किस तरह और किस मकसद से हिंदी अखबारों ने एक खत्म कर दी गई बीट को पुनर्जीवित किया.
काल के इस दौर की अगर कुछ पहचानें बतानी हों, तो एक पहचान जो मैं गिनवाना चाहूंगा वो है ‘आश्चर्य’. आश्चर्य संचारी भाव है, लेकिन ऐसा लगता है कि हम स्थायी रूप में चौंकने लग गये हैं. हर अगली बात हमारे लिए चौंकाने वाली होती है. मसलन, दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले पंजाब के किसानों का पिज्जा खाना और फुट मसाज कराना चौंकाता है. किसानों द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग चौंकाती है. किसानों के कुशल राजनीतिक वक्तव्य हमें चौंकाते हैं. क्यों?
एक और उदाहरण लेते हैं. बीते 23 नवंबर के दैनिक हिंदुस्तान का प्रयागराज संस्करण अचानक सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बना था. वजह थी जैकेट पर फुल पेज का यज्ञ अनुष्ठान सम्बंधी एक विज्ञापन, जिसमें ‘’भारत वर्ष के हिंदू राष्ट्र के रूप में स्थापित होने की जनमंगल कामना’’ की गयी थी. जिन्होंने भी उस विज्ञापन का पेज शेयर और ट्वीट किया, सब आश्चर्य में थे कि आखिर एक अख़बार राष्ट्र की संविधान-विरोधी अवधारणा का विज्ञापन कैसे जारी कर सकता है.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
Contributeहिंदू राष्ट्र की नयी बीट
यह जो हर बात पर चौंकने वाली प्रवृत्ति है, वह हमारे सूचना, ज्ञान और विमर्श के क्षेत्र में लगे फाटकों की देन है. ध्यान दीजिएगा कि आज से बीसेक साल पहले अखबारों के सीमित संस्करण निकलते थे और आसपास के सभी जिलों में पहुंचते थे. फिर आया बहुसंस्करणों का दौर, जिसमें बनारस में रहने वाला एक आदमी बलिया या मिर्जापुर की ख़बर नहीं जान सकता था क्योंकि फाटक खड़े कर दिए गए जिलों के बीच. इसके बावजूद दिल्ली में बैठा एक पाठक अगर अपने जिले की खबर जानना चाहे तो ईपेपर खोल सकता था. यह सुविधा आज से नौ महीने पहले तक थी. कोरोना के लगाये लॉकडाउन ने इसे भी निगल लिया. अब ईपेपर सब्सक्राइब करने पड़ते हैं. जो वेबसाइटें मुफ्त ईपेपर की सेवा देती हैं, उनका दायरा दिल्ली जैसे महानगर से आगे नहीं है.
सूचना के धंधे में लगे कारोबारियों ने पहले फाटक बनाये. उसके बाद सरकार ने कोरोनाकाल में वास्तविक फाटक बना दिये. ऐसे में कहीं किसी फाटक से छन कर कभी कुछ निकल आवे, जैसे प्रयागराज का 23 नवंबर का हिंदुस्तान, तो वो हमें चौंका देता है. इसकी वजह बस इतनी सी है कि छोटे संस्करणों में क्या चल रहा है और जिलों-कस्बों की अख़बारी पत्रकारिता का हाल क्या है, हम उससे अद्यतन नहीं हैं. वरना चौंकने वाले हिंदू राष्ट्र वाले विज्ञापन पर ठहरते नहीं, उसके आगे- पीछे भी देखते और जिक्र करते. क्या?
यह विज्ञापन तब छपा जब इलाहाबाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की काशी क्षेत्र की दो दिन की बैठक थी. केवल 23 को नहीं छपा, पहली बार 19 नवंबर को छपा भीतर के पन्नों में. केवल हिंदुस्तान में नहीं, सभी स्थानीय अखबारों में. विज्ञापन तो विज्ञापन है, पैसे का खेल है. 19 नवंबर से 25 नवंबर के बीच प्रयागराज के अखबार उठाकर देखें, तो आप पाएंगे कि शहर में मोहन भागवत का आना और संघ की बैठक का होना पहले पन्ने की हेडलाइन बना.
भीतर के पूरे के पूरे पन्ने संघ की बैठक को समर्पित किये गये. सूबे के मुख्यमंत्री का मोहन भागवत से ‘मिलने आना’ पेज की सबसे बड़ी खबर हो गया मानो मोहन भागवत किसी संवैधानिक पद पर हों और आदित्यनाथ कोई असंवैधानिक व्यक्ति हों. पूरी खबर का स्वर देखिए.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने बाबरी विध्वंस के दौरान हिंदी अखबारों का विश्लेषण करते हुए लिखा था कि उस वक्त हिंदी पत्रकारिता का हिंदू पत्रकारिता में रूपान्तरण हो गया था. आज हिंदी पट्टी के अखबारों को देखकर कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता संघी पत्रकारिता बन चुकी है. अखबारों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई एक सरकार से ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तरजीह दी जा रही है. यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है, लेकिन हमारा ध्यान इसकी ओर नहीं गया क्योंकि हमने बदलती हुई गांव-कस्बों की ज़मीन को देखना छोड़ दिया है और महानगरों में बिकने वाला एक सुविधाजनक चश्मा पहन लिया है, जहां संघ या हिंदू राष्ट्र से जुड़ी किसी भी बात को ‘’आश्चर्य’’ के तौर पर स्थापित किया जाता है. हकीकत यह है कि संघ और हिंदू राष्ट्र अब हिंदी अखबारों की रेगुलर और सबसे बड़ी बीट बन चुका है.
एक पुरानी बीट की वापसी
वरिष्ठ पत्रकार पी. साइनाथ दो दशक से चिल्ला रहे हैं कि कैसे अखबारों ने व्यवस्थित ढंग से कृषि और श्रम की बीट को खत्म कर दिया. अब अखबारों में किसानों और मजदूरों को कवर करने वाले पत्रकार नहीं मिलते. उन्हें जानकर खुशी होगी कि कृषि कानूनों के खिलाफ 26 नवंबर को शुरू हुए किसान आंदोलन ने हिंदी अखबारों में कृषि बीट की वापसी का रास्ता खोल दिया है. दो दशक पीछे के मुकाबले फर्क बस इतना आया है कि अब पत्रकार यह रिपोर्ट करने के लिए खेतों में जा रहा है कि किसान खेती कर रहे हैं, आंदोलन नहीं.
इस संदर्भ में दैनिक जागरण और नई दुनिया का जिक्र खास तौर से करना ज़रूरी है. इस अखबार में रिपोर्टरों को बाकायदे खेतों में जाकर यह रिपोर्ट करने को कहा गया कि किसान खेती में व्यस्त हैं. डेस्क और ब्यूरो को हिदायत भेजी गयी कि आंदोलन के खिलाफ खबर करनी है. पिछले 20 दिनों के दौरान दैनिक जागरण और नई दुनिया को देखें, तो समझ में आता है कि कैसे अखबार को प्रोपगंडा के परचे में तब्दील किया जाता है. कुछ सुर्खियां देखिए:
हिदायत में आंदोलन के खिलाफ ख़बर करने को कहा गया था, पत्रकार नैतिक शिक्षा की खबरें भी उठा ले आए. एक खबर ऐसी भी छपी कि परिवार वालों ने समझाया तो किसान आंदोलन छोड़ कर घर लौट आया. दिलचस्प है कि रिपोर्टर इंदौर में बैठकर दिल्ली के सिंघू बॉर्डर की खबर कर रहा है, वो भी जालंधर के किसान की.
बीते 12 दिसंबर को किसान संगठनों के आह्वान पर बंद बुलाया गया था. देश भर में कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन हुए, लेकिन अखबारों ने अगले दिन पूरी ताकत झोंक दी यह साबित करने में कि देश और राज्यों में बंद बेअसर रहा. पूरा पन्ना इसके नाम समर्पित किया गया नई दुनिया में.
इस खबर को ठीक उसी दिन मध्य प्रदेश की एक नयी वेबसाइट देशगांव डॉट कॉम ने तार-तार कर दिया. मंडियों में आवक का डेटा निकाल कर इस वेबसाइट ने साबित किया कि किसानों का बुलाया बंद पूरी तरह असरदार था.
अखबार और डिजिटल के इस फ़र्क से ही समझा जा सकता है कि आखिर सरकार को डिजिटल माध्यमों की इतनी चिंता क्यों है.
पिछले दो दशक से भले ही अखबारों ने किसानों को कायदे से कवर नहीं किया था और कृषि बीट खत्म कर दी गयी थी, लेकिन यह बात पहली बार सामने आयी है कि अखबारों में किसानों के प्रति संवेदना और समझ भी अब खत्म हो चुकी है. यह स्थिति केवल खबरों और रिपोर्ट के मामले में नहीं है बल्कि संपादकीय पन्नों पर इसे साफ़ देखा जा सकता है. हिंदुस्तान से लेकर दैनिक जागरण और भास्कर तक के दिल्ली संस्करणों के संपादकीय में किसान विरोधी स्वर कहीं स्पष्ट है, तो कहीं छुपा हुआ है.
इस मामले में सबसे त्रासद स्थिति मध्य प्रदेश के संपादकों की है, जिन्हें किसान आंदोलन को खारिज करते हुए विशेष लेख लिखना पड़ रहा है. एक बानगी देखिए:
चर्चा से महरूम दो खबरें
आम तौर से हिंदी के अखबारों में कुछ ऐसा नहीं होता जो नज़र को रोक सके, लेकिन कुछ खबरें ऐसी आ जाती हैं जिनके बारे में लगता है कि चर्चा होनी चाहिए थी. खासकर धारणा निर्माण के इस दौर में जब सरकार झूठ बोल रही हो और अखबार उस झूठ को दोहरा रहे हों, एकाध रिपोर्टर ऐसे निकल कर आ ही जाते हैं जो स्थापित नैरेटिव को चुनौती देते हैं. इन्हीं में एक हैं दैनिक भास्कर की रिपोर्टर दीप्ति राऊत, जिन्होंने 4 दिसंबर के अंक में किसान जितेन्द्र भोई की असली कहानी लिखी.
महाराष्ट्र के धूले जिले के रहने वाले किसान जितेन्द्र को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 29 नवंबर के ‘मन की बात’ में एक उदाहरण की तरह पेश किया था कि कैसे उन्हें नये कृषि कानूनों का लाभ मिला है. पांच दिन बाद दीप्ति राऊत ने असली कहानी सामने रख दी कि वास्तव में उन्हें दो लाख का घाटा हुआ था और वे किसान आंदोलन के साथ हैं.
ज़ाहिर है, सच जितनी देर में घर से निकलता है उतनी देर में झूठ धरती का पांच चक्कर लगा आता है. दीप्ति की यह स्टोरी पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छपी और चर्चा का विषय नहीं बन सकी. यहां तक कि इस स्टोरी को फॉलो कर के कुछ लोगों ने जितेन्द्र भोई का वीडियो भी बनाया और जारी किया, लेकिन ‘मन की बात’ के आगे सच की बात फेल हो गया.
इसी तरह दो दिन पहले लगभग सभी हिंदी और अंग्रेज़ी के अखबारों में एक खबर एजेंसियों के माध्यम से छपी, जिसमें बताया गया कि असम सरकार की कैबिनेट ने सरकारी मदरसों और संस्कृत के सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला ले लिया है. कायदे से इस खबर पर बात होनी चाहिए थी क्योंकि मामला सरकारी स्कूलों का था, निजी का नहीं.
राज्य में 610 सरकारी मदरसे हैं और 1000 सरकारी मान्यता प्राप्त संस्कृत विद्यालय हैं जिनमें से 100 को सरकारी मदद मिलती है. आगामी शीतसत्र में सरकार इन सबको बंद करने का विधेयक लाने जा रही है. कायदे से इस फैसले पर दोनों तरफ़ से आवाज़ आनी चाहिए थी- संस्कृति प्रेमियों की ओर से भी और मदरसे के हिमायती लोगों की ओर से भी. यह ख़बर भीतर के पन्नों में दब कर रह गयी.
बनारस का मूक नायक
किसान आंदोलन के कार्यक्रम में 14 दिसंबर को अलग-अलग जगहों पर देश भर में अनशन का कार्यक्रम था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एक छात्र प्रवीण ने किसानों के समर्थन में गंगा में अकेले जल सत्याग्रह करने का फैसला किया. यह युवा एक प्लेकार्ड लेकर गंगा में खड़ा हो गया. इसके मौन व्रत ने पुलिस महकमे को हरकत में ला दिया.
प्रवीण का मौन सत्याग्रह पुलिस ने तोड़ दिया और उसे गिरफ्तार कर लिया. यह खबर स्थानीय अखबारों में छपी है. अखबार अगर जनता के हितैषी होते, तो कायदे से इस इकलौते नायकीय कृत्य को पहले पन्ने पर बैनर पर जगह मिलनी चाहिए थी और विश्वविद्यालय से लेकर शहर तक बवाल हो जाना चाहिए था. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. क्यों?
जवाब 14 दिसंबर के दैनिक जागरण के पहले पन्ने की हेडलाइन में छुपा है, जिसमें किसान आंदोलन के लिए ‘’टुकड़े-टुकड़े गैंग’’ का प्रयोग किया गया है, वह भी रनिंग फॉन्ट में बिना किसी कोटेशन मार्क के.
जब अखबारों के लिए चुने हुए मुख्यमंत्री और सरकार से बड़ा सरसंघचालक हो जाय; जब अखबारों के रिपोर्टर को यह स्थापित करने के लिए खेतों में भेजा जाय कि किसान खेती कर रहा है, आंदोलन नहीं; जब अखबारों में किसी का मौन सत्याग्रह अपराध बन जाय; तब अखबारों पर निगरानी और तेज़ कर देनी चाहिए.
आज से शुरू हुई हिंदी के अखबारों की यह परिक्रमा अब हर पखवाड़े जारी रहेगी ताकि हम जान सकें कि सरकार और सूचना तंत्र ने जो फाटक और दीवारें इन वर्षों में देश भर में खड़ी की हैं, उनके पार दुनिया कैसे बदल रही है, समाज कैसे करवट ले रहा है.
काल के इस दौर की अगर कुछ पहचानें बतानी हों, तो एक पहचान जो मैं गिनवाना चाहूंगा वो है ‘आश्चर्य’. आश्चर्य संचारी भाव है, लेकिन ऐसा लगता है कि हम स्थायी रूप में चौंकने लग गये हैं. हर अगली बात हमारे लिए चौंकाने वाली होती है. मसलन, दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले पंजाब के किसानों का पिज्जा खाना और फुट मसाज कराना चौंकाता है. किसानों द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग चौंकाती है. किसानों के कुशल राजनीतिक वक्तव्य हमें चौंकाते हैं. क्यों?
एक और उदाहरण लेते हैं. बीते 23 नवंबर के दैनिक हिंदुस्तान का प्रयागराज संस्करण अचानक सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बना था. वजह थी जैकेट पर फुल पेज का यज्ञ अनुष्ठान सम्बंधी एक विज्ञापन, जिसमें ‘’भारत वर्ष के हिंदू राष्ट्र के रूप में स्थापित होने की जनमंगल कामना’’ की गयी थी. जिन्होंने भी उस विज्ञापन का पेज शेयर और ट्वीट किया, सब आश्चर्य में थे कि आखिर एक अख़बार राष्ट्र की संविधान-विरोधी अवधारणा का विज्ञापन कैसे जारी कर सकता है.
हिंदू राष्ट्र की नयी बीट
यह जो हर बात पर चौंकने वाली प्रवृत्ति है, वह हमारे सूचना, ज्ञान और विमर्श के क्षेत्र में लगे फाटकों की देन है. ध्यान दीजिएगा कि आज से बीसेक साल पहले अखबारों के सीमित संस्करण निकलते थे और आसपास के सभी जिलों में पहुंचते थे. फिर आया बहुसंस्करणों का दौर, जिसमें बनारस में रहने वाला एक आदमी बलिया या मिर्जापुर की ख़बर नहीं जान सकता था क्योंकि फाटक खड़े कर दिए गए जिलों के बीच. इसके बावजूद दिल्ली में बैठा एक पाठक अगर अपने जिले की खबर जानना चाहे तो ईपेपर खोल सकता था. यह सुविधा आज से नौ महीने पहले तक थी. कोरोना के लगाये लॉकडाउन ने इसे भी निगल लिया. अब ईपेपर सब्सक्राइब करने पड़ते हैं. जो वेबसाइटें मुफ्त ईपेपर की सेवा देती हैं, उनका दायरा दिल्ली जैसे महानगर से आगे नहीं है.
सूचना के धंधे में लगे कारोबारियों ने पहले फाटक बनाये. उसके बाद सरकार ने कोरोनाकाल में वास्तविक फाटक बना दिये. ऐसे में कहीं किसी फाटक से छन कर कभी कुछ निकल आवे, जैसे प्रयागराज का 23 नवंबर का हिंदुस्तान, तो वो हमें चौंका देता है. इसकी वजह बस इतनी सी है कि छोटे संस्करणों में क्या चल रहा है और जिलों-कस्बों की अख़बारी पत्रकारिता का हाल क्या है, हम उससे अद्यतन नहीं हैं. वरना चौंकने वाले हिंदू राष्ट्र वाले विज्ञापन पर ठहरते नहीं, उसके आगे- पीछे भी देखते और जिक्र करते. क्या?
यह विज्ञापन तब छपा जब इलाहाबाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की काशी क्षेत्र की दो दिन की बैठक थी. केवल 23 को नहीं छपा, पहली बार 19 नवंबर को छपा भीतर के पन्नों में. केवल हिंदुस्तान में नहीं, सभी स्थानीय अखबारों में. विज्ञापन तो विज्ञापन है, पैसे का खेल है. 19 नवंबर से 25 नवंबर के बीच प्रयागराज के अखबार उठाकर देखें, तो आप पाएंगे कि शहर में मोहन भागवत का आना और संघ की बैठक का होना पहले पन्ने की हेडलाइन बना.
भीतर के पूरे के पूरे पन्ने संघ की बैठक को समर्पित किये गये. सूबे के मुख्यमंत्री का मोहन भागवत से ‘मिलने आना’ पेज की सबसे बड़ी खबर हो गया मानो मोहन भागवत किसी संवैधानिक पद पर हों और आदित्यनाथ कोई असंवैधानिक व्यक्ति हों. पूरी खबर का स्वर देखिए.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने बाबरी विध्वंस के दौरान हिंदी अखबारों का विश्लेषण करते हुए लिखा था कि उस वक्त हिंदी पत्रकारिता का हिंदू पत्रकारिता में रूपान्तरण हो गया था. आज हिंदी पट्टी के अखबारों को देखकर कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता संघी पत्रकारिता बन चुकी है. अखबारों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई एक सरकार से ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तरजीह दी जा रही है. यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है, लेकिन हमारा ध्यान इसकी ओर नहीं गया क्योंकि हमने बदलती हुई गांव-कस्बों की ज़मीन को देखना छोड़ दिया है और महानगरों में बिकने वाला एक सुविधाजनक चश्मा पहन लिया है, जहां संघ या हिंदू राष्ट्र से जुड़ी किसी भी बात को ‘’आश्चर्य’’ के तौर पर स्थापित किया जाता है. हकीकत यह है कि संघ और हिंदू राष्ट्र अब हिंदी अखबारों की रेगुलर और सबसे बड़ी बीट बन चुका है.
एक पुरानी बीट की वापसी
वरिष्ठ पत्रकार पी. साइनाथ दो दशक से चिल्ला रहे हैं कि कैसे अखबारों ने व्यवस्थित ढंग से कृषि और श्रम की बीट को खत्म कर दिया. अब अखबारों में किसानों और मजदूरों को कवर करने वाले पत्रकार नहीं मिलते. उन्हें जानकर खुशी होगी कि कृषि कानूनों के खिलाफ 26 नवंबर को शुरू हुए किसान आंदोलन ने हिंदी अखबारों में कृषि बीट की वापसी का रास्ता खोल दिया है. दो दशक पीछे के मुकाबले फर्क बस इतना आया है कि अब पत्रकार यह रिपोर्ट करने के लिए खेतों में जा रहा है कि किसान खेती कर रहे हैं, आंदोलन नहीं.
इस संदर्भ में दैनिक जागरण और नई दुनिया का जिक्र खास तौर से करना ज़रूरी है. इस अखबार में रिपोर्टरों को बाकायदे खेतों में जाकर यह रिपोर्ट करने को कहा गया कि किसान खेती में व्यस्त हैं. डेस्क और ब्यूरो को हिदायत भेजी गयी कि आंदोलन के खिलाफ खबर करनी है. पिछले 20 दिनों के दौरान दैनिक जागरण और नई दुनिया को देखें, तो समझ में आता है कि कैसे अखबार को प्रोपगंडा के परचे में तब्दील किया जाता है. कुछ सुर्खियां देखिए:
हिदायत में आंदोलन के खिलाफ ख़बर करने को कहा गया था, पत्रकार नैतिक शिक्षा की खबरें भी उठा ले आए. एक खबर ऐसी भी छपी कि परिवार वालों ने समझाया तो किसान आंदोलन छोड़ कर घर लौट आया. दिलचस्प है कि रिपोर्टर इंदौर में बैठकर दिल्ली के सिंघू बॉर्डर की खबर कर रहा है, वो भी जालंधर के किसान की.
बीते 12 दिसंबर को किसान संगठनों के आह्वान पर बंद बुलाया गया था. देश भर में कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन हुए, लेकिन अखबारों ने अगले दिन पूरी ताकत झोंक दी यह साबित करने में कि देश और राज्यों में बंद बेअसर रहा. पूरा पन्ना इसके नाम समर्पित किया गया नई दुनिया में.
इस खबर को ठीक उसी दिन मध्य प्रदेश की एक नयी वेबसाइट देशगांव डॉट कॉम ने तार-तार कर दिया. मंडियों में आवक का डेटा निकाल कर इस वेबसाइट ने साबित किया कि किसानों का बुलाया बंद पूरी तरह असरदार था.
अखबार और डिजिटल के इस फ़र्क से ही समझा जा सकता है कि आखिर सरकार को डिजिटल माध्यमों की इतनी चिंता क्यों है.
पिछले दो दशक से भले ही अखबारों ने किसानों को कायदे से कवर नहीं किया था और कृषि बीट खत्म कर दी गयी थी, लेकिन यह बात पहली बार सामने आयी है कि अखबारों में किसानों के प्रति संवेदना और समझ भी अब खत्म हो चुकी है. यह स्थिति केवल खबरों और रिपोर्ट के मामले में नहीं है बल्कि संपादकीय पन्नों पर इसे साफ़ देखा जा सकता है. हिंदुस्तान से लेकर दैनिक जागरण और भास्कर तक के दिल्ली संस्करणों के संपादकीय में किसान विरोधी स्वर कहीं स्पष्ट है, तो कहीं छुपा हुआ है.
इस मामले में सबसे त्रासद स्थिति मध्य प्रदेश के संपादकों की है, जिन्हें किसान आंदोलन को खारिज करते हुए विशेष लेख लिखना पड़ रहा है. एक बानगी देखिए:
चर्चा से महरूम दो खबरें
आम तौर से हिंदी के अखबारों में कुछ ऐसा नहीं होता जो नज़र को रोक सके, लेकिन कुछ खबरें ऐसी आ जाती हैं जिनके बारे में लगता है कि चर्चा होनी चाहिए थी. खासकर धारणा निर्माण के इस दौर में जब सरकार झूठ बोल रही हो और अखबार उस झूठ को दोहरा रहे हों, एकाध रिपोर्टर ऐसे निकल कर आ ही जाते हैं जो स्थापित नैरेटिव को चुनौती देते हैं. इन्हीं में एक हैं दैनिक भास्कर की रिपोर्टर दीप्ति राऊत, जिन्होंने 4 दिसंबर के अंक में किसान जितेन्द्र भोई की असली कहानी लिखी.
महाराष्ट्र के धूले जिले के रहने वाले किसान जितेन्द्र को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 29 नवंबर के ‘मन की बात’ में एक उदाहरण की तरह पेश किया था कि कैसे उन्हें नये कृषि कानूनों का लाभ मिला है. पांच दिन बाद दीप्ति राऊत ने असली कहानी सामने रख दी कि वास्तव में उन्हें दो लाख का घाटा हुआ था और वे किसान आंदोलन के साथ हैं.
ज़ाहिर है, सच जितनी देर में घर से निकलता है उतनी देर में झूठ धरती का पांच चक्कर लगा आता है. दीप्ति की यह स्टोरी पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छपी और चर्चा का विषय नहीं बन सकी. यहां तक कि इस स्टोरी को फॉलो कर के कुछ लोगों ने जितेन्द्र भोई का वीडियो भी बनाया और जारी किया, लेकिन ‘मन की बात’ के आगे सच की बात फेल हो गया.
इसी तरह दो दिन पहले लगभग सभी हिंदी और अंग्रेज़ी के अखबारों में एक खबर एजेंसियों के माध्यम से छपी, जिसमें बताया गया कि असम सरकार की कैबिनेट ने सरकारी मदरसों और संस्कृत के सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला ले लिया है. कायदे से इस खबर पर बात होनी चाहिए थी क्योंकि मामला सरकारी स्कूलों का था, निजी का नहीं.
राज्य में 610 सरकारी मदरसे हैं और 1000 सरकारी मान्यता प्राप्त संस्कृत विद्यालय हैं जिनमें से 100 को सरकारी मदद मिलती है. आगामी शीतसत्र में सरकार इन सबको बंद करने का विधेयक लाने जा रही है. कायदे से इस फैसले पर दोनों तरफ़ से आवाज़ आनी चाहिए थी- संस्कृति प्रेमियों की ओर से भी और मदरसे के हिमायती लोगों की ओर से भी. यह ख़बर भीतर के पन्नों में दब कर रह गयी.
बनारस का मूक नायक
किसान आंदोलन के कार्यक्रम में 14 दिसंबर को अलग-अलग जगहों पर देश भर में अनशन का कार्यक्रम था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एक छात्र प्रवीण ने किसानों के समर्थन में गंगा में अकेले जल सत्याग्रह करने का फैसला किया. यह युवा एक प्लेकार्ड लेकर गंगा में खड़ा हो गया. इसके मौन व्रत ने पुलिस महकमे को हरकत में ला दिया.
प्रवीण का मौन सत्याग्रह पुलिस ने तोड़ दिया और उसे गिरफ्तार कर लिया. यह खबर स्थानीय अखबारों में छपी है. अखबार अगर जनता के हितैषी होते, तो कायदे से इस इकलौते नायकीय कृत्य को पहले पन्ने पर बैनर पर जगह मिलनी चाहिए थी और विश्वविद्यालय से लेकर शहर तक बवाल हो जाना चाहिए था. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. क्यों?
जवाब 14 दिसंबर के दैनिक जागरण के पहले पन्ने की हेडलाइन में छुपा है, जिसमें किसान आंदोलन के लिए ‘’टुकड़े-टुकड़े गैंग’’ का प्रयोग किया गया है, वह भी रनिंग फॉन्ट में बिना किसी कोटेशन मार्क के.
जब अखबारों के लिए चुने हुए मुख्यमंत्री और सरकार से बड़ा सरसंघचालक हो जाय; जब अखबारों के रिपोर्टर को यह स्थापित करने के लिए खेतों में भेजा जाय कि किसान खेती कर रहा है, आंदोलन नहीं; जब अखबारों में किसी का मौन सत्याग्रह अपराध बन जाय; तब अखबारों पर निगरानी और तेज़ कर देनी चाहिए.
आज से शुरू हुई हिंदी के अखबारों की यह परिक्रमा अब हर पखवाड़े जारी रहेगी ताकि हम जान सकें कि सरकार और सूचना तंत्र ने जो फाटक और दीवारें इन वर्षों में देश भर में खड़ी की हैं, उनके पार दुनिया कैसे बदल रही है, समाज कैसे करवट ले रहा है.
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