कड़ाके की ठंड के बावजूद दिल्ली के अलग-अलग बार्डर पर किसान बीते 19 दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं. अब इन आंदोलनों से मौत की भी ख़बरें आने लगी है. किसान नेताओं के मुताबिक अब तक आंदोलन से जुड़े 17 लोगों की मौत हो चुकी है.
हाड़ कंपाने वाली ठंड, गाहे-बगाहे होने वाली हल्की बारिश, कोरोना के बढ़ते मामलों और उसने होने वाली मौतों से बेफिक्र लाखों की संख्या में किसान बीते 19 दिनों से दिल्ली से लगे अलग-अलग हाईवे को ही अपना घर बनाए हुए हैं.
किसानों की मांग है कि केंद्र की मोदी सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करे. दूसरी तरफ सरकार इन कानूनों में कुछ बदलाव करने का आश्वासन दे रही है, पर किसान इसे किसी भी हाल में मानने को तैयार नहीं हैं. किसान नेताओं और सरकार के बीच चल रही इस रस्साकशी के दौरान आंदोलन से जुड़े लोगों की मौत के मामले भी सामने आने लगे हैं. किसान नेताओं की माने तो अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. इसमें से ज़्यादातर मौतें टिकरी बॉर्डर पर हुई हैं.
अक्सर ही प्रदर्शन स्थलों पर जो बैरिकेडिंग की जाती है उसमें किसी किनारे की तरफ पैदल आने-जाने का रास्ता छोड़ा जाता है, लेकिन टिकरी बॉर्डर पर दिल्ली पुलिस ने जबरदस्त बैरिकेडिंग की हुई है. यहां पैदल आने-जाने का भी रास्ता नहीं छोड़ा गया है. प्रदर्शन स्थल पर जाने के लिए गलियों से होकर हम पहुंचते हैं. गुरुवार की शाम यहां श्री कृष्णलाल नाम के शख्स की मौत हो गई थी. यह मौत भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के पंजाब सचिव निरंजन सिंह ढोला के सामने ही हुई थी.
बुजुर्ग निरंजन सिंह ढोला के चेहरे पर उदासी और अफ़सोस को आसानी देखा जा सकता है. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘श्री कृष्णलाल संगरूर के घुरी शहर के एक आढ़ती के मुनीम थे. उनकी उम्र 65 साल के करीब थी. गुरुवार की शाम को तीन बजे के करीब में 200 आढ़ती और उनसे जुड़े लोग बसों से टिकरी बार्डर हमें समर्थन देने आए थे. चूंकि वो मेरे शहर के रहने वाले थे, हम लोगों का अनाज खरीदते थे तो मुझसे ही बात करके आए थे.’’
सिंह आगे कहते हैं, ‘‘वे जब आए तो मैं उनसे मिलने और रहने का इंतज़ाम कराने गया. वहीं श्री कृष्णलाल से मुलाकात हुई. उन्होंने पूछा कि आखिर इस कानून में क्या है जो तुम लोग ठंड में लड़ रहे हो. मैंने उनको तीनों कानूनों के बारे में समझाया और बताया कि कैसे यह कानून किसानों को मज़दूर बना देगा. मेरे समझाने के बाद उन्होंने बस इतना कहा, यार तुम लोग नहीं रहोगे तो हम भी बर्बाद हो जाएंगे. हमारा आढ़ती हमें वेतन कैसे देगा. इस बातचीत के ठीक पंद्रह मिनट बाद वे बैठे-बैठे गिर गए. हम लोग पानी पिलाते रहे, लेकिन तब तक उनकी मौत हो चुकी थी.’’
बीते 35 सालों से मुनीम का काम करने वाले श्री कृष्णलाल के परिवार में पत्नी, एक बेटा और एक बेटी है. उन्हें मेहनताना के तौर पर हर महीने 15 हज़ार रुपए मिलते थे.
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Contributeमृतक के बेटे ने कहा- हम किसानों के साथ है...
श्री कृष्णलाल की मौत तो टिकरी बॉर्डर पर ही हो चुकी थी. वहां से एम्बुलेंस पर उनके साथी उन्हें लेकर बहादुरगढ़ के सिविल अस्पताल पहुंचें. जहां उनका पोस्टमार्टम करके देर रात को शव परिजनों को सौंप दिया गया. शव को लेने पहुंचे श्री कृष्णलाल के बेटे अजय से न्यूजलाउंड्री ने बात की. वे बताते हैं, ‘‘शुक्रवार शाम को पिताजी का अंतिम संस्कार हो गया. उनके अंतिम यात्रा में आढ़ती, किसान और आसपास के गांवों के सैकड़ों लोग पहुंचे.’’
मौत की वजह को लेकर हमारे सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘अभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आई है लेकिन डॉक्टर्स ने मौत की वजह हार्टअटैक बताया है.’’
45 वर्षीय अजय कहते हैं, ‘‘जब मंडी के आढ़ती, मुनीम और मज़दूरों ने किसानों के समर्थन में दिल्ली जाने का फैसला किया तो उन्होंने जाने का जिक्र हमसे किया. वे एकदम ठीक थे, तभी हमने उन्हें जाने दिया. बीमार होते तो 350 किलोमीटर ट्रैक्टर में क्यों जाने देते. उस दिन शाम 6 बजकर 3 मिनट पर मेरी उनसे बात हुई. वे दिल्ली पहुंच गए थे. करीब 20 सेकेंड की बातचीत में उन्होंने बताया कि मैं ठीक हूं. थोड़ी ही देर बाद उनके नहीं होने का मैसेज आ गया.’’
अपने शहर धुरी के एक राइस मिल में नौकरी करने वाले अजय से जब हमने पूछा कि इस आंदोलन को आपका भी समर्थन है तो तकलीफ से दबी अपनी आवाज़ को थोड़ा तेज करके वे कहते हैं, ''देखो जी, हम किसान भले ही नहीं हैं, लेकिन किसानों के बगैर हम क्या ही कर पाएंगे. मेरे पिताजी भी किसानों के बगैर कुछ नहीं थे. मंडी में किसानों का फसल बिकने के लिए आता तभी उनकी आमदनी हो पाती. मैं जहां काम करता हूं वहां भी किसानों के बगैर काम ही नहीं चल सकता है. ऐसे में हम किसानों के साथ खड़े हैं. उनकी यह मांग हमारी भी मांग है. सरकार को इसे जल्द सुनना चाहिए.’’
श्री कृष्णलाल, संगरूर जिले के फेडरेशन ऑफ़ आढ़ती एसोसिएशन के साथ दिल्ली आए थे. इस एसोसिएशन के प्रमुख जगतार सिंह न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं,‘‘पंजाब में 22 जिले हैं. यहां के आढ़तियों ने किसान आंदोलन को समर्थन देने का फैसला किया है. जिसमें तय हुआ है कि तीन जिले के लोग दिल्ली जाएंगे और तीन दिन रहेंगे, जिस रोज ये वापस लौटेंगे तो तीन और जिले के लोग जाएंगे. तो सबसे पहले हम संगरूर के आढ़ती अपने कर्मचारियों को लेकर तीन बस से दिल्ली पहुंचे. आढ़ती सिस्टम बंद करने के लिए सरकार कानून बना चुकी है. जबकि किसान ऐसा नहीं चाहते हैं. वे लोग इसको लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन सरकार बात मान नहीं रही. कृष्णलाल जी एक गरीब परिवार से थे. आढ़ती के मुनीम थे. उन्होंने जैसे यह सब जाना तो उन्हें लगा कि जब आढ़तियों को काम नहीं मिलेगा तो वो हमें क्यों रखेगा. यही बात उनके दिल पर लग गई. उनकी छाती में दर्द होने लगा और उनकी मौत हो गई. मैं तब उनके पास में ही खड़ा था. हम इधर-उधर भागे, लेकिन कोई एम्बुलेंस नहीं मिली. थोड़ी कोशिश के बाद एक प्राइवेट एम्बुलेंस वाला आया तो उन्हें मरा हुआ देखकर ले जाने से मना कर दिया. फिर हमने 108 नंबर पर फोन किया. सरकारी एम्बुलेंस आई और उन्हें लेकर हम अस्पताल पहुंचे.’’
क्या आप लोग सरकार से मदद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं इस सवाल के जवाब में जगतार सिंह कहते हैं, ‘‘पंजाब सरकार पांच लाख रुपए देती है. उस मदद के लिए हम लोग सोमवार को प्रदर्शन के दौरान की उनकी तस्वीरें, मंडी में काम करते हुए उनकी तस्वीरें और बाकी कागजात जमा करेंगे ताकि उनके परिवार को मदद मिल सके. वे बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं.’’
पहलवान था जी, खाना खाकर सोया था, सुबह उठा ही नहीं….
लगातार तीन बैठकों के बावजूद किसी नतीजे पर नहीं पहुंचने की स्थिति में किसानों ने आठ दिसंबर को भारत बंद की घोषणा की. किसान नेताओं का कहना था कि हमारी मांग कानून को वापस लेना है जबकि सरकार जिद्द पर अड़ी हुई है. ऐसे में आंदोलन को आगे बढ़ाने के अलावा हमारे पास कोई और रास्ता नहीं बचा है.
आठ दिसंबर के भारत बंद में हिस्सा लेने के लिए सात की रात को किसान थोड़ा जल्दी खाना बनाने लगे ताकि सुबह जल्द से जल्द जग जाएं और प्रदर्शन में हिस्सा ले सकें. हरियाणा के सोनीपत जिले के गुहाना तहसील के गांव बरोदा मोर के रहने वाले 32 वर्षीय अजय मोर ने अपने गांव के लोगों के साथ मिलकर खाना बनाया और ट्रैक्टर के नीचे सो गए, लेकिन फिर कभी जाग ही नहीं पाए.
बरोद गांव के रहने वाले 60 वर्षीय राममेहर नंबरदार वैसे तो बुजुर्ग हैं, लेकिन रिश्ते में अजय के भतीजा लगते हैं. उस सुबह यहीं अजय को जगाने गए थे, लेकिन वो मृत पड़े हुए थे. राममेहर सिंह रोते हुए कहते हैं, ‘‘एक दिन मैंने हंसते हुए कहा था कि ताई से तभी मिलना जब कानून वापस हो जाए. अब तो वो ताई से कभी नहीं मिल पाएगा. रोटी खाने का मन नहीं करता जी लेकिन जीने के लिए खा लेते हैं. 120 किलो का पहलवान था अजय.’’
अपनी डेढ़ एकड़ और किराए पर पांच एकड़ जमीन लेकर खेती करने वाले अजय मोर के परिवार में मां-पिताजी, पत्नी और तीन बेटियां हैं. उनके बड़े भाई की मौत बीते साल रोड एक्सीडेंट में हो गई थी जिसके बाद परिवार की ज़िम्मेदारी उनके ही कंधे पर आ गई. लेकिन अब जब उनकी मौत हो गई तो परिवार बेसहारा हो चुका है.
सिंघु बॉर्डर से छह किलोमीटर आगे सोनीपत के टीटीआई गेट के सामने बरोद और उसके आसपास के गांव के लोगों का ट्रैक्टर है. शाम सात बजे जब हम वहां पहुंचे तो कोई आटा गूंथ रहा था तो कोई टमाटर काट रहा था. वहां हमारी मुलाकात 26 साल के अमित मोर से हुई. उन्होंने अपने व्हट्सप और फेसबुक में मृतक अजय मोर की तस्वीर लगा रखी है. वो कहते हैं, ‘‘वो मेरा चाचा था. इलाके भर में मशहूर पहलवान था. हम लोग यहां एक दिसंबर को आए थे. रास्ते में कोई बैरिकेड तोड़ने का मौका नहीं मिला था तो एक दिन मुझसे कहने लगा कि सिंघु पर जब बैरिकेड तोड़ा जाएगा सबसे पहले मैं जाऊंगा. पर अब तो.. गांव में जिस रोज उनको दाग (अंतिम संस्कार) दिया गया उस रोज आसपास के छह सात गांव के लोग आए थे. हमारे लिए वो शहीद ही है. सैनिक देश की रक्षा के लिए जान देते हैं और उन्होने अपनी और बाकी किसानों की जमीन की रक्षा के लिए अपनी जान दी है. वो हमारे लिए शहीद हैं.’’
अमित मोर के इतना कहते ही आसपास के लोग किसान जिंदाबाद और पीएम मोदी-सीएम खट्टर मुर्दाबाद के के खिलाफ नारे लगाने लगते हैं.
कुलदीप मोर सब्जी बना रहे थे. वे हमें उस ट्रैक्टर और जहां अजय सोए थे उस जगह की तरफ इशारा करके दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘पहलवान था न जी. आटा बहुत अच्छा गूंथता था. मेरा भाई था ना. इसी जगह सोया था. ट्रॉली में कितने लोग सो पाएंगे. बड़े बुजुर्गों को हम अंदर सुला देते हैं और जो नौजवान हैं वे ट्रॉली के नीचे सोते हैं. ठंड तो लगती है, लेकिन उसकी मौत ठंड से हुई यह समझ नहीं आ रहा है. हम सब तो आसपास ही सोए थे. ठंड लगती तो बताता न. क्या हुआ किसी को पता नहीं है. अभी तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी नहीं आई है.’’
अजय की मौत कैसे हुई इसका जवाब यहां कोई नहीं देता है. राममेहर नंबरदार बताते हैं, ‘‘आठ की सुबह सब जल्दी जग गए. वो सोया हुआ था तो मैं चाय पीने के लिए जगाने गया लेकिन वो उठा ही नहीं. वो मर चुका था. हम लोग भारतीय किसान यूनियन चढूनी ग्रुप से हैं. उसके मरने की सूचना अपने नेता गुरनाम सिंह चढूनी को हमने दी. वो आए फिर हम इसे एक एम्बुलेंस से जिला अस्पताल सोनीपत लेकर पहुंचे. वहां हमारे साथ बहुत गलत व्यवहार हुआ. हमें इमरजेंसी से मोर्चरी और मोर्चरी से इमरजेंसी में दौड़ाते रहे.
120 किलो का आदमी था वो, उसे कंधे पर लेकर इधर से उधर जाना मुश्किल काम था. वहां हमें उसे लिटाकर ले जाने की कोई सुविधा तक नहीं दी गई. एम्बुलेंस में जो लिटाकर ले जाने वाला होता है उसी पर लेकर हम इधर से उधर भागते रहे. उसी शाम चार बजे तक पोस्टमार्टम कर दिया. पोस्टमाटर्म भी गलत तरीके से किया. उसके शरीर की सिलाई भी ठीक से नहीं की. जैसे-तैसे लेकर हम गांव पहुंचे और शाम पांच बजे तक उसका अंतिम संस्कार कर दिया. उस रोज गांव भर में चूल्हा नहीं जला था.’’
हरियाणा सरकार तो हालांकि इस आंदोलन को किसी भी तरह दबाना चाहती है. हरियाणा के लाखों किसान, खाप से जुड़े लोग सड़कों पर हैं. नेताओं को घेरा जा रहा है. इस बिल को समर्थन देने वालों को गांव में घुसने नहीं दिया जा रहा है. इतना सब होने के बावजूद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने बीते दिनों कहा था कि यह आंदोलन पंजाब के कुछ किसानों का है. इसमें हरियाणा के किसान शामिल नहीं हैं. ऐसे में क्या आप उम्मीद करते हैं कि सरकार अजय के परिवार को कोई आर्थिक मदद देगी. इस सवाल पर अजय के 45 वर्षीय चाचा राजेश कुमार मोर कहते हैं, ‘‘हम तो चाहते हैं कि उसके परिवार को एक करोड़ रुपया और उसकी बीबी को सरकारी नौकरी मिले. वो 12वीं तक पढ़ी हुई है. अब बुजुर्ग सास-ससुर और तीनों बेटियों की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है. हम अपनी मांग रखेंगे. मुआवजा तो सरकार के मन पर है दे या नहीं दे, लेकिन इन तीनों कानूनों को वापस कराकर अब सोनीपत जाएंगे. भतीजा तो मर ही गया. हम भी मरने के लिए तैयार हैं.’’
अपनों को खोने से मन दुखी तो ज़रूर है, लेकिन हम हारे नहीं….
किसान नेता दावा कर रहे हैं कि अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. इसको लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी ट्वीट करके केंद्र की मोदी सरकार पर सवाल उठा चुके हैं. राहुल गांधी ने अख़बार की कटिंग साझा करते हुए लिखा है, ‘‘कृषि क़ानूनों को हटाने के लिए हमारे किसान भाइयों को और कितनी आहुति देनी होगी?’’
भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के पंजाब सचिव निरंजन सिंह ढोला बताते हैं, ‘‘मरने वालों में नौजवान, महिलाएं और बुजुर्ग हैं. रास्ते में ट्रैक्टर खराब होने पर उसे बनाने के लिए एक मेकेनिक आया था. बेचारा भला आदमी था. गाड़ी समेत जल गया. एक बुजुर्ग महिला की मौत हो गई. ज़्यादातर मौत हार्ट अटैक के कारण हो रही हैं. इस कानून से लोग डर रहे हैं. सबको भय है कि अडानी अंबानी के हाथों में खेती चली गई तो उन्हें मंहगें दरों पर राशन खरीदना होगा क्योंकि मोनोपोली उनकी ही होगी. तो वे अपने हिसाब से मूल्य तय करेंगे. ये बात सब जानते है. मोदी भी जानते हैं. किसान उनकी साजिश समझ गया है और आज सड़कों पर हैं. इसमें जान भी जाती है तो जाए. हम तो मरने ही आए हैं. यह कानून अगर हटता नहीं तो भी हम मरेंगे ही. तो लड़ते हुए मरे तो ज़्यादा बेहतर होगा.’’
बीकेयू (राजेवाल) के एक और सचिव परगट सिंह न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘बदकिस्मती से हमारे किसानों की मौत हो रही है. लेकिन जब गुलामी की जंजीरें उतारनी हों तो बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी देनी पड़ती है और वो हम देंगे. पता नहीं मोदी सरकार कितना हमारा इम्तिहान लेगी. हम इम्तिहान देने के लिए तैयार हैं. यहां हमारे लिए कोई व्यवस्था नहीं है. हम सड़कों पर सो रहे हैं. इतनी ठंड के बावजूद ठंडे पानी से खुले में नहाते हैं. जो कुछ टॉयलेट सरकार ने लगवाया है उसकी सफाई तक नहीं होती है. लेकिन हम करने आए हैं तो जितनी कठिनाई में रहना पड़े रहेंगे. जितनी कुर्बानी देनी पड़े हम वापस कानून हटवाए बगैर नहीं जाएंगे.’’
हालांकि किसानों को परेशानी न हो इसके लिए यहां कई संस्थाएं दवाइयां लेकर पहुंची हुई हैं. इनके साथ डॉक्टर और बी फार्मा किए हुए लोग भी हैं. यहां लोगों को लिए दवाई लेकर पंजाब के फतेहगढ़ साहब से आने वाले मंजीत सिंह बी फार्मा किए हुए हैं. वे बताते हैं, ‘‘हम किसान परिवार से है. अपनी दवाई की दुकान है. हमारे गांव के लोगों ने बताया की यहां दवाई की दिक्कत हो रही तो हम दवाई लेकर आए हैं. मेरे साथ मेरे दो दोस्त मनप्रीत सिंह और सुरेंद्र सिंह भी हैं. दवाई खत्म होने से पहले हम और दवाई मंगा लेते हैं.’’
लोगों को किस तरह की दवाइयों की ज़्यादा ज़रूरत पड़ रही है. इस सवाल के जवाब में मंजीत कहते हैं, ‘‘ज़्यादातर लोग थकावट और सर दर्द की दवाइयां ले रहे हैं. ठंड भी ज़्यादा है. दिन भर खुले खेतों में रहकर काम करने वाले किसान यहां एक जगह पर बंधे हुए हैं. उसमें से ज़्यादातर बुजुर्ग हैं. बीमार होना तो लाजिमी है. सरकार को किसानों की मांग जल्दी मान लेनी चाहिए ताकि लोग वापस लौट जाएं. अभी आने वाले समय में ठंड और बढ़ेगी ही. ऐसे में ज़्यादा परेशानी होगी. किसान बिना कानून वापस कराए वापस जाने वाले नहीं हैं.’’
देर शाम जब हम टिकरी बॉर्डर से लौट रहे थे तो एक बुजुर्ग प्रदर्शनकारी ट्रक के पास खुले आसमान में सोने की कोशिश कर रहे थे. हम उनकी तस्वीरें लेने लगे तो उन्होंने गले में लटके मीडिया के कार्ड को देखकर बोला, ‘‘बेटे, सौ एकड़ का किसान हूं. बड़ा सा घर है. लेकिन देख शौचालय के बगल में खुले आसमान में सोया हूं. बदबू आ रही है. डर नहीं है और ना तकलीफ है. मेरे घर और जमीन मेरे बच्चों की रहे इसके लिए लड़ रहे हैं. फतह करके जाएंगे. हारने वाले नहीं हैं. चाहे जब तक रहना पड़े.’’
वहीं जब हम यह खबर लिख रहे हैं तो एक और किसान की मौत की खबर आई गई है.
हाड़ कंपाने वाली ठंड, गाहे-बगाहे होने वाली हल्की बारिश, कोरोना के बढ़ते मामलों और उसने होने वाली मौतों से बेफिक्र लाखों की संख्या में किसान बीते 19 दिनों से दिल्ली से लगे अलग-अलग हाईवे को ही अपना घर बनाए हुए हैं.
किसानों की मांग है कि केंद्र की मोदी सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करे. दूसरी तरफ सरकार इन कानूनों में कुछ बदलाव करने का आश्वासन दे रही है, पर किसान इसे किसी भी हाल में मानने को तैयार नहीं हैं. किसान नेताओं और सरकार के बीच चल रही इस रस्साकशी के दौरान आंदोलन से जुड़े लोगों की मौत के मामले भी सामने आने लगे हैं. किसान नेताओं की माने तो अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. इसमें से ज़्यादातर मौतें टिकरी बॉर्डर पर हुई हैं.
अक्सर ही प्रदर्शन स्थलों पर जो बैरिकेडिंग की जाती है उसमें किसी किनारे की तरफ पैदल आने-जाने का रास्ता छोड़ा जाता है, लेकिन टिकरी बॉर्डर पर दिल्ली पुलिस ने जबरदस्त बैरिकेडिंग की हुई है. यहां पैदल आने-जाने का भी रास्ता नहीं छोड़ा गया है. प्रदर्शन स्थल पर जाने के लिए गलियों से होकर हम पहुंचते हैं. गुरुवार की शाम यहां श्री कृष्णलाल नाम के शख्स की मौत हो गई थी. यह मौत भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के पंजाब सचिव निरंजन सिंह ढोला के सामने ही हुई थी.
बुजुर्ग निरंजन सिंह ढोला के चेहरे पर उदासी और अफ़सोस को आसानी देखा जा सकता है. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘श्री कृष्णलाल संगरूर के घुरी शहर के एक आढ़ती के मुनीम थे. उनकी उम्र 65 साल के करीब थी. गुरुवार की शाम को तीन बजे के करीब में 200 आढ़ती और उनसे जुड़े लोग बसों से टिकरी बार्डर हमें समर्थन देने आए थे. चूंकि वो मेरे शहर के रहने वाले थे, हम लोगों का अनाज खरीदते थे तो मुझसे ही बात करके आए थे.’’
सिंह आगे कहते हैं, ‘‘वे जब आए तो मैं उनसे मिलने और रहने का इंतज़ाम कराने गया. वहीं श्री कृष्णलाल से मुलाकात हुई. उन्होंने पूछा कि आखिर इस कानून में क्या है जो तुम लोग ठंड में लड़ रहे हो. मैंने उनको तीनों कानूनों के बारे में समझाया और बताया कि कैसे यह कानून किसानों को मज़दूर बना देगा. मेरे समझाने के बाद उन्होंने बस इतना कहा, यार तुम लोग नहीं रहोगे तो हम भी बर्बाद हो जाएंगे. हमारा आढ़ती हमें वेतन कैसे देगा. इस बातचीत के ठीक पंद्रह मिनट बाद वे बैठे-बैठे गिर गए. हम लोग पानी पिलाते रहे, लेकिन तब तक उनकी मौत हो चुकी थी.’’
बीते 35 सालों से मुनीम का काम करने वाले श्री कृष्णलाल के परिवार में पत्नी, एक बेटा और एक बेटी है. उन्हें मेहनताना के तौर पर हर महीने 15 हज़ार रुपए मिलते थे.
मृतक के बेटे ने कहा- हम किसानों के साथ है...
श्री कृष्णलाल की मौत तो टिकरी बॉर्डर पर ही हो चुकी थी. वहां से एम्बुलेंस पर उनके साथी उन्हें लेकर बहादुरगढ़ के सिविल अस्पताल पहुंचें. जहां उनका पोस्टमार्टम करके देर रात को शव परिजनों को सौंप दिया गया. शव को लेने पहुंचे श्री कृष्णलाल के बेटे अजय से न्यूजलाउंड्री ने बात की. वे बताते हैं, ‘‘शुक्रवार शाम को पिताजी का अंतिम संस्कार हो गया. उनके अंतिम यात्रा में आढ़ती, किसान और आसपास के गांवों के सैकड़ों लोग पहुंचे.’’
मौत की वजह को लेकर हमारे सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘अभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आई है लेकिन डॉक्टर्स ने मौत की वजह हार्टअटैक बताया है.’’
45 वर्षीय अजय कहते हैं, ‘‘जब मंडी के आढ़ती, मुनीम और मज़दूरों ने किसानों के समर्थन में दिल्ली जाने का फैसला किया तो उन्होंने जाने का जिक्र हमसे किया. वे एकदम ठीक थे, तभी हमने उन्हें जाने दिया. बीमार होते तो 350 किलोमीटर ट्रैक्टर में क्यों जाने देते. उस दिन शाम 6 बजकर 3 मिनट पर मेरी उनसे बात हुई. वे दिल्ली पहुंच गए थे. करीब 20 सेकेंड की बातचीत में उन्होंने बताया कि मैं ठीक हूं. थोड़ी ही देर बाद उनके नहीं होने का मैसेज आ गया.’’
अपने शहर धुरी के एक राइस मिल में नौकरी करने वाले अजय से जब हमने पूछा कि इस आंदोलन को आपका भी समर्थन है तो तकलीफ से दबी अपनी आवाज़ को थोड़ा तेज करके वे कहते हैं, ''देखो जी, हम किसान भले ही नहीं हैं, लेकिन किसानों के बगैर हम क्या ही कर पाएंगे. मेरे पिताजी भी किसानों के बगैर कुछ नहीं थे. मंडी में किसानों का फसल बिकने के लिए आता तभी उनकी आमदनी हो पाती. मैं जहां काम करता हूं वहां भी किसानों के बगैर काम ही नहीं चल सकता है. ऐसे में हम किसानों के साथ खड़े हैं. उनकी यह मांग हमारी भी मांग है. सरकार को इसे जल्द सुनना चाहिए.’’
श्री कृष्णलाल, संगरूर जिले के फेडरेशन ऑफ़ आढ़ती एसोसिएशन के साथ दिल्ली आए थे. इस एसोसिएशन के प्रमुख जगतार सिंह न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं,‘‘पंजाब में 22 जिले हैं. यहां के आढ़तियों ने किसान आंदोलन को समर्थन देने का फैसला किया है. जिसमें तय हुआ है कि तीन जिले के लोग दिल्ली जाएंगे और तीन दिन रहेंगे, जिस रोज ये वापस लौटेंगे तो तीन और जिले के लोग जाएंगे. तो सबसे पहले हम संगरूर के आढ़ती अपने कर्मचारियों को लेकर तीन बस से दिल्ली पहुंचे. आढ़ती सिस्टम बंद करने के लिए सरकार कानून बना चुकी है. जबकि किसान ऐसा नहीं चाहते हैं. वे लोग इसको लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन सरकार बात मान नहीं रही. कृष्णलाल जी एक गरीब परिवार से थे. आढ़ती के मुनीम थे. उन्होंने जैसे यह सब जाना तो उन्हें लगा कि जब आढ़तियों को काम नहीं मिलेगा तो वो हमें क्यों रखेगा. यही बात उनके दिल पर लग गई. उनकी छाती में दर्द होने लगा और उनकी मौत हो गई. मैं तब उनके पास में ही खड़ा था. हम इधर-उधर भागे, लेकिन कोई एम्बुलेंस नहीं मिली. थोड़ी कोशिश के बाद एक प्राइवेट एम्बुलेंस वाला आया तो उन्हें मरा हुआ देखकर ले जाने से मना कर दिया. फिर हमने 108 नंबर पर फोन किया. सरकारी एम्बुलेंस आई और उन्हें लेकर हम अस्पताल पहुंचे.’’
क्या आप लोग सरकार से मदद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं इस सवाल के जवाब में जगतार सिंह कहते हैं, ‘‘पंजाब सरकार पांच लाख रुपए देती है. उस मदद के लिए हम लोग सोमवार को प्रदर्शन के दौरान की उनकी तस्वीरें, मंडी में काम करते हुए उनकी तस्वीरें और बाकी कागजात जमा करेंगे ताकि उनके परिवार को मदद मिल सके. वे बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं.’’
पहलवान था जी, खाना खाकर सोया था, सुबह उठा ही नहीं….
लगातार तीन बैठकों के बावजूद किसी नतीजे पर नहीं पहुंचने की स्थिति में किसानों ने आठ दिसंबर को भारत बंद की घोषणा की. किसान नेताओं का कहना था कि हमारी मांग कानून को वापस लेना है जबकि सरकार जिद्द पर अड़ी हुई है. ऐसे में आंदोलन को आगे बढ़ाने के अलावा हमारे पास कोई और रास्ता नहीं बचा है.
आठ दिसंबर के भारत बंद में हिस्सा लेने के लिए सात की रात को किसान थोड़ा जल्दी खाना बनाने लगे ताकि सुबह जल्द से जल्द जग जाएं और प्रदर्शन में हिस्सा ले सकें. हरियाणा के सोनीपत जिले के गुहाना तहसील के गांव बरोदा मोर के रहने वाले 32 वर्षीय अजय मोर ने अपने गांव के लोगों के साथ मिलकर खाना बनाया और ट्रैक्टर के नीचे सो गए, लेकिन फिर कभी जाग ही नहीं पाए.
बरोद गांव के रहने वाले 60 वर्षीय राममेहर नंबरदार वैसे तो बुजुर्ग हैं, लेकिन रिश्ते में अजय के भतीजा लगते हैं. उस सुबह यहीं अजय को जगाने गए थे, लेकिन वो मृत पड़े हुए थे. राममेहर सिंह रोते हुए कहते हैं, ‘‘एक दिन मैंने हंसते हुए कहा था कि ताई से तभी मिलना जब कानून वापस हो जाए. अब तो वो ताई से कभी नहीं मिल पाएगा. रोटी खाने का मन नहीं करता जी लेकिन जीने के लिए खा लेते हैं. 120 किलो का पहलवान था अजय.’’
अपनी डेढ़ एकड़ और किराए पर पांच एकड़ जमीन लेकर खेती करने वाले अजय मोर के परिवार में मां-पिताजी, पत्नी और तीन बेटियां हैं. उनके बड़े भाई की मौत बीते साल रोड एक्सीडेंट में हो गई थी जिसके बाद परिवार की ज़िम्मेदारी उनके ही कंधे पर आ गई. लेकिन अब जब उनकी मौत हो गई तो परिवार बेसहारा हो चुका है.
सिंघु बॉर्डर से छह किलोमीटर आगे सोनीपत के टीटीआई गेट के सामने बरोद और उसके आसपास के गांव के लोगों का ट्रैक्टर है. शाम सात बजे जब हम वहां पहुंचे तो कोई आटा गूंथ रहा था तो कोई टमाटर काट रहा था. वहां हमारी मुलाकात 26 साल के अमित मोर से हुई. उन्होंने अपने व्हट्सप और फेसबुक में मृतक अजय मोर की तस्वीर लगा रखी है. वो कहते हैं, ‘‘वो मेरा चाचा था. इलाके भर में मशहूर पहलवान था. हम लोग यहां एक दिसंबर को आए थे. रास्ते में कोई बैरिकेड तोड़ने का मौका नहीं मिला था तो एक दिन मुझसे कहने लगा कि सिंघु पर जब बैरिकेड तोड़ा जाएगा सबसे पहले मैं जाऊंगा. पर अब तो.. गांव में जिस रोज उनको दाग (अंतिम संस्कार) दिया गया उस रोज आसपास के छह सात गांव के लोग आए थे. हमारे लिए वो शहीद ही है. सैनिक देश की रक्षा के लिए जान देते हैं और उन्होने अपनी और बाकी किसानों की जमीन की रक्षा के लिए अपनी जान दी है. वो हमारे लिए शहीद हैं.’’
अमित मोर के इतना कहते ही आसपास के लोग किसान जिंदाबाद और पीएम मोदी-सीएम खट्टर मुर्दाबाद के के खिलाफ नारे लगाने लगते हैं.
कुलदीप मोर सब्जी बना रहे थे. वे हमें उस ट्रैक्टर और जहां अजय सोए थे उस जगह की तरफ इशारा करके दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘पहलवान था न जी. आटा बहुत अच्छा गूंथता था. मेरा भाई था ना. इसी जगह सोया था. ट्रॉली में कितने लोग सो पाएंगे. बड़े बुजुर्गों को हम अंदर सुला देते हैं और जो नौजवान हैं वे ट्रॉली के नीचे सोते हैं. ठंड तो लगती है, लेकिन उसकी मौत ठंड से हुई यह समझ नहीं आ रहा है. हम सब तो आसपास ही सोए थे. ठंड लगती तो बताता न. क्या हुआ किसी को पता नहीं है. अभी तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी नहीं आई है.’’
अजय की मौत कैसे हुई इसका जवाब यहां कोई नहीं देता है. राममेहर नंबरदार बताते हैं, ‘‘आठ की सुबह सब जल्दी जग गए. वो सोया हुआ था तो मैं चाय पीने के लिए जगाने गया लेकिन वो उठा ही नहीं. वो मर चुका था. हम लोग भारतीय किसान यूनियन चढूनी ग्रुप से हैं. उसके मरने की सूचना अपने नेता गुरनाम सिंह चढूनी को हमने दी. वो आए फिर हम इसे एक एम्बुलेंस से जिला अस्पताल सोनीपत लेकर पहुंचे. वहां हमारे साथ बहुत गलत व्यवहार हुआ. हमें इमरजेंसी से मोर्चरी और मोर्चरी से इमरजेंसी में दौड़ाते रहे.
120 किलो का आदमी था वो, उसे कंधे पर लेकर इधर से उधर जाना मुश्किल काम था. वहां हमें उसे लिटाकर ले जाने की कोई सुविधा तक नहीं दी गई. एम्बुलेंस में जो लिटाकर ले जाने वाला होता है उसी पर लेकर हम इधर से उधर भागते रहे. उसी शाम चार बजे तक पोस्टमार्टम कर दिया. पोस्टमाटर्म भी गलत तरीके से किया. उसके शरीर की सिलाई भी ठीक से नहीं की. जैसे-तैसे लेकर हम गांव पहुंचे और शाम पांच बजे तक उसका अंतिम संस्कार कर दिया. उस रोज गांव भर में चूल्हा नहीं जला था.’’
हरियाणा सरकार तो हालांकि इस आंदोलन को किसी भी तरह दबाना चाहती है. हरियाणा के लाखों किसान, खाप से जुड़े लोग सड़कों पर हैं. नेताओं को घेरा जा रहा है. इस बिल को समर्थन देने वालों को गांव में घुसने नहीं दिया जा रहा है. इतना सब होने के बावजूद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने बीते दिनों कहा था कि यह आंदोलन पंजाब के कुछ किसानों का है. इसमें हरियाणा के किसान शामिल नहीं हैं. ऐसे में क्या आप उम्मीद करते हैं कि सरकार अजय के परिवार को कोई आर्थिक मदद देगी. इस सवाल पर अजय के 45 वर्षीय चाचा राजेश कुमार मोर कहते हैं, ‘‘हम तो चाहते हैं कि उसके परिवार को एक करोड़ रुपया और उसकी बीबी को सरकारी नौकरी मिले. वो 12वीं तक पढ़ी हुई है. अब बुजुर्ग सास-ससुर और तीनों बेटियों की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है. हम अपनी मांग रखेंगे. मुआवजा तो सरकार के मन पर है दे या नहीं दे, लेकिन इन तीनों कानूनों को वापस कराकर अब सोनीपत जाएंगे. भतीजा तो मर ही गया. हम भी मरने के लिए तैयार हैं.’’
अपनों को खोने से मन दुखी तो ज़रूर है, लेकिन हम हारे नहीं….
किसान नेता दावा कर रहे हैं कि अब तक 17 लोगों की मौत हो चुकी है. इसको लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी ट्वीट करके केंद्र की मोदी सरकार पर सवाल उठा चुके हैं. राहुल गांधी ने अख़बार की कटिंग साझा करते हुए लिखा है, ‘‘कृषि क़ानूनों को हटाने के लिए हमारे किसान भाइयों को और कितनी आहुति देनी होगी?’’
भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के पंजाब सचिव निरंजन सिंह ढोला बताते हैं, ‘‘मरने वालों में नौजवान, महिलाएं और बुजुर्ग हैं. रास्ते में ट्रैक्टर खराब होने पर उसे बनाने के लिए एक मेकेनिक आया था. बेचारा भला आदमी था. गाड़ी समेत जल गया. एक बुजुर्ग महिला की मौत हो गई. ज़्यादातर मौत हार्ट अटैक के कारण हो रही हैं. इस कानून से लोग डर रहे हैं. सबको भय है कि अडानी अंबानी के हाथों में खेती चली गई तो उन्हें मंहगें दरों पर राशन खरीदना होगा क्योंकि मोनोपोली उनकी ही होगी. तो वे अपने हिसाब से मूल्य तय करेंगे. ये बात सब जानते है. मोदी भी जानते हैं. किसान उनकी साजिश समझ गया है और आज सड़कों पर हैं. इसमें जान भी जाती है तो जाए. हम तो मरने ही आए हैं. यह कानून अगर हटता नहीं तो भी हम मरेंगे ही. तो लड़ते हुए मरे तो ज़्यादा बेहतर होगा.’’
बीकेयू (राजेवाल) के एक और सचिव परगट सिंह न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘बदकिस्मती से हमारे किसानों की मौत हो रही है. लेकिन जब गुलामी की जंजीरें उतारनी हों तो बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी देनी पड़ती है और वो हम देंगे. पता नहीं मोदी सरकार कितना हमारा इम्तिहान लेगी. हम इम्तिहान देने के लिए तैयार हैं. यहां हमारे लिए कोई व्यवस्था नहीं है. हम सड़कों पर सो रहे हैं. इतनी ठंड के बावजूद ठंडे पानी से खुले में नहाते हैं. जो कुछ टॉयलेट सरकार ने लगवाया है उसकी सफाई तक नहीं होती है. लेकिन हम करने आए हैं तो जितनी कठिनाई में रहना पड़े रहेंगे. जितनी कुर्बानी देनी पड़े हम वापस कानून हटवाए बगैर नहीं जाएंगे.’’
हालांकि किसानों को परेशानी न हो इसके लिए यहां कई संस्थाएं दवाइयां लेकर पहुंची हुई हैं. इनके साथ डॉक्टर और बी फार्मा किए हुए लोग भी हैं. यहां लोगों को लिए दवाई लेकर पंजाब के फतेहगढ़ साहब से आने वाले मंजीत सिंह बी फार्मा किए हुए हैं. वे बताते हैं, ‘‘हम किसान परिवार से है. अपनी दवाई की दुकान है. हमारे गांव के लोगों ने बताया की यहां दवाई की दिक्कत हो रही तो हम दवाई लेकर आए हैं. मेरे साथ मेरे दो दोस्त मनप्रीत सिंह और सुरेंद्र सिंह भी हैं. दवाई खत्म होने से पहले हम और दवाई मंगा लेते हैं.’’
लोगों को किस तरह की दवाइयों की ज़्यादा ज़रूरत पड़ रही है. इस सवाल के जवाब में मंजीत कहते हैं, ‘‘ज़्यादातर लोग थकावट और सर दर्द की दवाइयां ले रहे हैं. ठंड भी ज़्यादा है. दिन भर खुले खेतों में रहकर काम करने वाले किसान यहां एक जगह पर बंधे हुए हैं. उसमें से ज़्यादातर बुजुर्ग हैं. बीमार होना तो लाजिमी है. सरकार को किसानों की मांग जल्दी मान लेनी चाहिए ताकि लोग वापस लौट जाएं. अभी आने वाले समय में ठंड और बढ़ेगी ही. ऐसे में ज़्यादा परेशानी होगी. किसान बिना कानून वापस कराए वापस जाने वाले नहीं हैं.’’
देर शाम जब हम टिकरी बॉर्डर से लौट रहे थे तो एक बुजुर्ग प्रदर्शनकारी ट्रक के पास खुले आसमान में सोने की कोशिश कर रहे थे. हम उनकी तस्वीरें लेने लगे तो उन्होंने गले में लटके मीडिया के कार्ड को देखकर बोला, ‘‘बेटे, सौ एकड़ का किसान हूं. बड़ा सा घर है. लेकिन देख शौचालय के बगल में खुले आसमान में सोया हूं. बदबू आ रही है. डर नहीं है और ना तकलीफ है. मेरे घर और जमीन मेरे बच्चों की रहे इसके लिए लड़ रहे हैं. फतह करके जाएंगे. हारने वाले नहीं हैं. चाहे जब तक रहना पड़े.’’
वहीं जब हम यह खबर लिख रहे हैं तो एक और किसान की मौत की खबर आई गई है.
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