मनोज बाजपेयी: हम मिडियोक्रिटी का जश्न मनाने वाला देश बन गए हैं

पद्मश्री अभिनेता मनोज बाजपेयी के साथ बातचीत.

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मनोज बाजपेयी के अभिनय का परचम अंतत: दिल्ली के सत्ता गलियारों में बुलंद हुआ. उन्हें हाल ही में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया. उस दिन मनोज बाजपेयी अपने पिता और पत्नी के साथ राष्ट्रपति भवन में मौजूद थे. इस अवसर ने उनके बुजुर्ग पिता को अप्रत्याशित ख़ुशी दी और पत्नी को गर्व करने का साक्षात मौका दिया. सोशल मीडिया पर सभी ने एक स्वर  में ‘वेल डिज़र्व्ड’ का उद्घोष किया. सम्मान समारोह के बाद हुई इस बातचीत में मनोज बाजपेयी ने अपनी ख़ुशी, चिंता और अनुभव न्यूज़लॉन्ड्री के साथ शेयर किये. दो हिस्सों के इस सुदीर्घ साक्षात्कार का पहला हिस्सा पेश है.

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सबसे पहले तो ‘पद्मश्री सम्मान’ पर आप की क्या प्रतिक्रिया है?

यह इतना बड़ा सम्मान है कि किसी को भी विह्वल और सोचने पर मजबूर कर सकता है कि ऐसा क्या किया है मैंने, जो पद्मश्री के राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया मुझे. पद्म से सम्मानित हर नागरिक के मन में यह सवाल आता होगा. राष्ट्रपति यह पुरस्कार देते हैं. उस समय प्रधानमंत्री और सरकार के सारे दिग्गज नुमाइंदे वहां मौजूद होते हैं. बेहद खुशी हुई, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, मेरे मन में यह सवाल उठा कि आखिर मेरा योगदान कितना बड़ा है? मुझे लगा कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है. सिर झुका कर मैं इसे स्वीकार करता हूं. किसी दंभ में आए बगैर काम को आगे बढ़ाता रहूं. मेरे माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं है. गांव, जिला और राज्य के लोग गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं. अपनी पत्नी के गर्व और फ़ख्र को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता. पुरस्कार लेकर मुंबई लौटते समय हुई लोगों से मुलाकात सोशल मीडिया पर चल रही  टिप्पणियों से मुझे लगा कि देश का बड़ा तबका यह चाहता था कि यह सम्मान मुझे मिले. मैं भाव विह्वल हूं.

सोशल मीडिया पर ‘वेल डिज़र्व्ड’ पद का सभी इस्तेमाल कर रहे थे. बधाई से आगे की यह प्रतिक्रिया खास मायने रखती है. ऐसा क्यों?

मैं भी नहीं समझ पा रहा हूं. मेरे प्रति यह समर्थन और सहानुभूति अद्भुत है. उस दिन सम्मानित लोगों के बीच बैठ कर यह एहसास तो हुआ कि कुछ न कुछ योगदान है, जिसकी वजह से मैं यहां हूं. ‘वेल डिज़र्व्ड’ सबसे बड़ी बधाई है. कुछ लोगों ने ‘लॉन्ग ओवरड्यू’ लिखा. इसका मतलब है कि मेरे इस सम्मान में सभी की सहमति है. उन्हें यह नहीं लगा कि किसी प्रकार का पक्षपात हुआ है.

राष्ट्रीय पुरस्कार आप को मिल चुके हैं. पद्म सम्मान में हो रही देरी से लग रहा था कि कहीं कोई दिक्कत है. देर आयद, दुरुस्त आयद, पर क्या कोई भी सम्मान सत्ता निरपेक्ष होता?

कई सालों से मैं यह सुनता रहा हूं कि मनोज बाजपेयी आप किसी दल के नहीं हैं तो आप को मिलना मुश्किल है. मैं अपना काम करता रहा. मुझे यह भी लगता था कि मैं अभी इसके योग्य नहीं हूं. अभिनय की दुनिया में पद्मश्री सोच कर थोड़े ही आये थे. अभिनय में किसी मुकाम तक पहुंचने के लिए आये थे. वह भी बाद में सोचा कि कहीं पहुंचना है. पहले तो अभिनय का लगाव भर था. शायद आपको याद हो कि दो साल पहले सोशल मीडिया और मीडिया में यह बात चल रही थी कि पद्म अवार्ड की लिस्ट में मनोज बाजपेयी का भी नाम है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में नाम नहीं आया था. ऐसा दो बार हुआ. ढेर सारे पत्रकार मित्र हैं. कुछ सत्ता के गलियारे में भी घूमते हैं. उनका यही कहना था कि यह सम्मान पाने के लिए आपको दिल्ली में बैठना पड़ेगा. उन सभी को मेरा जवाब था, जो मेरे विश्वास से निकला है कि जिस सम्मान को देख कर मुझे गर्व न हो और यह लगे कि मैंने उसके लिए कोशिश किया था, वो सम्मान मुझे नहीं चाहिए. वह सम्मान मुझे धिक्कारता रहेगा और बताता रहेगा कि तू मुझे चालाकियों से ले आया है. मुझे ख़ुशी इस बात की है कि इस सम्मान से उन्हें अपनी राय बदलने में मदद मिलेगी. मैं गैरदलीय आदमी हूं. गैरराजनीतिक व्यक्ति हूं. राजनीति से दूर रहता हूं. यह बात ज़रूर कही जा रही है कि सत्ता के करीब हुए बगैर कैसे यह सम्मान मिला? मेरे लिए यही बधाई है.

प्रांतीयता को दरकिनार कर दें तो भी यह सवाल बनता है कि आप के नाम की संस्तुति महाराष्ट्र से हुई थी. यह सच है?

यह बात आ रही है और यह सच भी है. अपने आप में यह बहुत अच्छी बात है. बिहार का एक अभिनेता है, जिसे महाराष्ट्र अपना मानता है. महाराष्ट्र ने मेरे बारे में सोचा. उसने मेरे योगदान को समझा और माना.

आप के प्रंशसकों को यह मलाल रहेगा कि क्यों नहीं यह नाम बिहार से आया?

यह सवाल तो बिहार सरकार से पूछा जाना चाहिये. इसके तकनीकी पक्षों की मुझे कोई जानकारी नहीं है. मुझे तो यह भी नहीं मालूम है कि इस सम्मान के लिए नाम कैसे चुने जाते हैं? निर्णय कैसे लिया जाता है?

किसी भी परफॉर्मिंग क्षेत्र में व्यक्ति की आरंभिक कोशिश निजी सफलता पाने की होती है. एक समय के बाद आप अपने गांव, जिले, राज्य और देश के प्रतिनिधि हो जाते हैं. और फिर आप की उपलब्धियों पर सभी का हक़ होता है. क्या यह एहसास रहता है कि आपकी कोशिशों पर नज़र है, क्योंकि यह उनके लिए भी है?

यह ज़िम्मेदारी का एहसास देता है. जनता के बीच में हमारा व्यवहार इसी से तय होता है. जनता आप में विश्वास दिखाती है. दर्शक आप से जुड़ते हैं. आप प्रतिनिधि बन जाते हैं. फिर हम खुद के लिए अभिनय नहीं कर रहे होते हैं. हम उन सभी के लिए भी अभिनय कर रहे हैं, जो हम से जुड़े हैं. मैं इस भाव को कैसे नज़रअंदाज कर दूं, जो पद्म सम्मान के समय सोशल मीडिया और सार्वजानिक मुलाकातों में दिखा. मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को खुद का सम्मान लग रहा है. मुझे कोशिश करनी होगी कि मुझसे उनका मोहभंग ना हो. मुझे तो लगता है कि मैं अकेला नहीं हूं. ‘सत्या’ के सुपरहिट होने से माहौल बदलता है. मुझे किसी ने बताया कि उसके बाद छोटे-छोटे शहरों में थिएटर ग्रुप शुरू हो गए थे. उन्हें लगा कि अगर थिएटर से मनोज वहां पहुंच सकता है तो हम भी पहुंच सकते हैं. मेरी जीत में उन्हें अपनी उम्मीद दिखती है. आपकी बात सही है. शुरुआत व्यक्तिगत ही होती है. फिर बाद में वह सभी की हो जाती है.

कल भी आपको काम करते हुए देखते समय मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था आपके कलात्मक अभ्यास में कितनी निजता बची हुई है? कोई पर्सनल लक्ष्य रहता है क्या?

काम करते समय पर्सनल रहता है. उस समय हम यह नहीं सोचते कि देश हमारी तरफ देख रहा है. अभिनय की रचनात्मक प्रक्रिया में आप व्यक्तिगत स्तर पर ही लगे रहते हैं. उस समय किसी और का कोई एहसास नहीं रहता. मैं जब लोगों के बीच में रहता हूं तब मुझे जिम्मेदारी का एहसास रहता है. उन पलों में मेरे हर कदम पर हर हाव-भाव पर सही की नज़र रहती है. हम जो भी कर रहे होते हैं वह एक उदाहरण पेश कर रहा होता है, उसमें हम सजग रहते हैं. हम उत्श्रृंखल नहीं हो सकते. हमें एहसास रहता है कि बहुत सारे लोग हमारी तरफ देख रहे हैं. अभिनय की रचनात्मक प्रक्रिया में किसी और चीज का कोई ध्यान नहीं रहता है.

ठीक उसी समय आपका एक ट्वीट आया जिसमें आपने अपना दर्द जाहिर किया कि पॉपुलर अवार्ड में आप की फिल्म का नॉमिनेशन तक नहीं होता है

यह तो मैं कई सालों से कह रहा हूं. पहले मैं बहुत नाराज होता था. सारे पॉपुलर अवॉर्ड के आयोजक मेरी नाराजगी से वाकिफ हैं. अगर आप उस ट्वीट पर गौर करें तो उसमें गुस्सा नहीं है. उसमें मेरे इतने सालों का ऑब्जर्वेशन है. अब आप मेरे साथ थोड़ा पीछे चले. क्या कोई मुझे बताएगा कि ‘सत्या’ को क्रिटिक अवार्ड क्यों दिया गया? जिस फिल्म ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सारे कमर्शियल और क्रिएटिव रिकॉर्ड तोड़े, जिसने पूरा ग्रामर बदल दिया, उसे क्रिटिक अवार्ड क्यों दिया गया था? अगर मैं पूछूं कि ‘कौन’ और ‘शूल’ को नॉमिनेट क्यों नहीं किया गया? अब मैं आपसे पूछूं कि ‘जुबैदा’ को क्यों नजरअंदाज किया गया? फिर मैं आपसे पूछूं कि पिंजर को किसी भी पॉपुलर अवार्ड में कोई पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया. जबकि उस फिल्म को दो-तीन नेशनल अवार्ड मिले. मुझे बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला. ‘1971’ को इसी अवार्ड का हिस्सा क्यों नहीं बनाया गया? ’राजनीति’, ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ और हाल-फिलहाल में ‘अलीगढ़’ के साथ जो व्यवहार हुआ, वह क्या दर्शाता है? यह मेरा एक ऑब्ज़र्वेशन है. ‘गली गुइयां’ के साथ जो हुआ है, वह दुखी करता है. जिस फिल्म को पूरी दुनिया में पुरुष के और सम्मानित किया जाता है, यहां उसकी तरफ देखा भी नहीं जाता. मेरा सोचना वाजिब है न कि आखिर कारण क्या है? 25 सालों की उपेक्षा के बाद गुस्सा चैनेलाइज हो जाता है. अन्यथा मैं सिनिकल हो जाऊंगा. मुझे अपनी उपेक्षा की समीक्षा करने का हक़ तो बनता है. अवार्ड समारोह वाले कह रहे हैं. नहीं. आप समीक्षा भी ना करें. यह कैसे हो सकता है. आप मारे और रोने भी ना दें.

इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अवार्ड मुख्यधारा की फिल्मों के कारोबार को ध्यान में रखती है. पिछले साल की उन्हीं कंटेंट प्रधान फिल्मों की चर्चा होती है, जिनका कारोबार सब करोड़ के आसपास रहा.

यह बड़ी चिंता का विषय है. जब अयोग्य या कम योग्य कृति व्यक्ति या फिल्म को आप सम्मानित करते हैं तो हम उस अवार्ड की ईमानदारी को खत्म करते हैं. और दूसरी बात है कि हम क्या उदाहरण पेश कर रहे हैं? यही उदाहरण पेश कर रहे हैं ना कि आप काम अच्छा काम करके या घटिया काम करके भी अवार्ड ले सकते हैं. भविष्य की पीढ़ी जब फिल्म और अवार्ड का मिलान करेगी तो आप को माफ नहीं करेगी. मेरी चिंता व्यापक है. एक रात के समारोह और उसके मीडिया कवरेज भर की बात नहीं है. हम यही कहना चाह रहे हैं लेकिन आपको मेहनत करने की जरूरत नहीं है. आप को उत्कृष्टता हासिल करने की जरूरत नहीं है.

पूरे देश में मीडियोकर की पार्टी चल रही है, जिसमें सभी नाच रहे हैं…

मैं पिछले 20 सालों से कह रहा हूं कि हम मिडियोक्रिटी का जश्न मनाने वाला देश बन गए हैं. यह कोई अच्छी बात नहीं है. अगर हर क्षेत्र में औसत और औसत से भी नीचे के लोगों को सम्मानित किया जाता रहेगा तो नयी प्रतिभाओं का लक्ष्य क्या होगा? मैं बेलवा से निकलता हूं, घर-बार और संसार छोड़ कर साधना करता हूं. उत्कृष्टता हासिल करता हूं और आप अवार्ड तो छोड़िये, नॉमिनेट भी नहीं करते.

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