गजराज राव पार्ट 2: ‘मुझे किसी की सफलता से ईर्ष्या नहीं होती है’

फिल्म अभिनेता और ऐड फिल्मकार गजराज राव से बातचीत का दूसरा और अंतिम भाग.

Article image

पहले हिस्से में गजराज राव ने दिल्ली के दिनों को याद किया था. इस हिस्से में उन्होंने ‘बधाई हो’ मिलने और उसके सहयोगी कलाकारों के बारे में बात की है. उन्होंने रंगमंच के अनुभव और अपनी पसंद-नापसंद पर बेलाग अपने मन की बात रखी. वो परसाई और शरद जोशी से प्रभावित हैं. वह मानते हैं कि उनके व्यवहार में परिहास है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

आज संघर्ष के दिनों के किन मित्रों की सदाशयता याद आती है?

शुजित सरकार और आशीष विद्यार्थी हमेशा ख्याल रखते थे. 50, 100, 200 रुपए तो दे ही देते थे. वे अपनी मर्ज़ी से ऐसा करते थे. यह अच्छा था कि मुझे बोलना नहीं पड़ता था. वे जेब में 200 रुपए डाल देते थे. बड़ी बात है न? ऐसा भी नहीं था कि वे धन्ना सेठ थे. मुझ से थोड़ी बेहतर स्थिति में थे, लेकिन बड़ा दिल था. शुजित ने तो कई बार मदद की थी.

लगता है कि एक्टिंग का सिलसिला आप ने जारी रखा. ऐसा नहीं था कि आप पूरी तरह से विज्ञापन की दुनिया में रम गए?

जी, विज्ञापन की वजह से यह हुआ कि मैं अच्छे रोल का चयन कर पाया. मनमाफिक काम कर पाया. अगर विज्ञापन का काम नहीं होता तो गड़बड़ हो जाती. ऐसा भी नहीं था कि विज्ञापन किसी मजबूरी में अनमने ढंग से कर रहा था. मैं कोई सरकारी नौकरी की तरह रूटीन काम नहीं कर रहा था. यहां भी कहानी कह रहा था. 30-60 सेकंड में कहानी कहनी होती थी. हर चार-छह महीने में अच्छी स्क्रिप्ट आ जाती थी. चार महीने पहले एक कार कंपनी के लिए चार मिनट का विज्ञापन मेरी कंपनी ने बनाया. उसके 20 करोड़ व्यू हो चुके हैं. कोरियाई क्लाइंट की आंखों में पानी आ गया था विज्ञापन देख कर. 90 सेकंड की फिल्म चार मिनट की हो गयी और वह उन्हें पसंद आया. खुद एक्टिंग करना हमेशा ज़रूरी नहीं रहा, मेरी विज्ञापन फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री मेरा ही काम कर रहे हैं. उसका भी रोमांच होता है कि मैं करवा पाया.

अब आप की चर्चित फिल्मबधाई होकी बात करें तो यह कैसे आप तक पहुंची? किस सिलसिले से कौशिकजी का किरदार बना और अन्य बातें.

अमित शर्मा कभी प्रदीप सरकार के सहायक थे. मैं उन्हें तब से जानता हूं. हम लोग लगभग साथ ही मुंबई आये थे. हमारे प्रोडक्शन हाउस के साथ ही अमित ने भी प्रोडक्शन हाउस खोला. उनसे कभी काम का रिश्ता नहीं रहा, लेकिन हम लोग मिलते रहे. उनका स्नेह और सम्मान बना रहा. उनके पार्टनर हेमंत (दोस्त) और आलिया (पत्नी) से भी संपर्क रहा. पिछले साल सितम्बर-अक्टूबर में उनके यहां से कास्टिंग डायरेक्टर जोगी का फोन आया. उन्होंने रोल के बारे में बताया और कहा कि अमित आप के बारे में सोच रहे हैं. किसी भी ऑफर में सबसे पहले मैं यह देखता हूं कि मेरे विज्ञापन के काम से तालमेल बैठ जायेगा या नहीं. विज्ञापन के जो काम हैं उनसे तालमेल बना रहे. उनकी क्लाइंट मीटिंग में जाना होता है. वह मुझे रोजगार दे रहे होते हैं. उन्हें किसी भी तरह लटकाया नहीं जा सकता. मेरा फर्ज है कि मैं उन्हें अपना 100% दूं. मैं कहता भी हूं हिंदुस्तान लीवर के लिए ऐडफिल्म बनाता हूं और हिंदुस्तानी फिल्मों में काम करता हूं.

तो ‘बधाई हो’ की तारीखें मेरे काम में अड़चन डाल सकती थी. अक्टूबर में महीने भर  का समय मांग रहे थे और दूसरे मेरे कुछ कामों से उनकी तारीखें टकरा रही थीं. मैंने उन्हें मना कर दिया था. फिर अमित के प्रोडक्शन से फोन आया. पूछा गया कि आप मना क्यों कर रहे हैं? मैंने अपनी दिक्कतें बताईं एक साथ डेढ़ महीने का समय नहीं दे पाऊंगा.

फिर अमित का फोन आया. उन्होंने कहा कि एक बार कहानी सुन लो. उसके बाद फैसला करना. मैंने सहमति जाहिर की. उनके ऑफिस गया. वहां शांतनु और अक्षत ने मुझे स्क्रिप्ट सुनाई. वो नैरेशन मेरे लिए अटपटा था सही में. उसके पहले ऐसा रहा है कि सीन नंबर 13, सीन नंबर 22, सीन नंबर 34 और सीन नंबर 15… बताया जाता था कि इन सीन में आप हो सकते हैं. यहां तो गिनती के सीन थे जिनमें मैं नहीं था. बहुत अच्छा फील हुआ. एक बार को मन हुआ कि कर लेना चाहिए. तुरंत मना नहीं करना चाहिए. दूसरा मन सोच रहा था कि समय की दिक्कत होगी.

फिल्म में एक जगह नाचने का भी सीन था. मेरी तो घंटी बज गई. मुझे स्पॉन्डिलाइटिस है. उससे मेरे कामकाज में फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन मेरी बॉडी लैंग्वेज कई बार अलग हो जाती है. मुझे पहले संकोच होता था कि लोग क्या बोल रहे होंगे. और फिर दूसरों की सहानुभूति से मुझे घबराहट हो जाती है. कोई अरे रे रे… कह दे तो मेरी तकलीफ बढ़ जाती है.

क्या होता है कि उसके बाद लोग उपचार बताने लगते हैं. कोई बड़ौदा में है, कोई अहमदाबाद बस स्टेशन के पास वैद्य है. समझ सकते हैं. कुछ दिनों के बाद मैंने अमित से बात की और अपनी तरफ से सुझाव दिया कि किसी बड़े एक्टर को ले लो.  जिससे आप स्नेह करते हैं, आप चाहते हैं कि उसका बुरा ना हो. आलिया और अमित ने बताया था कि उन्हें मेरा टीवीएफ का काम बहुत अच्छा लगता है. मैंने सोचा, वहां तो 19-20 काम चल जाता है. कोई ज्यादा गौर नहीं करता. मीन-मेख नहीं निकालता. कंटिन्यूटी भी ऊपर-नीचे हो जाए तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. कोई नहीं पूछता कि ऐसा कैसे हो गया?

फिर लुक टेस्ट की बात आई. मैंने सलाह दी, एक्ट्रेस के साथ मेरी लुक टेस्ट लें और फिर इन्फॉर्म्ड फैसला लें. उसने माना ही नहीं. उसका कहना था कि मैं लुक क्यों देखूं मुझे तो तुम में कौशिक दिख रहा है. फिर भी मेरी जिद के बाद नीनाजी को बुलाया गया. हम दोनों ने एक साथ रीडिंग की. रीडिंग के बाद उसने कहा कि अब तो कोई सवाल ही नहीं होता और आप ही मेरे लिए बड़े एक्टर हो.

उसके बाद भी मैंने कहा कि देखो डांस-वांस करना है. खैर, फिर उनका पार्टनर हेमंत मिलने आया. रिश्ता पक्का करने के अंदाज में वह एक किलो खजूर लेकर आया था. उसने सीधा सवाल किया कि आप की क्या-क्या दिक्कतें हैं? मैंने सब कुछ बताया. हेमंत हर तरह से एडजस्ट करने को तैयार हो गया. उसके बाद मैं ना कर ही नहीं सकता था.

स्पॉन्डिलाइटिस का भी निदान खोज लिया गया. हेमंत की पत्नी डॉक्टर है. उन्होंने कहा कि मैं आपकी देखभाल करूंगी. उसी दौरान मुझे पता चला कि आयुष्मान ने मेरा नाम सुझाया था. मामी फिल्म फेस्टिवल के लिए आयुष्मान के साथ मैंने टीवीएफ का एक स्केच किया था. उन्हें मैं पसंद हूं. इसके पहले ‘शुभ मंगल सावधान’ के लिए भी उन्होंने मेरा नाम सुझाया था. वह फिल्म मैं नहीं कर सका था. उसके बाद जो भी हुआ है, वह मेरे लिए परिकथा की तरह है.  इस फिल्म को करते हुए रंगमंच के दिनों की याद आई. हम सभी साथ रहते थे और मिल जुल कर काम करते थे.

कौशिक को आप ने किस तरह देखा और समझा?

मैंने बहुत सारे कौशिक देखे हैं. रेलवे कॉलोनी के मध्यवर्गीय परिवारों में रहते हुए अपने आसपास देखे हैं. हर मध्यवर्गीय परिवार में कौशिक का अंश होता है. जिन परिवारों में मां और पत्नी होती है, उनमें कौशिक होता ही है. दो ध्रुवों के बीच में सामंजस्य बिठाने के लिए कौशिक होते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले एक रेस्तरां में खाना खा रहा था. एक पंजाबी प्रशंसक मेरे पास आये. उन्होंने मुझसे कहा, ’मेरे परिवार में ऐसा ही होता है’. मां कुछ कहती है बीवी कुछ और कहती है और मैं इन दोनों के बीच में फंसा रहता हूं. मध्यवर्गीय परिवारों में जवान बेटों के साथ डायरेक्ट कम्युनिकेशन नहीं होता.

‘बधाई हो’ फिल्म की तरह कुछ अटपटा हो जाए तो संबंध और बोझिल हो जाता है. उच्च और निम्न तबकों में शायद ऐसी दिक्कत नहीं होती हो. मेरे लिए कौशिक अनजान नहीं थे. मेरे खुद के तीन मामा हैं जो मुझसे छोटे हैं. मेरे लिए कौशिक परिवार कौतुक नहीं था  कि ऐसा कैसे हो सकता है. उम्र में छोटे और रिश्ते में बड़े रिश्तेदारों के पांव छूता रहा हूं. इसमें सभी किरदार अच्छी तरह उकेरे  गए हैं. मुझे ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘तलवार’ के बाद ऐसी स्क्रिप्ट मिली थी, जिसमें एक्टर के लिए सारे असलाहे मौजूद थे.

कई  फिल्मों में हमें यह असलहा-बारूद खुद ले जाना पड़ता है. भाषा के ख्याल के लिए संवाद लेखक अक्षत सेट पर मौजूद रहते थे. क्रिटिकल सीन में जरूर रहते थे. सख्त हिदायत थी कि ‘का कह रहा है’ को ‘क्या कह रहा है’ नहीं बोलना है. खूब रिहर्सल हुआ.

मां के रूप में सुरेखा सीकरी और पत्नी के रूप में नीना गुप्ता दो धुरंधर अभिनेत्रियों के साथ होने से क्या फायदा मिला?

नीनाजी के साथ रीडिंग के समय कोई खास बातचीत नहीं हुई थी. उनकी ऑफ स्क्रीन इमेज थोड़ी गुस्सैल है. लगता है कि वह किसी भी बात पर नाराज हो सकती हैं, उनकी नो नॉनसेंस और चाबुक इमेज है. मैं संशय में था कि उनके साथ कैसे कम्युनिकेट होगा? मुझे तो यह भी डर था कि कहीं मना ना कर दें कि किस अनजान एक्टर को पकड़ ले आए? मुझे इंप्रोवाइजेशन करने की आदत है. उसे बर्दाश्त कर पाएंगी कि नहीं कर पाएंगी. कई एक्टर मना कर देते हैं.

फारूक शेख़ ने एक बार मना कर दिया था. उन्होंने कहा था भाई यह क्या कर रहा है यह तो स्क्रिप्ट में है नहीं. अपने पसंदीदा एक्टर से यह सुनकर  मैं चौंक गया था. ‘बधाई हो’ के सेट पर पहले-दूसरे दिन ही ऐसा लग गया कि हमारी समझदारी पटरी पर रहेगी.  इसका श्रेय नीनाजी को जाता है. उनका अनुभव संसार बड़ा है. वह सीनियर थीं. सच कहूं तो वह अपनी इमेज से बहुत ही अलग हैं. वह बहुत स्नेही और मुंहफट हैं. कोई लाग-लपेट नहीं रखती. साफ बात करती हैं. मुझे लग गया कि वह बहुत सहज अभिनेत्री हैं.

सुरेखाजी बहुत सहृदय हैं. पढ़ी-लिखी हैं. दीन-दुनिया की जानकार हैं. शेरो-शायरी कहती हैं. उनका अनुभव विशाल है और गजब की अभिनेत्री हैं. फिल्म में जब वह बहू को डांट रही हैं  तो मुझे ग्लिसरीन लेने की जरूरत नहीं पड़ी. उनकी अदायगी में इतना वाइब्रेशन था कि मेरी आंखें खुद ही नम हो रही थी. जिस दृश्य में सुबह-सुबह मुझसे पूछती हैं, तुझे कब समय मिल गया? और मैं उठकर चल देता हूं.

यह सीन में नहीं था. उन्होंने तुरंत जोड़ा ‘इधर देख, मुंह इधर कर’. डायरेक्टर को यह इंप्रोवाइजेशन इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे अगले टेक में रखा. 80 साल की मां और 50 साल का बेटा, दोनों ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे छोटी उम्र के बच्चों के साथ मां करती है. मैं कैमरा  और आर्ट डायरेक्टर के योगदान को भी नहीं भूल सकता. उन्होंने हर सीन और बेहतरीन बनाने की पूरी कोशिश की.

आयुष्मान खुराना के बारे में क्या कहेंगे?

उनके साथ काम करना तो मेरे लिए बड़ा उद्घाटन था. दो तरह के विद्यार्थी होते हैं. एक पढाई करते हुए दिखता है. दूसरा पढ़ा हुआ होता है. आयुष्मान दूसरी श्रेणी के हैं. अपने इमोशन पर उनका नियंत्रण है.  मैंने पूरी शूटिंग और प्रमोशन के दौरान उन्हें कभी चिड़चिड़ा नहीं देखा. अभी जिस दौर से वे गुजर रहे हैं और जितने व्यस्त हैं, उनमें कोई भी झुंझला सकता है.

दिल्ली में हम लोग दो दिनों तक लगातार प्रमोशन कर रहे थे. उन्होंने हमें पता भी नहीं चलने दिया कि उनकी पत्नी की जांच कैंसर के लिए हो रही है. अपने निजी जीवन को वे प्रोफेशनल जीवन में नहीं लाते. हम कलाकारों के प्रति उनका सम्मान देखते ही बनता है. वे निर्देशक के कहे में रहते हैं.

शूटिंग के दौरान ही आप लोगों को लग गया था कि कुछ अच्छा पक रहा है?

खुशबू आने लगी थी. ऐसा लगने लगा था कि कुछ सुस्वादु पक रहा है. इतना सुस्वादु होगा, इसके बारे में किसी ने कल्पना नहीं की थी. हमें लग रहा था कि एक हफ्ते चलेगी और लोग तारीफ करेंगे. सराहना मिलेगी.  इंस्टाग्राम पर मुझे न्यूजीलैंड, अमेरिका, कनाडा, यूरोप और अन्य देशों से संदेश आ रहे हैं. देश में लोग दो-दो बार देख रहे हैं. फिल्म के सभी विभाग का परफॉर्मेंस बहुत अच्छा रहा. सभी को तारीफ मिल रही है. त्रुटियां भी मिली हैं, लेकिन कम. लंबे समय के बाद कोई फिल्म ऐसी आई है जिसमें सिनेमाघर के सभी दर्शक एक साथ खुश हो रहे हैं. इमोशन का सामूहिक एहसास गजब होता है.

रंगमंच के अनुभवों ने आप को समृद्ध और मजबूत किया है कि साधारण फिल्मों के किरदारों में भी आप एक गहराई ले आते हैं. ऐसे ही किरदार कुछ दूसरे अभिनेता निभाते हैं तो वह नकली लगने लगता है.

इस तरह से मैंने कभी सोचा ही नहीं. मैं कोशिश करता हूं कि स्वाभाविक और सरल रहूं. कम से कम ऐब दिखे. रंगमंच और जीवन ने बहुत कुछ सिखाया है. कहते हैं सीखी हुई चीजें बेकार नहीं जातीं. मैं सामाजिक सरोकार नहीं छोड़ पाता हूं. उन्हें समक्ष रखता हूं. नेगेटिव किरदारों को निभाते समय कोशिश रहती है कि उसे ग्लैमरस या प्रेरक ना बनाऊं. उसे इतना घिनौना बना दूं कि लोग उसे घटिया समझें. ’भंवर’ के समय से ऐसा है. मंटो और परसाई को पढ़ा है तो उनका असर मेरे साथ रहेगा न?

मेरे काम में शुरू के तीन-चार काम सतही होंगे. पिछले दस सालों में मैंने कई कामों के लिए मना किया है. भौंडे और फूहड़ किरदारों से खुद को बचाया है. विज्ञापनों में भी इसका ख्याल रखता हूं. मेरे विज्ञापनों में औरत को वस्तु बनाने की कोशिश नहीं रहती. एक विज्ञापन की बात है. उस विज्ञापन में दिखाना था कि लड़कियां कार को रोमांटिसाइज कर रही है. किसी ने हमें कहा कि इसके ऑडिशन में क्लाइंट रहना चाहता है.  क्लाइंट का  इंटरेस्ट ऑडिशन के लिए आई लड़कियों को घूरने में था. हमने मना किया तो वह ऐड छूट गया.

क्या कभी सोचा है कि जो व्यक्ति एक्ट वन के दिनों में पाश को गाता था. मजदूरों के हक में क्रांति के गीत गाता था, आज वह एक अलग दुनिया में मिल रहे कामों में दक्षता दिखा रहा है. कहीं कोई विरोधाभास या अंतर्विरोध महसूस होता है?

सामाजिक सरोकार के रंगमंच का एक दौर था. लंबे समय तक उसे करने के बाद लगने लगा था कि हम कहीं पहुंच नहीं रहे हैं. मैं उसी में गोल-गोल घूम रहा हूं. हां, अगर परिवार नहीं होता तो शायद मैं उसी में लगा रहता. अभी भी लगता है कि मैं सब कुछ छोड़ कर बाबा आम्टे की तरह कुछ करूं क्या? मन बोलता है कि जंगल में चला जाऊं. यह मायाजाल बेकार लगता है. फिर मैं सोचता हूं कि जो कर रहा हूं उसी दायरे में अपनी सामाजिकता कैसे निभाऊं?

मैं ऊंच-नीच के भेद को नहीं मानता. सभी से समान व्यवहार की कोशिश करता हूं. दफ्तर और बाहर में यथासंभव दूसरों की मदद करता हूं. किसी की मजबूरी मेरे लिए अनजान नहीं है. मैं चेहरा देखकर समझ सकता हूं कि कोई मायूस है. अपने दायरे में रहकर भी दूसरों के संशय दूर करता हूं. संबल देता हूं.

अभी आपकी कंपनी जो फिल्म बनाने जा रही है, वह किस जोनर की है?

मैं ह्यूमर पसंद करता हूं. मुझे ‘गोलमाल’ और ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ जैसी फिल्में पसंद है. इन फिल्मों को देखते हुए मुझे कोफ्त नहीं होती है. मैं परसाईजी को बहुत पसंद करता हूं. शरद जोशी को पसंद करता हूं. शुरुआती दिनों में मुझे व्यंग्य वाले लोग ज्यादा मिले. अनजाने में भी मेरे व्यवहार में वे आ जाते हैं. नवभारत टाइम्स में शरद जोशी के कॉलम ‘प्रतिदिन’ का मैं नियमित पाठक था. नवभारत टाइम्स के लिए मैं लिखा भी करता था. तब मैंने शरद जोशी का इंटरव्यू भी किया था. हमारी जिंदगी में परिहास होना चाहिए. हद से बचना चाहिए. परिहास से बहुत सारे तनाव ढीले हो जाते हैं. पारिवारिक संबंधों में बहस नहीं होनी चाहिए.

साथ के लोगों को आगे बढ़ता हुआ देख कभी ऐसा एहसास हुआ कि आप पीछे छूट रहे हैं?

ऐसा कभी नहीं हुआ. शुरू से ही मुझे किसी से ईर्ष्या नहीं हुई. आज शुजीत सरकार बहुत नामचीन डायरेक्टर हैं. अच्छा काम कर रहे हैं. मनोज बाजपेयी हैं. अभिनय में वह मेरे आदर्श हैं. रंगमंच के दिनों से मैं उनसे सीख रहा हूं. मैं जानता हूं कि उनके जैसा कभी नहीं बन पाऊंगा. उनका अपना एक हस्ताक्षर है. उनका अप्रोच और समर्पण मैं अपनाने की कोशिश करता हूं. उनकी तरह ही रोल में घुल जाना चाहता हूं.

अभी उनकी ‘गली गुलियां’ देखी. उसे देखना मेरे लिए बहुत ही डरावना अनुभव था. या आशीष विद्यार्थी… उनके साथ मेरा शुरू से नाता रहा है. उन्हें देखकर हमें खुशी होती है. अमित शर्मा मुझसे जूनियर हैं लेकिन मुझसे बड़े ऐड फिल्ममेकर हैं. हां दूर के लोगों से ईर्ष्या हो जाती है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like