राजपथ पर प्रधानमंत्री आवास: दिल्ली की ज़मीन पर आकार ले रहा एक नवकुलीन

राजधानी के भयावह वायु प्रदूषण या घटती जीवन प्रत्याशा से निपटने की बजाय राजपथ (सेंट्रल विस्टा) का पुनर्विकास सरकार की पहली प्राथमिकता क्यों है?

WrittenBy:अल्पना किशोर
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30 मई, 1990 को, महज़ 30 साल पहले, सुरक्षा, बेहतर संवाद और आदारभूत ढांचे को ध्यान में रखते हुए 7 रेसकोर्स रोड को आधिकारिक तौर पर हमेशा के लिए प्रधानमंत्री निवास के रूप में तय किया गया था.

इसके तहत 12 एकड़ और 6 बंगले वाली इस सड़क को जनता के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया. नो-फ्लाई ज़ोन, हवाई रक्षा प्रतिष्ठान, हाई-टेक संचार माध्यम, सफदरजंग हवाई अड्डे तक फैली सुरंग, हेलीपैड, बंगलों के बीच बुलेटप्रूफ ग्लास, ट्यूब मार्ग, 2,500 करोड़ की लागत से बना एक अत्याधुनिक ऑडिटोरियम, कैबिनेट मीटिंग रूम, 350 लोगों की क्षमता वाला बैंक्वेट हॉल, वीआईपी मेहमानों के लिए गेस्टहाउस, विशेष सुरक्षा समूह के गार्डों के लिए नई एंट्री और एग्जिट और नवनिर्मित उद्यान इसकी कुछ विशेषताएं हैं. एक अनुमान के मुताबिक इस पूरी कवायद में करदाताओं का लगभग 10,000 करोड़ रुपया लगा है. हर लिहाज से यह भारत के सबसे शक्तिशाली नागरिक के लिए बेहद सुरक्षित और आरामदायक निवास है.

यहां स्वाभाविक सा सवाल खड़ा होता है कि इसके बाद भी प्रधानमंत्री को नए आवास की जरूरत क्यों पड़ी और इसका राजपथ पर ही होना क्यों जरूरी है?

इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हम इक्कीसवीं सदी के भारतीय के रूप में अपने शहरों को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शहरों की तुलना में किस प्रकार देखते हैं? क्या वो एक लोकतान्त्रिक, प्रगतिशील शहर का कोई संकेत देता है जो लंदन की तरह अपने निवासियों को आजीविका और समृद्धि प्रदान करता है? क्या वो किसी सांस्कृतिक चुम्बक की तरह कलाकारों को अपनी तरफ खींचता है जो उन्हें बर्लिन जैसी विविधता और समृद्धि प्रदान करता है? क्या वो न्यूयॉर्क की तरह एक सामूहिक जीवन का अनुभव प्रदान करता है जहां रहने वाला हर व्यक्ति अपनी निजी पहचानों को तिरोहित कर सिर्फ न्यूयॉर्कर्स हो जाता है?

या ये ज़मीन का वो टुकड़ा है जो मूल रूप से ऐसे ताकतवर शख्स की जो हमारे आपके जैसे लोगों के जीवन के बारे में निर्णय लेने की शक्ति रखता हो जैसा कि बीजिंग या प्योंगयांग में होता है? क्या कानून का इस्तेमाल ये ताकतवर लोग अपने हिसाब से कर सकते हैं और अपने निर्णय को सार्वजानिक बहस या आम सहमति से बाहर रख सकते हैं जैसा कि मास्को में होता है?

अगर हम अपने शहरों को लंदन, बर्लिन या न्यूयॉर्क की तरह देखते हैं तो प्रधानमंत्री के दूसरे आवास के लिए 10,000 करोड़ रुपये खर्च करने से पहले दिल्ली की प्रदूषण जैसी समस्याओं, जिसकी वजह से रोजाना लगभग 80 लोग मर रहे हैं और 45 प्रतिशत अकाल मृत्यु हो रही है, पर ध्यान न देना एक बेहद असंवेदनशील क़दम है जो उस ताकतवर शख्स को लोगों की भलाई के ऊपर रखता है.

दूसरी तरफ अगर हम बीजिंग-प्योंगयांग-मास्को जैसे शहरों में हैं जहां देशवासियों को महज दर्शक समझा जाता है तो ये आम बात है.

राजपथ पर प्रधानमंत्री के दूसरे आवास के ऊपर सवाल के जवाब का एक और तरीका यह है कि हम अपने देश की संपत्ति को किस तरह देखते हैं और उसका मालिक कौन है.

जब अर्बन प्लानर्स ने 200 साल पहले एक शहर की संपत्ति (कॉमन्स) को परिभाषित किया था, तब उनका मतलब था कि वो सभी खाली जगह जो सबके लिए हैं, जैसे कि पार्क, सार्वजनिक चौक और खुले क्षेत्र. आज इस सामूहिक स्वामित्व का मतलब बहुत बड़ा है. 2020 में वैश्विक नियोजक एक शहर की संपत्ति को "सहयोग, साझा और सामूहिक स्वामित्व" वाली जगहों के रूप में देखते हैं जो विविध जातीयताओं से दूर एक दिल्लीवाला, मुम्बईकर, कनपुरिया या हैदराबादी बनाती हैं.

लोधी कॉलोनी की स्ट्रीट आर्ट, मुंबई के ओवल मैदान में क्रिकेट देखना, शाम को कानपुर के स्वरुप नगर में टहलना, हैदराबाद के चारमीनार में चूड़ियां खरीदना, मरीन ड्राइव पर ट्रैफिक लाइट से सूर्यास्त देखना या सफदरजंग हवाईअड्डे के साथ ड्राइव करना ये सभी "कॉमन्स" के तौर पर देखा जाता है. इसी तरह साफ़ हवा, हिरलूम के पेड़, पुराने मार्ग, प्रतिष्ठित दृश्य और ऐतिहासिक इमारतें भी इसी में शामिल हैं.

आम जनमानस की इन संपत्तियों को सिर्फ नियत प्रक्रियाओं और कानूनसम्मत तरीकों से ही व्यवसायीकरण से बचाया जा सककता है. अगर सरकार योजना बनाने वाली एजेंसियों को जैसे कि अदालत, पुलिस और शहरी प्राधिकरण के साथ छेड़छाड़ करती है तो कानून बेकार हो जाएंगे. एक अकेला शक्तिशाली शख्स ऐसे बदलाव कर सकता है जो कि करोड़ों लोगों, जिनका इस प्रक्रिया में कोई महत्त्व नहीं है, के जीवन को प्रभावित कर सकता है.

विश्व पटल पर, सियोल के चेओंग्गयेचेओन, लंदन के किंग्स क्रॉस या बोस्टन के बिग डिग जैसी शहरी परियोजनाओं ने ज़मीन के एक टुकड़े को विश्व-स्तरीय, नागरिक-उन्मुख विकास में तब्दील कर एक मिसाल रखी है. सभी महान शहरों में, विकास और नवीनीकरण द्वारा वहां के नागरिकों के जीवन के स्तर को ऊपर उठाना ही शहरी नियोजन का मुख्य उद्देश्य होता है.

वहीं दिल्ली को बदलने वाले घटनाक्रम में साफ़ तौर पर जो बात सामने आ रही है वो इस मूल धारणा के विपरीत है. यहां पर सत्ताधारियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के उद्देश्य से पुनर्विकास किया जा रहा है. प्रत्येक "पुनर्विकास" के कार्य में सरकारी जगहों को महत्त्व दिया है और उनका शहर में नियंत्रण बढ़ाया है जिसमें यह भी ध्यान दिया गया है कि नागरिकों को बड़ी सावधानीपूर्वक इससे अलग रखा जाए.

इसकी वजह से, इन परियोजनाओं ने दिल्लीवालों से उनके हक़ की ज़मीनों (कॉमन्स) को उनसे छीन लिया है. एक लालची इंसान की तरह सरकार शहर के सबसे अच्छे इलाकों को अपने कब्जे में लेती जा रही है और नागरिकों को इससे अलग-थलग करने जा रही है.

उदहारण के तौर पर, सफदरजंग हवाई अड्डे के नजारे को अवरुद्ध करने के लिए पिछले साल फुटपाथ से लगी एक ऊंची बाड़ खड़ी कर दी गयी जिसके पीछे कथित तौर पर "सुरक्षा कारणों" का हवाला दिया गया. यह नज़ारा लोग आज़ादी के बाद से अभी तक बिना किसी रोक टोक के देख पा रहे थे. सबकी आंखों से छुपा कर, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण ने चुपचाप ग्रेड ए संरक्षित सफदरजंग स्मारक के बगल में एक निर्माण भी शुरू कर दिया है. कोई इस पर आपत्ति या विरोध इसलिए दर्ज नहीं कर सकता क्योंकि न ही किसी से कुछ पूछा गया और न ही कोई इसे देख सकता है.

अब, हवाई अड्डे के पास सूर्यास्त के मनमोहित कर देने वाले दृश्य का आनंद वहां से आने जाने वाले लोग नहीं ले पाएंगे जिसे देखने के लिए लोग फ्लाईओवर पर अपनी अपनी गाड़ियों की रफ़्तार को धीमा कर दिया करते थे.सरोजिनी नगर पुनर्विकास, जिसके लिए पर्यावरण नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए लगभग 11,000 पेड़ों की कटाई के लिए मंजूरी प्राप्त की गई, भी सरकार द्वारा आम लोगों की सुविधा के लिए मौजूद जमीनों के अधिग्रहण का ही उदहारण है.

पुरानी सरकारी कॉलोनियों में पार्क, स्मारक, पेड़, साइकिल चलाने के लिए जगह, छोटे स्थानीय बाज़ार और कम ट्रैफिक होता था. ये सभी चीज़ें न सिर्फ सरकारी लोगों को बल्कि आसपास के क्षेत्र के लोगों के लिए भी उपलब्ध होते थे. पड़ोस की कॉलोनियों के बच्चे यहां पर क्रिकेट खेलते थे, कपड़े इस्त्री करने वाले कपड़े इस्त्री करते थे और घरों के चारों तरफ हरियाली होती थी. यह एक सामुदायिक मॉडल था. इनके पुनर्विकास में पेड़ों का संरक्षण होना चाहिए, इन जगहों तक नागरिकों की पहुंच आसान होनी चाहिए, सामुदायिक जीवन का स्तर ऊपर उठना चाहिए और साथ ही कॉमर्शियल निर्माण के लिए भी कुछ जगह छोड़नी चाहिए.

इसके बजाय यहां दूसरा ही तरीका अपनाया जा रहा है. जहां कभी पेड़ होते थे आज उस जगह को एक बड़े कमर्शियल हब के लिए चुन लिया गया है. गेट और फाटक लगने से वो लोग वहां जाने से डरने लगे हैं जिनका वहां कोई काम नहीं है जिसकी वजह से न वहां कोई टहल सकता है और न ही कोई ड्राइव पर जा सकता है.

ऐसे पुनर्विकास विशेष रूप से "सरकारी आवास और कमर्शियल गतिविधियों" के लिए होते हैं. खाली जगह का कोई भी हिस्सा कला, हरियाली, खेल, बैठने के लिए या नागरिक गतिविधि के लिए नहीं छोड़ा जाता जिससे कि आम नागरिक को कोई फायदा हो. दिल्ली में एक ब्रॉडवे थिएटर ज़ोन या किंग्स क्रॉस ओपन डेवलपमेंट जैसी परियोजनाएं हमारे शहरी योजनाकारों के दिमाग में दूर-दूर तक नहीं है.

उनके लिए ईस्ट किदवई नगर का एनबीसीसी मॉडल आदर्श है, जहां एक विशाल फाटक युक्त भवन के अंदर कार्यालय ब्लॉक हैं जिनका वहां रहने वालों से कोई संपर्क नहीं है. उस जगह को एक समावेशी स्थान से बदलकर एक खास स्थान के रूप में पुनर्विकास ने आम नागरिकों को वहीं से बहिष्कृत कर दिया है.

इस तथाकथित "विश्वस्तरीय पुनर्विकास" का एक हास्यास्पद परन्तु दुखद परिणाम ये है अब एम्स क्रासिंग पर आने जाने वाले लोगों को यहां की बालकनियों में टंगे अंतःवस्त्रों के दर्शन होते रहते हैं. विश्वस्तरीय विकास का उदारहण बनाते बनाते, एक बेहतरीन सामाजिक ताने-बाने को हमारे शहरी योजनाकारों ने कब तबाह कर दिया, यह पता ही नहीं चला. यही हालत पड़ोस में बसे सरोजनी नगर की होने वाली है. 1950 में बसा हुआ दिल्ली का एक बड़ा क्षेत्र जहां छोटे से छोटे दुकानदार से लेकर, समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए स्थान था, आज धीरे-धीरे इस विवेकहीन पुनर्विकास की भेंट चढ़ता जा रहा है.

सेंट्रल विस्टा परियोजना दिल्ली और इसके कॉमन्स के विकास को डूबोने वाला टाइटैनिक जहाज साबित हो रही है. यह जानकर आश्चर्य होता है कि सेंट्रल विस्टा को कितना अधिक संरक्षण प्राप्त है.

· दिल्ली मास्टर प्लान के अंतर्गत भी इसे विरासत का दर्ज़ा प्राप्त है.

· यह क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड एक्ट-1985 के तहत भी संरक्षित है जिसमें कहा गया है कि दिल्ली में कोई भी अन्य सरकारी ईमारत नहीं बनायी जाएगी.

· यह भारत सरकार द्वारा यूनेस्को को 2013 में भेजे गए पत्र से भी इसका संरक्षण होता है जिसमें इसे दिल्ली को विश्व धरोहर घोषित करने की मांग की गई थी.

इतने सबके बावजूद, इस क्षेत्र को मिला हुआ संरक्षण मात्र काग़जी दिखावा बनकर रह गया है. एक बार फिर, कॉमन्स को संरक्षित करने वाली संस्थाएं यह सुनिश्चित करने पर तुली हुई हैं कि आम नागरिकों को इससे वंचित रखा जाए और इन्हें इसका फायदा न मिले.

दुखद यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान देश की उस संपत्ति को हो रहा है जो आज भी देश की आत्मा, इतिहास, आदर्श और अपेक्षा से जुडी हुई है. यहीं पर निर्भया के अस्पताल में भर्ती होने के दौरान देश की आत्मा को बचाने के लिए संघर्ष हुआ था, जहां पर अरविन्द केजरीवाल ने धरना देते हुए बारिश में अपनी वैगन-आर कार में कैबिनेट बैठक की थी, जहां भारत के पचासवें स्वतंत्रता दिवस को मनाने के लिए सैंकड़ो लोग स्वत:स्फूर्त सड़क पर जमा हो गए थे. ऐसा जश्न मना था जिसमें सभी लोग शामिल हुए थे क्यूंकि तब ये सबके लिए खुला हुआ था. यही वो जगह है जहाँ लोग मुश्किल समय पर एकत्रित होकर देश के प्रति अपनी आस्था और भारतीयता का विश्वास दिलाते थे- चाहे सरकार उनको कितना भी डराए धमकाए या हटाने का प्रयास करे.

फिर भी, इस राष्ट्रीय संपत्ति, लोगों की संपत्ति पर अब सौ एकड़ के वीआईपी ज़ोनका"अतिक्रमण"होजायेगा. इसका उपयोग रातों रात पार्क, सार्वजानिक, अर्ध-सार्वजानिक स्थल से बदल कर "सरकारी कार्यालय" में हो जायेगा. जब नागरिक सरकार के लिए बलिदान देने लगें तो शहरी नियोजन की अवधारणा को प्रमाणित रूप से बेकार कहा जा सकता है.

जब विश्व के सभी देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने और अगले पांच से दस वर्षों में शून्य करने का प्रयास कर रहे हैं उस समय हमारे देश के शहरी योजनाकार ऐसी विनाशकारी परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं जिसके लिए 11,000 पेड़ों को काटा गया. वो भी उस शहर में जहां के नागरिक पहले से ही भयावह प्रदूषण को झेल रहे हैं और साफ़ हवा के लिए तरस रहे हैं. ऐसे योजनाकार किस स्कूल से पढ़ कर आते हैं?

इससे ज्यादा डराने और चौंकाने वाली बात ये हैं कि उसकी परियोजना को और उसके डिज़ाइन को एक ऐसी संवैधानिक संस्था हरी झंडी देती है जो कि आम नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए बनी है.

इसी तरह जब लोगों द्वारा चुनी गई केंद्र सरकार के लिए सेंट्रल विस्टा या प्रधानमंत्री का आवास ज्यादा बड़ी प्राथमिकता हो जाये न कि ये कि दिल्ली की जनता की औसत उम्र में 17 साल कमी आ गई है, या कि नवंबर 2019 में दिल्लीवासी डब्ल्यूएचओ के मानक से पच्चीस गुना ज्यादा जहरीली हवा में सांस ले रहे थे, तब शेक्सपियर की कही सिर्फ एक बात याद आती है: "समथिंग इस राटन इन द स्टेट..." (कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है...)

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