बुझ रही है कुदरत की लालटेन

मौसम के बदलाव का संकेत देने वाले जुगनू जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से खत्म होते जा रहे हैं.

WrittenBy:चंद्रिमा देवी
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मसूरी के लंडोर में रहते हुए मुझे दो साल से अधिक हो गए हैं लेकिन मैंने कभी जुगनुओं को नहीं देखा था. स्थानीय लोग बताते हैं कि उन्होंने भी पिछले दो दशकों से जुगनू नहीं देखे. दुनियाभर में जुगनुओं के गायब होने का जो ट्रेंड देखा जा रहा है, लंडोर भी उससे अछूता नहीं है. लेकिन मुझे आश्चर्य उस वक्त हुआ जब इस साल जुलाई-अगस्त के महीने में ये चमकदार कीट लंडोर में अचानक नजर आए. ये जुगनू वुडस्टॉक स्कूल के आसपास चीड़ और ओक के जंगलों में शाम छह से सात बजे के आसपास देखे गए. आधी रात के बाद चिनार के पेड़ों पर भी इन्हें देखा गया. यह देखकर जुगनुओं के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ गई.

जुगनू विचित्र कीट हैं क्योंकि इनके पेट में रोशनी उत्पन्न करने वाला अंग होता है. ये विशेष कोशिकाओं से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और इसे लूसीफेरिन नामक तत्व से मिला देते हैं. इससे रोशनी उत्पन्न होती है और इस रोशनी में गर्मी न के बराबर होती है. इस प्रकार उत्पन्न होने वाली रोशनी को बायोल्यूमिनिसेंस कहा जाता है. दुनियाभर में मौजूद कीटों की प्रजाति में जुगनुओं की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है.

अमेरिका के पेनिनसिलवेनिया स्थित बकनेल विश्वविद्यालय में एवोल्यूशनरी जेनेटिसिस्ट सारा लोवर के अनुसार, जुगनू कोलियोप्टेरा समूह के लैंपिरिडी परिवार से ताल्लुक रखते हैं. यह हमारे ग्रह पर डायनासोर युग से हैं. दुनियाभर में जुगनुओं की 2,000 से अधिक प्रजातियां हैं. अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में ये मौजूद हैं. भारत के अलग-अलग हिस्सों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इन्हें हिंदी में जुगनू, बंगाली में जोनाकी पोका और असमिया में जोनाकी पोरुआ कहा जाता है. रात में निकलने वाले इन कीटों के पंख होते हैं जो इन्हें परिवार के अन्य चमकने वाले कीटों से जुदा करते हैं.

जुगनुओं का व्यवहार बताता है कि उनकी हर चमक का पैटर्न “साथी” को तलाशने का प्रकाशीय संकेत होता है. लेकिन जब छिपकली जैसे जीवों का उन पर हमला होता है तो वे रक्त की बूंदें उत्पन्न करते हैं जो जहरीले रसायन से युक्त होती हैं.

जुगनू स्वस्थ पर्यावरण का भी संकेत देते हैं. ये बदलते पर्यावरण के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं और केवल स्वस्थ वातावरण में ही जीवित रह सकते हैं. जुगनू वहीं रह पाते हैं, जहां पानी जहरीले रसायनों से मुक्त होता है, भूमि जीवन के विभिन्न चरणों में मददगार होती है और प्रकाश प्रदूषण न्यूनतम होता है. जुगनू मुख्य रूप से पराग या मकरंद के सहारे जीवित रहते हैं और बहुत से पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जुगनुओं की उपयोगिता इस हद तक है कि वैज्ञानिक उनके चमकने के गुण की मदद से कैंसर और अन्य बीमारियों का पता लगा रहे हैं. उदाहरण के लिए स्विट्जरलैंड के रिसर्चरों ने जुगनुओं को चमकने में मदद करने वाला प्रोटीन लिया और उसे एक केमिकल में मिलाया. जब उसे ट्यूमर कोशिका जैसे दूसरे मॉलेक्यूलर से जोड़ा गया तो यह चमक उठा. यह अध्ययन 2015 में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुआ था.

बुझती रोशनी

अमेरिका स्थित गैर लाभकारी संगठन जेरसिस सोसायटी फॉर इनवर्टब्रेट कन्जरवेशन में पोलिनेशन प्रोग्राम की सह निदेशक एरिक ली मेडर बताती हैं, “सभी जुगनुओं की संख्या घटने की बात कर रहे हैं.” देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) में वरिष्ठ वैज्ञानिक वीपी उनियाल कहते हैं, “मैंने डब्ल्यूआईआई के परिसर में जुगनुओं की आबादी को तेजी से घटते हुए देखा है.” हालांकि यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि आबादी कितनी घटी है लेकिन कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि उनकी संख्या सिकुड़ रही है और बहुत से स्थानों से जुगनू गायब हो चुके हैं. यह भी हो सकता है कि वे ऐसे स्थानों पर चले गए हों जहां उनके रहने के लिए अनुकूल परिस्थितियां जैसे नमी और आर्द्रता हो.

जुगनुओं की आबादी कई कारणों से कम हो रही है. इनमें पेड़ों की कटाई और बढ़ते शहरीकरण को भी प्रमुख रूप से शामिल किया जा सकता है. प्रकाश प्रदूषण के कारण भी जुगनू एक-दूसरे का प्रकाश नहीं देख पाते. इससे अप्रत्यक्ष रूप से उनका जैविक चक्र प्रभावित होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में वे अपना साथी नहीं खोज पाते. ईकोलॉजी एंड एवोल्यूशन में 2018 में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि प्रकाश के कारण जुगनू रास्ता भटक जाते हैं, यहां तक की वे इससे अंधे तक हो सकते हैं. कीटनाशकों ने भी जुगनुओं के सामने संकट खड़ा किया है. जुगनू अपने जीवन का बड़ा हिस्सा लार्वा के रूप में जमीन, जमीन के नीचे या पानी में बिताते हैं. यहां उन्हें कीटनाशकों का खतरा रहता है.

जलवायु संकट

जुगनू बदलती जलवायु का भी संकेत देते हैं. बहुत- सी रिपोर्ट्स बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर जलवायु की स्थितियां बदलने पर जुगनुओं का प्राकृतिक आवास और उनका फैलाव भी बदल रहा है. लंडोर में उनके प्रकट होने का यह एक कारण हो सकता है. जहां जुगनुओं ने अपने रहने का समय बढ़ा लिया है. यहां गर्मियां अधिक गर्म हो रही हैं. साथ ही अप्रैल से सितंबर के बीच एक्सट्रीम बारिश भी पड़ रही है. हो सकता है कि जलवायु की बदली परिस्थितियों में उन्होंने निचले हिमालय के इस क्षेत्र में प्रवास और अपने रहने का समय बढ़ा लिया हो.

वर्ष 2016 में साइंस में प्रकाशित एक 12 वर्षीय अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वसंत ऋतु के गर्म होने से जुगनुओं का पीक समय पहले आ जाता है लेकिन यह तभी संभव है जब बारिश पहले जैसी रहे. उत्तरपूर्वी अमेरिका में स्थित कोरनेल विश्वविद्यालय में कीटविज्ञान के एमेरिटस प्रोफेसर माइकल हॉफमैन कहते हैं कि अन्य स्थानों पर जुगनुओं की बढ़ी हुई संख्या दिखने का कारण वसंत में नमी भी हो सकती है. जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिका के उत्तरपूर्वी हिस्सों में यह चलन देखा जा रहा है.

मैंने ऐसे बहुत से अध्ययन पढ़े हैं जो जुगनुओं की बायोलॉजी और उनके चमकने के गुण पर केंद्रित हैं. जुगनुओं की ईकोलॉजी और आवास पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ा है, यह बताने वाले शोध बहुत कम हुए हैं. जुगनू ऐसे समय में गायब हो रहे हैं जब दुनियाभर में पतंगों की आबादी कम हो रही है. इससे जहां एक तरफ दुनियाभर में परागण में कमी का खतरा मंडराएगा और वहीं दूसरी तरफ फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की संख्या में इजाफा हो जाएगा.

(लेखिका वानिकी में डॉक्टरेट एवं स्वतंत्र शोधार्थी हैं)

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जुगनू विचित्र कीट हैं क्योंकि इनके पेट में रोशनी उत्पन्न करने वाला अंग होता है. ये विशेष कोशिकाओं से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और इसे लूसीफेरिन नामक तत्व से मिला देते हैं. इससे रोशनी उत्पन्न होती है और इस रोशनी में गर्मी न के बराबर होती है. इस प्रकार उत्पन्न होने वाली रोशनी को बायोल्यूमिनिसेंस कहा जाता है. दुनियाभर में मौजूद कीटों की प्रजाति में जुगनुओं की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है.

अमेरिका के पेनिनसिलवेनिया स्थित बकनेल विश्वविद्यालय में एवोल्यूशनरी जेनेटिसिस्ट सारा लोवर के अनुसार, जुगनू कोलियोप्टेरा समूह के लैंपिरिडी परिवार से ताल्लुक रखते हैं. यह हमारे ग्रह पर डायनासोर युग से हैं. दुनियाभर में जुगनुओं की 2,000 से अधिक प्रजातियां हैं. अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में ये मौजूद हैं. भारत के अलग-अलग हिस्सों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है. इन्हें हिंदी में जुगनू, बंगाली में जोनाकी पोका और असमिया में जोनाकी पोरुआ कहा जाता है. रात में निकलने वाले इन कीटों के पंख होते हैं जो इन्हें परिवार के अन्य चमकने वाले कीटों से जुदा करते हैं.

जुगनुओं का व्यवहार बताता है कि उनकी हर चमक का पैटर्न “साथी” को तलाशने का प्रकाशीय संकेत होता है. लेकिन जब छिपकली जैसे जीवों का उन पर हमला होता है तो वे रक्त की बूंदें उत्पन्न करते हैं जो जहरीले रसायन से युक्त होती हैं.

जुगनू स्वस्थ पर्यावरण का भी संकेत देते हैं. ये बदलते पर्यावरण के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं और केवल स्वस्थ वातावरण में ही जीवित रह सकते हैं. जुगनू वहीं रह पाते हैं, जहां पानी जहरीले रसायनों से मुक्त होता है, भूमि जीवन के विभिन्न चरणों में मददगार होती है और प्रकाश प्रदूषण न्यूनतम होता है. जुगनू मुख्य रूप से पराग या मकरंद के सहारे जीवित रहते हैं और बहुत से पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जुगनुओं की उपयोगिता इस हद तक है कि वैज्ञानिक उनके चमकने के गुण की मदद से कैंसर और अन्य बीमारियों का पता लगा रहे हैं. उदाहरण के लिए स्विट्जरलैंड के रिसर्चरों ने जुगनुओं को चमकने में मदद करने वाला प्रोटीन लिया और उसे एक केमिकल में मिलाया. जब उसे ट्यूमर कोशिका जैसे दूसरे मॉलेक्यूलर से जोड़ा गया तो यह चमक उठा. यह अध्ययन 2015 में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुआ था.

बुझती रोशनी

अमेरिका स्थित गैर लाभकारी संगठन जेरसिस सोसायटी फॉर इनवर्टब्रेट कन्जरवेशन में पोलिनेशन प्रोग्राम की सह निदेशक एरिक ली मेडर बताती हैं, “सभी जुगनुओं की संख्या घटने की बात कर रहे हैं.” देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) में वरिष्ठ वैज्ञानिक वीपी उनियाल कहते हैं, “मैंने डब्ल्यूआईआई के परिसर में जुगनुओं की आबादी को तेजी से घटते हुए देखा है.” हालांकि यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि आबादी कितनी घटी है लेकिन कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि उनकी संख्या सिकुड़ रही है और बहुत से स्थानों से जुगनू गायब हो चुके हैं. यह भी हो सकता है कि वे ऐसे स्थानों पर चले गए हों जहां उनके रहने के लिए अनुकूल परिस्थितियां जैसे नमी और आर्द्रता हो.

जुगनुओं की आबादी कई कारणों से कम हो रही है. इनमें पेड़ों की कटाई और बढ़ते शहरीकरण को भी प्रमुख रूप से शामिल किया जा सकता है. प्रकाश प्रदूषण के कारण भी जुगनू एक-दूसरे का प्रकाश नहीं देख पाते. इससे अप्रत्यक्ष रूप से उनका जैविक चक्र प्रभावित होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में वे अपना साथी नहीं खोज पाते. ईकोलॉजी एंड एवोल्यूशन में 2018 में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि प्रकाश के कारण जुगनू रास्ता भटक जाते हैं, यहां तक की वे इससे अंधे तक हो सकते हैं. कीटनाशकों ने भी जुगनुओं के सामने संकट खड़ा किया है. जुगनू अपने जीवन का बड़ा हिस्सा लार्वा के रूप में जमीन, जमीन के नीचे या पानी में बिताते हैं. यहां उन्हें कीटनाशकों का खतरा रहता है.

जलवायु संकट

जुगनू बदलती जलवायु का भी संकेत देते हैं. बहुत- सी रिपोर्ट्स बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर जलवायु की स्थितियां बदलने पर जुगनुओं का प्राकृतिक आवास और उनका फैलाव भी बदल रहा है. लंडोर में उनके प्रकट होने का यह एक कारण हो सकता है. जहां जुगनुओं ने अपने रहने का समय बढ़ा लिया है. यहां गर्मियां अधिक गर्म हो रही हैं. साथ ही अप्रैल से सितंबर के बीच एक्सट्रीम बारिश भी पड़ रही है. हो सकता है कि जलवायु की बदली परिस्थितियों में उन्होंने निचले हिमालय के इस क्षेत्र में प्रवास और अपने रहने का समय बढ़ा लिया हो.

वर्ष 2016 में साइंस में प्रकाशित एक 12 वर्षीय अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वसंत ऋतु के गर्म होने से जुगनुओं का पीक समय पहले आ जाता है लेकिन यह तभी संभव है जब बारिश पहले जैसी रहे. उत्तरपूर्वी अमेरिका में स्थित कोरनेल विश्वविद्यालय में कीटविज्ञान के एमेरिटस प्रोफेसर माइकल हॉफमैन कहते हैं कि अन्य स्थानों पर जुगनुओं की बढ़ी हुई संख्या दिखने का कारण वसंत में नमी भी हो सकती है. जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिका के उत्तरपूर्वी हिस्सों में यह चलन देखा जा रहा है.

मैंने ऐसे बहुत से अध्ययन पढ़े हैं जो जुगनुओं की बायोलॉजी और उनके चमकने के गुण पर केंद्रित हैं. जुगनुओं की ईकोलॉजी और आवास पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ा है, यह बताने वाले शोध बहुत कम हुए हैं. जुगनू ऐसे समय में गायब हो रहे हैं जब दुनियाभर में पतंगों की आबादी कम हो रही है. इससे जहां एक तरफ दुनियाभर में परागण में कमी का खतरा मंडराएगा और वहीं दूसरी तरफ फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की संख्या में इजाफा हो जाएगा.

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