प्रमुख सचिव (वन) ने ज़िलाधिकारियों को दो बार चिट्ठी लिखी, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी और एनजीटी ने भी कहा था लेकिन इसके बावजूद फायर सीज़न में वन कर्मियों को इलेक्शन ड्यूटी पर लगाया गया.
उत्तराखंड के जंगलों में पिछले 10 दिनों से आग धधक रही है न्यूज़लॉन्ड्री को मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि वनकर्मियों की चुनाव ड्यूटी में तैनाती आग से निपटने के लिए होने वाली वार्षिक तैयारियों के आड़े आई. ज़िलाधिकारियों ने अपनी ही सरकार, चुनाव आयोग और एनजीटी के आदेशों और चेतावनियों की अनदेखी कर न केवल वनकर्मियों को बड़ी संख्या में चुनाव में लगाया बल्कि वन विभाग के वाहनों को भी चुनाव के लिए अपने कब्जे में ले लिया.
हालांकि जिन ज़िलाधिकारियों से न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की उन्होंने इस बात से इनकार किया कि जंगल की आग के लिए चुनाव ड्यूटी में वनकर्मियों की नियुक्ति को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
आदेश के बावजूद वनकर्मियों को चुनाव में लगाया
उत्तराखंड में 15 फरवरी से 30 जून तक फायर सीज़न माना जाता है और हर साल इसे रोकने की तैयारियां एक नियमित प्रक्रिया है. इसके तहत वनकर्मी फायर लाइंस को साफ करने, घास और झाड़ियों को काटने, जलाने पर नियंत्रण और निगरानी आदि करते हैं. प्रमुख सचिव (वन) रमेश कुमार सुधांशु ने सभी ज़िलाधिकारियों को 3 फरवरी और 5 अप्रैल को दो बार पत्र लिखे. अपने पत्र में उन्होंने कहा कि वन विभाग को चुनावी गतिविधि से दूर रखा जाए.
इस पत्र के पैरा 18 में स्पष्ट लिखा है- प्रदेश के अंतर्गत प्रतिवर्ष ग्रीष्मकाल (15 फरवरी से 30 जून तक) में वनाग्नि की भीषण घटनाएं घटित होती हैं. वनाग्नि नियंत्रण/ प्रबंधन हेतु वन विभाग के सभी अधिकारी/कर्मचारी 24X7 तैनात रहते हैं. वनाग्नि सत्र-2024 को दृष्टिगत रखते हुए वन विभाग के फील्ड स्तर पर तैनात कार्मिकों को लोकसभा चुनाव ड्यूटी से अवमुक्त रखा जाए. साथ ही वनाग्नि काल- 2024 के दौरान वन विभाग के वृत्तों/प्रभागों में आवंटित वाहनों का अधिग्रहण न किया जाए, चूंकि वनाग्नि सत्र के दौरान वनाग्नि पर नियंत्रण पाने के लिए वन कार्मिकों को आवागमन हेतु वाहनों की अत्यधिक आवश्यकता होती है.
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Contributeचुनाव आयोग के दिशानिर्देशों की भी अनदेखी
इसके अलावा निर्वाचन आयोग की 2023 की गाइडलाइन का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी ने भी फायर सीज़न होने के कारण वन कर्मियों को चुनाव में न लगाने की बात कही थी.
महत्वपूर्ण है कि भारत के चुनाव आयोग द्वारा जारी दिशानिर्देश भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 और आरपी अधिनियम, 1951 के तहत चुनाव प्रक्रिया के संचालन में शामिल सभी प्रशासनिक प्राधिकारियों के लिए संवैधानिक रूप से बाध्यकारी हैं.
मार्च के पहले हफ्ते में जारी हुए आदेश
न्यूज़लॉन्ड्री के पास उपलब्ध दस्तावेज़ों से पता चलता है कि चुनाव आयोग द्वारा इलेक्शन प्रोग्राम के ऐलान से पहले ही मार्च के पहले हफ्ते से ही वनकर्मियों की चुनाव ड्यूटी में तैनाती के आदेश जारी हुए.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए एक सीनियर वन अधिकारी ने कहा, “डीएफओ लेवल के कई अधिकारियों ने प्रशासन को पत्र लिखकर वनकर्मियों की ड्यूटी न लगाने की बात कही थी लेकिन हर ज़िले में 90 प्रतिशत से अधिक फॉरेस्ट स्टॉफ को मतदान से करीब डेढ़ महीने पहले चुनाव की ड्यूटी लगाने के आदेश जारी हो गए. और 19 अप्रैल को मतदान के एक दिन बाद ही उन्हें फ्री किया गया. इस कारण आग को रोकने की तैयारियों के लिए वनविभाग के पास समय नहीं रह गया.
जंगलों में लगने वाली आग को रोकना और नियंत्रित करना एक सतत गतिविधि है जिसे फॉरेस्ट फायर मैनेजमेंट कहा जाता है. एनजीटी ने भी अपने आदेश में मुख्य सचिव की लिखी चिट्ठी के पैरा 18 का उल्लेख किया और कहा था कि संबंधित अधिकारियों द्वारा सर्कुलर का पालन किया जाना चाहिए.
मौसम विभाग के पूर्वानुमानों से सबक नहीं
महत्वपूर्ण है कि मौसम विभाग ने भी भविष्यवाणी की थी कि इस साल कम बारिश और औसत से अधिक तापमान के कारण जंगल में आग लगने की घटनाएं अधिक गंभीर होंगी. साल 2023 में अल - नीनो वर्ष होने के कारण औसत तापमान अधिक रहा और संकट का बढ़ना तय था.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस साल अब तक करीब 1150 हेक्टेयर वन भूमि जल चुकी है और 26 लाख रुपए से अधिक की संपत्ति का नुकसान हुआ है. जंगल की आग में चार लोगों की जान जाने की भी ख़बर है.
एक अन्य अधिकारी ने हमसे कहा, “अधिक तापमान और इस साल सर्दियों में बारिश न होने के कारण आग की घटनाओं का पूर्वानुमान था. जब सर्दियों में बारिश होती है तो जंगलों में नमी के कारण आग की घटनाएं कम होती हैं जैसा कि पिछले साल देखा गया लेकिन इस साल दिसंबर-जनवरी में बारिश नहीं हुई और चेतावनी के बावजूद चुनावी प्रक्रिया में वनकर्मियों को लगाकर आदेशों की अनदेखी की गई.”
जंगलों में आग लगना असामान्य नहीं हैं. ज़्यादातर वनाग्नि की घटनाएं मानवजनित होती हैं. अगर आग नियंत्रित रहे और एक हिस्से तक सीमित रहे तो उससे बहुत क्षति नहीं होती लेकिन कई दिनों तक अनियंत्रित धधक रही आग न केवल वन संपदा, पशु-पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों के नष्ट होने से जैव विविधता को ख़तरा है बल्कि प्रदूषण और गर्मी के कारण हिमालयी ग्लेशियरों को भी संकट हो सकता है.
“हमने बहुत कम संख्या में वन अधिकारियों को तैनात किया''
न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मुद्दे पर उत्तराखंड के विभिन्न जिलों के जिलाधिकारियों से बात करने की कोशिश की. उनमें से कुछ ने हमसे बात की और इस आरोप का खंडन किया कि राज्य के जंगल की आग प्रबंधन केवल मतदान तैनाती से जुड़ा हुआ है.
नैनीताल की डीएम वंदना सिंह ने कहा कि उनके जिले में "कुशल प्रबंधन और सक्रिय सामुदायिक भागीदारी" से जंगल की आग पर बड़ी जल्दी काफी हद तक काबू पा लिया गया है. वन अधिकारियों की तैनाती के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि इस जंगल की आग के लिए एक नहीं "कई कारक" थे.
वे आगे कहती हैं, “मैं यह नहीं कहूंगी कि (चुनाव प्रक्रिया में) वन विभाग की कोई भागीदारी नहीं थी. निश्चित रूप से उन्हें तैनात किया गया था लेकिन उनकी संख्या बहुत सीमित थी. हमारे जिले में चुनाव ड्यूटी के लिए मुझे वन विभाग से कुल 1,895 नाम मिले थे. हमने उनमें से केवल 676 को तैनात किया. और इनमें से लगभग 500 का उपयोग प्रशिक्षण और मतदान सहित केवल पांच दिनों के लिए किया गया था. रेंजर या एसडीओ स्तर के अधिकारियों समेत बाकी लोगों को उड़न दस्ते के तौर पर तैनात किया गया है जो अपने क्षेत्र में ही रहते हैं. उन्हें निर्देश दिया गया कि अगर उनके पास अपने विभाग का कोई काम है तो वे उसे भी कर सकते हैं.”
वंदना सिंह ने कहा कि हर साल वनाग्नि से निपटने की तैयारी जनवरी में ही शुरू हो जाती है. हमने यह ध्यान रखा कि वन कर्मियों का चुनाव में कम से कम उपयोग हो.
“2018 में कोई चुनाव नहीं था फिर भी जंगल में आग लगी हुई थी. क्यों,'' उन्होंने पूछा.
इस रिपोर्ट को शाम 8:40 पर अपडेट किया गया है.
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