क्यों हिन्दुस्तान जैसे बड़े अख़बार में पहले पन्ने पर उसकी अपनी ख़बर नहीं है?
गर्त इतना गहरा हो गया है कि बात में तल्ख़ी और सख़्ती की इजाज़त मांगता हूं. आप आज का हिन्दुस्तान अखबार देखिए. फिर इंडियन एक्सप्रेस देखिए. एक्सप्रेस का पहला पन्ना बताता है कि देश में कितना कुछ हुआ है. घटनाओं के साथ पत्रकारिता भी हुई है. एक्सप्रेस के पहले पन्ने की बड़ी ख़बर है कि भूपेन हज़ारिका के बेटे ने भारत रत्न लौटा दिया है. रफाल डील होने से दो हफ्ता पहले अनिल अंबानी ने फ्रांस के रक्षा अधिकारियों से मुलाकात की थी. हिन्दुस्तान का पहला पन्ना बताता है कि भारत में दो ही काम हुए हैं. एक प्रधानमंत्री का भाषण हुआ और एक प्रियंका गांधी की रैली हुई है.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
Contributeअख़बार ने प्रधानमंत्री के भाषण को इतने अदब से छापा है जैसे पूरा अखबार उनका टाइपिस्ट हो गया हो. आप दोनों अखबारों को एक जगह रखें और फिर पहले पन्ने को बारी-बारी से देखना शुरू कीजिए. मेरे पास फिलहाल यही दो अखबार हैं, आप यही काम किसी और हिन्दी अखबार और अंग्रेजी अखबार के साथ कर सकते हैं. तब आप समझ सकेंगे कि क्यों मैं कहता हूं कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं. क्यों हिन्दी के चैनल आपकी नागरिकता के बोध को सुन्न कर रहे हैं.
हिन्दुस्तान की पहली ख़बर क्या है. प्रधानमंत्री का भाषण. 2030 तक दूसरी आर्थिक ताकत बनेंगे. 2019 में 2030 की हेडलाइन लग रही है. भाषण के पूरे हिस्से को उप-शीर्षक लगा कर छापा गया है. ऐसा लगता है कि कहीं कुछ छूट न जाए और हुज़ूर नाराज़ न हो जाएं इसलिए संपादकजी ख़ुद दरी पर बैठकर टाइप किए हैं. इस साल के शुरू होते ही प्रधानमंत्री सौ रैलियों की यात्रा पर निकल चुके हैं. इसके अलावा या इसी में सौ में उनके इस तरह के कार्यक्रम भी शामिल हैं, ये मुझे नहीं मालूम लेकिन जो नेता रोज एक भाषण दे रहा हो क्या उसका भाषण इस तरह से पहली ख़बर होनी चाहिए, कि आप एक-एक बात छापें.
इस बात का फैसला आप पाठक करें. अच्छा लगता है तब भी इस तरह से सोचें. बगल की दूसरी ख़बर में प्रियंका की ख़बर छपी है. उस ख़बर में भी निष्ठा का अतिरेक है. जैसा कि सभी टीवी चैनलों में था. भीतर के एक पूरे पन्ने पर प्रियंका गांधी की ख़बर है. उसमे कुछ है नहीं. पन्ना भरने के लिए ज़बरन बॉक्स बनाए गए हैं और तस्वीरें छापी गई हैं.
क्या बेहतरीन संवाददाताओं और संसाधनों से लैस किसी अख़बार को पहली ख़बर के रूप में यही देना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में शब्दशः क्या-क्या कहा? एक रैली की झांकी छाप कर पन्ना भरना चाहिए? जिस ख़बर में विस्तार होना चाहिए वो संक्षिप्त है, जिसे संक्षिप्त होना चाहिए उसमें अनावश्यक विस्तार है. ख़बरों को इस तरह से छापा जाता है कि छप जाने दो. किसी की विशेष नज़र न पड़े. घुसा कर कहीं छाप दो. आप ख़ुद भी देखें. प्रियंका गांधी के कवरेज़ को. टीवी और अखबार एक साथ गर्त में नज़र आएंगे. कुछ छापने को है नहीं, बॉक्स और फोटो लगाकर और झांकियां सजा कर पन्ना भरा गया है. क्या हिन्दी का मीडिया वाकई हिन्दी के पाठकों को फालतू समझने लगा है?
क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पहले पन्ने पर इंडियन एक्सप्रेस की तरह भूपेन हज़ारिका के भारत रत्न लौटाने की ख़बर नहीं होनी चाहिए थी? उनके बेटे ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में ये सम्मान लौटा दिया है. इसके बगल में रफेल डील की ख़बर है, वो हिन्दुस्तान क्या हिन्दी का एकाध अखबारों को छोड़ कोई छापने या लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता.
आप एक्सप्रेस के सुशांत सिंह की ख़बर देखिए. रफेल डील के एलान से दो हफ्ते पहले अनिल अंबानी ने फ्रांस के रक्षा अधिकारियों से मुलाकात की थी. राफेल पर सीएजी की रिपोर्ट पेश होगी इस सूचना को हिन्दुस्तान ने जगह दी है. लेकिन आपने सोचा कि अखबारों के पास वक्त होता है, काबिल रिपोर्टर होते हैं फिर क्यों हिन्दी के इतने बड़े अख़बार के पास रफेल जैसे मामले पर स्वतंत्र रिपोर्टिंग नहीं है?
यह उदाहरण क्यों दिया? कल ही आधी रात को लिखा कि न्यूज़ चैनलों में गिरावट अब गर्त में धंस गई है. चैनल अपनी ख़बरों को कतर-कतर कर संदर्भों से काट रहे हैं जिसके नतीजे में उनका नागिरकता बोध सूचना विहीन और दृश्यविहीन होता जा रहा है. हिन्दुस्तान जैसे अख़बार भी वही कर रहे हैं. मेरी बातों को लेकर भावुक होने की कोई ज़रूरत नहीं है. सख़्ती से सोचिए कि ये क्या अख़बार है, आप क्यों इस अखबार को पढ़ते हैं, पढ़ते हुए इससे आपको क्या मिलता है? यही सवाल आप अपने घर आने वाले किसी भी हिन्दी अख़बार को पढ़ते हुए कीजिए. हिन्दी के न्यूज़ चैनल और अख़बार हिन्दी के पब्लिक स्पेस में नाला बहा रहे हैं. आप नाले को मत बहने दें.
आखिर हिन्दी की पत्रकारिता इस मोड़ पर कैसे पहुंच गई? क्या हिन्दी के अख़बार बीजेपी और कांग्रेस के टाइपिस्ट हैं? क्या इनके यहां पत्रकार नहीं हैं? क्यों हिन्दुस्तान जैसे अख़बार में पहले पन्ने पर उसकी अपनी ख़बर नहीं है? क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पाठक होने के नाते आपको पता चलता है कि रफेल मामले में कुछ हुआ है. क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पाठक होने के नाते आप जान सके कि असम में क्या हो गया कि भारत रत्न का पुरस्कार लौटा दिया गया है.
आख़िर हिन्दी पत्रकारिता के इन स्तंभों में इतना संकुचन कैसे आ गया है? इस संस्थान के पत्रकार भी तो सोचें. अगर वे इस तरह से संसाधनों को अपने आलस्य से पानी में बहा देंगे तो एक दिन ख़तरा उन्हीं पर आएगा. मैं नहीं मानता कि वहां काबिल लोग नहीं होंगे. ज़रूर लिखने नहीं दिया जाता होगा. सब औसत काम ही करें इसलिए अख़बार एक फार्मेट में कसा दिखता है. अख़बार छप कर आता है, ख़बर छपी हुई नहीं दिखती है.
आप कहेंगे कि मैं कौन होता हूं शेखी बघारने वाला. हम टीवी वाले हैं. मैं टीवी के बारे में इसी निर्ममता से लिखता रहता हूं. हिन्दी के भले पचास ताकतवर चैनल हो गए हैं मगर किसी के पास एक ख़बर अपनी नहीं है जो प्रभाव छोड़े. मैं चाहता हूं कि एक पाठक के तौर पर हिन्दी के मीडिया संस्थानों की इस गिरावट को पहचानें. इतनी औसत पत्रकारिता आप कैसे झेल लेते हैं. क्या आपको अहसास है कि ये आपके ही हितों के ख़िलाफ है? संपादक की अपनी मजबूरी होगी, क्या आपकी भी औसत होने की मजबूरी है?
आखिर हिन्दी के कई बड़े अखबार किसी टाइपिस्ट के टाइप किए क्यों लगते हैं, किसी पत्रकार के लिखे हुए क्यों नहीं लगते हैं? पूरे पहले पन्ने पर अखबार की अपनी कोई ख़बर नहीं है. संवाददाताओं के नाम मिटा देने की सामंती प्रवृत्ति अभी भी बरकरार है. नाम है विशेष संवाददाता और ख़बर वही जिसमें विशेष कुछ भी नहीं. हिन्दी अख़बारों की समीक्षा नहीं होती है. करनी चाहिए. देखिए कि ख़बरों को लिखने की कैसी संस्कृति विकसित हो चुकी है. लगता ही नहीं है कि ख़बर है. कोई डिटेल नहीं. जहां प्रोपेगैंडा करना होता है वहां सारा डिटेल होता है.
प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को लेकर जो पहली खबर बनी है उसे भरने के लिए यहां तक लिखा गया है कि प्रधानमंत्री को कहां पहुंचना था और तकनीकि कारणों से कहां पहुंचे. हेलिकाप्टर कहां उतरा और कार कहां पहुंची.
मुझे पता है जवाब में क्या जवाब आएगा. फर्क नहीं पड़ता. मगर एक अख़बार के औसत से भी नीचे गिरने की व्यथा एक पाठक के तौर पर कहने का अधिकार रखता हूं. हिन्दी की पत्रकारिता आपके आंखों के सामने ख़त्म की जा रही है. मैं यह बात अख़बार के लिए नहीं कह रहा हूं. आपके लिए कह रहा हूं. चैनल और अख़बार आपको ख़त्म कर रहे हैं. अख़बार पढ़ने से पढ़ना नहीं हो जाता है. अख़बार को भी अलग से पढ़ना पड़ता है. क्योंकि उसी में लिखा होता है आपको अंधेरे में धकेल देने का भविष्य.
(रवीश कुमार की फेसबुक वाल से साभार)
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?