किशोर उम्र में हुए यौन शोषण के दुष्परिणाम ताउम्र भुगतती हैं महिलाएं

राजस्थान में उन किशोरवय महिलाओं की समस्या जो या तो शारीरिक शोषण या कम उम्र शादी के चलते गर्भधारण करती है और फिर जीवन भर शारीरिक दिक्कतें झेलती रहती हैं.

WrittenBy:माधव शर्मा
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वो 2016 के जुलाई महीने का कोई मनहूस दिन था. घरों में झाडू-पोंछा करने वाली सुनीता (बदला हुआ नाम) की 13 साल की बेटी रोशनी (बदला हुआ नाम) जयपुर के आदर्श नगर में अपने किराये के मकान में अकेली थी. दोपहर करीब 12 बजे रोशनी के कमरे की कुंडी बजी. दरवाजा खोला तो एक लड़का जबरदस्ती घर में घुस गया. उसने पहले रोशनी के साथ मारपीट की और फिर बलात्कार किया. जान से मारने और छोटी बहन से भी बलात्कार करने की धमकी देकर वह चला गया.

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आरोपी का नाम शौफीक उर्फ चूचू था जो रोशनी के सामने वाले कमरे में ही किराये पर अपने परिवार के साथ रहता था. रोशनी खुद के साथ हुए इस हादसे के बाद बेहद डर गई और उसने दुष्कर्म की बात अपनी मां सहित पूरे परिवार से छुपा ली.

रोशनी की मां सुनीता को दुष्कर्म का पता कई महीने बाद तक नहीं लग सका. इन महीनों के दौरान 5वीं कक्षा में पढ़ रही रोशनी के किशोर मन और उसके दिमाग में चल रही उथल-पुथल का ना तो कोई अंदाजा लगा सका और ना ही उसे समझने का कोई पैमाना हमारे समाज और सिस्टम ने बनाया है. रोशनी की ज़िंदगी में अचानक हुए इस ख़ौफनाक हादसे ने उसके किशोर मन में पल रहे सपने, इच्छाओं को रौंद कर रख दिया.

रोशनी की मां सुनीता बताती हैं,  “आरोपी के डराने और शर्मिंदगी की वजह से रोशनी ने मुझे कुछ भी नहीं बताया.”

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रोशनी

सुनीता आगे बताती हैं, “कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद मैं समझती हूं कि इस उम्र (किशोर) में बच्चों के शरीर और उनके स्वभाव में कुछ बदलाव आते हैं, लेकिन रोशनी के शरीर में आ रहे बदलाव कुछ अलग तरह के थे. वह कई बार बात करते-करते रोने लगती या छत को एकटक देखने लगती.”

सुनीता बताती है, “एक दिन रोशनी के आटा गूंथते वक्त उसके बैठने के तरीके ने मुझे डरा दिया. तुरंत उसे डॉक्टर के पास लेकर गई. डॉक्टर ने जो कहा उसने हमारी पूरी जिंदगी ही बदल कर रख दी. रोशनी 6 माह से गर्भवती थी, लेकिन शारीरिक रूप से देखने पर ये नहीं लग रहा था कि उसके गर्भ में बच्चा पल रहा है.”

इसके बाद रोशनी ने अपने साथ जुलाई में हुई वारदात के बारे में पहली बार खुल कर बताया. इस अपराध की 23 जुलाई, 2016 को जयपुर के आदर्श नगर थाने में एफआईआर दर्ज हुई. पुलिस ने नाबालिग आरोपी चूचू को पकड़ा और जरूरी कार्रवाई कर बाल सुधार गृह में भेज दिया.

दुष्कर्म के कारण गर्भवती हुई रोशनी ने 2017 के अप्रैल महीने में ऑपरेशन द्वारा एक बच्ची को जन्म दिया. 13 साल की एक बच्ची अब ‘मां’ बन चुकी है.

रोशनी राजस्थान में यौन हिंसा का शिकार हुई अकेली बच्ची नहीं है. प्रदेश में सैंकड़ों बच्चियों के साथ हर साल यौन शोषण की घटनाएं हो रही हैं. आंकड़े बताते हैं कि बीते पांच साल में प्रदेश में पॉक्सो एक्ट के तहत 11,828 मामले दर्ज हुए हैं. ये आंकड़े सिर्फ 18 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ हुए यौन हिंसा की कहानी बयां कर रहे हैं, लेकिन यह बताना मुश्किल है कि इस तरह की हिंसा के बाद शारीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझ रही लड़कियों की संख्या कितनी है और इन दिक्कतों से ये किशोरियां किस तरह से सामना कर रही हैं?

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अपनी मां सुनीता के साथ रोशनी 

कम उम्र में शादी होने के कारण किशोर अवस्था में ही लाखों बच्चियों के साथ मेरिटल रेप जैसी घटनाएं भी आम हैं. ये घटनाएं देश के किसी भी थाने में दर्ज नहीं होतीं हैं. समाज के सबसे कमजोर वर्ग से आने के कारण इन किशोरियों तक स्वास्थ्य की सभी सुविधाएं भी नहीं पहुंचती हैं. कम उम्र में शादी करने के मामले में राजस्थान के भीलवाड़ा (57.2%), चित्तौड़गढ़ ( 53.6%), करौली  (49.8%), जैसलमेर( 48.4%),  टोंक (47.3%) , बाड़मेर  (46.7%), अलवर (40.8%), दौसा (40.1%), टॉप पर हैं.

सितंबर 2014 में दिल्ली की एक अदालत ने बाल विवाह को दुष्कर्म से भी बदतर  करार दिया था. बाल विवाह के खिलाफ काम करने वाले ज्यादातर लोगों का भी मानना है कि बाल विवाह के बाद हर रोज लाखों किशोरियों के साथ दुष्कर्म होता है और इसे सामाजिक मान्यता भी मिलती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2017 में नाबालिग पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को रेप बताया है.

रोशनी की तरह माधुरी, नेहा, सीमा (सभी बदला हुआ नाम) जैसी अनेकों बच्चियां हैं जिन्हें बचपन में ही बलात्कार जैसे घिनौने अपराध की पीड़ा से गुजरना पड़ा है.

रोशनी सहित इन तमाम लड़कियों को किशोरावस्था में ही अनेक तरह की शारीरिक और मानसिक परेशानियां उठानी पड़ रही हैं. ये बच्चियां जैसे-जैसे बड़ी होगी इस तरह की परेशानियां और भी बढ़ती जाएंगी.

मेडिकल की भाषा में इन परेशानियों को रीप्रोडक्टिव हेल्थ प्रॉब्लम्स कहा जाता है. इसमें अनचाहा गर्भ, असुरक्षित गर्भपात, यौन रोग, एचआईवी सहित यौन संचारित संक्रमण और ट्रॉमेटिक फिस्टूला जैसी समस्याएं आम हैं.

पीड़ित बच्चियों में रीप्रोडक्टिव स्वास्थ्य समस्याओं के अलावा मेंटल हेल्थ, व्यवहार में परिवर्तन होते हैं. दुखद ये है कि राजस्थान में परंपराओं और सामाजिक कुप्रथाओं के चलते किशोरियों की इन समस्याओं पर ना तो ज्यादा काम हो रहा है और ना ही सार्वजनिक चर्चाओं में इन बातों को कहीं जगह मिल रही है.

रोशनी ने अनचाहे गर्भ की समस्या झेली है और वो अभी 3 साल की बच्ची की मां है. उसके पीरियड्स भी अनियमित हैं. अनचाहे गर्भ के अलावा रोशनी की मानसिक स्थिति आज भी वैसी नहीं है जैसी उसकी उम्र की अन्य लड़कियों की है. उसका शारीरिक विकास भी ठीक से नहीं हुआ है.

इसी तरह जयपुर में रह रही 12 साल की माधुरी भी अपने सौतेले पिता के द्वारा 2017 में दुष्कर्म का शिकार हुई थी. दुष्कर्म के चलते उसे गर्भ ठहरा लेकिन कोर्ट की अनुमति के बाद गर्भपात करा दिया गया. महज 10 साल की उम्र में गर्भपात की वजह से माधुरी काफी कमजोर और अंडरवेट है. उसे पूरे बदन में अचानक दर्द उठता है. बुखार माधुरी के लिए एक आम बीमारी हो चुकी है. 2017 से माधुरी का स्कूल भी छूट गया और उसके मन का खुद के साथ तारतम्य भी. माधुरी डर के कारण अब घर से बाहर नहीं निकलती.  उसे भी लगभग वही सब समस्याएं हैं जो रोशनी को हैं. माधुरी को सामान्य जीवन में लाने के लिए 250 रुपए रोजाना की बेलदारी करने वाली उसकी मां ने पिछली दिवाली को किसी कबाड़ी से एक टीवी खरीदा. उसमें डीटीएच कनेक्शन भी लगवाया है, लेकिन मां मीना (बदला हुआ नाम) का कहना है, “जब भी मैं मजदूरी से शाम को घर लौटती हूं, मेरी बच्ची मुझे खुद में सिमटी बैठी हुई मिलती है. वो हंसना भूल गई है और रोना भी. उदासी और उम्र से ज्यादा समझदारी ने उसे घेर लिया है.”

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मेंटल हेल्थ के संदर्भ में देखा जाए तो माधुरी खुद को और अपनी मां को इस हादसे का जिम्मेदार मानती है. बकौल माधुरी, “अगर पापा की मौत के बाद मां दूसरी शादी नहीं करती तो मेरे साथ गंदा काम नहीं होता. वह अपने अतीत के बारे में ही सोचती रहती है.”

अतीत में रहने की इस आदत को पोस्ट ट्रॉमाटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) कहते हैं. इसमें जो लोग किसी ख़ौफनाक हादसे से गुजरे होते हैं, उन्हें वही घटना हर वक्त अपने सामने होते हुए दिखाई देती है. उन घटनाओं का फ्लैशबैक उन्हें परेशान करता है.

डॉक्टर कहते हैं कि ऐसे मरीज को संबल और प्रोत्साहन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, लेकिन रोशनी, माधुरी जैसी तमाम लड़कियों को ये संबल नहीं मिल पाता और ना ही मुख्यधारा में शामिल होने के लिए कहीं से कोई प्रोत्साहित करता है. परिवार के सदस्य भी एक समय बाद सामान्य हो जाते हैं, लेकिन पीड़ित इस बीमारी से लंबे समय तक लड़ते रहते हैं.

किशोर-किशोरियों के साथ होने वाले दुष्कर्मों के केसों को लंबे समय से देख रही सामाजिक कार्यकर्ता तरुणा पीड़ितों के मानसिक स्थिति के बारे में विस्तार से बताती हैं.

वन स्टॉप क्राइसिस मैनेजमेंट सेंटर फॉर चिल्ड्रेन (स्नेह आंगन) में काउंसलर तरूणा बताती हैं, “रोशनी और माधुरी के केस में जब हम अस्पतालों के चक्कर काट रहे थे उस समय लोगों की बातों ने दोनों को बहुत मानसिक आघात पहुंचाया. रोशनी के लिए तो एक महिला डॉक्टर ने यहां तक कह दिया कि इसकी शादी उसी लड़के (आरोपी) के साथ कर दो. पढ़े-लिखे लोग भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो इस तरह के पीड़ितों के सामने कभी नहीं पूछने चाहिए.”

तरुणा आगे बताती हैं, “हमारे यहां नर्सिंग स्टाफ, डॉक्टर की इस तरह की ट्रेनिंग नहीं है कि दुष्कर्म से पीड़ित किशोर-किशोरियों से किस तरह के बात की जानी चाहिए. पॉक्सो एक्ट का सेक्शन 27 मेडिकल एक्जामिनेशन की बात करता है कि डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ को इस तरह के केसों को कैसे डील करना चाहिए.”

प्रदेश में हजारों किशोरियों को कम उम्र में शादी होने के कारण अनचाहे गर्भ और गर्भावस्था से संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ता है. यहां किशोर-किशोरियों के इलाज का अनुपात 60:40 है जबकि आदर्श स्थिति में यह 60:55 होना चाहिए. कमजोर स्वास्थ्य के कारण इन किशोरियों के बच्चे भी कमजोर होते हैं. एनएफएचएस के मुताबिक प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 41 है. जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 44 प्रति एक हजार है. 17 लाख से ज्यादा किशोरियां प्रदेश में एनीमिया से पीड़ित हैं.

इन समस्याओं के बारे में प्रदेश के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक जेके लोन के अधीक्षक डॉ. अशोक गुप्ता कहते हैं, “कम उम्र में जबरदस्ती यौन संबंधों का असर किशोरियों पर उम्र भर रहता है. इससे उनका शारीरिक विकास रुकता है. ऐसी बच्चियों का वजन कम रहने की संभावना ज्यादा रहती है. इस स्थिति में नवजात शिशु के बीमार रहने की संभावना भी काफी बढ़ जाती है. पोषण की समस्याओं से भी किशोरियों को जूझना पड़ता है. अनियमित मासिक धर्म, बुखार जैसी समस्याएं बहुत ही आम बन जाती हैं.”

जयपुर स्थित सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज में मनोविज्ञान विभाग के हेड डॉक्टर आरके सोलंकी कहते हैं, “माता-पिता और अन्य लोगों को किशोर-किशोरियों की बातों को समझने-सुनने की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है. खासकर किशोर उम्र में शारीरिक और यौन शोषण के केसों में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है. क्योंकि एक तरफ पीड़ित किशोर अवस्था में होने वाले बदलावों से गुजरते हैं तो दूसरी तरफ ऐसे आघात से, जिसे सहने के लिए वो शारीरिक रूप से बिलकुल तैयार नहीं होते. एक ही वक्त में ये दोनों अवस्था समानांतर तरीके से साथ चल रही होती हैं.”

सोलंकी कहते हैं, “सही काउंसलिंग और सपोर्ट नहीं मिलने के कारण पीड़ित बच्चों में एन्जाइटी, आत्महत्या का भाव आना, सेक्शुअल एन्जाइटी, भविष्य में बनने वाले रिश्तों को लेकर आशंका, आत्मविश्वास की बेहद कमी, खुद को हादसे लिए दोषी मानने जैसी सोच पैदा होने लगती है. हालांकि अलग-अलग बच्चों को अलग-अलग तरीकों से ये सारी परेशानियां झेलने पड़ती हैं. इससे बचा जा सकता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि पीड़ित की हादसे के बाद किस तरह से मॉनिटरिंग, काउंसलिंग और मानसिक सपोर्ट मिला है.”

क्या कहते हैं कानून?

किशोर-किशोरियों के प्रति होने वाले अपराधों (18 वर्ष की उम्र तक) पर रोक लगाने के लिए भारत सरकार ने पॉक्सो एक्ट, 2012 बनाया. हाल ही में इसे संशोधित भी किया गया है. एक्ट यौन अपराधों पर मल्टी सेक्टोरल इंटरवेंशन की बात करता है. सरकार मानती है कि इस तरह के अपराधों में केस होने के बाद से कोर्ट तक की प्रक्रिया में बचपन की शुचिता का ख्याल नहीं रखा जाता है. इसीलिए पॉक्सो कानून में ऐसे बच्चों के साथ डॉक्टरों का व्यवहार, पीड़ित बच्चों से बात और काउंसलिंग के तरीके, बाल कल्याण समिति की ओर से सपोर्ट पर्सन की भूमिका, पुलिस, वकील और एनजीओ का व्यवहार व उनकी भूमिका और पुनर्वास के बारे में स्पष्ट गाइडलाइंस बनी हुई हैं, लेकिन यह बेहद दुखद है कि हादसे के बाद ऐसे केसों में कानूनी कार्रवाई तो होती है मगर पुनर्वास के नाम पर सरकार और प्रशासन की सोच मुआवजे से आगे नहीं बढ़ पाती है. ज्यादातर केसों में पीड़ित बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है और वह घर पर रहकर अकेलेपन की जद में आ जाते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता और स्नेह आंगन में काउंसलर तरुणा बताती हैं, “राजस्थान में किशोरियों के साथ होने वाले यौन अपराधों में से अधिकतर में बाल कल्याण समिति सपोर्ट पर्सन उपलब्ध नहीं कराती. कुछ केसों में जब बाल कल्याण समिति के सदस्य पीड़ित किशोर, किशोरी की काउंसलिंग के लिए बैठते हैं तो लगता है कि स्कूल में एडमिशन के लिए उसका इंटरव्यू लिया जा रहा है. जबकि एक्ट कहता है पीड़ित का इंटरव्यू चाइल्ड फ्रेंडली वातावरण में उसकी गरिमा का ख्याल रखते हुए लिया जाना चाहिए.”

राजस्थान सरकार में बाल कल्याण समिति, जयपुर के अध्यक्ष नरेन्द्र सिखवाल इन आरोपों के बचाव में कहते हैं, “ऐसा नहीं है. समिति सबसे पहले एक सपोर्ट पर्सन उपलब्ध कराती है और पीड़ित की ठीक तरह से काउंसलिंग की जाती है.” हालांकि वह मानते हैं कि कई केसों में समिति के सदस्य या सपोर्ट पर्सन अपना काम ठीक से नहीं कर पाते क्योंकि इसके लिए उन्हें सही से ट्रेनिंग नहीं मिली होती.

राजस्थान में बीते दो दशकों से ज्यादा वक्त से बच्चों के अधिकारों पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और स्नेह आंगन के समन्वयक विजय गोयल कहते हैं, “हमारे कानूनों में ही कुछ कमियां हैं. जैसे पॉक्सो एक्ट में पुनर्वास की बात तो है, लेकिन पुनर्वास का सही तरीका और स्टाफ की ट्रेनिंग कैसे करानी है, इसका जिक्र नहीं है. दूसरा, हमारे समाज को रेप पीड़िताओं को संबल देना तो दूर उनसे उस दौरान ठीक से बात करने का तरीका भी नहीं आता. बलात्कार क्या है? इसकी समझ की दिशा में हमारा समाज अभी बहुत पिछड़ा हुआ है.”

किशोर-किशोरियों के साथ होने वाली यौन हिंसा पर काम कर रहे वकील राजेन्द्र सोनी कानून में कमी होने की बात को नकारते हुए कहते हैं, “कानून तो ठीक है, लेकिन पूरे देश में पॉक्सो एक्ट की पालना नहीं हो रही. एक्ट में सपोर्ट पर्सन की बात कही है, लेकिन सपोर्ट पर्सन को ना तो नियमों की जानकारी है और ना ही बाल कल्याण समिति किसी केस में सपोर्ट पर्सन नियुक्त करती है. पूरे देश में बाल कल्याण समितियों के पास अनुभवी और ट्रेंड सपोर्ट पर्सन नहीं हैं.”

सोनी आगे कहते हैं, “समाधान के लिए सरकार को सबसे पहले पॉक्सो एक्ट की गाइडलाइंस को विभागवार दीवार पर चिपकवाना चाहिए ताकि संबंधित लोगों में ऐसे केसों में क्या करना है और क्या नहीं, इसकी बेसिक समझ पैदा हो सके. काउंसलिंग के तरीकों के बारे में भी संबंधित अधिकारियों को हर साल ट्रेनिंग देनी चाहिए.”

पश्चिमी राजस्थान में बाल विवाह के खिलाफ काम कर रहे उरमूल ट्रस्ट के सचिव अरविंद ओझा री-प्रोडक्टिव हेल्थ समस्याओं पर विस्तार से बात करते हैं. बकौल ओझा, “ये समस्याएं लड़के और लड़कियों दोनों को झेलनी पड़ती हैं, लेकिन इसकी शिकार लड़कियां ज्यादा होती हैं. एक तरफ प्रदेश में 17 लाख से ज्यादा किशोरियां एनीमिया से पीड़ित हैं, बच्चियों को 50-60% ही पोषण मिल रहा है, वहीं दूसरी ओर उसे रेगुलर सेक्स के लिए सामाजिक तौर पर अनुमति भी दे रहे हैं. यह भी चिंताजनक है कि राजस्थान में 40% किशोरियां परिवार नियोजन के साधनों का प्रयोग नहीं करती हैं.”

इन समस्याओं का समाधान यही है कि बाल विवाह एक्ट को सरकार सख्ती से लागू करे. दूसरा, ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों से बच्चों को ड्रॉप आउड होने से बचाया जाए. तीसरा किशोर समूह के बच्चों के लिए ब्लॉक या पंचायत स्तर पर रिसोर्स सेंटर्स बनें. बच्चों से संबंधित सभी विभागों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल अधिकार संरक्षण आयोग और महिला एवं बाल अधिकारिता विभागों के बीच तालमेल बनाया जाए ताकि संचालित योजनाओं का लाभ ज्यादा बच्चों तक पहुंचे. इसके अलावा समाज में जागरुकता सबसे अहम है क्योंकि आज भी मासिक धर्म के दौरान खाने-छूने जैसी फालतू बातें चलन में हैं.

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