कोरोना संकट: नफ़रत का बटन पॉज़ करके मानवता का स्विच ऑन करने का वक्त

हम नफ़रत की आग से कैसे बाहर निकल सकते हैं? अपने ऊपर हुई गालियों की बौछार, अपने अपमान और दर्द को भूल कर उस मानवीय भावना पुनः हासिल कर सकते हैं.

WrittenBy:मधु त्रेहन
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जिस तेजी से कोरोना वायरस देश में अपने पैर पसार रहा है उतनी ही तेजी से नफ़रत भी फैलती जा रही है जिसको "करोनारेज" का नाम दिया जा सकता है. हम इससे पूरी तरह से घिर चुके हैं. ये घृणा से भरा एक चक्रवात है जो फिर-फिर सिर उठाने के लिए शांत होता है. इसकी वजह से हम कोविड-19 के मूल मुद्दे से भटक गए हैं जिस पर हमारा पूरा ध्यान होना चाहिए था. तब्लीग़ी जमात की घटना से जुड़े अलग-अलग तथ्यों ने लोगों को चौतरफा जहरबुझे तीर चलाने का अवसर दे दिया है. सत्य एक अमूर्त और आकारहीन रूप ले चुका है. यह लोगों की धार्मिक आस्था और राजनीतिक झुकाव के हिसाब से आकार लेने लगा है. सच लोगों की सामाजिक स्थिति के हिसाब से तय होने लगा है. जिन लोगों ने सोशल डिस्टेन्सिंग को बहुत हल्के में लिया और धार्मिक आयोजन करते रहे चाहे हिन्दू हों, मुस्लिम हों या जैन उन पर आपका गुस्सा भी इसी तरह तय हो रहा है. एक ताकतवर को धर्म के आधार पर दूसरे युवक को पीटते हुए देखना, जब कोई दुकानदार किसी समुदाय विशेष के व्यक्ति को सामान बेचने से मना कर दे, उससे पैदा गुस्सा. दिहाड़ी मजदूरों में भुखमरी, बेरोजगारी, वेतन, डर, अलगाव और अपमान चे चलते "करोनारेज" लगातार बढ़ रहा है.

हां, एक ट्वीट पर असंवेदनशील प्रतिक्रिया देने का मुझे अफसोस है. मुझे ग़लतफ़हमी हो गई थी कि यह मनोरंजक है, लेकिन ऐसा नहीं था. विशेषकर इस अस्थिर समय में. सोशल मीडिया हमेशा से गाली-गलौज से भरा हुआ है लेकिन हाल के दिनों में जब से इस पर 'आक थू' का चलन बढ़ा है, इसने गिरावट का नया कीर्तिमान बना लिया है. बढ़ते उकसावे ने नफ़रत फ़ैलाने वाले समूहों को बढ़ाया है और देश में विभाजन को रेखाएं गाढ़ी कर दी हैं. यहहममे से किसी के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता? क्या सोशल मीडिया जमीनी हकीकत को दर्शाता है या ये सिर्फ विचारों और विश्वास को प्रभावित करता है? शायद दोनों ही करता है.

सोशल मीडिया असल में भैतिक सामाज का ही प्रतिबिंब है. सोशल मीडिया पर मौजूद फैन क्लब संभवतः सोशल मीडिया के बाहर मौजूद फैन क्लब के डुप्लीकेट हैं. ऑनलाइन मॉब लिंचिंग करने वाले भी वास्तविक दुनिया में मॉब लिंचिंग करने वालों के क्लोन हैं. जरूरत पड़ने पर, ये सामूहिक सोच की दिशा को प्रभावित करता है इसलिए अब समय आ गया है जब ये दिखाया जाए कि इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है. वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, "हाल के वर्षों की कई घटनाएं ये प्रमाणित करती हैं जब ऑनलाइन घृणा ऑफलाइन हो जाती है तो ये घातक साबित होती है. श्वेत वर्चस्ववादी वेड माइकल पेज ने विस्कॉन्सिन में 2012 में एक सिख मंदिर में छः लोगों को मारने से पहले ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बहुत सारे पोस्ट डाले जिससे उसके मन में पल रही घृणा दिख रही थी. अभियोजकों ने कहा कि डायलेन रूफ ने 2015 में साउथ कैरोलिना के काले चर्च में नौ लोगों की हत्या करने से पहले खुद को ऑनलाइन 'कट्टरपंथी' बना लिया था. अक्टूबर में पेंसिल्वेनिया के एक पूजाघर में 11 बुजुर्ग श्रद्धालुओं की हत्या का आरोपी रॉबर्ट बॉवर्स श्वेत वर्चस्ववादियों द्वारा संचालित ट्विटर जैसी वेबसाइट गैब पर सक्रिय था." क्या हमें भी यही सब देखना है.

तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा से जब पूछा गया कि क्या वो चीनियों से घृणा करते हैं तो उन्होंने कहा, "नहीं क्योंकि घृणा सकारात्मक नहीं है." क्या सोशल मीडिया पर हो रही गाली-गलौज हमारे लिए सकारात्मक है? क्या ये हमें कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में मदद कर रहा है? ये बीमारी किसी को भी जाति, धर्म या राजनैतिक आधार पर नहीं हो रही है. ये सबको निशाना बना रही है.

क्या हम एक ऐसे देश में रहना चाहते हैं जहां पर एक हिन्दू इस बात से डरता हो कि उसके पड़ोस में एक मुस्लिम रहता है? क्या हम एक ऐसा देश चाहते हैं जहां एक मुसलमान को किसी अस्पताल में दाखिला न मिले? क्या हम अमानवीयता को संस्थागत रूप देना चाहते हैं? इस आग को हवा देकर हम खुद को ही झुलसायेंगे. क्या यह व्यावहारिक है? हमारे सामने पहले से हीवित्तीय और सामाजिक असमानता, चिकित्सा सुविधाओं की कमी और शिक्षा जैसी समस्याएं हैं तो हम ऐसे अनावश्यक तत्व, जो वास्तव में विकास में बाधक हैं, अपने जीवन में लाकर इसको और कठिन क्यों बनाना चाहते हैं?

इस मुद्दे पर दोनों पक्षों में गाली-गलौज करने वाले बहुतायत हैं. क्रोनोलॉजी समझने पर वो ताकतें दिखती हैं जिनकी वजह से ये दरार गहराती चली गई. भारत में कोविड-19 का पहला मामला 30 जनवरी को सामने आया था जब वुहान से लौट कर आया छात्र कोरोना पॉजिटिव टेस्ट हुआ था. 14 अप्रैल तक देश भर में कम से कम 10,000 मामले सामने आ गए. इटली और जर्मनी की यात्रा से वापस आये एक सिख ग्रंथि जब 10-12 मार्च के बीच आनंदपुर साहिब में होला मोहल्लामहोत्सव में शामिल हुए तो वो एक सुपर-स्प्रेडर बन गए. उनके पीछे-पीछे 27 कोविड-19 मामले सामने आये. इस वायरस के फैलाव रोकने के लिए 27 मार्च को पंजाब के 20 गांवों के 40,000 लोगों को क्वारंटाइन किया गया.

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि किसी भी टीवी चैनल ने उस सिख समुदाय पर कोई हमला नहीं किया जबकि सरकार ने सिख ग्रंथि को इटली और जर्मनी से वापस लौटने के बाद सेल्फ-क्वारंटाइन में रहने को कहा था. उन्होंने सभी सलाहों को नजरअंदाज किया और हज़ारों लोगों की भीड़ वाली विभिन्न धार्मिक सभाओं में गए और एक सुपर-स्प्रेडर बन गए. स्वर्ण मंदिर खुला रहता है. वहां आने वाले भक्तों के हाथ सैनिटाइज़ किये जाते हैं लेकिन वे सभी बिना मास्क के वहां आते हैं. इस पर किसी भी टीवी एंकर ने हो हल्ला नहीं मचाया. ये घटनाएं कोई सुझाव नहीं है. इसका यूट्यूब वीडियो 17 मार्च 2020 का है जिसको हिंदुस्तान टाइम्स ने रिलीज़ किया.

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मीडिया ने जिस तरह से तब्लीग़ी जमात मामले की रिपोर्टिंग की और उसे सांप्रदायिक रंग दिया वो पूरी तरह से अलग है. 31 मार्च तक तब्लीग़ी जमात दूसरे सुपर-स्प्रेडर के रूप में सामने आया जब लगभग 9,000 लोगों ने कथित तौर पर यहां सभा में हिस्सा लिया, जिनमें से 960 लोग 40 भिन्न-भिन्न देशों से आए थे. यहां ऐसे दो उदहारण दिए जा रहे हैं जिनमें इस मामले की रिपोर्टिंग को सांप्रदायिक रंग नहीं दिया गया है.

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जब निजामुद्दीन वेस्ट को हॉटस्पॉट घोषित किया गया तब तब्लीग़ी जमात के प्रमुख आमिर मौलाना साद ने खुद को गैर-जिम्मेदाराना तरीके से पेश किया. साद ने अपने अनुयायियों से सोशल डिस्टेन्सिंग को अनदेखा करने को और मस्जिदों में इकठ्ठा रहने की सलाह दी. उसने कहा कि सोशल डिस्टेन्सिंग इस्लाम विरोधी है. इसके चलते मीडिया ने उस पर हमला किया.

अगर साद ने अपने अनुयायिओं को ये कहा होता कि वो खुद को आइसोलेट करें और टेस्ट करवाएं तो हमारे पास एक अलग कहानी होती. लेकिन इसके बाद साद लापता हो गए. उनके अनुयायिओं ने उसकी बात मानी और परिक्षण करवाने से परहेज किया. पुलिस और प्रशासन के प्रति मुस्लिम समुदाय के अविश्वास और भय ने बहुत सारे लोगों को ये मानने पर मजबूर कर दिया कि स्वेच्छा से परिक्षण करवाना उनको मुश्किल में डाल सकता है. तो पहले क्या आया मुर्गी या अंडा? दुर्व्यवहार और भय या गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार और सांप्रदायिक रंग? वो टीवी एंकर जिन्होंने #CoronaJihad जैसी बहसों के द्वारा खूब हो हल्ला मचाया. देखिए.

क्या होता अगर पत्रकार सीधे-सीधे मामले की रिपोर्टिंग करते और उसमें सांप्रदायिक रंग ना घोलते? क्या होता अगर वो सभी मुसलमानों को सुपर-स्प्रेडर के तौर पर ना दिखाते? क्या होता अगर जितनी भी रिपोर्टिंग हुई हैं उनमें तब्लीग़ी जमात के अनुयायियों से सामने आकर परिक्षण करवाने का आग्रह किया जाता? क्या होता अगर पुलिस, प्रधानमंत्री और सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्री उनको ये आश्वासन देते कि वो खतरे में नहीं हैं और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा और यही सन्देश पुलिस को भी दिया जाता. जमात वाले रूढ़िवादिता के चक्कर में खुद के ही जाल में क्यों फंस गए? कई मुस्लिम नेताओं ने बार-बार उनसे अपील की वो सामने आएं और परीक्षण करवाएं. आखिरकार साद ने भी आह्वाहन किया लेकिन काफी देर से. लेकिन इन सबको कवरेज देने के बजाय मीडिया ने इन सब अपीलों को नज़रअंदाज़ किया और उसको सांप्रदायिक रंग देने में मशगूल रहा.

जमात के सुपर-स्प्रेडर रवैये से नाराज लोगों की भावनाओं पर समाचार चैनलों के नफ़रत फ़ैलाने वाले प्राइमटाइम प्रोग्रामों ने आग में घी का काम किया.इसकी वजह से "करोनारेज" बढ़ गया. इसके जवाब में आम मुसलमानों ने भी गाली-गलौज में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. हर उस एंकर, जिसने मुस्लिम विरोधी उन्माद को बढ़ावा दिया, के खिलाफ सोशल मीडिया पर हिंसक प्रतिक्रिया हुई. प्रत्येक पक्ष एक दूसरे गाली देने और एक दूसरे का अपमान करने पर उतारू था.

ऐसे में क्या किया जा सकता है? क्या हो अगर दोनों पक्ष संधि कर लें? क्या ये एक बेमतलब की बचकानी सलाह है? हमारे पास विकल्प क्या हैं? हम इसी विद्वेष की भावना के साथ आगे बढ़ते रहें जिसका नतीजा होगा कि दुनिया और भयानक जाल में उलझ जाय. या फिर हम इस ऊर्जा, दिमाग और समय का उपयोग इस आपात स्थिति से निपटने में कर सकते हैं.

तमाम दूसरे देशों ने खुद को बचाने के लिए समुदायों के बीच मौजूद इससे बड़ी-बड़ी धार्मिक दुश्मनियों पर काबू पाया है. दक्षिण अफ्रीका में सत्य और सुलह आयोग (1996), ने वास्तव में बदले की भावना को रक्तपात का रूप लेने से रोका. इस आयोग का गठन रंगभेद के दौर में हुए अपराधों की शिनाख्त करने और पीड़ित एवं परिवारों से अपराधियों का सामना करवाने और फिर बादमें उनको माफी दिलवाने के लिए हुआ था. आर्कबिशप डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला ने अपने लोगों को इस असंभव काम के लिए प्रेरित किया. मंडेला ने कहा, "साहसी लोग शांति के लिए क्षमा करने से नहीं डरते."

इस आयोग में अपने बेटे, पति, बेटी, बहन को प्रताड़ित करने और उनकी हत्या करने वाले का आमना-सामना करना और फिर उनको माफ़ करना था. ये कहने की जरूरत नहीं है कि कुछ ने तो माफ़ नहीं किया होगा लेकिन वो कानून के दायरे से बाहर नहीं गए. यह न्यूरेमबर्ग मामले की तरह नहीं था जो कि प्रतिशोध पर आधारित न्याय था बल्कि पुनर्स्थापनात्मक न्याय था. शुरुआत में एक बेकार सा लगने वाला ये विचार धीरे-धीरे असर दिखाने लगा.

हम क्या कर सकते हैं?

1. पत्रकारिता में समुदायों की पहचान न करने की पुरानी परंपरा को अपनाना चाहिए. दंगों के समय यह अलिखित नियम था. ये कोविड-19 के दौर में भी लागू किया जा सकता है.

2. ऐसे चैनलों को बंद कर दें जो समुदायों की पहचान उजागर करते हों. ऐसे चैनेलो को बंद कर दें जो ऐसे डिबेट शो चलाते हैं जिनमें समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है.

3. यूट्यूब चैनलों और वेबसाइटों के कमेंट बॉक्स में विभाजनकारी विचारों पर अपनी अस्वीकृति दर्ज करवाएं. सांप्रदयिकता के दरवाजे बंद करें.

4. धार्मिक समुदायों को कोविड-19 से पीड़ित लोगों की सहायता में भूमिका निभानी चाहिए.

5. अपने समुदाय के लोगों को सामने आने और परिक्षण कराने के लिए प्रेरित करें.

6. ये सन्देश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाए कि कोविड-19 का परिक्षण आपकी बेहतरी के लिए है और उनसे स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का स्वागत करने का आग्रह करें.

7. किसी भी समुदाय पर अभद्र टिप्पणी करने वाले किसी भी मैसेज को फॉरवर्ड या रीट्वीट ना करें. इसको बढ़ावा ना दें.

8. उन समूहों से (जो पहले अभद्रता कर रहे थे) अपील करें कि वो राहत कार्यों में मदद करें और लोगों तक खाना और दवाइयां पहुंचाएं.

9. घृणा से भरे ट्वीट पर प्रतिक्रिया न दें बल्कि उसको #DoNotCommunaliseकरके बदलने का प्रयास करें. अन्यथा ट्वीट को रिपोर्ट करें.

10. उन सभी ट्विटर हैंडल, जो विभाजित करने वाले या नफरत फ़ैलाने का काम कर रहे हैं उन्हें या तो ब्लॉक कर दें या अनफॉलो कर दें.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संकट काल में मजबूत नेतृत्व दिखाया है. क्या प्रधानमंत्री इस चुनौतिपूर्ण समय में एक समुदाय के प्रति अपनी नफ़रत की तिलांजलि देकर मजबूत से महान बन सकते हैं, इतिहास में महानायक ऐसे ही बनते हैं? एक ऐसे सन्देश की जरूरत है जो कि सभी को समान रूप से पहुंचे.हमारा अस्तित्व आपसी समन्वयता पर निर्भर करता है. सोशल डिस्टेन्सिंग के दौर में हम करुणा से भी दूर हो गए हैं. इस सब की वजह से हम अपमान और मजाक का हिस्सा बन गए हैं. इसको दूर कर हम अपना दर्द ही कम करेंगे और तेजी से विलुप्त हो रहे "अच्छे इंसान" बन सकेंगे. देश के नागरिकों को राष्ट्र-निर्माण का हिस्सा बनना होगा. ये आपका अवसर है और आपका निर्णय है.

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