लॉकडाउन में मध्य प्रदेश पुलिस के अत्याचार के शिकार टीबू मेड़ा

एनएल सेना पार्ट-3: 25 मार्च, 2020 से 30 अप्रैल, 2020 के बीच देश में 15 लोगों की मौत पुलिस द्वारा की गयी मारपीट के चलते हुयी थीं.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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कोविड-19 के तहत हुए लॉकडाउन के दौरान जून के महीने में तमिलनाडु के थुतूकुड़ी (तूतीकोरिन) जिले के सथनकुलम में 62 साल के पी जयराज और उनके 32 साल के बेटे जे बेनिक्स को पुलिस वालों ने सथनकुलम पुलिस थाने के अंदर इतना बेहरहमी से मारा कि कुछ दिन बाद उनकी अस्पताल में मौत हो गयी.

सथनकुलम में 18 जून को दुकाने बंद कराने के दौरान एक पुलिस टीम से हुई कहासुनी के बाद मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले जयराज को पुलिस ने 19 जून को गिरफ्तार कर लिया था. यह खबर सुनकर उनके बेटे बेनिक्स जब पुलिस थाने पहुंचे तो अपने पिता को पिटता देख वो खुद को रोक नहीं सके और बीच बचाव करने लगे. इस पर पुलिस वालों ने पिता-पुत्र दोनों को इतना मारा और प्रताड़ित किया कि उनके गुप्तांगों से लगातार खून बहने के चलते उन्हें हर थोड़ी देर बाद अपनी लुंगियां बदलनी पड़ रही थीं और तीन दिन बाद दोनों की मौत हो गयी थी. इस मामले को लेकर तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए.

पुलिस की बर्बरता के चलते इस मामले की चर्चा देश के अन्य कोनों में भी होने लगी थी. लेकिन पुलिस द्वारा लॉकडाउन के दौरान किसी की जान ले लेने का यह पहला मामला नहीं था. ऐसी और भी बहुत मौतें हुयी इस दौरान लेकिन अख़बारों की सुर्खियां नहीं बन पायी. गौरतलब है कि 25 मार्च, 2020 से 30 अप्रैल, 2020 के बीच देश में 15 लोगों की मौत पुलिस द्वारा की गयी मारपीट के चलते हुयी थीं. इन्हीं 15 लोगों में से एक थे मध्य प्रदेश के खरगौन जिले के गोठानिया गांव के रहने वाले 65 साल के टीबू मेड़ा जिन्होंने पुलिस की मार खाते-खाते सड़क पर ही दम तोड़ दिया, लेकिन प्रशासन ने उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने के कारण बताया.

टीबू मेड़ा के परिवार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि चार अप्रैल की सुबह जब वो सामान लेने जाएंगे तो दुबारा ज़िंदा नहीं लौटेंगे. उस दिन टीबू अपने दामाद संजय डावर के साथ धार जिले में आने वाले गुजरी गांव खरीदारी करने गए थे. उनके गांव की दुकानों पर किराने के सामान की किल्लत थी जिसके चलते वो खरीदारी करने दूसरे जिले के गांव में गए थे.

उनके साथ उस दिन मौजूद संजय कहते हैं, "उस दिन मैं और मेरे ससुर के बड़े भाई (टीबू) गुजरी खरीदारी करने गए थे. हम बाज़ार में सामान खरीद रहे थे, उस वक़्त वहां मुश्किल से 20-25 लोग किराने का सामान और सब्ज़ी वगैरह खरीद रहे थे. तभी वहां पुलिस वालों की दो-तीन गाड़ियां आयीं और गाड़ियों से उतरते ही पुलिस वाले वहां मौजूद लोगों पर टूट पड़े. जैसे ही पुलिस ने लोगों को मारना- पीटना शुरू किया कि बाजार में भगदड़ मच गयी. पुलिस वाले मेरे ससुर टीबू मेड़ा को भी मार रहे थे. वो उस वक़्त दवाई की दुकान पर दवा खरीदने जा रहे थे. पुलिस वालों ने मुझे भी लाठियों से मारा. पुलिस वाले जहां मेरे ससुर को मार रहे थे, मैं वहां से लगभग 20 फ़ीट की दूरी पर था. चार पुलिस वाले उन्हें मारते ही जा रहे थे. तकरीबन पांच मिनट तक वो उनको लगातार मारते रहे. कुछ ही देर में उन्होंने दम तोड़ दिया. उसके बाद पुलिस वाले वहां से चले गए. बाद में लौटकर उन्हें गाड़ी में डालकर धामनोद के सामुदायिक स्वास्थ केंद्र पर ले गए."

टीबू मेड़ा के बेटे राजू मेड़ा बताते हैं, "मेरे पिताजी को ना ही दिल की कोई बीमारी थी ना ही उन्हें डाइबिटीज था. मेरे पिताजी की मृत्यु पुलिस द्वारा मार-पीट किये जाने की वजह से हुयी थी. उनके पीठ, कन्धों और जांघों पर चोटों के निशान थे. पुलिस की मार की वजह से उन्हें गंभीर चोटें लगी थीं जिसके चलते उन्होंने दम तोड़ दिया. पुलिस वालों ने उनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तक हमको नहीं दी. मैं जब स्वास्थ केंद्र पहुंचा तो मेरे पिताजी की लाश एक कोने में पड़ी थी. किसी पुलिस वाले ने हमें फ़ोन तक नहीं किया, वो तो वहां मौके पर मेरे जीजाजी मौजूद थे वरना हमें अपने पिता के बारे में पता ही नहीं चलता.” 

राजू आगे कहते हैं, "मेरे पिताजी के शव का पोस्टमॉर्टम तीन बजे हुए था लेकिन उसके पहले ही पुलिस वाले और डॉक्टर कह रहे थे कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुयी है और पोस्टमॉर्टम में भी उन्होंने यही लिखा. उनके शरीर पर गंभीर चोटों के निशान थे. डॉक्टर और पुलिस की मिली भगत है. उन्होंने हत्या के मामले को दिला का दौरा बता दिया ऐसा कभी नहीं होता कि पोस्टमॉर्टम के पहले ही पुलिस मौत का कारण बता दे.”

गौरतलब है कि टीबू मेड़ा उस दिन जब बाजार से सामान ले रहे थे तब लॉकडाउन में सुबह सात से नौ बजे तक की छूट दी गयी थी. यह छूट इसलिए दी जाती थी जिससे लोग उस दौरान सामान खरीद सकें. लेकिन बावजूद इसके पुलिस ने वहां बाजार में पहुंचते ही लोगों को मारना-पीटना शुरू कर दिया था. जिस वक़्त पुलिस टीबू को मार रही थी तब तकरीबन साढ़े सात बजे थे.

टीबू मेड़ा की मृत्यु के बाद उनके परिवार के लोगों ने इस मामले में पुलिस के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज कराने की बहुत कोशिश की, लेकिन धामनोद थाने में उनकी एफ़आईआर दर्ज नहीं हुयी. बाद में धार के तत्कालीन कलेक्टर ने सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) को इस मामले की जांच करने के आदेश तो दिए लेकिन हैरत इस बात की है की जांच में पुलिस के खिलाफ चश्मदीदों के बयान के बावजूद दिल के दौरे को टीबू मेड़ा की मृत्यु का कारण बता कर जांच बंद कर दी गयी.

गौरतलब है कि एसडीएम की जांच रिपोर्ट में मौके पर मौजूद दो चश्मदीदों गणेश भील और राधेश्याम भील के बयान के अनुसार पुलिस वालों ने जब लाठीचार्ज शुरू किया था तो लोगों के बीच अफरा-तफरी मच गयी थी. इस अफरा-तफरी में टीबू मेड़ा हाट से खरीदे हुए सामान को छोड़कर एक गली में भागे थे. भागते-भागते वो गली में ही गिर गए, लेकिन ज़मीन पर गिर जाने के बाद भी पुलिस उन्हें मार रही थी और मार खाते उन्होंने मौके पर ही दम तोड़ दिया था.  लेकिन इस मामले की जांच रिपोर्ट में पुलिस अधिकारी, सामुदायिक स्वास्थ केंद्र के डॉक्टर ने अपने बयानों में लिखवाया है कि टीबू मेड़ा की मौत दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुयी थी. एसडीएम दिव्या पटेल ने अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि टीबू मेड़ा पुलिस सायरन बजने से अपने आप डर कर भागा और घबराहट के कारण गली में चक्कर खाकर बेहोश हो गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी. गौरतलब है कि एसडीएम ने सिर्फ सात दिन में टीबू मेड़ा की मृत्यु की जांच कर घोषित कर दिया की उसकी मृत्यु दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुयी थी.

हालांकि टीबू मेड़ा का परिवार एसडीएम की इस जांच से बिल्कुल भी इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता है और इस जांच पर भरोसा नहीं करता है. मशहूर समाज सेवी और नर्मदा आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर ने भी इस जांच को लेकर सवाल उठाये हैं और इस मामले की निष्पक्ष जांच करने के लिए आवेदन दिया है.

मेधा पाटकर कहती हैं, "टीबू मेड़ा की मौत मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा की गयी एक गैर-कानूनी और आपराधिक काम है. टीबू एक सम्मानीय व्यक्ति थे और पिछले 20 सालों से पंचायत सदस्य थे. लॉकडाउन के दौरान सुबह सात से नौ के दरम्यान लोगों को सामान खरीदने की छूट दी गयी थी. उस दिन तय वक़्त के दरम्यान टीबू खरीदारी करने अपने दामाद के साथ मोटरसाइकिल पर आये थे. उन्हें अपनी पत्नी के लिए दवाई भी खरीदनी थी जिनका हाल ही में देहांत हो गया है. जब वो दवाई खरीदने जा रहे थे तब पुलिस की गाड़ियां वहां पहुंची और पुलिस वाले बिना किसी चेतावनी के लोगों को पीटने लगे. पुलिस ने इस दौरान टीबू और उनके दामाद के साथ भी मारपीट की. वो मार खाते-खाते गिर गए थे और उसी जगह उनकी मौत हो गयी थी. वहां लोग थे लेकिन कोई भी लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन नहीं कर रहा था फिर भी पुलिस उन्हें मार रही थी.”

मेधा आगे कहती हैं, "इस मामले में पुलिस ने जांच ही नहीं की. उन्होंने उनकी मौत का संज्ञान ही नहीं लिया. दंड प्रकिया सहिंता (सीआरपीसी) के तहत पुलिस को इस मामले का संज्ञान लेते हुए 24 घंटे के भीतर इस मामले की जांच शुरू कर देनी चाहिए थी. उस बाजार में मौजूद कुछ दुकानदारों ने भी एसडीएम की जांच में झूठे बयान दिए हैं. इस मामले में मैंने अपने आवदेन में टीबू मेड़ा की फोटो भी दी है जिसमे उनके शरीर पर चोट के निशान साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे हैं.”

मेधा इस पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर सवाल खड़ा करते हुए कहती हैं, “असल में एसडीएम की जांच सिर्फ खानापूर्ति करने के लिए की गयी है. सबसे अहम बात यह है कि पुलिस ने इस मामले में एफआईआर ही दर्ज नहीं की है. हमने एसडीएम से भी कहा था कि वो अपनी जांच रिपोर्ट में एफआईआर दर्ज नहीं करने की बात लिखें. इसकी जांच पुलिस के आला अधिकारियों को करनी चाहिए थी एसडीएम जांच की ज़िम्मेदारी सौपना ही गलत था. साफ़ तौर पर आरोपी पुलिस वालों को बचाने की कोशिश की जा रही है."

मेधा ने बताया इस मामले को लेकर राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग में भी शिकायत दर्ज कराई गयी है. वह कहती हैं, “लॉकडाउन के दौरान इस तरह के अत्याचारों की जांच करने के लिए एक विशेष समिति बनायी गयी है. उस समिति को इस मामले की पूरी तरह से जांच करनी चाहिए."  राजू मेड़ा कहते हैं, "मैंने धामनोद पुलिस थाने में भी मेरे पिता की हत्या की शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की थी लेकिन उन्होंने हमारी रिपोर्ट नहीं लिखी. हमने अब इंदौर उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर इस मामले की न्यायिक जांच की मांग की है. मेरे पिता की मौत के सदमे में मेरी मां का भी 18 अप्रैल को देहांत हो गया.”

पुलिस ने गुजरी के बाजार में जब गांव वालों के साथ मारपीट की थी, उस वक्त मौके पर धार के एसडीओपी (अनुविभागीय पुलिस अधिकारी) एनके कंसोठिया और धामनोद के थाना प्रभारी राजकुमार यादव वहां मौजूद थे. न्यूज़लॉन्ड्री ने जब धामनोद थाने की प्रभारी राजकुमार यादव से टीबू मेड़ा के परिवार की एफआईआर नहीं दर्ज करने को लेकर सवाल किया, तो उन्होंने कहा, "आपको इस मामले में इतनी रूचि क्यों है? हमने एफआईआर इसलिए दाखिल नहीं की क्योंकि पुलिस ने उन्हें मारा ही नहीं था. उनके साथ किसी ने भी मारपीट नहीं की. वह खुद ही गिर कर मर गए थे. उनके परिवार वाले कल यह बोल देंगे की आपने उनके पिता को जान से मारा है तो मैं क्या आपके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लूंगा. हम झूठी एफआईआर नहीं दर्ज करते."

जब हमने इस बारे में धार की एसडीएम दिव्या पटेल से बात की तो उन्होंने कहा, "मैंने जो भी सबूत इकट्ठा किया था, वहां के स्थानीय दुकानदारों के बयान लिए थे तो उनके मुताबिक़ टीबू को पुलिस ने नहीं मारा था. इसके अलावा पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी है जिसमें लिखा है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुयी थी. शव पंचनामे के अनुसार उनकी शरीर पर कोई भी निशान नहीं थे, अगर कोई निशान नज़र आते हैं तो वो बहुत देर तक स्ट्रेचर पर लिटाये जाने के चलते हुए होंगे. हालांकि न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद टीबू मेड़ा की स्वास्थ केंद्र में खींची हुई तस्वीरों में साफ़ दिखता है कि उनके शरीर पर लगी चोटों के निशान स्ट्रेचर पर लिटाये जाने से नहीं बल्कि मार-पीट किये जाने की वजह से लगे हैं."

 कॉमन वेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) नामक एक मानवाधिकार संस्था से जुड़े राजा बग्गा कहते हैं, "पुलिस की मार का शिकार होकर दम तोड़ चुके टीबू मेड़ा की मौत को पांच महीने से भी ज़्यादा बीत चुके हैं लेकिन पुलिस पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुयी है, बावजूद इसके कि उन्हें दिन दहाड़े भरे बाजार में पीट-पीट कर मार दिया था और इस घटना के चश्मदीद भी हैं."

बग्गा आगे कहते हैं, "हमने इस मामले में मई महीने में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से अपील की थी जिसके तहत आयोग ने एक जून को धार के पुलिस अधीक्षक से कहा था कि इस मामले में की गयी कार्रवाई की रिपोर्ट आयोग के सामने पेश की जाये. लेकिन तीन महीने बीत जाने के बावजूद भी पुलिस अधीक्षक धार ने आयोग को कोई रिपोर्ट नहीं भेजी. इस महीने की 22 तारीख को प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार के मुक़दमे में पुलिस सुधार (पुलिस रिफॉर्म्स) को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए ऐतहासिक फैसले को 14 साल हो जाएंगे, लेकिन आज भी पुलिस की स्थिति ज्यों की त्यों है."

सीएचआरआई से जुड़ी एक अन्य समाज सेवी देवयानी श्रीवास्तव ने बताया, "किसी भी संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस के लिए एफआईआर दर्ज करना कानूनन ज़रूरी हो जाता है. अगर पुलिस ने ऐसा नहीं किया है तो वह सरासर गलत है. हो सकता है कि उनकी मौत दिल के दौरे से हुयी हो लेकिन उनको दिल का दौरा पड़ा कैसे. हो सकता है पुलिस की मार की वजह से उनको दिल का दौरा पड़ा हो जिसका उल्लेख उन्हें दस्तावेज़ों में करना चाहिए. राष्ट्रीय मानावधिकार आयोग के दिशा निर्देशों के अनुसार पोस्टमॉर्टम की वीडियो ग्राफी करना और परिवार के किसी सदस्य की मौजूदगी में होना चाहिए. असल में क़ायदे तो बहुत हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका पालन नहीं होता है.

देवयानी कहती हैं, "2006 में उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिए थे कि हर जिले में पुलिस शिकायत प्राधिकरण होना चाहिए. लेकिन मध्य प्रदेश इस मामले में बहुत पीछे है. पुलिस शिकायत प्राधिकरण जैसी संस्था की भूमिका ऐसे मामलों में बहुत अहम हो जाती है क्योंकि अगर यह संस्था जिले में होती है तो पीड़ित पुलिस की शिकायत को लेकर उनके पास जा सकते थे."

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कई हिस्सों में प्रकाशित होने वाली कस्टोडिल डेथ इन इंडिया का यह तीसरा हिस्सा है. पहली और दूसरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 68 पाठकों ने योगदान दिया. यह अंजलि पॉलोड, सोनाली सिंह, डीएस वेंकटेश, योगेश चंद्रा, अभिषेक सिंह और अन्य एनएल सेनाके सदस्यों से संभव बनाया गया. हमारे अगले एनएल सेना बिहार इलेक्शन 2020 प्रोजेक्ट को सपोर्ट करें और गर्व से कहें 'मेरे खर्च पर आज़ाद हैं ख़बरें'.

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