रिपोर्टर्स डायरी: धराली के मलबे में दबी असंख्य कहानियों को सामने लाने की दुर्गम यात्रा

पत्रकार के तौर पर पिछले 3 दशकों में कई ग्राउंड रिपोर्ट्स की हैं लेकिन धराली की कवरेज कई मायनों में अलग और यादगार रहेगी.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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हृदयेश जोशी की तस्वीर. साथ में धराली आपदा की तस्वीरें.

मंगलवार (5 अगस्त) की दोपहर जब सोशल मीडिया पर धराली में बाढ़ की पहली तस्वीरें आईं तो इसमें कोई शक नहीं था कि यह हिमालय के आधुनिक कालखंड की सबसे भयानक त्रासदियों में एक है. एक रिपोर्टर के तौर पर आप जल्दी से जल्दी उस जगह पहुंचना चाहते हैं जहां यह घटना हुई है. लेकिन मैं धराली से 500 किलोमीटर से अधिक दूर था. यह जानते हुए कि आखिरी 150 किलोमीटर का रास्ता भूस्खलन और सड़क कटाव की वजह से बाधाओं से भरा होगा यह दूरी किलोमीटर में नहीं नापी जा सकती थी.

तस्वीरों ने स्पष्ट कर दिया था कि एक पूरा गांव मलबे में दफन हो गया है और घटनास्थल पहुंच कर बाद में पता चला कि बाढ़ की शक्ल में ये मलबा एक नहीं कई बार आया था. घटना के बारे में दोपहर करीब साढ़े तीन बजे पता चला और कुछ ही घंटों के भीतर न्यूज़लॉन्ड्री के आशीष आनंद के साथ मैंने धराली के लिए यात्रा शुरू कर दी थी. हर स्रोत से जानकारी इकट्ठा करते और घटनास्थल के ज़्यादा से ज़्यादा पास पहुंचने की कोशिश में हमने तय किया कि हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक आगे बढ़ना नामुमकिन न हो जाये. 

पहला रोड ब्लॉक रात दो बजे ऋषिकेश- चम्बा मार्ग पर मिला जहां सड़क कटी हुई थी और हमें ऋषिकेश वापस लौटने पर विवश होना पड़ा. वहां तीन घंटे के विश्राम के बाद सुबह साढ़े पांच बजे हम फिर अपने रास्ते पर थे. इस बार मसूरी के पास सुवाखोली और थत्यूड़ से होते हुए चिन्यालीसौड़ और उत्तरकाशी का रास्ता पकड़ा. लेकिन मसूरी से कुछ दूर सुवाखोली के आगे सड़क बन्द थी. एक स्थानीय सज्जन ने हमें गांव से होते हुए दूसरा मार्ग सुझाया जहां रफ्तार धीमी लेकिन प्रगति जारी रही. उत्तरकाशी पहुंचते हुए दोपहर 2 बज चुके थे. भारी बरसात और भूस्खलन से पूरा परिदृश्य अस्तव्यस्त दिख रहा था. 

पूरे रास्ते पुलिस के नाके थे जो लोगों को आगे न जाने के लिए चेतावनी दे और रोक रहे थे. मीडिया की गाड़ी देखकर पुलिस अनमने तरीके से यह कहकर जाने देती कि “आगे जाकर क्या करोगे.” उत्तरकाशी से करीब 25 किलोमीटर आगे मनेरी को पार कर एक जगह रास्ता रोका गया था और केवल मीडिया की गाड़ियां ही जा पा रही थीं. सड़क पर दरारें स्पष्ट थी लिहाजा पुलिस वाले ड्राइवर को यह समझाने से न चूकते कि वह सवारियां (यानि हमें) उतार दे और पहाड़ी से सटकर ही गाड़ी चलायें और नदी से दूर रहें क्योंकि सड़क दरक रही है. पहला बड़ा अवरोध भटवाड़ी पास ही था. 

अंधेरा घिरने से पहले हमारी पहली रिपोर्ट किसी भी हाल में भेजी जानी थी. गाड़ी को छोड़कर दौड़ते हुए हमने ये दोनों अवरोध पैदल पार किए जिनके बीच में एक किलोमीटर की दूरी थी. सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) इन सड़क को दुरस्त कर बाधाओं को पाटने की कोशिश कर रही थी लेकिन पहाड़ लगातार दरक रहा था. भूविज्ञानियों की रिपोर्ट अतीत में सरकार को चेतावनी दे चुकी थी कि यह एक भूधंसाव वाला क्षेत्र है लेकिन निर्माण के नियमों की पालना उस हिसाब से कभी नहीं की गई. यहां से हमने अपनी पहली रिपोर्ट भेजी. 

वह रात भटवाड़ी से कुछ दूरी पर बसे रैथल गांव में बीती, जहां कई लोग थे जिनके रिश्तेदार धराली के रहने वाले थे. यहां हमारी मुलाकात चंद्री देवी से हुई जिनके भतीजे शुभम नेगी का कोई पता नहीं था. चंद्री देवी का सवाल अपने भतीजे की गुमशुदगी से आगे का था. “नेता वोट लेने तो आते हैं लेकिन अभी कहां खो जाते हैं,” उनका सवाल बहुत स्वाभाविक था. इसी समय हमें पता चला कि धराली की आपदा बादल फ़टने से नहीं बल्कि ऊंचाई में लंबे समय तक सामान्य बारिश और उस कारण लगातार भूस्खलन से हुई. हमारी यह रिपोर्ट आपदा के संभावित वैज्ञानिक कारणों पर थी. 

उधर, धराली से संपर्क अब भी कटा हुआ था और फोन लाइंस काम नहीं कर रहीं थीं. स्वतंत्र रिपोर्टिंग के लिए ज़मीन पर पीड़ित लोगों से बात करना ज़रूरी थी. सरकार सैकड़ों लोगों को “रेस्क्यू” करने का दावा कर रही थी. इसकी जांच करना ज़रूरी था तो आगे बढ़ने के बजाय हमने वापस उत्तरकाशी आने का फैसला किया जहां मातली हेलीपैड पर लोगों को लाया जा रहा था. यहां पता चला कि निकाले गए लोगों में धराली के निवासियों की संख्या बहुत कम है और ज़्यादातर लोग हर्षिल और मुखला गांव या फिर गंगोत्री में फंसे टूरिस्ट और वहां के निवासी हैं. इन लोगों को निकाला जाना भी ज़रूरी था लेकिन धराली जाने के इच्छुक लोगों की नाराज़गी थी कि असल आपदा की चोट जहां है वहां से लोगों को क्यों नहीं लाया या ले जाया जा रहा. इस रिपोर्ट में आप विस्तार से इस हताशा को महसूस कर सकते हैं. 

इसके बाद अगली सुबह हम एक बार फिर से धराली के लिए रवाना हुए और भटवाड़ी के आगे गंगनानी के पास एक पुल के टूटे होने के कारण फंस गये. यहां पुलिस ने हमें पैदल आगे बढ़ने से मना कर दिया और कहा कि यहां से किसी को भेजना “बहुत रिस्की” है. यह शनिवार की बात है. रक्षाबंधन का दिन. उस दोपहर हम करीब 2000 फुट नीचे पहाड़ी पर उतरे  और पत्थरों पर बिछी लकड़ियों के सहारे भागीरथी नदी को पार किया. इसके बाद किसी तरह उस पहाड़ी पर चढ़कर रोड के दूसरी तरफ पहुंचे जिसमें बहुत ख़तरा था. हमसे पहले भी कुछ पत्रकार इस रास्ते को अपना चुके थे लेकिन अगर पुलिस ने सहयोग किया होता तो हम शायद करीब 3 घंटे का वक्त बचा सकते थे. 

ऊपर पहुंच कर सभी ने कुछ राहत की सांस ली लेकिन हमारे पास कोई वाहन नहीं थी और आगे का रास्ता पैदल ही पार करना था. हमें बताया गया कि 4 किलोमीटर आगे डबरानी नामक जगह में हमें ढाबा मिलेगा लेकिन सभी लोग पानी के लिए तरस रहे थे. सौभाग्य से कुछ आगे झरने का पानी नसीब हुआ और आगे बढ़ने की शक्ति मिली. कुछ पत्रकार साथियों का कहना था कि अंधेरे में फिर नदी को पार करना और दोबारा पहाड़ पर चढ़ना ठीक नहीं होगा इसलिए यहीं रुकना चाहिए लेकिन कुछ लोग सोच रहे थे कि इस बाधा को पार कर अगर हम सोनगाड़ तक पहुंच पाये तो वहां से वाहन मिल सकता है और हम रात में ही हर्षिल पहुंच सकते हैं जो धराली से 4 किलोमीटर ही दूर था. 

सड़क बह चुकी थी और पहाड़ी के किनारे 1 फुट से भी कम चौड़ाई का रास्ता बचा था जो कभी भी टूट सकता था. इस पर से होकर आगे जाना और बड़ी चट्टानों को फांद कर फिर से नदी में उतरना और एक बड़ी बाधा पर चढ़कर दूसरी ओर कूदना था. आकलन करने पर यही पाया गया कि रात को डबरानी में रुकना ही ठीक होगा चाहे छत नसीब न भी हो. सौभाग्य से हमारे मोबाइल फोन और कैमरा की लाइट्स देखकर दो लोग मोटरसाइकिल पर आये और हमें वापस लौटने को कहा. ये ढाबे वाले थे. रात का खाना और सोने की व्यवस्था इन लोगों ने की. 

बहुत थके होने के बावजूद पूरी रात नींद नहीं आई. पास में बहती नदी गरज रही थी और उसका शोर हमें आपदा की भयावहता का एहसास करा रहा था. हममें से कुछ लोग ठंड से ठिठुर रहे थे क्योंकि उनके पास पर्याप्त कपड़े नहीं थे. सुबह की पहली किरण के साथ हम इकट्ठा हुए और सभी 10 लोगों ने यात्रा फिर शुरु की. इस टीम में मेरे साथी आशीष आनंद के अलावा राहुल कोटियाल और उनकी बारामासा टीम के तीन लोग (रोहित, प्रतीक और अमन), मलयालम मनोरमा के जोस कुट्टी और रंजीत और इंडिया टीवी की अनामिका और उनके कैमरापर्सन मनोज ओझा थे. 

सोनगाड़ तक पहुंचना पहले दिन की बाधाओं की तुलना में अपेक्षाकृत आसान ही कहा जाएगा. हालांकि, बरसात के मौसम में पहाड़ और नदी को पार करना कभी भी ख़तरे से खाली नहीं होता. दूसरी ओर पहुंचे तो हर्षिल से बुलाई गई जीप हमारा इंतज़ार कर रही थी. लेकिन उस पर सवार होने से पहले हमने मार्ग की तबाही को कैमरे में कैद किया ताकि यह रिपोर्ट जल्दी से जल्दी भेजी जा सके.

हर्षिल पहुंचते ही मैंने आशीष के साथ पैदल ही मुखवा गांव का रुख किया और आपदा के हर पहलू को रिकॉर्ड करना शुरू किया. अगले कुछ दिन तक जो रिपोर्टिंग हमने तैयार की उनमें सुमित और मनमोहन से बातचीत बहुत अहम रही जिन्होंने बताया कि दोपहर डेढ़ और शाम छह बजकर तीन मिनट के बीच कम से कम 6 बार बाढ़ आई. इस पूरी आपदा पर विस्तृत रिपोर्ट आप यहां क्लिक करके देख सकते हैं. 

वापस लौटने का रास्ता भी कोई आसान नहीं था जो मार्ग हमारे आते वक्त ठीक थे वह वापसी में बह चुके थे लिहाजा डबरानी तक संघर्ष बना रहा लेकिन वापसी से पहले मेरे साथी आशीष ने यह रिपोर्ट अपने कैमरे में कैद की. पत्रकार के तौर पर पिछले 3 दशकों में कई ग्राउंड रिपोर्ट्स की हैं लेकिन धराली की कवरेज कई मायनों में अलग और यादगार रहेगी. 

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