उदास रंगीनियां: पंजाब- ए जर्नीज़ थ्रू फाल्ट लाइन्स

इस किताब से गुजरते हुए यह समझ आता है कि संघीय ढांचा जो केंद्र और राज्यों के बीच जो एक तनी हुई रस्सी का पुल है, उस पर करोड़ों की आबादी दिन-रात गुजर रही है. उस रस्सी को लगा एक झटका भी अनगिनत लोगों की जिन्दगी पर बन आता है.

WrittenBy:चंदन पांडेय
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भारत का संघीय ढांचा उम्रदार हो चला है और बाज दफा यह महसूस होता है कि जैसे इसको किसी शफ्फाक आईने में देखने की जरुरत है. वे आईने जो हर कोण से देखें और बतलाएं कि बढ़ती उम्र में इस ढांचे ने अपना आकार बरकरार रखा है या शायद रखना ही नहीं चाहता. या ऐसा तो नहीं कि हृदय ने इस इंतजार में काम करना बंद कर दिया हो कि ढांचा उसकी देख-भाल करेगा और इसके पास एक उम्र के बाद हृदय की जरुरत ही नहीं रह गई हो. या जैसे पचासों वर्ष तक पूरे देश में खाद्यान्न आपूर्ति के लिये अनाज का सर्वाधिक हिस्सा पंजाब से लेने वाली केंद्र सरकार, पंजाबी किसानों की किसी बेहद जरूरी किंतु मामूली मांग पर यह कह दे कि पंजाब के किसान अपना उपजाया अन्न बाहर के बाजारों में बेचने के लिये स्वतंत्र हैं और राष्ट्रीय संग्रहण में अब पंजाब में उत्पादित अनाज लेने की जरुरत नहीं.

क्या यह संभव है कि जब गेहूं की फसल कट चुकी हो, ‘थ्रेसिंग’ हो चुकी हो और किसानों को अनाज बाहर के किसी बाजार में बेचने का मशविरा दिया जाये? उस राज्य का किसान क्या करेगा? क्या उसे यह छूट है कि वह कजाकिस्तान, पाकिस्तान मैं जानबूझ कर नहीं लिख रहा, में अपना गेहूं बेचने जा सकता है? केंद्र सरकार उसे बिना किसी हील-हवाले के बेचने देगी?

या क्या आपको पता है कि जिन राज्यों के लोग अपने आंतरिक मामलों में सेना आदि का अनामंत्रित दखल देने की इजाज़त देते हैं वह दरअसल एक कर्ज भी लिये आता है? पंजाब पर एक लाख करोड़ रुपये का कर्ज इस बात का है कि तमाम सैन्य कार्रवाइयों का बिल उस राज्य के नाम फाड़ा गया. और यह सभी राज्यों पर लागू होता है.

यह उदाहरण ज़रा भदेस हो जाएगा लेकिन क्या उम्र पूरी कर चुकने के बाद किसी लतर को सूखते हुए देखा है? मसलन लौकी का पौधा या लतर? आपको लगता है न कि भविष्य में इस पर फल लगे न लगे लेकिन काश यह पौधा नहीं सूखता?

उम्र का तो मुझे मालूम नहीं लेकिन यह जो पौधे का धीरे धीरे सूखना है उसे हम इस किताब के मार्फ़त समझने की कोशिश करेंगे.

अमनदीप संधू द्वारा लिखित यह पुस्तक ‘पंजाब: जर्नीज़ थ्रू फॉल्ट लाइन्स’ ऐसा ही आईना है. या कह लीजिये कि इस पुस्तक का हर पन्ना एक आईना है जिसमें आप पंजाब की एक-एक सलवटें तो देखते ही हैं साथ ही आप यह भी देखते हैं कि जिन समस्यामूलक मुहानों पर अपना देश खड़ा है क्या पंजाब के अतीत में कुछ उनका भी झरोखा है?

यह पुस्तक सच्चे अर्थों में सभ्यता समीक्षा है. पंजाब से मेरा रिश्ता लेखक जितना सघन कभी नहीं रहा और न ही वह तलाश जो लेखक के खुद की है लेकिन इस किताब को पढ़ते हुए अनवरत एक उदासी और बेचैनी बनी रही. इस तरह कुछ कि हर वह जगह जो किताब में किसी घटना, किसी विवरण या किसी विचार को व्यक्त करने के लिये लिखी गई है, वहां-वहां मैं गया हूंगा, लोग रोज जाते होंगे लेकिन यह जो परते हैं वह हमारे सामने नहीं खुलती.

ऑस्ट्रिया में मारे गए संत और उसके तत्काल बाद जो पंजाब में दंगे मचे थे और दीर्घकालिक स्तर पर उस घटना ने जो पंजाब की राजनीति पर प्रभाव डाला, उसने लेखक और मुझे भी प्रभावित किया. उन दिनों मैं पंजाब में था और उस पर एक कहानी लिख कर रह गया लेकिन अमनदीप की इस किताब में उस घटना और उसके परिणामों तथा प्रभावों का जैसा उल्लेख है, वह मानीखेज है. अपनी बात बतलाना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि हमें अमनदीप का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि जो चीजें, घटनाएं हमारे लिये अस्तित्व में आने के बाद खत्म हो जाती हैं, अमनदीप उन घटनाओं का जिक्र भर करते हुए उसके बिना पर जो वितान रचते हैं, जो वैचारिक दस्तावेज हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, विमर्शों की जिन दरिया में हमें उतारते हैं, वह आज के समय की जरुरत है. हर वह क्षेत्र जो भारतीय संघ प्रणाली का हिस्सा है उसे इस अंदाज से देखे जाने की जरुरत है, जैसे यह किताब ‘पंजाब’ पंजाब को देखती है.

इसे पढ़ते हुए आपका मन हर उस कोने में जाता है जहां-जहां उन समस्याओं की 'रेप्लिका' तैयार है या तैयार की जा रही है, मसलन सतलज यमुना नहर विवाद या इंदिरा गांधी नहर परियोजना पढ़ते हुए आप हर उस जल-विवाद पर अपने मन की निगाह दौड़ा लेते हैं जो इन दिनों देश में मौजूद हैं. फिर आप देखते हैं कि क्या इस समस्या का कोई केन्द्रीय पहलू है? कावेरी? नर्मदा? यमुना, जिस पर इतने बांध बन गए हैं कि आज कल थक हारकर दिल्ली तक ही पहुंच पाती है? या यह कि इन समस्याओं को बने रहने देने में केंद्र या राज्य सरकारों का कितना योगदान है?

इस पुस्तक ने जिस शिल्प का प्रयोग किया है वही दरअसल आज के भारत का कथ्य है. लेखक ने भी कमाल यह किया है कि शिल्प से शुरु की हुई बात कब कथ्य का रूप ले लेती है यह पता आपको तब चलता है जब आप दूसरे अध्याय पर पहुंचते हैं. शिल्प त्रिविमीय है: यथार्थ, प्रस्तुति और यथार्थ तथा प्रस्तुति के बीच की फांक. जैसे हरित क्रान्ति. इसकी आधिकारिक प्रस्तुति यही है कि बीसवीं सदी के सातवें दशक में हरित क्रांति भारत में हुई. लेकिन इस प्रस्तुति को अगर आप ध्यान से देखें तो पायेंगे कि इसका हर शब्द कल्पना का प्रक्षेपण हैं, यथार्थ का नहीं.

पहली बात कि सरकारी योजनाओं को क्रान्ति का नाम देना कहां तक उचित है? सरकारी फंड से क्रान्ति होती है क्या? दूसरे, पंजाब इन योजनाओं की प्रयोगशाला बना, सर्वाधिक अन्न उत्पादन उस छोटे से राज्य में हुआ, बचपन में जब हम पढ़ते थे कि पंजाब गेहूं उत्पादन में सर्वश्रेष्ठ राज्य है तब क्षेत्रफल और उत्पादन की तुलना देख आश्चर्य होता था, वहां की जमीन में सर्वाधिक रसायन झोंके गये, उन रसायनों का परिणाम दूरगामी और बुरा हुआ, इतना बुरा परिणाम कि इन रासायनिक उर्वरकों और दवाईयों के प्रयोग से लोगों को कैंसर जैसी लाईलाज किस्म की बीमारियां होने लगीं और इन बीमारों की संख्या अत्यधिक है. बठिंडा से बीकानेर जाने वाली रेलगाड़ी में, एक रिपोर्ट के अनुसार, औसतन रोजाना सत्तर लोग कैंसर के मरीज होते हैं.

अब प्रश्न उठता है कि बीकानेर क्यों? क्या वहां कैंसर के सर्वोत्कृष्ट अस्पताल हैं. या जिस पंजाब के किसानों ने अपने खेतों में समूचे भारत के लिये सालों-साल अन्न उपजाया उनके लिये बीकानेर जाना क्यों मुफीद है? इन सारे प्रश्नों के जवाब जब आपकी आंखों के सामने से गुजरते हैं तब तकलीफ की एक लहर उठती है. आश्चर्य होता है यह जानकर कि अगर यह हरित क्रान्ति थी तब अंग्रेजों ने संयुक्त पंजाब में जो नहर नगर (कैनाल कालोनी) विकसित किये थे और जो सचमुच में भारतीय कृषि व्यवस्था के लिये एक नया युग था, वह क्या था?

इस किताब में वर्णित पंजाब आज के भारत के लिये किसी पथ प्रदर्शक की तरह सामने आता है. धार्मिक पहचान की समस्या इन दिनों विकराल बनाई जा चुकी है और यह सब यों प्रतीत कराया जा रहा है कि यह समस्या अभूतपूर्व है. यह दरअसल एक सरकारी या कह लीजिये तंत्र निर्मित भूलभुलैया है वरना आठवें, नवें और दसवें दशक का पंजाब हमारे समक्ष एक उदाहरण है कि धर्म की जिस आग में हम फुंकने को तैयार बैठे हैं उससे क्या हासिल होने वाला है और अगर उससे बचना हो तो कैसे बचा जाये?

दमदमी टकसाल, जो कि अपने स्वरुप में उस मठ विशेष की तरह है जिससे एक मुख्यमंत्री आते हैं, के भिंडरावाले और उस समय के खालिस्तानी आन्दोलन को हवा पानी देने वाली सरकार और फिर उससे निबटने के लिये युद्ध करने वाली सरकार ने पंजाब को क्या से क्या बना दिया अगर यह समझा जाये तो आज जो यह धर्मोन्माद उपजा है उससे निजात मिल सकती है. अमनदीप ठहर कर इस चर्चा को आगे बढ़ाते दिखते हैं. यह शायद ही किसी से छुपा हो कि सिखों को जानबूझ कर ऐसे हालात की ओर धकेला गया जिससे हथियार उठाना उनकी मजबूरी हो जाये.

अपने ही देश के भीतर युद्ध स्थिति का निर्माण कर देना और फिर उसे न स्वीकारना यह एक ऐसी बात है जो शायद हर उस देश के अपराध में गिना जाएगा जो अपनी सीमाओं के भीतर यह युद्ध करते हैं. अमनदीप बार बार यह लिखते हैं कि अगर जेनेवा समझौते के तहत ऑपरेशन ब्लू स्टार के हासिल को रखा जाये तब बेहतर नतीजे सामने आयेंगे. आखिर उन्नीस सौ चौरासी के बाद दो मौके ऐसे और आये जब केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वर्ण मंदिर परिसर में जमा हथियार और हथियारबन्दों को वहां से हटाया लेकिन उन मौकों पर फ़ौज का हमला नहीं हुआ. अपने ही देश में फ़ौज का इस्तेमाल यह हिदायत देना है कि सामने वाला बाहरी है.

सोलह अध्यायों के मार्फ़त यह किताब पंजाब में घावों, केंद्र की बेरुखी, लोगों के गुस्से, बीमारियां, धार्मिक आस्था, पितृसत्ता, जर, जोरू, जंगल, जमीन, जाति, जन्मदिन आदि से गुजरते हुए हमें लाशों के अम्बार तक ले जाती हैं जो बकौल छायाकार सतपाल दानिश कुछ यों है, ‘अगर तुम पंजाब को समझना चाहते हो, तो लाशें गिनते जाओ.’

यह पुस्तक इस बात की भी पड़ताल करती है कि क्योंकर हर राज्य में ऐसे स्वार्थी दलों का प्रादुर्भाव हुआ जिन्हें अपनी जनता से ही कोई लेना देना नहीं था. पंजाब की बर्बादियों के लिये बंटवारे, अहमदशाह अब्दाली और अंग्रेजों से कम जिम्मेदार अकाली दल नहीं है और यह तथ्य लेखक अनेक मर्तबा स्थापित करता है. वह चाहे नशे के शिकार लोगों का मसला हो, सतलज यमुना लिंक नहर का मसला हो या एस.जी.पी.सी. पर कब्जा बनाए रखने के लिये सिखों में अमृतधारियों को ही एसजीपीसी के चुनावों में मतदान करने का कानून बनाना हो, इसके लिये लोगों को सिख धर्म में सहजधारी और अमृतधारी के बीच बंटवारा करने मसला हो.

क्या आप यकीन करेंगे कि अकाली दल, जिसकी पहचान ही सिख धर्म से है, नित नए नियम लाकर, क़ानून बनाकर सहजधारी सिखों को एसजीपीसी के चुनाव में मतदान करने से रोक देती है. यह सब किस लिये? ताकि सरकार और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी दोनों पर अकाली दल के मातहतों का कब्जा रहे. यह पिछले बीस वर्षों से चला आ रहा है.

आप कहेंगे कि अगर अकाली दल के लोग एसजीपीसी पर काबिज हो ही जाते हैं तो दिक्कत क्या है? इस प्रश्न को या इस जैसे अनेक प्रश्नों का जवाब अमनदीप जिस शोधपरक अंदाज में देते हैं वह विचलित कर देता है. मैं यहां जवाब नहीं लिखूंगा क्योंकि बीसियों पन्ने लग सकते हैं इसलिए महज एक उदाहरण से समझाता हूं:

वर्ष दो हजार सोलह में पंजाब में कपास की फसल को सफ़ेद मक्खियां चूस गईं थीं, जैसे मदर इंडिया फिल्म का लाला अपने किसानों का खून चूसता है ठीक वैसे ही ये माहू या सफेद मक्खियां उस वर्ष कपास के फसल पर उतरी थीं, किसानों के हिस्से कपास के सूखे पौधे भर आये, फूल नहीं आये, किसानों ने बड़ा आन्दोलन किया और उन किसानों की आंख का पानी नहीं मरा होगा इसलिए उन्होंने उन मजदूरों के लिये भी मांगे रखीं जो कपास की चुगाई से जीवन यापन करते थे. अकाली दल का शीर्ष और ‘सुखबीर ट्रांसपोर्ट कंपनी’ आदि ने किसानों पर दवाब डाला कि मजदूरों के लिये क्षति-पूर्ति की मांग न रखें तो किसानों की मांगें मानी जा सकती हैं. किसान मोर्चा ने जब उनके इस गलत प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो कई स्तरों पर उस आन्दोलन को खत्म करने की कोशिश हुई और उनमें से एक तरीका यह अपनाया गया कि गुरुद्वारों में आन्दोलनकारियों को लंगर ‘छकने’ नहीं दिया गया. पूछने पर कहा गया, ऊपर से आदेश है.

सोचिये ज़रा! जो सिख कौम रोहिंग्या मुसलमानों, सीएए आन्दोलनकर्मियों के लिये लंगर चलाती है, महानता की मिसाल पेश करती है, वही गुरुद्वारे किसी ऊपरी आदेश की वजह से अपने ही लोगों को भोजन नहीं दें. यह सब तभी सम्भव है जब सरकार का कब्जा प्रबंधन कमेटी पर हो.

धर्म के आंतरिक मसलों में इन दलों का हस्तक्षेप यहां तक है कि इन्होने कैलेण्डर में भी हेर-फेर कर डाला है या हेर-फेर करने वाले तत्वों को बढ़ावा दिया है.

यह सरकार नशे के मोर्चे पर भी असफल हुई है. दुनिया भर में नशा-मुक्ति में पुर्तगाल का सफल उदाहरण होने के बावजूद उसे न अपना कर, राज्य सरकार त्वरित और लोकप्रिय समाधान देने के चक्कर में अपने युवाओं को नशे के गड्ढे में ठेलती जा रही है. इस सरकार की कोई कोशिश अपने लोगों को कर्जे से उबारने में नहीं दिखती. पंजाब की खेती ऐसी खर्चीली हो गई है कि हर छोटा, मंझोला किसान कर्ज के जाल में फंस कर रह गया है और ‘कुर्की’ उस धरती के लिये बड़ी हौलनाक प्रक्रिया हो गई है जिससे न जाने कितने किसान अपनी आत्मा पर लगी चोट बर्दाश्त नहीं कर पा रहे और जिन्दगी जैसी नेमत से हाथ धो बैठ रहे हैं.

अमनदीप की यह किताब दो तरह से आपके समक्ष खुलती है या कम से कम मेरे सामने खुली. पन्ने दर पन्ने यह ख्याल आता रहा कि काश ऐसी किताब भारत के हर उस क्षेत्र के बारे में हो जिसकी अपनी भाषा है, जिसका अपना भूगोल है, जिसका अपना अर्थतंत्र है. पंजाबी भाषा को लेकर अमनदीप बड़े मार्के की बात कहते हैं कि हिन्दुस्तानी पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब (कितने दुःख से इसे लिखना पड़ रहा है, जो सदियों तक एक क्षेत्र रहे, एक जबान, एक वतन वह किन्हीं लोगों की महत्वाकाक्षाओं की भेंट चढ़ कर हमारे सामने हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी पंजाब बन गए हैं) में पंजाबी बोली जाती है अगर उनके लिखने की लिपि एक हो जाये, या दोनों गुरुमुखी में लिखी जाएं या शाहमुखी, या फिर लिप्यान्तरण की सुविधा हो तब यह भाषा संभवतः दस करोड़ लोगों की भाषा हो जायेगी और सिर्फ उस एक लिप्यान्तरण के टूल को व्यवहार में लाने से न जाने कितने मसले हल हो जायेंगे, व्यापार में आसानी होगी क्योंकि कारोबार सुविधाजनक हो जायेंगे. इसके लिये प्रयास भी जारी हैं.

एक ख़ास पहलू जो इस किताब को अलग महत्व देता है, वह है लेखक के स्पष्ट विचार. लेखक समावेशी है लेकिन वह कहीं भी गलत को गलत कहने से हिचकता नहीं. पंजाब के मसले में यह कत्तई साहसी काम है. जाति का ही मसला लें. लेखक उन पहलुओं को उकेरता है जो किसी बहाने से जाने दिए जा सकते थे. एक मसला पंचायती जमीन का दलितों के लिये नीलामी का है. जेडपीएससी का नाम आपने सुना ही होगा. पंजाब में दलितों को पंचायती जमीन का पट्टा दिलवाने में इस समूह का योगदान है.

अमनदीप के लिखे में आशा की कुछ किरणें हैं और उनमें से एक जमीन का यह पहलू है. अगर बंटवारा न हुआ होता तो संभव था कि जमीन का मालिकाना आजादी के बाद ही नए तरीके से बना होता और सबको जमीन मुहैया कराई जाती लेकिन बंटवारे के आघात से यह संभव न हो सका और इसका नतीजा यह हुआ कि दलित भूमिहीन रह गए. फिर यह तय हुआ कि पंचायती या शामिलात ज़मीन को दलितों के बीच नीलामी कराई जाये लेकिन बड़े किसान जातियों को यह मंजूर न था. जमीन पर तो वे अपना ही हक़ मानते आये थे. उन्होंने इस नीलामी को अपने तरीके से कराया. हर गांव में अपना एक ‘डमी’ खड़ा कर देते थे जो दलित होता था. वह अधिकाधिक बोली लगाकर जमीन अपने नाम करा लेता और बाद में वह बड़े किसान को चली जाती थी लेकिन फिर दलितों ने इसके विरुद्ध जो मोर्चाबंदी की वह इक्कीसवीं सदी के भारत की खूबसूरत दास्तानों में से एक है. हालांकि उसमें भी अड़चनें खूब आईं, दलितों को हर तरह से तंग किया गया लेकिन उन्होंने यह किया कि नीलामी में अधिक पैसे की बोली लगाने के लिये सामूहिकता का रास्ता अपनाया. सब मिल कर चंदा करते और फिर बोली लगाते.

भाषा और जमीन की इन लड़ाइयों में जो अड़चन है उस पर बात करने से पहले मैं वह दूसरा पक्ष बता दूं जो आपने सामने यह किताब रखती है. लेखक का अपना जीवन. कर्ज पर पूरा एक अध्याय लिखने वाला लेखक दरअसल यह किताब लिखकर एक कर्ज ही उतारता है. हम सब जो अपनी ज़मीन से, अपने लोक से, अपने गांव से दूर कर दिए गए हैं उनके पास लौटने के लिये शायद ही कोई जगह है. और जिनके साथ पीढ़ियों पहले यह सब हो चुका है वह तो शायद अपनी घुटन बता भी नहीं सकते. लेखक अमनदीप ऐसा नहीं करते. वे बताते हैं. बताते हैं कि कैसे उनके दादाजी ने मुजारा आन्दोलन में जोतदार किसानों का समर्थन किया और उसकी एवजी में उन्हें गांव लुधियाना जिले का अपना गांव मनावां छोड़ना पड़ा. स्वतंत्रता संग्राम में और उसके बाद अपने ही गांव के लोगों के लिये अपने ही लोगों से संघर्ष रहा, जिसकी एवजी में उन्हें गांव निकाला के साथ वर्षों बाद एक सरकारी ताम्रपत्र मिलता है.

फिर जो होता है वही उदासी और आंसू हम सबका हासिल है. लेखक की दादी पूरी उम्र चुप रही हैं, गांव का बिछोह बर्दाश्त किया. हर जगह नए तरीके से बसना सीखा. सब चुपचाप. लेकिन जब दादाजी ताम्रपत्र लेकर आते हैं और दादी को देते हैं, तब उनकी आवाज रुलाई की शक्ल में फूटती है. एक वाक्यांश सा कुछ आंसुओं में छिप कर निकलता है जो ताम्रपत्र के फेंके जाने की आवाज का पीछा करता है: इतना सारा कुछ कर डाला इसी ताम्बे के लिये?

यह दादीजी का पहलू है

अमनदीप का पहलू अजीत सिंह हैं, शाह बेग है, पंजाब है, किसान हैं, लोग हैं और ऐसे अनगिन सवाल हैं कि जिस पंजाब में पांच सौ मिलीमीटर बारिश होती है उस पंजाब में धान की फसल आखिर क्यों बोई जाती है जिसमें ग्यारह सौ मिलीमीटर बारिश जितने पानी की आवश्यकता है? सवाल है कि स्वर्ण मंदिर में, जिसे अहमद शाह अब्दाली के बाद भारतीय सेना ने नुक्सान पहुंचाया, हथियार आये कैसे? हरित क्रान्ति में क्रान्ति कहां थी? सीमा पर बसे लोगों को हम किस देश का नागरिक मानते हैं?

शामिलात जमीन के लिये दलितों में आई जागरुकता को दबा पाने में जब स्थानीय प्रशासन और जट किसान अक्षम रहे तो यह एक बात सुनने में आई थी जो किताब में नहीं हैं लेकिन हवा में है कि ऐसे ही एक बड़े जमीन के टुकड़े पर, जो अगर नीलाम हो जाता तो जाने कितने दलित भाईयों का जीवन कुछ संवरता, सरकार ने फ़ूड पार्क बनवाने का ऐलान किया है. यह सुनी सुनाई बात है लेकिन सरकारों के चरित्र देखते हुए इसे न मानने का कोई कारण नहीं दिखता.

ऐसे अनगिन प्रश्न इस किताब में हैं जो हमें पंजाब के साथ-साथ अपने स्थानीय जगहों से जुड़े मसलों पर विचारने के लिए प्रेरित करती है. साथ ही इस किताब से गुजरते हुए यह भी समझते चलते हैं कि संघीय ढांचे के लिये केंद्र और राज्यों के बीच जो एक तनी हुई रस्सी का पुल है उस पर करोड़ों की आबादी दिन-रात गुजर रही है और उस रस्सी को लगा एक झटका भी अनगिनत लोगों की जिन्दगी पर बन आता है. ऐसे में, मुझे लगता है, यह किताब अनिवार्य पुस्तक के तौर पर हमारे साथ रहेगी.

*इस लेख का शीर्षक ‘उदास रंगीनिया’ शमशेर बहादुर सिंह की काव्यपंक्ति से है.

किताब: पंजाब जर्नीज थ्रू फाल्ट लाइन्स

लेखक: अमनदीप संधू

प्रकाशक: वेस्टलैंड

पृष्ठ: 580

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