“यहां किरदार विजय तेंदुलकर के नाटकों की तरह केंद्र में हैं”

सेक्रेड गेम्स वेब सीरीज के लीड राइटर वरुण ग्रोवर से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

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पहले ओरिजिनल इंडियन कंटेंट के तौर पर नेटफ्लिक्स पर आरम्भ हो रहा वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है. फैंटम के सहयोग से बन रही इस सीरीज के निर्देशक अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवानी हैं. दोनों ने मिल कर इसका निर्देशन किया है. उपन्यास को वेब सीरीज में लिखने और ढालने की ज़िम्मेदारी वरुण ग्रोवर को मिली है. उनके साथ स्मिता सिंह और वसंत नाथ भी बतौर लेखक जुड़े हैं. इस सीरीज के लेखन की प्रक्रिया और अनुभव को समझाने के लिए वरुण ग्रोवर हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

विक्रम चंद्रा के उपन्यास को वेब सीरीज में लिखने और ढालने की क्या प्रक्रिया रही?

पहला काम तो यही था कि पूरी किताब पढ़नी थी. यह 1000 पन्नों से ज्यादा की किताब है और काफी लेयर्ड है. दूसरे अंग्रेजी उपन्यासों की तरह सीधी कथा भी नहीं है. इसमें बीच-बीच में ऐसे भी चैप्टर हैं, जिनका मुख्य किरदारों या प्लाट से कुछ लेना-देना नहीं है. उपन्यास में ड्रामा ज्यादा है. क्राइम की दुनिया और पुलिस विभाग का संसार है. वेब सीरीज देखते हुए थ्रिलर का एहसास होगा. उपन्यास में मुंबई के गैंगस्टर दौर और पुलिस लाइफ पर अच्छा डॉक्यूमेंटेशन है. फिल्मों में अमूमन इतने डिटेल में सब आता भी नहीं है. फिल्मों में समय का बंधन रहता है. दो घंटे में सब दिखाना होता है. 

हां, रामू ने अपनी फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का एक हद तक चित्रण ज़रूर किया है. उनकी दो-तीन फिल्मों में यह दिखा है. पहला काम यही था कि हम तीनों राइटर उसे पढ़ कर डिस्कस करें. यह चरण सिर्फ पढ़ने और बातचीत तक सीमित रहा. तीनों लिखने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि साहित्य चर्चा की तरह अपनी राय देते रहे. उपन्यास के नएपन की बात करते रहे. अपनी पसंद के किरदारों के बारे में बातें कीं.

ऐसा करना क्यों ज़रूरी लगा?

इससे यह समझ में आया कि वेब सीरीज के लिहाज से क्या ज़रूरी है और हमें क्या-क्या लेना है? यह भी विचार करना था कि वेब सीरीज में हम क्या नहीं ले सकते. बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो विवरणात्मक है. किताब में पाठकों के लिए यह ठीक रहता है, लेकिन विजुअल में वह विवरण कुछ सेकेंड के दृश्य में निकल जाता है. इसी प्रक्रिया में हमने किरदार चुने. यह तय किया गया कि किसे बढ़ाना है, जैसे कि अंजली माथुर. उपन्यास में वह छोटा किरदार है. वेब सीरीज में उसे विस्तार दिया गया है. उसमें सम्भावना थी तो कुछ दूसरे किरदारों को भी उसी में मिला दिया. 

हमने यह भी तय किया कि एक सीजन में किरदार कहां से कहां जायेंगे? उनकी जर्नी क्या होगी? तीसरे चरण में आउटलाइन तैयार किया गया. नेटफ्लिक्स वाले उसे बाइबिल कहते हैं. हर सीरीज की एक बाइबिल तैयार कर ली जाती है. उसमें कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता. उसमें हर किरदार की जर्नी और हर एपिसोड का आउटलाइन होता है. सारी सैद्धांतिक चीजें रहती हैं. अगर आगे कभी भटके भी तो बाइबिल एक बार फिर से पढ़ लेना पड़ता है.

इस वेब सीरीज के लिए काफी शोध भी करना पड़ा होगा?

शोध का काम तीसरे चरण में आया. लेखकों में मैं, स्मिता सिंह और वसंत नाथ तीनों ही मुंबई के नहीं हैं. हम सभी कुछ सालों से मुंबई में हैं, लेकिन मुबई से अच्छी तरह से वाकिफ नहीं हैं. हम लोकल नहीं हैं. कहानी 1975 में ही मुंबई आ जाती है. वह दौर हमें खास नहीं मालूम है. हमने फिल्मों में देख कर ही तब की मुंबई को जाना है. नौवें और आखिरी दशक में सब कैसे चल रहा था, हमें यह नहीं पता है. हमारी रिसर्च हेड स्मिता नायर हैं. वह इंडियन एक्सप्रेस में है. लम्बे समय तक उन्होंने क्राइम रिपोर्टिंग की है. मुंबई के बारे में उनकी जानकारी है और पुलिस विभाग में उनका संपर्क भी हैं. उनका योगदान इस वेब सीरीज के लिए महत्वपूर्ण है. छोटी-छोटी जानकारियां दृश्य को खास और प्रभावशाली बना देती हैं.

पुलिस कार्यालय में तहकीकात और जांच का कमरा कैसा होता है? पुलिस विभाग की आतंरिक जांच कैसे होती है? फिल्मों में तो हम अतिरंजित रूप में देखते हैं. उनकी दी गयी जानकारियां हमारे बहुत काम आयीं. उपन्यास में पुलिस की दुनिया शोध और जानकारी के आधार पर चित्रित है. विक्रम चंद्रा ने शब्दों में लिख दिया है. हमें उन्हें दृश्यों में बदलना था. एक मज़ेदार तथ्य है कि मुंबई के हर पुलिस कार्यालय में एक्वेरियम ज़रूर होता है. कहते हैं कि कभी एक कमिश्नर आये थे, उन्हें मछलियां पसंद थीं. उन्होंने एक्वेरियम रखा था. उनके देखादेखी दूसरे ऑफिसर  भी एक्वेरियम रखने लगे. वह परिपाटी बन गयी.

आप तीनों ने अलगअलग ट्रैक लिखे या सब मिलेजुले रूप से चलता रहा?

तीसरे चरण के बाद हम अलग हो गए. अपनी-अपनी खोह में लिखने चले गए. हम सबने मिल कर बाइबिल बनायी. उसके बाद एपिसोड बांट दिए गए. मैं लीड राइटर हूं तो मेरी अंतिम ज़िम्मेदारी थी. सब देख लेता था. संवाद लिखने के समय मैंने सरताज सिंह (सैफ अली खान) के संवाद देखे और लिखे. गायतोंडे के सारे संवाद अनुराग कश्यप ने लिखे.

मूल उपन्यास का समय काल और सीरीज का समयकाल एक ही है या कुछ बदला गया है?

थोडा सा बदलाव है. उपन्यास 2006 में आया था. हमने इसे अभी का बना दिया है. हमारी कहानी 2017 में ही हो रही है. सरताज की कहानी में अधिक बदलाव नहीं करना पड़ा. गायतोंडे में थोड़ा करना पड़ा. सरताज के साथ का सिपाही 26/11 में घायल हुआ था. सीरीज में बीच के समय का भी हल्का सा रिफ्लेक्शन है.

फिल्म लिखते समय तो कलाकारों की पूर्व जानकारी नहीं रहती. वेब सीरीज में तो मालूम रहा होगा. तो क्या कलाकारों के हिसाब से कुछ लिखना पड़ा?

यहां भी हमें शुरू में नहीं मालूम था. हमलोगों ने 2016 से काम करना आरम्भ किया था.बाइबिल बनाने के समय तक हमें नहीं मालूम था कि कौन-कौन कलाकार हैं. पायलट लिखते समय पता चला, क्योंकि उन्हें सुनाना था. पायलट के बाद लिखते समय हमें पता था तो संवाद लिखने में ज़रूर मदद मिल गयी.

वेब सीरीज के लिए लिखने में क्राफ्ट का बड़ा फर्क होता होगा  फिर एक जैसा ही है?

क्राफ्ट तो अलग हो ही जाता है. कुछ छोटे-मोटे किरदारों को 8 एपिसोड तक ले जाना होता है. सीरीज का कैनवास बड़ा हो जाता है. फिल्म कहानी है तो वेब सीरीज उपन्यास है. वेब सीरीज में हमें हुक पॉइंट का ख्याल रखना पड़ता है. वह मेरी समझ में नहीं आता है. एपिसोड कहां ख़त्म करना है? यह देखना पड़ता है कि दर्शक अगले एपिसोड के लिए वापस आएं. ऐसी जगह न ख़त्म करें, जहां मन में कोई सवाल न हो. सवाल ज़रूरी है. मुझे रेडियो पर सुने डायमंड कॉमिक्स की दुनिया की याद आ गयी. दादाजी चाचा चौधरी का किस्सा थोड़ा सा सुनाते थे, लेकिन ऐसी जगह ख़त्म करते थे कि हम कॉमिक्स खरीदने के लिए उतावले हो जाते थे.

वेब सीरीज देखने का आनंद फिल्म या टीवी शो से कितना अलग होता है?

मैंने पिछले दो सालों से देखना शुरू किया है. वेब सीरीज अच्छा है तो ज्यादा आनंद देता है. हमारी फिल्मों में कहानी ज़रूरी तत्व है. वेब सीरीज आइडिया और दर्शन पर भी हो सकता है. यहां किरदार साथ में रहते हैं. विजय तेंदुलकर के नाटकों की तरह यहां किरदार ही ड्राइविंग आकर्षण होते हैं. उनका साथ लम्बा भी होता है.

मूल लेखक विक्रम चंद्रा और निर्देशक अनुराग और विक्रम की लेखन में कितनी भागीदारी रही?

अनुराग ने गायतोंडे के संवाद लिखे हैं. अनुराग और विक्रम को हम अपना लिखा भेजते थे. उनकी निगरानी रहती थी. सुझाव भी देते थे. निर्देशक की सोच तो रहती ही है. विक्रम तो शुरू से ही लेखन से जुड़ गए थे. वे राइटिंग रूम का हिस्सा रहे. हमलोग 10-12 दिनों के लिए गोवा भी गए थे तो वे साथ में थे. सुबह से शाम तक स्क्रिप्ट पर ही मिल कर हम काम करते रहे. विक्रम का विज़न मिलता रहा. अनुराग खुद लेखक हैं तों उनका असर तो रहना ही था. वे हर स्क्रिप्ट को फिर से लिखते ही लिखते हैं.

हिंदी साहित्य से आप का संपर्क रहा है. कल किसी उपन्यास को वेब सीरीज में लेने का मौका मिले तो किसे चुनेंगे?

मुझे मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ बहुत ज्यादा पसंद है. मेरा मन भी है कि कभी उस पर कुछ करूं. धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ भी अच्छा है. ये दो उपन्यास मुझे अभी याद आ रहे हैं. इन पर हिंदी सिनेमा ने भी काम नहीं किया है.

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