मजबूरी के मिलन में छिपे मजबूत फायदे

सपा-बसपा की दोस्ती विकल्पहीनता का मिलन तो है लेकिन यह उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने ऐसी चुनौती बन सकती है जो 2019 की उम्मीदें तोड़ सकती है.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
Date:
Article image

एक महीने पहले जब अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से बसपा के साथ तालमेल की इच्छा जताई थी तब वो बड़ी ख़बर नहीं बन पायी थी. लोगों ने भी उसे नज़रअंदाज कर दिया. रविवार को जैसे ही सपा प्रवक्ता पंखुड़ी पाठक ने बसपा के साथ उपचुनावों में आपसी तालमेल की ख़बर को ट्वीट किया, इसे उत्तर प्रदेश और एक हद तक देश की राजनीति में बड़ी घटना के तौर पर देखा जाने लगा. दोनों दल एक अरसे से उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव को लेकर बातचीत की प्रक्रिया में थे. विधानसभा में बसपा के विधायक दल के नेता लालजी वर्मा और सपा के नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी के बीच कई दौर की मुलाकातों से इसके संकेत मिल रहे थे. समझौते के अंतिम स्वरूप और साथ में इसके भविष्य को लेकर एहतियाती उपाय भी दोनों दलों के दिमाग में सबसे ऊपर था.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

कोई भी पक्ष फिलहाल इसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं कर रहा. मायावती ने बयान दिया है कि यह सिर्फ उपचुनाव, राज्यसभा चुनाव और विधान परिषद के चुनाव तक सीमित आपसी समझदारी का मामला है. अखिलेश यादव ने अपनी तरफ से कोई बयान रविवार को जारी नहीं किया. पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने भी इसे सिर्फ उपचुनाव का मसला बता कर भविष्य की संभावनाओं पर बात करने से इनकार कर दिया.

दोनों पक्ष सावधानी बरत रहे हैं. दोनों समझौते के प्रति जनता का रुख भांपने की कोशिश कर रहे हैं. उपचुनाव इसका सबसे बेहतर जरिया हो सकते हैं. गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा के उपचुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल हैं. गोरखपुर योगी आदित्यनाथ की सीट रही है जबकि फूलपुर की सीट उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या के इस्तीफे से खाली हुई है. जाहिर है इन सीटों से अगर कोई उलटफेर भरे नतीजे आते हैं तो इसके संदेश दूरगामी होंगे. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर में भाजपा को 51.80 फीसदी वोट मिले थे जबकि फूलपुर में 52.43 फीसदी. इन दोनों सीटों पर सपा-बसपा का सम्मिलित वोट भाजपा से कम था. लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में गोरखपुर और फूलपुर दोनों लोकसभाओं की पांच में से चार-चार विधानसभा सीटों में सपा-बसपा और कांग्रेस का सम्मिलित वोट भाजपा से कहीं ज्यादा था.

इसलिए दोनों दलों का मिलना एक बड़ी राजनीतिक घटना है. मायावती ने भले ही कह दिया हो कि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए यह गठबंधन नहीं है, लेकिन जिन्हें सपा-बसपा के राजनीतिक घमासान का इतिहास पता है उन्हें पता है कि दोनों दलों के बीच का यह तालमेल एक बड़ा उलटफेर है. इसमें 2019 में बाहुबली भाजपा की संभावनाओं को पलीता लगाने की प्रबल संभावना है.

सपा-बसपा की ऐतिहासिक दुश्मनी की शुरुआत 1995 में बदनाम हुए वीआईपी गेस्ट हाउस कांड से हुई थी. उस वक्त सपा-बसपा के बीच आपसी गठबंधन था और उत्तर प्रदेश में दोनों दलों की साझा सरकार थी. लेकिन साल भर के भीतर दोनों दलों के रिश्ते बिगड़ने लगे. मायावती ने मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी. इसके बाद सपा के कुछ आपराधी नेताओं ने लखनऊ स्थित वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहरी मायावती के ऊपर हमला कर दिया. उनके कपड़े फाड़ दिए गए. उस समय भाजपा के एक नेता हुआ करते थे ब्रह्मदत्त द्विवेदी. कहा जाता है कि उन्होंने हमलावर सपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच जाकर मायावती को बाहर निकाला और उन्हें एक सुरक्षित कमरे में बंद किया. मायावती का आरोप है कि सपा के नेता मुलायम सिंह के इशारे पर उन्हें जान से मारना चाहते थे.

इस घटना के बाद सपा और बसपा के रिश्ते कभी भी सामान्य नहीं हो सके. कहते हैं कि राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती. लेकिन बसपा और सपा की दुश्मनी ने बार-बार इस कहावत को झुठलाया. मायावती अपने ऊपर हुए हमले और अपमान को कभी नहीं भूल सकीं. पर अंतत: अब एक बार फिर से दोनों दलों के बीच जमी बर्फ पिघली है.

इसके लिए आज के हालात भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं. सपा और बसपा दोनों ही आज भाजपा के सामने हाशिए पर पहुंच चुके हैं. दोनों की सियासी प्रासंगिकता नाममात्र की बची है. एक और दिलचस्प बात यह भी है कि जिन परिस्थितियों में मायावती का सपा से दुराव और कड़वाहट हुई थी, वे परिस्थितियां अब कमोबेश खत्म हो चुकी हैं. मुलायम सिंह आज सपा के मार्गदर्शक मंडल हो चुके हैं. शिवपाल यादव सपा से लगभग बहिष्कृत अवस्था में हैं.

दूसरी तरफ अखिलेश यादव हैं जो मायावती को बुआजी कहते हैं. उनके सबसे करीबी सियासी सलाहकार उनके चाचा रामगोपाल यादव हैं, जिनकी मायावती के साथ ठीकठाक बातचीत रही है. 2007 से लेकर 2012 तक जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी और 2012 से लेकर 2017 तक जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे तब अंदरखाने में रामगोपाल यादव दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व के बीच सेतु का काम करते रहे हैं. यह समझदारी विधानसभा में फ्लोर मैनेजमेंट से लेकर बिलों, अध्यादेशों तक में रही है.

दुविधा और सुविधा

मायावती या अखिलेश यादव, कोई भी फिलहाल दोनों लोकसभा के उपचुनावों को लेकर बनी सहमति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करना चाहते. यही वजह रही कि पंखुड़ी पाठक जैसी नवोदित नेत्री के जरिए इस ख़बर को मीडिया के सामने लाया गया जो उत्तर प्रदेश की बजाय दिल्ली की ज्यादा मानी जाती हैं.

इस एहतियात की एक बड़ी वजह दोनों दलों के अपने कार्यकर्ता और काडर भी हैं जिन्हें दोनों दल अभी से किसी तरह की असुरक्षा या दुविधा में नहीं डालना चाहते. जाहिर है लोकसभा चुनाव से पहले अगर किसी तरह की चुनाव पूर्व सहमति सीटों पर बनती है तो दोनों दलों के बहुत से महत्वाकांक्षी नेताओं के टिकट कट सकते हैं, आपसी तालमेल में सीटें दूसरे दल के लिए छोड़नी पड़ सकती हैं. इससे कार्यकर्ताओं में स्वाभाविक नाराजगी और भितरघात पैदा होगा.

उपचुनाव इस भावना की थाह लेने और फिर वास्तुस्थिति का आकलन करने का बेहतर जरिया हैं. इसके अलावा दोनों दल लगभग 23 साल के लंबे अलगाव के बाद फिर से एक हो रहे हैं ऐसे में इस गठबंधन को लेकर जनता में कितनी गर्मजोशी रहेगी, यह भी अभी पूरी तरह से अनिश्चित है. उपचुनावों से यह समझने का मौका भी मिलेगा कि जनता दोनों दलों की साझेदारी को किस नज़र से देख रही है.

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो आज भी सपा-बसपा का गठबंधन किसी स्वप्निल सफ़र की तरह है. अगर यह सफ़र शुरू हो तो बिना हिचकोले खाए आगे बढ़ सकता है. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल वोटों का 41.35 फीसदी और 325 सीटें मिली थीं. सपा को 28.07 फीसदी वोट के साथ 54 सीटें. जबकि बसपा को 22.23 फीसदी वोट के साथ 19 सीटें.

आंकड़ों के लिहाज से दोनों दल आज भी उसी मुकाम पर हैं जहां 1995 में इनका सफ़र छूटा था. असल में यह वही 51 फीसदी वोट थे जिनका आकलन कर कांशीराम ने सपा-बसपा गठबंधन का पांसा फेंका था. और यह इतना कारगर रहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस और राम मंदिर की लहर पर सवार होने के बावजूद भाजपा दो साल के भीतर ही उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो गई थी. उस दौर का सबसे लोकप्रिय नारा था- “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम.”

वोटों का प्रतिशत बताता है कि आज भी दोनों दलों का कोर वोटबैंक एक हद तक उनके साथ बना हुआ है. लेकिन यह भी बड़ा सच है कि ब्रांड मोदी के उभार के बाद दोनों दलों का एक बड़ा हिस्सा इनसे अलग हो चुका है. मूलत: बाभन-बनिया की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा का वोटों का प्रतिशत इस बात की तस्दीक करता है. विशेषकर पिछड़ी और दलित जातियों के बीच से युवाओं का एक बड़ा हिस्सा 2014 के बाद से भाजपा के साथ जुड़ा है. भाजपा की महत्वाकांक्षी राजनीति ने युवाओं को सफलतापूर्वक अपनी ओर आकर्षित किया है. भाजपा बहुत आक्रामक तरीके से दलितों की राजनीति कर रही है. दलित महापुरुषों की जयंती से लेकर रामनाथ कोविंद जैसे दलित नेता को राष्ट्रपति बानकर भाजपा ने दलित समुदाय को साफ संदेश दिया है.

भाजपा की राजनीति और सामाजिक न्याय

क्या भाजपा की राजनीति सामाजिक न्याय की जरूरतों से न्याय कर सकती है? यह एक टेढ़ा सवाल है, लेकिन इसका उत्तर सीधा है. भाजपा सिर्फ प्रतीकात्मक राजनीति कर रही है. वह धारणाओं का दोहन कर रही है. इस मामले में भाजपा की राजनीति पूरी तरह से पुराने दौर की कांग्रेसी नीति की नकल है. इसमें एक बड़ा दलित चेहरा, एक बड़ा पिछड़ा चेहरा, एक मंझले कद का मुस्लिम चेहरा अलग-अलग शाखों पर लटका दिखेगा लेकिन मूल तने में प्रचंड सवर्णवाद, हिंदुत्व का रस बहता रहता है. इस राजनीति से इक्का-दुक्का दलित, मुस्लिम या फिर पिछड़े नेताओं का तो भला हो सकता है लेकिन पूरे समाज के उत्थान की संभावना इसमें सिरे से खारिज है. दलित नेता उदित राज इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.

कांग्रेस इस तरह की राजनीति आजादी के बाद लंबे अरसे तक करती रही है. दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों के समग्र सामाजिक उत्थान की उम्मीद इस राजनीति से कभी पूरी नहीं हो सकती.

यह सिर्फ नौकरियों और आरक्षण का मसला नहीं है. जब बात समाज के बीच में आए दिन होने वाले सामाजिक भेदभावों की हो, जब बात मुसलमानों के प्रति आए दिन होने वाली घृणात्मक कार्रवाइयों की हो तब भाजपा की राजनीति पूरी तरह से असफल सिद्ध होती है.

ऐसे कठिन सवालों का जवाब सपा-बसपा गठबंधन में खोजा जा सकता है. बिहार में हुए महागठबंधन में खोजा जा सकता है. दक्षिण भारत की द्रविड़ पार्टियों में खोजा जा सकता है. लेकिन यहां भी एक वाजिब खतरा सिर उठा लेता है. अपने उत्कर्ष के 20-25 सालों में इन दलों ने सामाजिक न्याय को कितना बल दिया. जाहिर है सामाजिक न्याय के गर्भ से निकले तमाम नेता भ्रष्ट निकले, उनमें से एक लालू यादव आज जेल में हैं. तमाम नेता परिवार और रिश्तेदारों के विकास में लग गए, खुद मुलायम सिंह उसके सबसे बड़े जीवित प्रतीक हैं.

इसके बावजूद, आज कौन सी पार्टी भ्रष्टाचारा से अछूती है, नीरव मोदी के बाद तो भाजपा भी नहीं रही. परिवारवाद तो भाजपा ने भी अत्मसात कर ही लिया है. इसलिए सामाजिक न्याय की जो तस्वीर ज़मीन पर उतारनी है, सबसे पिछली पायदान पर खड़े व्यक्ति तक पहुंचानी है, उसे भाजपा की राजनीति नहीं पहुंचा सकती है.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अगर सपा-बसपा की दोस्ती रूप लेती है तो यह सिर्फ सामाजिक न्याय की लड़ाई में ही फायदेमंद नहीं होगी, बल्कि एक बाहुबली के सामने उत्तर प्रदेश एक चुनौती बनकर खड़ा हो जाएगा जो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ज्यादा जरूरी है, बनिस्बत किसी बाहुबली के.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like