चुनाव प्रचार के बीच भाजपा का नीतीश कुमार से दूरी बना लेने और एनडीए में जदयू को भाजपा से कम सीटें मिलने से नीतीश कुमार की प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं.
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के साथ आने के बाद ऐसा पहली बार होता है कि लोकसभा चुनाव में सीट शेयरिंग में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को भाजपा के मुकाबले कम सीट मिलती है. जिससे यह मैसेज साफ तौर पर जनता के बीच जाता है कि बिहार में एनडीए गठबंधन के लिए हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाने वाले नीतीश कुमार इस बार भाजपा के पीछे-पीछे चलेंगे. वहीं चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने गठबंधन में रहते हुए नीतीश कुमार से दूरी बना ली थी. करीब 2 हफ्तों तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह नीतीश कुमार के साथ मंच साझा करने से बचते रहे. इसके बाद बिहार के राजनीतिक गलियारों में कई तरह के सवाल उठने लगे. इसमें सबसे अहम सवाल यही था की क्या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं?
अब तक लोकसभा चुनाव के दो चरणों का मतदान हो चुका है. तीसरे के लिए चुनाव प्रचार जारी है. अगर बिहार की बात करें तो यहां पर तीन नेता ही मुख्य तौर पर स्टार प्रचारक हैं. एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री मोदी एवं नीतीश कुमार और इंडिया गठबंधन की तरफ से तेजस्वी यादव. इस इस रिपोर्ट में हम लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार के प्रभाव और प्रासंगिकता की पड़ताल करेंगे.
लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन में थे. तब उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की चर्चाएं जोर पकड़ रही थीं. यहां तक कि इंडिया गठबंधन को बनाने में नीतीश कुमार ने अहम भूमिका निभाई और गठबंधन की पटना में पहली रैली भी तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार ने कराई. इतना ही नहीं बिहार में जाति आधारित गणना करा कर पूरे विपक्ष को ओबीसी का मुद्दा दिया. जिसे बाद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बढ़-चढ़कर आगे बढ़ाया. लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन को छोड़कर एनडीए में शामिल हो जाते हैं. साथ ही बिहार में तेजस्वी यादव के साथ गठबंधन अलग हो जाते हैं और भाजपा के साथ मिलकर नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हैं.
पिछले तीन दशक से बिहार की राजनीति लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूम रही है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव दोनों ही जेपी आंदोलन से निकले और लोहियावादी विचारधारा को मानने वाले हैं. लेकिन आज लालू प्रसाद यादव की छवि अपने स्टैंड पर कायम रहने और सांप्रदायिक ताकतों से कभी समझौता न करने वाले नेता की है. जबकि नीतीश कुमार की छवि बार-बार स्टैंड बदलने वाले और समझौतावादी नेता की बन गई है. जिसका असर जमीन पर भी दिख रहा है. इसलिए सवाल यह भी है कि जो वोटर नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि से प्रभावित होकर उन्हें वोट करता था, क्या वह अब नया विकल्प तलाश रहा है?
एक तरफ अपनी राजनीतिक सूझबूझ से भले ही नीतीश कुमार 2005 से लेकर अब तक बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं लेकिन दूसरी तरफ उनके पार्टी का वोट शेयर लगातार घट रहा है. यानी पार्टी की जनता पर पकड़ कमजोर हो रही है. क्या नीतीश के कोर वोटर माने जाने वाले अति पिछड़ा महादलित और महिला वोटर धीरे धीरे दूर हो रहें हैं? अगर दूर हो रहे हैं तो किसके पास जा रहे हैं भाजपा या राजद?
एक और गौर करने वाली बात है कि दो चरणों का मतदान हो चुका है लेकिन नीतीश कुमार अभी तक बिहार में चुनाव प्रचार का थीम नहीं सेट कर पाए हैं. ना ही कोई मुद्दा खड़ा कर पाए हैं. उनके भाषण 2005 के पहले के बिहार और 2005 के बाद के बिहार पर आधारित हैं. मुद्दों की बात करने की बजाय वह तेजस्वी यादव पर व्यक्तिगत हमले कर रहे हैं. जिसकी वजह से उनके रैलियों में उत्साह नजर नहीं आता है.
हमने बिहार में नीतीश कुमार की प्रासंगिकता, उनके वोटबैंक का रुझान और एनडीए गठबंधन में उनकी स्थिति की पड़ताल की है. देखिए हमारी यह वीडियो रिपोर्ट.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
ContributeGeneral elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?