बता जरूर देता हूं कि मैंने उसे लौटा दिया है.

इस संसार में — साहित्य और कलाओं के संसार में — एक बहुत सक्रिय और संपन्न आयु तक आ जाने के बाद मौजूदा हिंदी साहित्य संसार को लेकर कौन-सी बात आपको इसके प्रति सबसे ज्यादा आश्वस्त करती है?

हिंदी समाज में असल में आश्वस्त करने के लिए अब कुछ है नहीं. यह सबसे ज्यादा धर्मांध और सबसे ज्यादा साहित्य से मुंहफेरे हुए समाज है. यह सबसे ज्यादा सांप्रदायिक, जातिवादग्रस्त और घृणा को पोसने वाला समाज भी है. इस समाज का मध्यवर्ग अपनी मातृभाषाओं से जितनी दूर जा सकता था, जा चुका है. इस समाज में सामाजिक सुधार का कोई अभियान गुजरे पचास-साठ सालों में कभी चला ही नहीं. हिंदी समाज इन दिनों एक बहुत त्रस्तकारी समाज है. इसलिए हिंदी समाज से अलग हमें हिंदी भाषा को देख सकना चाहिए. हिंदी भाषा हिंदी समाज का ही उत्पाद नहीं है या कि समाज ही उसका प्रतिफलन नहीं है. वह उससे कुछ स्वतंत्र भी है और यहीं आशा करने के लिए भी कुछ न कुछ शेष है. मसलन हिंदी साहित्य की अपनी जो परंपरा है, वह तो व्यवस्था-विरोधी परंपरा है. इसमें इधर-उधर भले ही थोड़े-बहुत बहकावे रहे हों, लेकिन मूलतः वह व्यवस्था-विरोधी ही रही है. मैं यह बात कई बार याद दिलाता रहता हूं और यह बात सबसे पहले अज्ञेय ने कही थी कि हिंदी में खड़ी बोली जो उसकी केंद्रीय बोली बन गई है, वह खड़ी सिर्फ इसलिए ही नहीं कही जाती है कि वह अक्खड़ है या कि ब्रज और अवधी के मुकाबले इसमें सांगीतिकता कम है और यह लट्ठमार जैसी है. यह इसलिए भी खड़ी है, क्योंकि यह सदा सत्ता के विरुद्ध खड़ी रही है. यह एक बड़ा गुण है भाषा का और यह भी कि इसमें समावेशिता भी बहुत है. अनुवाद की स्थिति हिंदी में बहुत खराब है, लेकिन दूसरी तरफ यह भी सच है कि अगर आप हिंदी जानते हों और कोई दूसरी भारतीय भाषा न जानते हों, तब भी मोटे तौर पर आप यह जान सकते हैं कि इस वक्त भारतीय साहित्य में क्या हो रहा है. अनुवाद की समस्याएं अपनी जगह हैं, लेकिन हिंदी इस मामले में बहुत आतिथेय भाषा है. एक दुःख यह भी है कि हिंदी से लगाव अब नहीं है. हिंदी सम्मेलनों, हिंदी अकादेमियों, हिंदी विभागों, हिंदी के नाम पर चलने वाली सारी संस्थाओं और हिंदी के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में पाखंड-व्यापार सतत चलता रहता है. इस सबसे हिंदी का बहुत अहित हुआ है और हो रहा है. एक जमाने में हिंदी को फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका थी. बड़े-बड़े लेखक अखबारों के संपादक थे, लेकिन अब लगता है कि मीडिया हिंदी को नष्ट करने के अभियान में बहुत जी-जान से जुटा हुआ है कि कैसे एक-एक करके इस भाषा की सारी मर्यादाएं भंग कर दी जाएं. इस दृश्य में आश्वस्त होने को कुछ है नहीं.

हिंदी के लेखक की रीढ़ कैसे सीधी होगी?

यह मानकर चलना चाहिए कि किसी भी समय में ज्यादातर की तो रीढ़ झुकी हुई ही होती है. कुछ ही लोग होते हैं जिनकी रीढ़ सीधी होती है. लेकिन सारे झुकी हुई रीढ़ वाले खराब लेखक भी हों, यह जरूरी नहीं है… हालांकि इसकी संभावना कम ही है कि झुकी हुई रीढ़ वाले बेहतर लेखक हों, पर कभी-कभी वे कुछ बेहतर काम भी कर देते हैं. सीधी रीढ़ वाले भी हमेशा रीढ़ सीधी ही रखते हों, यह भी जरूरी नहीं. हमेशा सीधी रीढ़ रखने वाले लेखक संख्या के अनुपात में बहुत कम हैं, लेकिन यह भी सच है कि उनसे ही साहित्य टिकता है. इस समय को अगर देखें तो इसमें बड़ा भारी विचारधारात्मक आलोड़न है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि हिंदी का कोई भी महत्वपूर्ण लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पाले में गया हो. हिंदी का एक भी महत्वपूर्ण लेखक इनके साथ नहीं है. दुर्भाग्य से यह बात बाकी भारतीय भाषाओं के लिए सच नहीं है. मसलन कन्नड़ में भैरप्पा जैसे लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ हैं. यह उम्मीद का मुकाम है कि हिंदी क्षेत्र में अब तक ऐसा नहीं हुआ है. यहां यह भी कहना जरूरी है कि यह सिर्फ वाम-दृष्टि वालों का मामला नहीं है, बल्कि जिन्हें वाम-विरोधी दृष्टि का माना जाता है वे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नहीं हैं, भले ही उसकी बौद्धिक स्वीकृति और अकादेमिक एकाधिकार बढ़ रहा हो.

आपको अफसोस है?

अफसोस तो बहुत हैं. मैंने जितना किया वह मेरे लक्ष्य के आधे से भी कम है— लगभग हर क्षेत्र में. एक अफसोस तो सबसे व्यापक यह भी है कि हिंदी समाज में साहित्य और कलाओं के प्रति जो रुचि और लगाव पैदा करने का अभियान मैंने शुरू किया, वह पूरी तरह विफल हो गया. जब-तब उसका थोड़ा-बहुत असर पड़ता रहा, लेकिन इस समय का हिंदी समाज सर्वाधिक धर्मांध, सांप्रदायिक, घृणाप्रेरित और हिंसक समाज बन चुका है. इसमें लेखकों-कलाकारों की कोई अहमियत नहीं. शास्त्रीय संगीत के वे सारे घराने जो ज्यादातर उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों में थे, अब वहां से उजड़ चुके हैं. अफसोस यही है कि मैं अकेला पड़ गया और मैं अकेले क्या-क्या कर सकता था?

आपको भय है?

भय तो कोई नहीं है, कुछ आशंकाएं जरूर हैं कि जिस तरह की शक्तियां आज सत्तारूढ़ हैं, जैसी स्थितियां आज बन गई हैं उनमें लिखने की आजादी और अवसर तेजी से घटेंगे. हम लोग अपने को भाग्यशाली मानेंगे कि हमारा वक्त इस मायने में ठीक-ठाक गुजर गया.

आपातकाल तो आपने भी देखा है.

हां. वह बेहद बुरा था, लेकिन मैं एक उदाहरण से समझाता हूं. मंगलेश डबराल उन दिनों ‘प्रतिपक्ष’ के संपादकीय विभाग में कार्यरत थे. जॉर्ज फर्नांडिस और कमलेश ‘प्रतिपक्ष’ के संपादक थे और गिरफ्तार हो चुके थे. ज्ञानरंजन ने मुझे फोन किया, उन्हें आशंका थी कि मंगलेश पर भी कुछ आंच आ सकती है. मैंने मंगलेश को भोपाल ‘पूर्वग्रह’ में बुला लिया. तीन महीने वह मेरे पास रहे. मैं डिप्टी सेक्रेटरी था. मैं कहना यह चाह रहा हूं कि अगर आज जैसी स्थितियां होतीं, तब वहां भी छापा पड़ सकता था. सबसे अधिक गिरफ्तारियां उस दरमियान मध्य प्रदेश में ही हुईं— सोलह हजार. इनमें से एक भी लेखक नहीं था. वेणु गोपाल उन दिनों भोपाल में ही थे. मैंने उनसे कहा कि आप लोग सरकार के खिलाफ इतनी आग उगलते रहते हैं, लेकिन सरकार आपको खतरनाक नहीं मानती. दो-दो कौड़ी के पत्रकार जेल में बंद हैं, लेकिन आप लोग आजाद घूम रहे हैं. इसलिए कह सकते हैं कि आपातकाल में भय तो था, पर सामान्य जन-जीवन उससे अप्रभावित भी था और फिर वह डेढ़ वर्ष ही तो रहा. इसके बावजूद लोकतंत्र का दबाव इतना था कि इंदिरा गांधी को चुनाव करवाना पड़ा और उसमें वह पराजित भी हुईं. अब यह स्थिति नहीं है. अब एक अघोषित आपातकाल है. इसमें कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. सत्ता का भय आज सबसे ज्यादा है. एक सर्वथा अप्रत्याशित का भय है. यह इससे पहले नहीं था. आपातकाल से बाद की सरकारों ने कई सबक भी सीखे. अब संविधान को वैसे अतिक्रमित करने की जरूरत नहीं है, अब इसे रोज थोड़ा-थोड़ा खुरचकर कमजोर किया जा सकता है.

आपकी कविताएं कम इतिहास की मांग करती हुई कविताएं लगती हैं, इसकी क्या वजह है?

इतिहास से क्या आशय है, यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया. अगर इतिहास-बोध का एक अर्थ जातीय स्मृति को कविता में सक्रिय रखना है, तब मेरी कविता तो जातीय स्मृति में ही रची-पगी है. उसमें व्यक्तियों और जगहों के नाम भले ही नहीं हैं. लेकिन यह तो अपनी-अपनी शैली और अपना-अपना मिजाज है. मेरी कविता के संदर्भ में किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया है, हालांकि कोई क्यों ध्यान दे, आखिर आपकी पात्रता क्या है? लेकिन फिर भी अगर कोई ध्यान दे तो देख सकता है कि उसमें ऐसी अनेक उक्तियां, बिंब, मुहावरे, पद, शब्द और युग्म हैं जो पहले की कविता के हैं, बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि यह सब कुछ मेरी कविता में मेरी पीढ़ी के किसी भी कवि की तुलना में सबसे ज्यादा है. भवभूति, कालिदास, ग़ालिब, सूरदास, तुलसीदास, देव, घनानंद की अंतर्ध्वनियां मेरी कविता में हैं.

आप जातीय स्मृति में चले गए, मैं कुछ और पूछ रहा था. ‘इतिहास हमें उतना ही चाहिए, जितना कि पड़ता है दाल में नमक’ और ‘उन्हें घर-बिस्तर/ रोटी-पानी/ राहत-मरम्मत और नींद की दरकार थी/ इतिहास की नहीं/ जिसे बदलने की उम्मीद से/ वे लड़ने गए थे’ ये आपकी ही कविता-पंक्तियां हैं न?

देखिए, कई बार कवि अपनी कविता में एक ऐसी मुद्रा भी लेता है जो जरूरी नहीं कि उसी की हो… और फिर आज सारी दुनिया का काम बहुत थोड़े इतिहास से ही चल रहा है, बल्कि इस समय या तो इतिहास की दुर्व्याख्या हो रही है या फिर ऐतिहासिक विस्मृति है. इसे भी एक उदाहरण से समझिए… चित्रकला की मुगल शैली अकबर के दरबार में विकसित हुई. मुगलों ने सबसे पहले फारस से चित्रकार बुलाए. वे मिनिएचर चित्रकार थे. उनसे भारतीय चित्रकारों ने सीखना शुरू किया. इस्लाम में तो अल्लाह या पैगंबर का चित्र नहीं बनाया जा सकता. यह वर्जित है, इसलिए राजा-महाराजाओं और भू-दृश्य के चित्र ही बनाए गए. लेकिन भारतीय चित्रकारों ने राधा-कृष्ण और सारे मिथकों के चित्र बनाने शुरू किए. अकबर ने वाल्मीकि कृत रामायण का एक फारसी अनुवाद कमीशन किया. उस समय तक पुस्तकें तो छपती नहीं थीं. एक या दो प्रतियों में कृति की पांडुलिपि ही रह जाती थी. इसलिए एक प्रति को चित्रित या अलंकृत करना भी जरूरी था. इसके लिए ग्वालियर, राजस्थान और कश्मीर से चित्रकार बुलाए गए. वे सब अपनी-अपनी स्थानीय शैलियां लेकर अकबर के दरबार में आए और उन्होंने मिल-जुलकर एक साझा शैली विकसित की. यह शैली ही मुगल शैली कहलाती है. आज इस इतिहास को जानने में किसकी दिलचस्पी है कि मध्यकालीन चित्रकला की एक इतनी बड़ी शैली असल में वाल्मीकि कृत रामायण के फारसी अनुवाद के चित्रण के बहाने विकसित हुई. गुलाम मोहम्मद शेख ने इस पर एक व्याख्यान दिया है. यह इतिहास-बोध आखिर कहां गायब है? क्या इतिहास-बोध एक वैचारिक प्रत्यय भर है? इतिहास को आखिर आप कैसे समझ रहे हैं? अगर जनसंघर्ष का इतिहास-बोध है, तब तो इतिहास में बहुत जनसंघर्ष है — वैदिक काल से लेकर अब तक — इसे आप पहचान भी सकते हैं, लेकिन बहुत सारा जनसंघर्ष ऐसा भी है जो जनसंघर्ष जैसा नहीं भी लग सकता है, पर वह भी इतिहास का कारक और प्रेरक रहा है. इसलिए इतिहास-बोध जब आप कहते हैं, तब कोई ठीक अर्थ इससे नहीं निकलता है और यह एक भ्रामक पद प्रतीत होता है.

क्या आपने कभी अपमानित महसूस किया है?

हां, दो-तीन बार. एक बार तो तब जब मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया. यह प्रस्ताव भारत भवन और मेरे विरुद्ध था. हुआ यह कि मुझे हरिशंकर परसाई की एक ट्रंक कॉल आई. उन्होंने मुझसे कहा कि तुम जो कर रहे हो करते रहो, वह बिल्कुल ठीक है. मैं तुम्हारे साथ हूं, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ ने आज तुम्हारे विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया है और मुझे इसका खेद है. मैंने सोचा कि मैं तुम्हें यह बता दूं कि तुम इससे विचलित मत होना… हरिशंकर परसाई से मेरा कभी कोई गहरा व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा. वह मेरे पहले साहित्य संपादक जरूर रहे, लेकिन मेरी उनसे कभी कोई घनिष्ठता नहीं रही. मुझे यह बहुत खराब लगा कि उन्हें मुझे फोन करके यह सब कहना पड़ा. दूसरी बार तब जब मेरा प्रमोशन ड्यू था और सरकार में सब लोग इस पर सहमत थे कि मुझे ही भारत सरकार का संस्कृति सचिव होना चाहिए. इस मौके पर मुझसे कहा गया कि कुछ मुश्किलें हैं और हम आपको नियुक्त नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन अगर आप प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दें तो हम आपको अशोक वाजपेयी के रूप में नियुक्त कर सकते हैं— ऑन ए कॉन्ट्रेक्टचुअल बेसिस। मैंने उनसे कहा कि मुझे इसमें कोई समस्या नहीं है. तब उन्होंने कहा कि आप सोच लीजिए. मैंने पत्नी और रज़ा साहब से फोन पर बात की और अपना निर्णय उन्हें बता दिया. लेकिन इतने बड़े स्तर पर बातचीत होने के बाद, तीस वर्ष से अधिक तक प्रशासनिक सेवा करने के बाद और उसके प्रमुख के यह कहने के बाद कि तुमसे अधिक योग्य कोई नहीं है और सबकी तुम्हारे नाम पर सहमति है… फैसला मेरे पक्ष में नहीं हुआ और न ही मुझे इसका कोई कारण बताया गया. इससे मैंने काफी अपमानित महसूस किया. तीसरी बार तब जब पुरस्कार वापसी के प्रसंग में भारतीय जनता पार्टी के एक मंत्री ने यह कहा कि पुरस्कार लौटाने के लिए लेखकों को पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए कांग्रेस पार्टी की तरफ से मिले.

आपमें और आपके कवि में भी थकने के बावजूद हताशा को न स्वीकार करने का उत्साह नजर आता है. क्या यह उत्साह परंपरा के प्रति गहन आसक्ति से आया है, या इसका स्रोत कहीं और है?

इसका स्रोत कुछ परंपरा में भी है और कुछ स्थिति में भी है. आज हमारी सारी आस्थाएं और अपेक्षाएं लगभग ध्वस्त हो चुकी हैं. चाहे तथाकथित जनसंघर्ष वालों की आस्थाएं और अपेक्षाएं हों, चाहे उनसे असहमतों की… सब की सब आज एक ही इतिहास के घूरे पर पड़ी हुई हैं. यह वह मुकाम है, जहां बहुत आसानी से उम्मीद का दामन छोड़ा जा सकता है कि बेकार है उम्मीद करना… वह दुनिया जो हमने बनाई थी और जिसमें हम पले-बढ़े, जिसमें हमने कुछ जोड़ने की कोशिश की… वह दुनिया अब पूरी तरह हमारे काबू और हमारी समझ से बाहर निकल चुकी है. वह इस तेजी से बदल रही है कि उस पर अब हमारा कोई बस नहीं है. यह एक शुद्ध यथार्थवादी आकलन है, लेकिन साथ ही मनुष्यों की — और साहित्य और कलाओं की भी — एक बुनियादी मुश्किल यह है कि वे उम्मीद और विकल्प की कल्पना करना छोड़ नहीं सकते. इस परिस्थिति में भी जब ऐसा करते रहने का कोई आधार नहीं बचा है, हमारी स्थिति कुछ इतनी अतिरंजित हो गई है कि इसके बारे में अतिरंजना के मुहावरे के बगैर बात ही नहीं की जा सकती. एक और बात यह है कि जिसे हम तथाकथित सामाजिक संसार कहते हैं, उसके समानांतर एक रोजमर्रा का जीवन-व्यापार भी चलता रहता है और वह हमारे तथाकथित सामाजिक संसार से अप्रभावित भी रहता है. यह जो साधारण जीवन है, वह इतनी आसानी से बदलने वाला नहीं है. वह इतनी जल्दी नष्ट होने वाला भी नहीं है. तब आखिर इस जीवन को हम अलक्षित क्यों करें? साहित्य का काम तो वैसे भी जो अलक्षित है या जो अलक्षित रह जाएगा — इतिहास द्वारा भी — उसकी शिनाख्त करना और हो सके तो उसे भाषा में लक्ष्य करना है. यह करना साहित्य का लगभग नैतिक धर्म है.

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