लॉकडाउन के दौरान तेज हो गई मुसहर टोली के बच्चों की तस्करी

बिहार में गया इलाके के आसपास मुसहर समुदाय की बड़ी आबादी रहती है. गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और खराब स्वास्थ्य से जूझ रही इस आबादी में बच्चों की तस्करी एक बड़ी समस्या है.

WrittenBy:बसंत कुमार
Date:
Article image

‘‘करीब डेढ़ साल पहले एक दिन मेरा बेटा बाहर से आया और पूछा क्या खाना बनाई हो. मैंने कहा खाली भात बना है. वो बिना खाना खाए बाहर चला गया. उसके बाद शाम को आया और पूछने लगा- क्या मैं जयपुर कमाने जाऊं? मैंने मना कर दिया. दूसरे दिन हम लोग मज़दूरी करने गए तो पीछे से वह अपना आधार कार्ड और कपड़ा लेकर चला गया. हम इधर-उधर तलाशते रहे, लेकिन कहीं नहीं मिला. कुछ रोज बाद उसका फोन आया. उसने बताया कि जयपुर की चूड़ी फैक्ट्री में काम कर रहा है. उसने कहा- तुम चिंता मत करना. मैं कमाकर भेजूंगा. छूछे भात मत खाना. पैसे हर महीने भेजता था. लॉकडाउन में उससे बात हुई थी. दो दिन बाद ही फोन आया कि वो मर गया. उसकी लाश भी नहीं आई. साहब, हम घिघियाते रहे लेकिन वो घर नहीं आया.’’

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
सुजाता

इतना बताने के बाद 55 वर्षीय सुजाता रोने लगती हैं. वो कहती हैं, ‘‘उसका बाप बहुत पहले मर गया था. मेरे छह बच्चे हैं. जो कमाती थी उसी में से खिलाती थी. छोटा था तो खा लेता था, लेकिन जब बड़ा हुआ तो दोस्त-यारों के साथ रहने पर उसे यह सब खाना नहीं रुचता था.”

गया जिले से 45 किलोमीटर भीमपुर गांव की रहने वाली सुजाता का बेटा शशिकांत मांझी खाने की कमी के चलते 2019 के मई महीने में घर से चला गया था. एक साल बाद मई 2020 में उसकी मौत जयपुर में हो गई. कोरोना और लॉकडाउन के कारण परिजन शव को बिहार लेकर नहीं जा सके, वहीं पर शशिकांत का अंतिम संस्कार कर दिया गया. गांव में पुआल का शव बनाकर शशिकांत का सांकेतिक अंतिम संस्कार किया गया.

शशिकांत की उम्र के बारे में ठीक से कोई परिजन या पड़ोसी जवाब नहीं दे पाते. उनकी भाभी एक लड़के की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, ‘‘जब मेरी शादी हुई थी तब इसी के बराबर थे. 15-16 साल के तो होंगे ही.’’

शशिकांत अकेले कमाने गए थे? इस सवाल के जवाब में सुजाता बताती हैं कि मुझे नहीं पता. बेटे से हम कई बार पूछे भी, लेकिन उसने मुझे नहीं बताया. आसपास के सब कहते हैं कि उसे कोई दलाल लेकर गया था. साहब अकेले कैसे जाएगा वो तो गया से बाहर कभी गया भी नहीं था. इतना दूर अकेले कैसे चला जाएगा?

'मैं तो अपने बेटे को मरा मान ली थी'

भीमपुर मुसहर बाहुल्य गांव है. समुदाय लम्बे समय से ही समाज के निचले पायदान पर रहा है. ज़्यादातर गांवों में इनकी आबादी गांव के दक्षिणी हिस्सों में होती है, जिसे समान्यत: दक्षिण टोला कहा जाता है. ऐसा इसलिए किया जाता रहा है क्योंकि दक्षिण से हवा नहीं चलती है. समाज में इनको एक अलग निगाह से देखने की परम्परा रही जिसके कारण ये लम्बे समय तक बंधुआ मज़दूर ही बनकर रह गए. आज भी जहां बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाए जाने की खबर आती है उसमें ज़्यादातर इसी समुदाय के लोग होते हैं.

बिहार की ज़्यादातर मुसहर आबादी गया जिले के आस-पास के इलाकों में रहती है. लम्बे समय से इस समुदाय के लोग खेत-खेत घूम कर, चूहा पकड़कर लाते थे, वही इनका खाना होता था. धीरे-धीरे स्थिति बदली है. अब इस समुदाय के ज़्यादातर पुरुष और महिलाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में ईट-भट्टा पर मज़दूरी करते हैं, जहां इनके बच्चे भी इनके साथ रहते हैं. आज भी इस समुदाय में अशिक्षा और रोजगार की स्थिति बहुत खराब है. इसका फायदा उठाकर दलाल छोटे बच्चों को कुछ पैसों का लालच देकर अपने साथ जयपुर ले जाते हैं. जहां इनसे 20-20 घंटे लगातार काम कराया जाता है. इन्हें मारा-पीटा जाता है. इनका शोषण होता है. किसी रोज पुलिस की नज़र इन बच्चों पर पड़ती है तो ये उस काल कोठरी से निकल पाते हैं. शशिकांत की भूख को ऐसे ही किसी दलाल ने पहचाना और उसे कुछ पैसों का लालच देकर अपने साथ जयपुर ले गया, जहां से उसका शव भी नहीं लौटा.

imageby :

एक तकलीफदेह कहानी से गुजरने के बाद हम आगे बढ़ते हैं. हमें अंदाजा नहीं होता कि आगे एक और ऐसी ही कहानी हमारे इंतज़ार में है. पाली गांव के बाजार से निकल कर पांच सौ मीटर अंदर मालती देवी का घर है. जो अभी ठीक से नहीं बना है. दुबली पतली मालती देवी, सुजाता से थोड़ी नसीब वाली हैं कि उनका बेटा निपु सिर्फ दो साल ही उनसे दूर रहा. हालांकि वो भी उसे मरा हुआ मान ली थी, लेकिन एक रोज गया पुलिस स्टेशन से फोन आया और कुछ दिनों बाद उनका बेटा लौट आया.

13 वर्षीय निपु से जब हम मिले तो वो बेहद डर-डर के बात कर रहा था. थोड़ी देर की बातचीत के बाद वो खुलकर बात करने लगा. उसने बताया, “एक रोज मैं सड़क पर खड़ा था तभी एक आदमी मोटरसाइकिल से आया और पूछा कि पढ़ने चलोगे. पढ़ाई भी करना और पैसे भी मिलेंगे. उसने मुझे एक हज़ार रुपए दिए. मैंने पहली बार इतना पैसा देखा था. तब मैं सिर्फ 10 साल का था. मैं उसके साथ चला गया. मुझे ट्रेन में बैठाकर वो ले गए.”

निपु आगे बताता है, “पढ़ने तो एक दिन भी नहीं भेजा. वहां मुझसे चूड़ी बनवाने लगे. मुझे काम आता नहीं था पर मैं देख-देख कर सीखने लगा. एक कमरा था उसमें मेरी ही उम्र के छह-सात लोग रहते थे. सुबह 10 बजे से काम करने बैठते थे और रात दो बजे तक काम करते थे. काम नहीं करने पर वो मारते भी थे. दो सालों तक उन्होंने मुझे मेरे मां-बाप से बात तक नहीं करायी. मुझे जानकरी नहीं थी इसलिए मैं वहां से भाग भी नहीं पा रहा था. एक दिन मैं चूड़ी बनाने का समान लाने गया था. वहां से लौट रहा था तो कुछ पुलिस वाले मेरे पीछे-पीछे आए. मैं उन्हें जानता नहीं था तो मैं आराम से काम करने वाली जगह पर लौट आया. कुछ ही देर में पुलिस वाले हम सब बच्चों को पकड़ लिए और हमें पुलिस थाने ले गए. वहां कुछ देर रखने के बाद एक जगह ठहराया गया. वहां कुछ दिन रहने के बाद पटना भेज दिया. वहां से मैं अपने घर आया. करीब दो साल बाद मैंने अपने घर वालों को देखा.”

जयपुर से छुड़ाया गया बच्चा

छह बच्चों की मां मालती देवी बताती हैं, ‘‘जब ये गायब हुआ तो हम लोग काफी तलाशे. हर रिश्तेदारी में हमने पता किया. जब नहीं मिला तो हमने इसे मरा हुआ मान लिया, लेकिन अब यह लौट आया. पैसे का लालच देकर इसे ले गए थे. हमारी उतनी आमदनी नहीं है कि हम बच्चों को कुछ-कुछ खाने के लिए दे पाएं. इसके पिताजी ईंट भट्टा पर काम करते हैं.”

निपु जयपुर में दो साल रहा और 20-20 घंटे काम किया, लेकिन चूड़ी फैक्टी के मालिक या दलाल ने उसे या उसके परिवार को एक रुपया नहीं दिया. आपने पुलिस में गायब होने की शिकायत की थी? इस सवाल पर मालती देवी चुप्पी साध लेती हैं. हैरानी की बात है कि मुसहर समुदाय के ज़्यादातर लोग अपने बच्चों की गुमशुदगी का मामला तक दर्ज नहीं कराते हैं.

कई मामलों में परिवार के लोगों की मर्जी भी शामिल

एक तरफ जहां दलाल इन बच्चों की तस्करी करते हैं वहीं दूसरी तरफ कई बार इसमें मां-बाप की भी सहमति होती है. गरीबी और अशिक्षा के कारण मां बाप अपने बच्चों का देखभाल नहीं कर पाते और बच्चों को काम करने के लिए भेज देते हैं. ऐसे ही एक परिवार से हमारी मुलाकात गया में हुई.

घर की आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के कारण बच्चे को भेजे थे कमाने

गया के कोची बरमा गांव के रहने वाले गणेश मांझी से हमारी मुलाकात उनके घर पर हुई. उनका बेटा संजीत कुमार लॉकडाउन के बीच में ही दूसरी बार जयपुर की चूड़ी फैक्ट्री में काम करने जा रहा था तभी रास्ते में उसे पुलिस ने पकड़ कर वापस घर भेज दिया. संजीत ने बताया कि उसका फूस का घर है, सोचा कुछ पैसे वैसे कमाकर पक्का घर बनाऊंगा, इसलिए चला गया. वहां सप्ताह में 200 रुपए खर्च के लिए मिलता था.और हर महीने पांच हज़ार रुपए घर पर भेजता था.

गणेश मांझी से जब हमने पूछा कि आप अपने बच्चे को काम पर क्यों भेजते हैं तो उन्होंने कहा, “घर चलाने के पैसे नहीं हैं. जिस जगह पर रह रहे हैं वह भी अपनी जमीन नहीं है. अपने बच्चे को कैसे खर्च दें और कैसे पढ़ाएं इसलिए हमने इसे कमाने के लिए भेज दिया. यहां रहेगा तो ठीक से पढ़ेगा भी नहीं और बाहर जाएगा तो कम से कम दो पैसा घर तो भेजेगा.”

संजीत के साथ उसके गांव का अमित भी गया था. अभी वो जयपुर में ही हैं क्योंकि रेस्क्यू करके उसको जहां रखा गया था वहां पर कोरोना के मरीज मिल गए थे. अमित की मां अनार देवी बताती हैं, ‘‘वह आठवीं तक पढ़ा हुआ है. घर में बहनें बड़ी हो रही हैं और उनकी शादी करनी है. घर में कोई आमदनी नहीं है. लॉकडाउन में स्थिति खराब हो गई तो उसने बाहर जाने के लिए बोला. अभी जा रहा था तभी जयपुर में पुलिस उसे पकड़ ली और वह अब तक नहीं आया. आप देखिए मेरे घर की स्थिति.’’

हम जितने परिवार से मिले लगभग सबको सरकार से राशन, नल-जल और गैस आदि की सुविधाएं मिल रही हैं, लेकिन मिलने वाली सुविधाएं बेहद कम हैं और उस पर निर्भर लोगों की संख्या ज़्यादा है. आमदनी नहीं होने के कारण ये उज्ज्वला योजना में मिले सिलिंडर में गैस भी नहीं भरवा पाते हैं. अनारी देवी को मुफ्त सिलेंडर भी नहीं मिला. वो आज भी चूल्हे पर ही खाना बनाती हैं.

सेंटर डायरेक्ट एनजीओ बिहार के छह जिलों में बाल श्रम को लेकर काम करती है. इसमें से एक जिला गया भी है. इस संस्थान से जुड़े विजय केवट ने बताया, ‘‘2017 से लेकर 2020 तक जयपुर से लगभग 500 बच्चे सिर्फ गया जिले के रेस्क्यू हुए. ये ज़्यादातर बच्चे मुसहर समुदाय के हैं. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण गरीबी और अशिक्षा है.’’

विजय कहते हैं, ‘‘चूड़ी का काम सही तरह से बच्चे ही कर पाते हैं. जिसके कारण तस्करी करने वाले इन बच्चों को अपना शिकार बनाते हैं. इसके लिए कई बार वो बच्चों को लालच देते है. बच्चे अगर चंगुल में आ गए तो उन्हें काफी फायदा होता है क्योंकि वे बच्चों को कुछ पैसे देकर ले जाते हैं और वहां बिना वेतन दिए काम कराते हैं. वे पांच साल से लेकर 15 साल तक के बच्चों को निशाना बनाते हैं. कई बार वे मां बाप को भी लालच देते हैं और मां-बाप भी पैसे की लालच में अपने बच्चों को भेज देते हैं. लॉकडाउन के दौरान भी यहां से बच्चों का ट्रैफिकिंग जारी रहा.’’

जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी नहीं बदली स्थिति

बिहार में चुनाव है. यहां के चुनाव में पत्रकार हो या राजनेता सब जाति की निगाह से देखते हैं. ऐसे में बिहार की तीसरी बड़ी आबादी वाले मुसहर समुदाय की स्थिति में बदलाव् क्यों नहीं आया. इनकी चर्चा चुनाव में कहीं भी नज़र नहीं आती है. यह स्थिति तब है जब इसी समुदाय से आने वाले जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

नल जल योजना के तहत लगा नल

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के गांव महकार से महज दो किलोमीटर दूर बसे रामरती नगर और पार्वतीनगर में मुसहर समुदाय की बड़ी आबादी रहती है. नीतीश सरकार हर गांव में नल-जल योजना पहुंचाने का दावा कर रही है लेकिन इन दोनों गांवों में आज भी लोगों की सबसे बड़ी समस्या पानी ही है. महिलाएं सर पर पानी का बर्तन लिए दिख जाती हैं. रामरती नगर में पानी की एक टंकी ज़रूर लगी है, लेकिन उसमें से पानी ठीक से नहीं आता है. वहीं पार्वतीनगर में दो नल है जो अक्सर बिगड़ जाता है. अक्सर यहां के लोगों को पानी लाने के लिए बगल के गांव में जाना पड़ता है. जहां इन्हें कई तरह की बातें सुननी पड़ती हैं.

हालांकि न्यूज़लॉन्ड्री को दिए इंटरव्यू में जीतनराम मांझी ने बताया था कि ऐसा नहीं है कि लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया. आज उनके पास अपना घर है, बिजली है. पहले की तुलना में उनकी ज़िन्दगी में काफी बदलाव आया है. थोड़ा सा सामाजिक कारण है. अभी ठीक से उनमें नशाबंदी नहीं हुई है. लोग अभी भी नशा करते हैं. और सबसे बड़ी बात है शिक्षा नहीं होना. कॉमन स्कूलिंग सिस्टम को हमने अपने घोषणा पत्र में भी डाला है. यह लागू होगा तो तभी हर तबके के बच्चे को समान शिक्षा मिलेगी, ऐसा कहना है मांझी का.

Also see
article imageजीतनराम मांझी: "तेजस्वी कभी नीतीश का विकल्प नहीं हो सकते"
article imageबिहार चुनाव: गया के मज़दूर क्यों हैं पीएम मोदी और नीतीश कुमार से खफा?
article imageबिहार चुनाव: सिर्फ पांच साल मांगने वाले नीतीश को विकास करने के लिए 15 साल भी कम पड़ गए

पाली गांव में हमारी मुलाकात हरिचरण मोची से हुई. 70 वर्षीय बुजुर्ग से हमने पूछा कि चुनाव में आप वोट देते हैं. आपकी जिंदगी में कुछ बदलाव हुआ, तो वे कहते हैं, ‘‘का बदला है. 70 साल उम्र हो गई. आज भी कमाते हैं तभी खाते हैं. बेटे सब बाहर हैं. उनकी आमदनी इतनी भी नहीं की वो मुझे कुछ पैसे भेज सकें. वोट-ओट तो हम देते ही हैं लेकिन उससे कोई फायदा होता नहीं है. लालू यादव ने घर दिया था, नीतीश कुमार ने बिजली दिया लेकिन खाना किसी ने नहीं दिया.’’

मुसहर टोलों से लौटते हुए जब मैं सोशल मीडिया पर आया तो भारतीय जनता पार्टी का चुनावी गीत ‘बिहार में ई बा’ सुना. जिसमें बताया गया है कि बिहार अब बदल गया है लेकिन इस वीडियो में इन इलाकों की एक भी तस्वीर नज़र नहीं आई.

***

यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 34 पाठकों ने योगदान दिया. आप भी हमारे बिहार इलेक्शन 2020 सेना प्रोजेक्ट को सपोर्ट करें और गर्व से कहें 'मेरे खर्च पर आज़ाद हैं ख़बरें'.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like