नेहरूवियन अर्थव्यवस्था की झलक है कांग्रेस का घोषणापत्र!

कृषि का अलग बजट, रोजगार, शिक्षा बजट में बढ़ोत्तरी और न्याय जैसी योजनाओं से सत्ता पाने की उम्मीद में कांग्रेस.

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उम्मीदों के मुताबिक ही कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव का एजेंडा तय करते हुए पार्टी के घोषणापत्र में उन्हीं मुद्दों को जगह दी है, जिसे राहुल गांधी लगातार सार्वजनिक मंचों से उठाते हुए केंद्र की मौजूदा सरकार पर हमलावर रहे हैं. साफ कहें तो जिन मुद्दों पर नरेंद्र मोदी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड पिछले पांच सालों में खराब और निराशाजनक रहा है, उसे ही कांग्रेस ने चुनावी मुद्दा बनाया है.

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देश में बढ़ती बेरोजगारी, किसानों पर बढ़ता कर्ज और कृषि क्षेत्र का असंतोष, महिला सुरक्षा और शिक्षा पर कम होता खर्च ऐसे मुद्दे हैं, जहां मोदी सरकार का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. इन मुद्दों को चुनते हुए राहुल गांधी ने जिस समाधान का रास्ता दिखाया है, वह भी वित्तीय रूप से एक हद तक व्यावहारिक हैं. कहने का मतलब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था, कांग्रेस के घोषणापत्र की व्यावहारिक धरातल पर उतारे जाने की क्षमता रखती है.

व्यावहारिक है कांग्रेस का ‘न्याय’

शुरुआत करते हैं न्याय यानी न्यूनतम आय योजना से. कांग्रेस ने भारत के अति गरीब पांच करोड़ परिवारों यानी करीब 20 फीसद आबादी को सालाना 72,000 रुपये की मदद देने का वादा किया है. यह रकम चिन्हित परिवारों के खाते में हर महीने 6 हजार रुपये की किस्त के साथ ट्रांसफर की जाएगी.

घोषणापत्र में कहा गया है कि यह रकम परिवार की महिला सदस्यों के खाते में भेजी जाएगी. एक अनुमान के मुताबिक इस योजना को लागू करने का खर्च करीब 3.6 लाख करोड़ रुपये हैं, जिसका भार उठाने में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से सक्षम है.

देश के पू्र्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक, “भारत की अर्थव्यवस्था का मौजूदा आकार करीब 200 लाख करोड़ रुपये की है, जो 12 फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है. आने वाले छह साल में यह बढ़कर दोगुना हो जाएगी. भारत की जीडीपी अगले 5 सालों (2019-2024) तक 200 लाख करोड़ से बढ़ाकर 400 लाख करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है.” ऐसे में इस स्कीम को पूरा करना संभव दिखता है, क्योंकि इस योजना को लागू करने में जीडीपी का मात्र 1.5 फीसद खर्च होगा.

इस योजना का दूसरा पहलू ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती से जुड़ा हुआ है. गरीबों के खाते में सीधे पैसा जाने से उनकी व्यय क्षमता में जो इजाफा होगा उससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी, जो कि भारत की अर्थव्यव्था का सबसे मजबूत और बड़ा आधार है.

सरकार का मानना है कि इस योजना पर खर्च की जाने वाली धनराशि की वजह से देश का घाटा बढ़कर 6 फीसद के आस पास जा सकता है. राजकोषीय अनुशासन के लिहाज से इस तर्क को मानने का आधार हो सकता है, लेकिन हमारा संविधान भारतीय राज्य के लोककल्याणकारी रूप को मान्यता देता है, जहां राज्य से सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों पर खर्च करने की उम्मीद की जाती है. ऐसी स्थिति में 3-5 फीसद का घाटा स्वीकार्य है, जिसका मतलब यह निकलता है कि सरकार लोगों के सामाजिक कल्याण पर खर्च कर रही है.

रोजगार पर क्या कहता है कांग्रेस का घोषणापत्र?

रोजगार के मुद्दे पर मोदी सरकार लगातार बैकफुट पर नजर आती है. एनएसएसओ की लीक रिपोर्ट के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 2017-18 में 6.1 फीसदी हो गई, जो 45 सालों में सबसे अधिक है. बिजनेस स्टैंडर्ड की खबर के मुताबिक एनएसएसओ के पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर 1972-73 के बाद सबसे ऊंची है.

यह रिपोर्ट बताती है कि 2011-12 में बेरोजगारी की दर 2.2 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 6.1 फीसदी हो चुकी है. यह रिपोर्ट मोदी सरकार के उस वादे को मटियामेट कर देता है, जिसमें उन्होंने हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था.

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इस मुद्दे को पूरी तरह से पकड़ा है. पार्टी का कहना है कि वह मौजूदा नौकरियों को बचाए रखने के साथ रोजगार के नए मौके पैदा करेगी. घोषणापत्र में कहा गया है कि सत्ता में आने के बाद कांग्रेस मिनिस्ट्री ऑफ इंडस्ट्री, सर्विसेज एंड एंप्लॉएमेंट का गठन करेगी. पार्टी ने साफ किया है कि वह केंद्र, सीपीएसई, न्यायपालिका और संसद में खाली पड़े 4 लाख से अधिक पदों को मार्च 2020 तक भर देगी. इसके साथ ही कांग्रेस राज्य सरकारों से मिलकर स्थानीय निकायों में करीब 20 लाख खाली पड़े पदों को भरने का काम करेगी.

इतना ही नहीं, कांग्रेस ने प्रत्येक ग्राम पंचायत और शहरी निकायों में सेवा मित्र जैसे नए पदों के सृजन का वादा किया है, जिसकी संख्या करीब 10 लाख हो सकती है.

कांग्रेस का रोजगार के प्रति दिया गया यह रोडमैप मोदी सरकार को बैकफुट पर धकेल सकता है. पिछले पांच सालों में न केवल रोजगार के मौके कम हुए हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी संकुचन आया है. हाल ही में फिच ने भारत के जीडीपी अनुमान में कटौती की है.

फिच की इस रेटिंग से पहले खुद सरकार दिसंबर तिमाही के जीडीपी आंकड़ों को जारी करने के बाद चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी के अनुमान को 7.2 फीसद से घटाकर 7 फीसद कर चुकी है.

शिक्षा पर कांग्रेस ने जगाई उम्मीद

राहुल गांधी ने कांग्रेस के घोषणापत्र में शिक्षा को लेकर देश में लंबे समय से उठ रही मांग को जगह दी है. सोशल इन्फ्रास्ट्रक्चर के डेवलपमेंट में शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहद अहमियत होती है, लेकिन भारत दुनिया के उन देशों में शामिल जो शिक्षा के क्षेत्र में अपनी जीडीपी का 3 फीसद से भी कम खर्च करता है. ऐसे में कांग्रेस के घोषणापत्र में इसे बढ़ाकर 6 फीसदी किए जाने का वादा, भारत की जरूरतों और भविष्य की संभावनाओं के मुताबिक ही है.

आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में राज्य और केंद्र सरकारें शिक्षा व्यवस्था पर जीडीपी का 3 फीसदी भी खर्च नहीं करती हैं. 2012-13 में सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी के मुकाबले 3.1 फीसद खर्च किया, जो बाद के वर्षों में और घटता ही चला गया है.

2013-14 में सरकार ने जीडीपी के मुकाबले 3.1 फीसदी खर्च किया, जो 2014-15 में घटकर 2.8 प्रतिशत हो गया. इसके बाद 2015-16 में यह और कम होकर 2.4 फीसदी हो गया. इसके बाद शिक्षा आवंटन में इजाफे की शुरुआत हुई और 2016-17 के बजट में इसे बढ़ाकर 2.6 फीसदी कर दिया गया. 2017-18 में (संशोधित अनुमान) यह 2.7 फीसदी रहा है. हालांकि, पिछले तीन वित्त वर्षों में हुए लगातार इजाफे के बाद भी यह तीन फीसद से नीचे के स्तर पर बना हुआ है.

जबकि भारत का पड़ोसी देश भूटान, शिक्षा पर अपनी कुल जीडीपी का 7 फीसद तक खर्च करता है. यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक भारत शिक्षा पर खर्च करने के मामले में उन देशों से पीछे है, जिनकी अर्थव्यवस्था उससे कमजोर है.

कांग्रेस के घोषणापत्र के तमाम वादों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उसने जनता की पक्षधर दिखने की कोशिश की है. जनता इसे कैसे देखेगी, कहना मुश्किल है.

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